मोरी अटरिया पर बोले कागा - सुना होगा आप ने!
लोकगीतों में वनवासी राम को अगोरती कौशल्या सूचना देने वाले जिस पक्षी की चोंच को सोने से मढ़वाने की बात करती हैं, वह कागा मेरे इलाके में नहीं दिखता जब कि यहाँ पर्याप्त हरियाली है। प्रात: चिड़ियों की चहचह है लेकिन वह कर्ण मधुर काँव काँव नहीं है। एक दो महीने से ही नोटिस कर रहा हूँ। शायद पहले भी...
बहुत पहले गाँव से पहली बार जब प्रयाग गया था तो ध्यान में आया था कि कौवों का एक दूसरा प्रकार भी होता है जिनमें गले के आसपास काला नहीं धूसर रंग होता है जब कि अपने गाँव मैंने पूर्ण काले कौवे देखे हैं। बहुत तलाशा लेकिन नेट पर भी पूर्ण काले कौवे का चित्र नहीं मिला। स्मार्ट भैया को धन्यवाद - Raven बताने के लिए। देखिए ये रहा शुद्ध कृष्ण काग:
श्रीमती जी कहती हैं कि नर मादा का अंतर है लेकिन वीकी का यह नीचे का चित्र और ही कहानी कह रहा है:
अब तो कोई भी प्रकार नहीं दिख रहा!
गए कहाँ कौवे? आप को पता हो तो बताइए।
इनकी अंतरराष्ट्रीय संरक्षण श्रेणी Least Concern (IUCN 3.1) बताई गई है मतलब कि इनको खतरा हो सकता है, इस बारे में सोचना भी नहीं है! माजरा क्या है?
जरा घर से बाहर निकलिए और बताइए तो आप के आस पास कौवे दिख रहे हैं क्या?
सभी तो उसको ुड़ाते रहते हैं, बेचारा बचेगा कहाँ से।
जवाब देंहटाएं* उड़ाते
जवाब देंहटाएंगिरिजेश जी, कौओं के विलुप्त होने की प्रक्रिया कई वर्षों पहले प्रारम्भ हो चुकी है. आपको हाल से दिखने बंद हुए हों किंतु हमारे इधर कई वर्षों से लापता या बहुत ही कम दिखाई देते हैं. हमारे बिहार में, उन दो कौओं (चमकीला काला और धूसर गले वाला) में विभेद की दृष्टि से पहले वाले को काग और दूसरे को कौआ कहते हैं. अब यह तो प्राणिशास्त्र के ज्ञाता बता सकते हैं, किंतु हमें बताया जाता था कि काग वास्तव में काना हुआ करता है. इसी कारण वह पूरी गर्दन घुमाकर देखता है.
जवाब देंहटाएंवैसे आपका अवलोकन सही है, इसलिए ऊपर के अनुच्छेद में जहाँ भी वर्तमान काल का शब्द “है” प्रयुक्त हुआ है उसे भूतकाल का शब्द “थे” पढ लेंगे!
@ सम्वेदना के स्वर
जवाब देंहटाएंमहत्त्वपूर्ण जानकारी। आभार। जान कर दु:ख भी हो रहा है।
जाने अंतरराष्ट्रीय रेटिंग का क्या माजरा है। Least Concern?
सारे कौवे तो इधर ही चले आये हैं और एक बेसुरी कोयल को लेकर कर्कश कांव काँव कर रहे हैं तो उधर दिखेगें कहाँ ?
जवाब देंहटाएंआयी मीन वाह्य जगत के कौवे अंतर्जगत में घुस पड़े हैं ....बाहर सन्नाटा अन्दर घमासान
यह तो मजाक की बात हुयी ,आपकी पोस्ट सहसा चौकाती है ....इधर मैंने भी उनका टोटा देखा है आस पास ..अब जरा आज से गंभीर प्रेक्षण में लगता हूँ ..
पूरी तरह से कला कौवा जंगल कौवा है जो मानव आब्दी से प्रायः दूर रहता है मगर कभी कभार दिखता भी है ,कंठी वाला कौवा हाउस क्रो है जिसे ही मैंने काक भुसुन्डि का नाम दिया है ..बाबा तुलसी ने इसी को ही देख कर अपने उस महान काग चरित्र की कल्पना की होगी .....
मेरी कहानी अन्तरिक्ष कोकिला पढी या नहीं ,एक और क्रौंच वध आपके पास तो है न ? नहीं तो जाकिर से मांग लीजिये ...
वाकई में कौवे गायब हैं गिरिजेश भाई !
जवाब देंहटाएं६-७ साल पहले छत पर अक्सर आते थे अब तो पूड़ी लेकर ढूँढ़ते रहते हैं फिर थक कर मुंडेर पर रखकर चले आते हैं कि शाम तक कोई आएगा ही !
कभी हम भी कौवे जैसे विलुप्त हो जायेंगे ...
बढ़िया ध्यान दिलाती पोस्ट, मगर करें क्या ??
अरे पर गोवा मे तो कौवे ही कौवे है। सुबह और शाम को आप किसी पेड़ से सुरक्षित निकल जाए तो गनीमत समझिये। :)
जवाब देंहटाएंऔर इस पर हमने एक पोस्ट भी लिखी थी। साथ मे लिंक भी दे रहे है। :)
http://mamtatv.blogspot.com/2008/10/blog-post.html
कौवों को लेकर बहुत कुछ साहित्य में, गीतों में, लिखा गया है।
जवाब देंहटाएंपंचतंत्र में कौवे और लोमड़ी के बीच की रोटी गाथा हो या गदर फिल्म के बोल - आजा काले कांवां ... तेरे मुँह विच्च खंड पांवां...
तमाम जगह कौवों को लेकर ढेरों बातें मिलती हैं।
बहुत अलग किस्म का विषय।
सालों पहले अक्सर यहाँ वहां दिखने वाले बहुत से पक्षी अब विलुप्त हो रहे हैं जिनमें कौवे और गिद्ध की घटती संख्या पर्यावरणविदों के लिए चिंता का विषय बन गयी है.
जवाब देंहटाएंपहले चमकीला काला कौवा अक्सर देखा जाता था.खासकर श्राद्धों में ये खूब दिखाई देते थे.
धूसर गले वाला आखिर कब देखा था याद नहीं.
हुज़ूर-ए-आला मुहब्बतनामे के तिलस्म से बाहर आकर विचरियेगा तो बहुत दिखेंगे :)
जवाब देंहटाएंआपने Law of conservation तो सुना ही होगा. कौओं की कुल संख्या तो निश्चित है. अब मानव समाज में कौवे बढ़ेंगे तो फल तो पक्षी समाज को ही भुगतना पड़ेगा. वैसे बड़ा सही है आपका अवलोकन कौवों के बारे में!
जवाब देंहटाएंhttp://draashu.blogspot.com
कीट नाशको का अत्यधिक उपयोग कई पक्षियों के विलुप्त होने का कारण बन रहा है
जवाब देंहटाएंहमारे यहाँ भी गायब हो गए थे लेकिन पिछले ३/४ महीनों से कुछ दिखने लगे हैं.
जवाब देंहटाएंपंडित जी ने पितृ पक्ष में कोओं के लिए एक ग्रास निकल कर दिया था..... जा बेटा ये कोओं को खिला दियो.......... मिले तो बहुत थे पर पूर्णत काले नहीं थे.... मेरी जानकारी के अनुसार कोयल ही पूर्णत काली होती है....... मेरे पार्क में तो बहुत कोव्वे हैं.... जरा और गौर करूँगा...
जवाब देंहटाएंऔर हाँ....
एक टिप्पणी और आ गई......... एक बालक पर जो बाद में इंटर कॉलेज का प्रवक्ता बना ...
"सारा दिन तो खेत में कोव्वे उड़ाता है ... पढ़ेंगा कब.."
अब विरहग्रसित नायिकाएँ कहती ही नहिं, "कागा सब तन खाईयो चुन खाईयो मांस"
जवाब देंहटाएंकौवो का जीवन आधार तो खत्म ही हो गया ना? :)
वैसे इस प्रजाति की चिंता वाज़िब है।
खेतों में अत्याधिक कीटनाशकों के उपयोग से पक्षी प्रजाति धीरे धीरे विलुप्त हो रही हैं .... इस वर्ष पितृ पक्ष में जबलपुर शहर में अत्यधिक संख्या में कौए देखे गए हैं ....
जवाब देंहटाएंगिरिजेश जी,
जवाब देंहटाएंअसल में पूर्ण काला कौवा पहाडी कौवा होता है। हिमाचल में कुल्लू के आसपास यह बहुतायत में पाया जाता है। मैदान में धूसर गर्दन वाले ही होते हैं।
हां, कभी-कभी खासकर जाडों में पहाडी कौवे मैदानों में प्रवास करने आ जाते हैं।
हाँ जी, हमारे आसपास दोनों तरह के कौवे बहुतायत में दिखते हैं। घर के लॉन के एक बडे ओक के पेड में सबसे ऊंचा घोंसला कौवों का ही है। अब जब पतझड आ गया है और घोंसले एक्स्पोज़ हो गये हैं यह घोंसला बाज़-चीलों की नज़र में आ जायेगा तो हर साल की तरह इस साल भी कौवोंके झुंड या अकेली माँ अपनी जान पर खेलकर चिल्ला-चिल्लाकर इन गुंडों को नोच-नोच कर मीलों दूर भगाती नज़र आयेंगी। [भाभीजी से क्षमायाचना सहित - ये दोनों कौवों की अलग जातियाँ हैं]
जवाब देंहटाएंक्रो/रेवन्
जवाब देंहटाएंहमारा गाँव न तो पहाड़ पर है और न ही जंगल में। पूर्वी उत्तर प्रदेश का तराई क्षेत्र है। फिर भी यहाँ पूर्णतः काले कौवे ही पाये जाते हैं। उनकी संख्या पहले से कुछ कम जरूर हुई है।
जवाब देंहटाएंइलाहाबाद में धूसर गले वाले दिखते थे। यहाँ वर्धा में मुझे किसी कौवे की शक्ल याद नहीं। अब ध्यान देता हूँ कि यहाँ हैं भी कि नहीं।
गिद्धों के बाद कौवे भी !
जवाब देंहटाएंये नहीं पता था. जहाँ तक मुझे पता है दीखते हैं अभी भी कौवे. आज पता करता हूँ हमारी तरफ क्या हाल है. काग का काना होना भगवान् राम और जयंत की कथा से जोड़कर देखा जाता है. आपको तो पता ही होगा.
कौवा विमर्श निष्कर्ष(अब तक)
जवाब देंहटाएं1. कौवे वास्तव में दो प्रकार के होते हैं:
(a) काग - चमकीला काला (Raven)
(b) कौवा - धूसर गले वाला (Crow)
2. बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश,उज्जैन में ये लुप्तप्राय हैं।
3. दिल्ली में स्थिति सन्दिग्ध है।
4. गोवा, जगदलपुर और जबलपुर में कौवे ही कौवे हैं।
5. अमेरिका में दोनों प्रकार के कौवे हैं। As usual भारत का वहाँ कोई प्रभाव नहीं है।
6. इनके संरक्षण की अंतरराष्ट्रीय रेटिंग पर पुनर्विचार की आवश्यकता है।
7. अब विरहग्रस्त नायिकाएँ विरह से ही त्रस्त हो जाती हैं। उन्हें कौवों की आवश्यकता नहीं है।
8. अटारी पर बोलने वाला शख्स काग होता है, कौवा नहीं। कौशल्या जी भी काग के चोंच को ही सोने से मढ़वाने की बात करती थीं। इस पर और पुष्टि के लिए अयोध्या क्षेत्र के किसी ब्लॉगर की आवश्यकता है।
9. कौवे के रंग का उसके लिंग से कोई सम्बन्ध नहीं होता।
10. कुछ टाइप के फिल्मी गीत कौवे के बिना नहीं लिखे जा सकते। अत: मुम्बई की फिल्म इंडस्ट्री को कौवे के संरक्षण के लिए सामने आना चाहिए।
11. एक वरिष्ठ सूचना के अनुसार कोयल भी इतनी बेसुरी हो सकती है कि वह बाहरी दुनिया से भी कौवों को अपनी ओर खींच ले।
12. कौवे को सभी लोग उड़ाते रहते हैं इसलिए उसका अस्तित्त्व खतरे में पड़ गया है। जनहित में अपेक्षित है कि कौवा न उड़ाया जाय।
13. जो व्यक्ति प्रेम में पड़ जाता है उसे कौवे नहीं दिखाई देते।
आप लोग अपनी समझ अनुसार स्माइली लगाने के लिए स्वतंत्र हैं लेकिन समस्या वाकई गम्भीर है।
अब तो निष्कर्ष भी आ गया.
जवाब देंहटाएंसहमत हूँ...
पर मुंबई में अतिरिक्त संरक्षण की जरूरत नहीं ,शायद
यहाँ बहुतायत में दिखते हैं,कौवे
गिरिजेश जी,
जवाब देंहटाएंएक रूपक पढवाने के लिये आतूर हूं
http://shrut-sugya.blogspot.com/2010/10/blog-post_26.html
Giddha ke baad ab kauon ka number hai . Jab Insan kaua aur giddh ki jagah le raha hai to bechre kahan se bachenge. vaise itane masoom kauye aapko mile kahan?
जवाब देंहटाएंकाग विमर्श बहुत ही अच्छा चल रहा है......
जवाब देंहटाएंनिष्कर्ष में बिन्दु -13 को स्पष्ट करें......
क्या कोई उदाहरण दिखा है......
और हाँ आपकी बिटिया गरिमा का कहना है की बड़े पापा अगर इतने अच्छे लेखक हैं तो इंजीनियर का काम करने की क्या आवश्यकता है?
बेहतर होगा की आप स्वयं उसके प्रश्न का उत्तर दे दें .......
सादर
@ गंगेश
जवाब देंहटाएंप्वाइंट 13 अली सा की टिप्पणी से उपजा निष्कर्ष है। :)
गरिमा बेटी!
"मैं अच्छा हूँ" यह कहना तो अपने मुँह मियाँ मिठ्ठू बनना होगा। अपने मुँह मियाँ मिठ्ठू बनने का अर्थ अपने पापा से पूछो :)
एक इंजीनियर अच्छा लेखक हो सकता है। एक अच्छा इंजीनियर तो किसी भी शिल्प में अच्छा काम कर सकता है और लेखन तो शिल्पकारी ही है।
शिल्प के अर्थ के लिए अपने पापा को कष्ट दो। :)
मुंबई महानगर मैं तो कौवे भरे पड़े हैं..
जवाब देंहटाएं@ रश्मि जी,
जवाब देंहटाएंमुम्बई वाले फिल्म तो सारे जहाँ के लिए बनाते हैं, केवल आमची मुम्बई के लिए नहीं। इसलिए कौवा संरक्षण में उनकी अंटी ढीली होनी जरूरी है। :)
@ सुज्ञ जी
देखता हूँ लेकिन 'आतूर' नहीं 'आतुर' होइए। :)
वाह ज्ञान प्राप्ति हुई !
जवाब देंहटाएं.........वैसे सुबह आपकी पोस्ट पढ़ कर स्कूल गया तो गौर करने पर शहर की तुलना में कौवे अधिक दिखाई पड़े|......और हाँ सब धूसर गले के ही मालिक थे!
.......कुछ बच्चों ने बताया कि पिछले साल बाल काटने वाले (नउवा) को इतना परेशान करते थे कौवे कि उसने अपने घर में एक कौवे को ही मार कर लटका रखा था ......... जिसे देख कर बाद में कौवों ने वहां जाना बंद कर दिया |
प्रभु अपनी दिल्ली में कौवों को अच्छी खासी संख्या है. और कौवे का एक जोड़ा बिलकुल आपके दिए चित्र कि सी अवस्था में मेरे घर के सामने वाले बिजली के खम्बे पर एक दुसरे कि खुजली मिटाता मुझे अक्सर नजर आता है.जिस तरह से निश्चिन्त होकर वो जोड़ा मुझे प्रेमालाप में मगन दीखता है वो मैंने तो अभी तक किसी दुसरे पक्षी जोड़े में नहीं देखा है. यहाँ तक कि जो loving bird के नाम से छोटे से तोते जैसे पक्षी बाजार में मिलते हैं वो भी इतने प्यार से एक दुसरे को नहीं सहलाते. मुझे आश्चर्य है कि हमारे कवियों कि नजर इस पक्षी के प्रेम प्रदर्शन पर अभी तक क्यों नहीं पड़ी.
जवाब देंहटाएंबड़े कौवों ने अपनी स्वार्थपूर्ति की खातिर छोटे कौवों को मार भगाया..
जवाब देंहटाएंकौवे से सम्बंधित ज्ञान में वृद्धि हुई ...
जवाब देंहटाएंसामने पार्क है मगर कौवों का दिखना कम हुआ है ...वैसे भी बिहार के मुकबले राजस्थान में कौवे कम ही दिखते रहे हैं शुरू से ही ... !
सब अमरीका में ग्रेण्ड कैनियन में पहुँच गये हैं वैली ऑफ डेथ में..भारत में दूसरे कौव्वों का कब्जा हो गया है.
जवाब देंहटाएंआपकी चिंता जायज़ है ... कौवे वास्तव में कम हो रहे हैं ... लगभग पांच छह साल पहले तक कौवे बहुतायत में दीखते थे लेकिन इधर काफी दिनों से नहीं दिख रहे हैं ... इलाहाबाद के आसपास अधिकतर धूसर गले वाले कौवे ही पाए जाते हैं लेकिन कभी कभी चमकीले कौवे भी दीखते हैं
जवाब देंहटाएंपहले घरेलू जानवरों के मरने पर उनकी खाल निकाल कर शेष खुले में छोड़ दिया जाता था जिन्हें गिद्ध और कौवे खाया करते थे .... आज जानवरों के मरने से पहले इंसान उन्हें खा जाता है ... गिद्ध तो दस साल पहले ही पूर्णतः विलुप्तप्राय हो गए हैं ... उनका पंख फैला कर दौड़ कर उड़ना और उसी तरह किसी हवाई जहाज की तरह लैंड करना सिर्फ यादों में बचा है ..
कौवों में कई बार अद्भुद एकता देखा है मैंने ... एक कौवे के बच्चे को पकड़ लें ... सैकड़ो कौवे इकट्ठे हो कर घेर लेते हैं और यथासंभव हमला करने से भी नहीं चूकते ... एक बार तो पूरे दिन मेरा घर से निकलना दूभर हो गया था ...
...
कौवों में सामाजिक समझ होती है जिसके चलते वो एक दूसरे को आवाज़ दे कर सहायता के लिए बुला लेते हैं ... अपना घोसला बनाते हैं लेकिन कोयल उनके अण्डों के साथ या उन्हें गिरा कर अपने अंडे दे देती है जिसे कौवा बच्चे होने तक अपना समझ कर सेता है ... इस प्रक्रिया में कोयल को अपने घोसले से फुलस्पीड में खदेड़ते भी देखा है...
....
कौवा हिंदू धर्म में पितरों के सदृश भी माना जाता है... पिंडदान के बाद कौवों को भोजन करवाया जाता है
.....हिंदी साहित्य और विरह व प्रेम के विषयों में कौवे को बहुतायत से स्थान दिया जाता है ...
....इस लिए
पर्यावरण की सुरक्षा के लिए
शुभ सूचना वाहक
सामाजिक सहयोग की भावना द्योतक
होशियार सामाजिक पक्षी
और पितरों तक पुण्यवाहक
श्रीकृष्ण के कर से रोटी खाने वाले "कृष्ण काग"
को लुप्त होने से बचाएं ...
सोचा! चंड़ीगढ के कौओं की उपस्थिति भी दर्ज करा दूं ताकि सनद रहे!
जवाब देंहटाएंइधर तो बहुत सारे कौए हैं, सुखना झील पर
पिकनिक मनाते हुए लोगों से भोजन मांगते, इन बदमाशों से मिलना हमेशा बहुत मजेदार होता है।
मेरे तीसरे माले के फ्लैट में कबूतरों के घोसलों के सुरक्षा प्रबन्ध पूरे परिवार की सामूहिक जिम्मेदारी होती है, परंतु उन प्रबन्धों को भी जब तब ये शैतान धता बता कर, कबूतरों के अंडे चट कर जाते हैं।
In Chandigarh, "All is well".
कौए तो फिर भी दिखते हैं...चील-गिद्ध गायब हो गए।
जवाब देंहटाएंहाँ, जियुतिया में माई गोहरावते रह जाले आ चिल्होर के दरसन ना होला. हमनी देने करियवा कौवा के डोमहा कौवा कहल जात रहे (एक सन्दर्भ हो सकता है जाति और वर्ण के सम्बन्ध का, और कैसे और जातिमुलक तथा जातिसूचक कहावतें बनी और प्रचलित हुईं) आ बाकिर खुदे गाँव गइला ज़माना हो गइल त का बताईं कि ओने के लउकत बा आ केतना लउकत बा......:)
जवाब देंहटाएंइतनी जानकारीपूर्ण पोस्ट के लिए आभार !
जवाब देंहटाएंआवश्यक है आपका प्रेम के बीच बीच में जानवर और पक्षियों पर कुछ-कुछ बोल जाना ! समाज-उद्वेल बना रहना चाहिए !
काला कौवा ही था , जिसके चोंच में सोना मढ़ाने की बात माता कौशल्या ने की थी ! उम्मीद है जयंतवा भुरैठा रहा होगा , सीता जी का गोड़ खने वाला !!
पोस्ट सचेत करने वाली है ! भयावह लक्षण हैं ये सब ! आगे आगे देखिये होता है क्या !!
मिथिला के एक बहुचर्चित गीत में,आंगन में चंदन के पेड़ पर कागा की आवाज़ सुन विरहिणी कहती है कि यदि आज पिया आ गए तो मैं तुम्हारी चोंच सोने से मढ़वा दूंगी।
जवाब देंहटाएंकागा की मौजूदगी के लिए चंदन के पेड़ का प्रयोग विशेष महत्व का है। यह काग की शुभता,शुचिता,निष्ठा,ईमानदारी आदि को दर्शाता है। मगर धीरे-धीरे बेचारे की ऐसी उपेक्षा हुई कि अब तो बस छात्रों को संदर्भ देने मात्र के लिए काकचेष्टा का प्रयोग रह गया है।
हमारे यहाँ तो बहुत हैं यहाँ से ले जाईये। बार बार आँगन साफ करना पडता है सारा दिन बीठ साफ करते रहो। शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंअमरेन्द्र जी,
जवाब देंहटाएंआभार
ललित जी!
भूली बात याद दिलाने के लिए आभार। लगता है आप अपने क्षेत्र के ही हैं :) जरा बताइए न।
चंडीगढ़ की खबर देने के लिए सम्वेदना के स्वर को आभार।
नंगल की खबर देने के लिए निर्मला जी को धन्यवाद।
आज अल्लसुबह झुटपुटे में मुझे भी दो दिख गए। हालात इतने खराब नहीं हुए लेकिन खराब हो रहे हैं। कुछ तो है जो इन्हें कम कर रहा है। शायद कीटनाशक दवाएँ जैसा कि बाकी सुधी लोगों ने भी बताया है।
गिरिजेश जी, बन्दा खाँटी बिहारी है. घर हुआ कुदरा, जो कि अब कैमूर जिलान्तर्गत है. ९० के दशक के पूर्व यह रोहतास में था.
जवाब देंहटाएंबाकी, बातों का सिलसिला चल ही पड़ा है तो और बातें भी होंगी...लेकिन आपको पढ़ना सुकून देता है. आप स्वांत सुखायः लिखते हैं, शायद इसीलिए.
और ..... वह कहते हैं ना कि 'ask me anytime, I am just a mail/phone call away. ha ha ha
ओह - कौवों पर इतनी गहन विवेचना |
जवाब देंहटाएंवैसे - हम लोग मोबाइल communication यह पढ़ते है कि यह जो मोबाइल towers की भरमार है - इससे sparrows ख़त्म हो जायेंगी धीरे धीरे - पर कौवे क्योंकि कुछ strong हैं तो नहीं होंगे | वैसे हम मनुष्यों पर भी असर करता है यह radiation परन्तु उतना नहीं - क्योंकि हमारा mass इन नन्ही चिड़ियों से कई गुणा अधिक है | पर लगता है यह radiation बेचारे कौवों को भी अपनी लपेट में ले रहा है | हम मनुष्य अपनी convenience के लिए जो न करें सो कम है | पहले जंगली जानवर शिकार में मारते थे, अब indirectly चिड़ियों को मार रहे हैं |