रविवार, 29 सितंबर 2019

माँ - १ : द्यौ: माता पृथिवी

दीप्त आकाशीय द्यौ: ऋग्वेद में पिता से अधिक माता है, पृथिवी के बिना तो यह शब्द प्रदीप्त आकाश अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। द्यौ व पृथिवी समस्त पादप व जंतु संसार के जनक हैं - 
मिस्र 

मही । द्यावापृथिवी इति । इह । ज्येष्ठे इति । रुचा । भवताम् । शुचयत्भिः । अर्कैः । यत् । सीम् । वरिष्ठे इति । बृहती इति । विमिन्वन् । रुवत् । ह । उक्षा । पप्रथानेभिः । एवैः ॥
देवी इति । देवेभिः । यजते इति । यजत्रैः । अमिनती इति । तस्थतुः । उक्षमाणे इति । ऋतवरी इत्यृतवरी । अद्रुहा । देवपुत्रे इति देवपुत्रे । यज्ञस्य । नेत्री इति । शुचयत्भिः । अर्कैः ॥



दोनों ही देवी मातायें हैं -
ते । हि । द्यावापृथिवी इति । मातरा । मही । देवी । देवान् । जन्मना । यज्ञिये इति । इतः । उभे इति । बिभृतः । उभयम् । भरीमभिः । पुरु । रेतांसि । पितृभिः । च । सिञ्चतः ॥
द्यौ: माता -
जापान 

पुनः । नः । असुम् । पृथिवी । ददातु । पुनः । द्यौः । देवी । पुनः । अन्तरिक्षम् । पुनः । नः । सोमः । तन्वम् । ददातु । पुनरिति । पूषा । पथ्याम् । या । स्वस्तिः ॥
द्यौ का पिता रूप इंद्र के पुत्र रूप में भी है। इंद्र ने अपने माता पिता को जन्म दिया -
जनिता । दिवः । जनिता । पृथिव्याः । पिब । सोमम् । मदाय । कम् । शतक्रतो इति शतक्रतो । यम् । ते । भागम् । अधारयन् । विश्वाः । सेहानः । पृतनाः । उरु । ज्रयः । सम् । अप्सुजित् । मरुत्वान् । इन्द्र । सत्पते ॥
के । ऊँ इति । नु । ते । महिमनः । समस्य । अस्मत् । पूर्वे । ऋषयः । अन्तम् । आपुः । यत् । मातरम् । च । पितरम् । च । साकम् । अजनयथाः । तन्वः । स्वायाः ॥
द्यौ: देवी जननी -
मिमातु । द्यौः । अदितिः । वीतये । नः । सम् । दानुचित्राः । उषसः । यतन्ताम् । आ । अचुच्यवुः । दिव्यम् । कोशम् । एते । ऋषे । रुद्रस्य । मरुतः । गृणानाः ॥
और द्यौ देवी अदितिमाता के साथ साथ माता हुआ - 
द्यौ: अदिति:
विश्वा । हि । वः । नमस्यानि । वन्द्या । नामानि । देवाः । उत । यज्ञियानि । वः । ये । स्थ । जाताः । अदितेः । अत्भ्यः । परि । ये । पृथिव्याः । ते । मे । इह । श्रुत । हवम् ॥
येभ्यः । माता । मधुमत् । पिन्वते । पयः । पीयूषम् । द्यौः । अदितिः । अद्रिबर्हाः । उक्थशुष्मान् । वृषभरान् । स्वप्नसः । तान् । आदित्यान् । अनु । मद । स्वस्तये ॥
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नवरात्र में माता के ९ संकेत। अगले अंक में देवमाता अदिति।
चित्र विविध सभ्यताओं में अंतरिक्ष आधारित माता के विविध रूप दर्शाते हैं।

रविवार, 15 सितंबर 2019

शाक साग वनस्पति भाजी सब्ज़ सब्ज़ी व आहार


गाँव गिराम से ले कर नगर तक 'उत्त भदेस' में 'भाजी' हेतु 'सब्ज़ी' शब्द का 'मूसलाधार' प्रयोग हमारी पीढ़ी में आरम्भ हुआ तथा बपुरा 'भाजी' शब्द पहले 'शाक' 'साग' हेतु रूढ़ हुआ एवं आगे प्राय: प्रयोगबाह्य हो गया। 

पारसी भाषा में 'सब्ज़' हरे (ताजे एवं भले भी) अर्थ में प्रयुक्त है। सब्ज़ी वही होगी जो 'हरी' हो अर्थात आलू की 'सब्ज़ी' नहीं हो सकती। इसके विपरीत यदि औषधि, वनस्पति आदि शब्दों के आयुर्वेदिक पारिभाषिक अर्थ न ले कर प्रचलित अर्थ लें तो वनस्पति शब्द पादप या पादपस्रोत अर्थ में चलता है। पौधा पादप से ही है। जो पाद अर्थात पाँव एक ही स्थान से बद्ध किये हो, स्थित स्थावर जिसमें गति न हो। 

भाजी शब्द वनस्पति से है, लोकसंक्षिप्ति। इसका प्रयोग पुन: आरम्भ करें क्यों कि यह आलू से ले कर पालक तक, सबके लिये उपयुक्त होगा। आप का अपना शब्द है, पर्सिया फारस से आयातित नहीं जिसने अपनी सभ्यता आक्रांता अरबी के बान्हे रख दी! 

भाजी शब्द प्रयोग न तो पिछड़े होने का चिह्न है, न ही सब्जी प्रयोग से आप सभ्य नागर हो जाते हैं। 

शाकाहार अपनायें, स्वस्थ रहें किंतु साग का उसके 'मांस' सहित प्रयोग अल्प करें क्यों कि आयुर्वेद इसे पशुमांस समान ही गरिष्ठ बताता है। सूप लें।

यहाँ शाकाहार मांसाहार का युद्ध आरम्भ न करें। आहार का सम्बंध परिवेश, सभ्यता, संस्कृति, उपलब्धता, मूल्यदक्षता, मान्यताओं आदि से है।
बृहद हिंदी क्षेत्र हेतु शाकाहार पर्याप्त उपलब्ध है, पोषक है, मूल्यदक्ष है, धरा के स्वास्थ्य हेतु भी उत्तम है, अत: पथ्य है। 
वैविध्य बनाये रखें। जिन भाजियों को पिछड़ा मान कर आप छूते तक नहीं, उनमें अनमोल तत्व हैं। प्रयोगधर्मी बनें, भारत के अन्य प्रांतों का शाकाहार अपनायें, टन के टन टमाटर उदर में हूरना व भखना तो आप ने विदेशियों से सीखा न, वे तो अपने हैं! 
सदैव ध्यान रखें कि खाद्यविशेष का चयन उसकी गुणवत्ता से करना होता है। कोई खाद्य न पिछड़ेपन का चिह्न होता है, न आभिजात्य का। जिन कोदो, मड़ुवा, साँवा, टाङ्गुन, जौ आदि को आप मोटा अन्न एवं पिछड़ा मान कर त्याग दिये, थरिया भर भर भात एवं तीन समय गेहूँ की रोट्टी सोट्टी खा स्थायी रूप से अपानवायूत्सर्जन के रोगी हो गये; उन्हीं मोटो झोटों को अब नागर अभिजन Organic Stores से चौगुने मूल्य में ले कर धन्य धन्य हो रहे हैं। आप खेती करते हैं तो उनकी बुवाई करें, मोटा अन्न, मोटा दाम। 
हाँ, टमाटर सांस्कृतिक संकट भी है। अपने व्यञ्जनों से इसके प्रदूषण को शनै: शनै: हटा ही दें। मुआ बचा रह गया अंग्रेज है!

शनिवार, 7 सितंबर 2019

चंद्रयान 2 : आकाश देखें, आसमान नहीं ... क्षितिज निहारिकाओं से भी आगे है!

रश्व(1) निरभ्र(2) स्थिति में देखा था, चंद्र को गुरु के निकट जाते हुये। कल नभ(3) स्थिति थी, नहीं दिखे किंतु पिछले प्रेक्षण से जान गया था कि बहुत निकट पहुँच चुके होंगे, ज्येष्ठा नक्षत्र(4) पर एक साथ, जिसके देवता ज्येष्ठराजा इंद्र हैं। वस्तुत: दोनों एक दूसरे से बहुत दूर हैं, भिन्न संसार के वासी, किंतु हमें आकाश में जैसा धरती से दिखता है, कहते हैं। नभ स्थिति पर मन में एक आशङ्का ने सिर उठाया जिसे मैंने झटक दिया।
घरनी सङ्गिनी ने पूछा कि आज तो चंद्रयान वहाँ उतरने वाला है, मैंने हूँ हाँ कर के बात टाली दी। प्रात: चंद्रतल से २.१ किलोमीटर ऊपर मृदु-अवतरण के चरण में 'विक्रम' घटक से सम्पर्क टूट जाने का दु:खद समाचार मिला।

मैंने लिखा है आकाश देखें, आसमान नहीं। इन शब्दों का अंतर बहुत महत्त्वपूर्ण है। आकाश हमारी जातीय परम्परा का शब्द है जिसमें प्र'काश' निविष्ट है। आसमान विदेशी स्रोत का शब्द है जिसकी सङ्गति अश्म से बैठती है - पत्थर, जड़, औंधे कटोरे सा ऊपर धरा। दृष्टि का अंतर है।
सीमाओं के होते हुये भी यह आत्मविश्वास से भरा भारत है जिसका ढेर सारा श्रेय उस 'पंतप्रधान' को जाता है जो अप्रतिहत ऊर्जा, कर्मठता, समर्पण एवं निश्चय का स्वामी है, जो गहराती रात में भी वैज्ञानिकों के साथ उनका उत्साह बढ़ाता वहाँ उपस्थित था। यह वह भारत है जो दुर्घटनाओं पर वक्षताड़न करता रुकता नहीं है, उपाय कर आगे बढ़ लेता है। आश्चर्य नहीं कि जनसामान्य भी कल रात जगा हुआ था। ऐसे अवसर एक कर देते हैं।
पुरी के शंकराचार्य की प्रक्षेपण पूर्व 'आशीर्वाद यात्रा' हो या प्रक्षेपित होते चंद्रयान को उत्सुकता के साथ निहारते सद्गुरु जग्गी वासुदेव; पुरी के प्रवक्ताओं की हास्यास्पद कथित वैदिक गणितीय बातों के होते हुये भी, धर्म व आध्यात्म से जुड़े गुरुओं का इस अभियान से जुड़ाव ध्यातव्य है। सामान्य घरनी से ले कर धर्मपीठ तक चंद्रयान अभियान ने समस्त भारत को जोड़ दिया। तब जब कि विघटनकारी शक्तियों का वैचारिक विषतंत्र अपने उच्च पर है, राष्ट्र को एक सूत्र में जोड़ता ऐसा कोई भी अभियान अभिनंदन योग्य है। लखनऊ से ले कर बंगलोर तक, पूरब से ले कर पश्चिम तक, समस्त भारतभू से आते वैज्ञानिक इस अभियान में लगे। त्वरित उद्गार एवं सामाजिक सञ्चार तंत्र के इस युग में यह वह समय भी है जब गोद में पल रही भारतद्वेषी एवं भारतद्रोही शक्तियाँ नग्न भी होंगी, कोई सूक्ष्मता से कलुष परोसेगा तो कोई स्थूल भौंड़े ढंग से, नंगे वे सब होंगे। ऐसे अवसरों का भरपूर उपयोग तो होना ही चाहिये, इन्हें भविष्य हेतु चिह्नित भी कर लिया जाना चाहिये।
क प्रश्न उठता है कि इसरो को चंद्रयान प्रेषित करने हेतु इतने लम्बे समय एवं जटिल प्रक्रिया की आवश्यकता क्यों पड़ी? बहुत सरल ढंग से कहें तो इस कारण कि हमारे पास अभी भी उतनी शक्तिशाली प्रणोदयुक्ति नहीं है जो सीधे चंद्रमा पर उतार दे। वर्षों पहले क्रायोजेनिक इञ्जन का परीक्षण हुआ था किंतु आगामी वर्षों में जो उपलब्धि मिल जानी चाहिये थी, नहीं मिली। वास्तविकता यह है कि हार्डवेयर के क्षेत्र में हम अभी पीछे हैं। उस पर काम किया जाना चाहिये। आशा है कि इस घटना के पश्चात शक्तिशाली प्रणोद युक्ति के विकास पर ठोस काम किया जायेगा।
सीमित हार्डवेयर के होते हुये इस अभियान में जो प्रक्रिया अपनाई गई, उसके द्वारा चंद्र के इतना निकट पहुँचा देना अपने आप में महती उपलब्धि है तथा प्रतिद्वन्द्वी महाशक्तियाँ मन ही मन ईर्ष्या कर रही होंगी।
इस प्रक्रिया में गुरुत्वाकर्षण एवं प्रणोद का सम्मिलित उपयोग किया जाता है। यान को पहले धरती की परिक्रमा करते हुये संवेग प्राप्त कराया जाता है। मोटा मोटी प्रक्रिया को कुछ कुछ वनवासी गोफन से समझा जा सकता है, जिसमें वे अपने यंत्र में पत्थर रख कर घुमाते घुमाते उसे संवेग देते हैं तथा उपयुक्त समय पर, पर्याप्त गति प्राप्त कर लेने पर छोड़ देते हैं।
निश्चित संवेग की वह मात्रा हो जाने पर जब कि यान पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से मुक्त हो कर चंद्र की कक्षा तक पहुँचने योग्य हो जाता है, उसे धक्का दे पृथ्वी के आकर्षण से मुक्त कर दिया जाता है तथा वह आगे चंद्र के गुरुत्व के आकर्षण में उसके 'उपग्रह' समान हो जाता है। परिक्रमा करते यान से प्रेक्षकयन्त्र युक्त घटक चन्द्र धरातल पर उतारा जाता है। यह प्रक्रिया भी चरणबद्ध होती है। पूरी प्रक्रिया बहुत ही जटिल, सूक्ष्म एवं परिशुद्ध गणना एवं कार्रवाई की माँग करती है। कोण में या समय में सेकेण्ड की विचलन या विलम्ब भी यान को सदा सदा के लिये अंतरिक्ष में व्यर्थ यायावर बना सकते हैं।           
असफलता में भी ऐसा बहुत कुछ है जो भासमान है। हम सक्षम हैं, सीमित हार्डवेयर के होते हुये भी हमने पूर्णत: देसी तकनीक से वह कर दिखाया है जो हार्डवेयर सक्षम देश कर पाते हैं, असफलतायें तो लगी ही रहती हैं।
अमेरिका का अपोलो १३ न भूलें जब कि उससे पूर्व के सफल अभियान अनुभव होते हुये भी एक चूक ने असफलता के साथ साथ यात्रियों के प्राण भी संकट में डाल दिये थे तथा उन्हें जीवित लौटा लाने की प्रक्रिया में बहुत कुछ सीखने को मिला।
न भूलें वह घटना जब कि विण्डोज के नये संस्करण के लोकार्पण को मञ्च पर चढ़े बिल गेट्स को कुछ ही मिनटों में असफलता के कारण उतरना पड़ा था। माइक्रोसॉफ्ट रुका नहीं, आगे बढ़ गया।
इस अभियान को धन का नाश बताते हुये रोटी एवं निर्धनता को रोते जन को जानना चाहिये कि ऐसे अभियानों की ऐसी सैकड़ो पार्श्व उपलब्धियाँ होती हैं जो जन सामान्य के कल्याण में काम आती हैं। ये भविष्य में एक निवेश की भाँति भी होते हैं।
सफलता नहीं उपलब्धियाँ देखें। अंधकार नहीं, उस प्रकाश पर केंद्रित रहें जो भेद दर्शा रहा है। जड़ नहीं चैतन्यबुद्धि बनें। आसमान नहीं, आकाश देखें! उड़ाने आगे भी होंगी।
हमारा क्षितिज निहारिकाओं के पार तक पसरा है और हमारी गुलेलें, हमारे गोफन भी समर्थ हैं!
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शब्द : 
(1) - परश्व - परसो 
     
(2),(3),(4) - अभ्र कहते हैं बादल को, निरभ्र अर्थात जब बादल न हों, आकाश में नक्षत्र दिख रहे हों। भ को भासमान, प्रकाशित से समझें, चमकते नक्षत्र पिण्ड आदि। नभ अर्थात भ नहीं, जब बादल हों तथा नक्षत्र आदि न दिख रहे हों। जिस पथ पर सूर्य वर्ष भर चलता दिखाई देता है उसे क्रान्तिवृत, भचक्र नाम दिये गये हैं तथा उसका कोणीय विभाजन २७ भागों में किया गया है जिससे कि धरती से देखने पर ज्ञात होता है कि कौन से भाग 'नक्षत्र' में सौर मण्डल के सदस्य ग्रह, उपग्रहादि हैं। नक्षत्र का एक अर्थ न क्षरति जिसका क्षरण न होता हो, है अर्थात जो बने रहते हों। चंद्रमा धरती की परिक्रमा २७+ भू-दिनों में करता है। आकाशीय कैलेण्डर के सबसे चलबिद्धर पिण्ड चंद्र की दैनिक गति के प्रेक्षण हेतु ही २७ विभाग किये गये थे जिन्हें आलंकारिक रूप में कहा गया कि उसकी २७ पत्नियाँ हैं जिनके साथ वह एक एक रात बिताता है। 

शुक्रवार, 23 अगस्त 2019

मैं मैं ही हूँ



जानते हो?
मेरे पाँव तले अनन्त काल शेष रह जाता है।
जानते हो?
वह नाद जिस पर नृत्य कर रही निहारिकायें, नक्षत्र, विवर, सूर्य, ग्रह, चन्द्र,
जिसकी प्रतिध्वनि ही काल की सीमा है,
वह उस कइन की पोर में एक साँस मात्र है जिससे,
तुम्हारा यह कान्ह उस गइया को हाँकता है जिसे तुम भूमा कहते हो!
जानते हो?है वसुन्धरा का वसु मेरी छिंगुरी पर टँगे भूधर में,
जिसे निज कर से बरसाती लक्ष्मी ने,
बना रखा है सृष्टि को निज भ्रूविलास का विषय।
जानते हो?
मैं अनन्तशायी हूँ।
अनन्त कुछ नहीं, यश:दा यशोदा के स्तनों से झरते
क्षीरसर का पान करते
मेरे मन का है ठाँव मात्र।
मैं मैं ही हूँ!

रविवार, 4 अगस्त 2019

Met Museum New York Vishnu-s न्यूयॉर्क संग्रहालय के दो विष्णु

(१) केशव 
केशव Keshava
विष्णु के विविध रूप नाम चार हाथों में चार अस्त्रों/उपादानों के क्रम से आते हैं। यह केशव रूप है। न्यूयॉर्क संग्रहालय The Met, 1000 Fifth Avenue, New York, NY 10028 में स्थित इस प्रतिमा का विवरण इस प्रकार है :
Artist:Dasoja of Balligrama
Period:Hoysala period
Date:first quarter of the 12th century
Culture:India (Karnataka, probably Belur)
Medium:Stone
Dimensions:H. 56 1/2 in. (143.5 cm); W. 28 in. (71.1 cm); D. 9 1/4 in. (23.5 cm)
Classification:Sculpture
Credit Line:Rogers Fund, 1918
Accession Number:18.41
दशावतार विकास के अनेक चरण रहे हैं तथा दक्षिण भारत का इसमें योगदान अधिक रहा। साम्प्रदायिक आग्रह, मतभेद, श्रेष्ठता की भावना आदि के कारण दाशरथि राम के पश्चात तथा वराह के पूर्व के क्रम एवं उपस्थिति, दोनों में विविधता रही। आज जो मान्यता है उसमें वराह, नृसिंह, वामन, दाशरथि राम एवं कल्कि को ले कर कभी समस्या नहीं रही।
मत्स्य, कूर्म, जामदग्न्य राम, संकर्षण राम, बुद्ध; इन पाँच को लेकर समस्यायें हैं जो कृष्ण को मिला कर जटिल हो जाती हैं। 
१३०० वि. का यह केशव विष्णु शिल्प होयसल राजाओंं के समय का है। यह बल्लिग्राम के दसोजा नामक शिल्पकार द्वारा निर्मित है। 
ऊपर पाँच पाँच कर दशावतार दिये गये हैं। दाशरथि राम के पश्चात हलधर संकर्षण राम, तब परशुधारी जामदग्न्य राम, तब बुद्ध एवं सबसे अंत में कल्कि हैं। श्रीकृष्ण को सर्वोच्च मान कर केशव में ही समाहित माना गया है अर्थात यह एक विशेष वैष्णव सम्प्रदाय से सम्बंधित कृति है। उल्लेखनीय है कि राम जामदग्न्य संकर्षण राम के पश्चात दर्शाये गये हैं तथा बुद्ध दशावतार में हैं।

(२) महाविष्णु 
महाविष्‍णु Mahavishnu
महाविष्णु। तोमर काल। वर्तमान के पञ्जाब, हरयाणा एवं दिल्ली क्षेत्र। प्रतिमा अब न्यूयॉर्क संग्रहालय में, विवरण इस प्रकार है : 
Date:10th–11th century 
Culture:India (Punjab)
Medium:Sandstone 
Dimensions:H. 43 1/2 in. (110.5 cm); W. 25 5/8 in. (65.1 cm); D. 10 in. (25.4 cm) 
Classification:Sculpture 
Credit Line:Rogers Fund, 1968
Accession Number:68.46
विचार करें कि प्रतिमा किसी मन्दिर में ही रही होगी। कहाँ गया वह मन्दिर? उत्तर भारत के प्राय: समस्त बिखरे महालय मुसलमानों ने नष्ट कर दिये, उन पर मजार, मकबरा, मस्जिद बना दिये। परमर्दिदेव द्वारा निर्मित एवं जयपुर शासकों द्वारा परिवर्द्धित वह मन्दिर एक उदाहरण मात्र है जिसे आज ताजमहल कहते हैं।लोद़ियों से ले कर हुमायूँ के मकबरे तक, किसी की भी खुदाई हो, मन्दिर अवशेष मिलेंगे। भूचुम्बकीय सर्वेक्षण से भी जाना जा सकता है।
सभी बड़े मन्दिर शिक्षा के केन्द्र भी हुआ करते थे। अग्रहार या ग्रामदेय व्यवस्था के कारण शिक्षक वृत्ति हेतु शासन पर निर्भर नहीं रहता था तथा धर्मानुशासन उसे नियन्त्रण में रखता था, न कि आज के सब धान २२ पसेरी जैसा दण्डविधान।
सब समाप्त हो गया। आज इन क्षेत्रों की अधिकांश जनसंख्या अर्द्ध व्यञ्जन का उच्चारण तक नहीं कर पाती!
समझें कि शिक्षा एवं संस्कृति की लड़ी जब विछिन्न होती है तो युगीन दुर्घटनायें होती हैं। पीढ़ियाँ भ्रष्ट हो अपनी ही शत्रु हो जाती हैं।
कश्मीरी पत्थरबाजों के पुरखे सिकन्दर बुतशिकन के पूर्व वाजश्रवाओं के तुल्य होते थे।
शारदा देवी को आप वीणावादिनी तक सीमित जानते हैं। वृत्रहन्ता वाजिनी सरस्वती का वास्तविक रूप कश्मीर में सुरक्षित था।
... सब नष्ट हो गया।