शनिवार, 28 नवंबर 2009

मिलना रस्सी में बाँध कर पकौड़ी छानने वाले से . .

बहुत बेचैनी है . .  
किसी की प्रतीक्षा है - ट्रांजिट हाउस के कमरे में सुबह सुबह।
आलमारी खोल हैंगर गिनता हूँ - उन्हें ठीक करता हूँ ऐसे ही। 
चहलकदमी करता हूँ फिर आइने में केश संवारता हूँ। जाने इम्प्रेशन कैसा पड़े!
कोई आने वाला है - जरूर आएगा। 
चादर सिकुड़ गई है। ठीक करता हूँ ।
समय इतना स्लो क्यों हो गया है?
अरे! टेबल क्लॉक में बैटरी शायद खत्म हो गई है। 
खिड़की पर वेनीसन ब्लाइण्ड को ऐडजस्ट करता हूँ 
बाहर का लैण्डस्केप - लगता है जैसे शीशे में मढ़ दिया गया हो।
लेकिन आने वाला यहाँ क्यों आएगा?
वह आदमी बहुत तेज है - शायद आ ही जाए तो खिड़की पिक्चर परफेक्ट दिखनी चाहिए।
नीचे जूते बिखरे पड़े हैं - दुरुस्त करता हूँ ।
नई साज सज्जा वाले कमरे में दीवार पर एल सी डी टीवी लगा है - सेट टॉप बॉक्स कनेक्सन के साथ ।
लेकिन पाँच सौ चैनलों में कोई काम का क्यों नहीं दिखता ?
..वह कब आएगा?
नहा लूँ - ताजा दिखूँगा।
कुर्ता ही पहने रहूँ या पैण्ट शर्ट ?
पहले नहा तो लूँ!
नहा कर कुर्ता पहन ही रहा हूँ कि फोन ..
आने वाला भटक गया है..
"अरे भाई 9 नम्बर कमरे में आओ, 9 नम्बर बंगले में मत जाओ।"
..अबे , आलमारी तो बन्द कर दे। जाँघिया लटकाए हुए हो।
इतने आतंकित क्यों हो ?  
..टिंग टांग 
घण्टी बजती है ।
पल्ला खोलता हूँ।
सामने मुस्कुराता पूरे शरीर से हास बिखेरता
जूते उतार कर कमरे में घुसने की भंगिमा बनाते..
आने वाला खड़ा है ... अरे, इसी से इतना घबराए हुए थे !
ये तो सही में गँवई आदमी निकला - सॉफ्टवेयर वाला जान आतंकित थे !
....
....
मुम्बई। 25/11/2009
आने वाले व्यक्ति थे -मन हिलोर बतियाने वाले  सतीश पंचम , सफेद घर वाले बिलागर।   
गाँव की बारात का सबसे जीवंत वर्णन करने वाले।
यमराज की खोज खबर लेने वाले ग़जब के विटी अपने सतीश भाई।
पहले से ही मेल कर अपने आने और मिलने की चाहत की सूचना दे दी थी । 24 को मुम्बई एयरपोर्ट से ट्रांजिट हाउस तक की यात्रा का ट्रैफिक जाम नारकीय था। लेकिन कम अखरा - इनके उत्तर की आशा में  मोबाइल पर  मेल चेक करता जा रहा था। न तो मेरे पास इनका मोबाइल नम्बर न इनके पास मेरा ।  बेवकूफी - अरे मेल में मोबाइल नम्बर  तो दे दिए होते! 
..
रात में 8:21 का इनका भेजा उत्तर पढ़ता हूँ 10:30 के आस पास। मोबाइल नम्बर भी है। 
इतनी खुशी होती है जैसे किसान की बिलाई भैंस मिल गई हो !
सम्पर्क करने की ज़द्दोजहद शुरू होती है। ज़द्दोजहद क्यों? भाई साहब मतलब BSNL जी डॉल्फिन की पीठ पर सवार तो हैं लेकिन कह सुन नहीं पाते। एक समय में एक काम - कहो तो सुनाई न पड़े , सुन कर कहो तो कहा दूसरे को न सुनाई पड़े। बिस्तर पर ही मोबाइल एक खास जगह पर फुल सिगनल दिखाता है तो 2 फीट भी हटाए नहीं कि emergency call only स्क्रीन पर छप जाता है। मुम्बई से तो नखलौ ही अच्छा है! कुल 8 प्रयासों के बाद भी काम लायक बात नहीं हो पाती । 
सो जाता हूँ - निश्चिन्त अब तो ढूढ़ ही लूँगा . . । 
25 की सुबह । एस एम एस आया हुआ है। सुबह ही आएँगे। ..हँ चलो बात बनी। जय BSNL ।  
______________________________________________
सतीश जी से मिलने तक मैं आतंकित रहा। सूक्ष्म दृष्टि और ग़जब की सम्प्रेषणीय शक्ति वाली लेखनी ! कुछ चैट सेसनों के बाद तो और भी हैरान परेशान हो गया। एक नमूना नीचे दिया है :





10:17 PM me: नमस्कार । पकौड़ी को वहीं छोड़ थोड़ा बाउ के दु:ख की खबर लीजिए।
10:18 PM satish: पकौडी को छोड दूंगा तो तेल में डूब जायेगी :)
  इसलिये रस्सी बांध कर तल रहा हूँ
10:19 PM me: और चैट भी कर रहे हैं ! कितने हाथ हैं तेरे ठाकुर !
 satish: हा हा
  आप लखनउ से हैं न ?
10:20 PM me: हाँ
 satish: लेकिन बोली या शैली आपकी बलिया की तरफ की लग रही है
10:21 PM me: पकौड़ी से कोई सम्बन्ध है क्या?
10:22 PM satish: अरे नहीं, वो तो ऐसे ही fun message लिखते रहता हूँ.....
  कभी रेल के आगे बीन बजाता हूँ तो कभी चाय में केला डुबो कर खाता हूँ :)
10:23 PM just for fun ,
 me: क्यों राज ठाकरे को चुनौती दे रहे हैं?
10:24 PM satish: हां ये बात तो है....फन्नी activity आजकल कुछ ज्यादा ही कर रहा है
10:25 PM मन में तो यही आता है कभी कभी कि यदि हमारे पैतृक गांव या देहात में रोटी पानी का बंदोबस्त हो जाता तो क्यूं आते यहां
10:26 PM C E N S O R E D 
10:28 PM me: आप तो centi हो गए!
10:30 PM satish: कभी कभी centi हो कर ही संतोष करना पडता है।
10:31 PM me: सेंटीसंतोष ' अच्छा शब्द निकल आया
 satish: :)
10:33 PM me: संतोसेंटी और बेहतर होगा
 satish: hmm...
10:34 PM me: अब सोते हैं। मैं जल्दी सो कर जल्दी उठता हूँ। सर्वहारा क्लास की एकमात्र यही आदत बची रह गई है।
  नम्स्कार।
10:35 PM satish: नमस्कार

लेकिन मिलने के कुछ सेकण्डों के भीतर ही ढींठ हो गया। सतीश जी में आत्मीयता इतनी सहज है कि आप आतंकित रह ही नहीं सकते। नाश्ते की टेबल पर खींच ले गया। बातें शुरू हुईं। जाने क्या क्या! संयोग से हमारी कम्पनी इनकी कम्पनी की क्लाइंट निकल आई। मैंने अपने दु:ख गिनाए जिन्हें इन्हों ने एक प्रोफेशनल की तरह निर्विकार हो नहीं सुना बल्कि हँस कर उड़ा दिया।
 फिर आई ब्लॉगरी की बातें - मैंने शिकायत की कि आप कम लिखने पढ़ने लगे हैं। एक जिम्मेदार ब्लॉगर की तरह इन्हों ने सुना और बताया कि मेरी बात सही थी। बेचारे  हिन्दी ब्लॉगरी में चल रही आपसी टाँग खिंचाई से दु:खी थे। कुछ समयाभाव और कुछ अरुचि जैसी बात भी कह गए। मैंने अपनी अक्ल भर समझाया। चाय पिलाई। फोटो खिंचाया 



और फिर विदा  किया - यह तसल्ली हो जाने के बाद कि चाहे रस्सी से बाँध कर पकौड़ी छाननी पड़े, सतीश जी पकौड़ी छानते रहेंगे और अपने ब्लॉग पर हम लोगों का स्वादरंजन करते रहेंगे।  

शनिवार, 21 नवंबर 2009

पुरानी रामायण - 1

1 आदिकवि महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण का यह संस्करण गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा संवत 2017 (सन 1960) में छापा गया। प्रतियाँ थीं 10000। आठ वर्षों के पश्चात 15000 प्रतियाँ छपीं, जब पिताजी उनमें से एक घर ले आए। दो भाग थे - मूल्य दोनों का मात्र बीस रूपए। उस जमाने के हिसाब से सस्ता नहीं कहा जा सकता लेकिन गुणवत्ता के क्या कहने ! गेरुए रंग की कपड़े की मजबूत जिल्द (आज तक नहीं फटी है), त्रुटिहीन, स्वच्छ छपाई और सौन्दर्य का खयाल। प्रति वर्ष 1250 प्रतियाँ बिकीं तो कहीं धार्मिक भावना से अधिक प्रोडक्सन क़्वालिटी का योगदान ही रहा होगा।


hastaaxarश्वेत श्याम और रंगीन चित्र इतने नयनाभिराम थे कि आँखें बरबस ठहर सी  जाती थीं/हैं। जैसा कि पिताजी द्वारा पाठन के विराम को ओंकार चर्चित दिनांक से अंकित करने से स्पष्ट है, सन 1971 में भी वह इसे पढ़ रहे थे।  हमलोग इसके दो भागों के नयनाभिराम चित्रों को देखते हुए बड़े हुए और अनजाने ही संस्कारित होते चले गए। राम के अनेक रूप, सीता की सहज सुन्दरता, वीर बजरंगी के वज्र शरीर से फूटती ऊर्जा .....  सब सम्मोहित कर देते थे। बड़े होते जब पढ़ने लगा तो समझ बढ़ते बढ़ते बहुत कुछ नोटिस किया जो इस लेख के दूसरे भाग में बताऊँगा - अभी तो चित्रों पर ही केन्द्रित रहूँगा।  ये चित्र विशुद्ध भारतीय शैली में विशुद्ध भारतीय सौन्दर्य दृष्टि से पात्रों को दर्शाते हैं - इसीलिए मन को मोहते हैं। मुख्य पात्रों के अलावा बैकग्राउण्ड के विन्यास और अंकन में अनुपात की त्रुटियाँ हो सकती हैं लेकिन सम्प्रेषण की सटीकता इतनी बोल्ड है कि उसके आगे सब कुछ छिप जाता है।
(1) जरा मंत्रणा करते सुग्रीव, वानर समाज और राम लक्ष्मण को देखिए! बैकग्राउण्ड के दो शिखर दोनों भाइयों के कोमल आनुपातिक शरीरों को पौरुष की गरिमा दे रहे हैं। डीटेलिंग न्यून रखते हुए चित्रकार कैसे वानर वीरों के शरीर सौष्ठव को उभार रहा है !!
(2) समुद्र लाँघते हनुमान की विराटता देखिए! समुद्र की लहरों में रेखाओं के घुमाव, चाप और अपूर्णवृत्तवत वक्र रेखाएँ भारत की सनातन कलाकारी को दर्शाती हैं। इस कलाकारी ने एक तरफ तो अनगढ़ ब्राह्मी लिपि को सुन्दर आकार दिए तो दूसरी तरफ खजुराहो की मूर्तियाँ भी दीं।
(3),(4),(5) सीता के सौन्दर्य को निरखिए - मूर्तिमान पवित्रता ! उत्तर भारतीय नारी का गरिमामय सौन्दर्य और सखी सरमा अपने सारे रक्ष सौन्दर्य के साथ कितनी आत्मीय है!!
(6) अशोकवाटिका का विध्वंश करते मारुति का पौरुष, उल्लास और कौतुक निरखिए! पेंड़, भागते राक्षस और मन्दिर सभी कितने लघु हो गए हैं!!
(7) रावण की सभा में राक्षसों का चित्रांकन तो अति उत्तम है लेकिन भव्यता सादगी के आगे पराजित हो गई है। पर्सपेक्टिव का दोष है क्या?
(8) सीता को ढूढ़ कर लौटते वानर समूह, भ्राताद्वय और सुग्रीव का चित्रांकन अद्भुत है। घने छाए बादलों के बीच से प्रकट होता वानर समूह राम, लक्ष्मण और सुग्रीव की मन:स्थिति से एकदम से जुड़ रहा है। पात्रों के चित्रांकन के तो क्या कहने !
(9)  समुद्र को शासित करते राम का यह रूप ! सोचता हूँ कि फिर कोई चित्रकार बना पाएगा!! समुद्र की लहरों की उठान श्रीराम के क्रोध से कैसे मिल सी जा रही है और उनके मध्य दीन सा समुद्र। मैं अभिभूत रह जाता हूँ।
(10) राम से मिलने आते विभीषण के इस चित्र में वानर समूह की मुद्राओं का सौन्दर्य कितना स्वाभाविक लगता है !
(11)  कुम्भकर्ण को जगाने का यह दृश्य बहुत कमजोर प्रस्तुति है। भैंसे, राक्षस, हाथी वगैरह सब एक ही आकार के ! चित्रकार महोदय चूक गए !
(12)  कुम्भकर्ण वध के इस दृश्य में राम और हनुमान के लाघव और गति का चित्रण दर्शनीय है।
(13)  संजीवनी लाते हनुमान के इस चित्र में हताशा, आशा और कौतुहल एक साथ दिखते हैं।
(14) गरुड़, राम और लक्ष्मण का सजीव चित्रण !
(15) मेघनाद वध के इस दृश्य में लक्ष्मण और हनुमान की क्षिप्रता और लाघव को निरखिए।
(16) इन्द्र सारथी मातलि और श्रीराम के इस रंगीन चित्र में सब कुछ साधारण है।
(17) हनुमान के कन्धे पर बैठ रावण से युद्ध करते राम के इस चित्र में  रावण सारे ऐश्वर्य के बावजूद कितना हास्यास्पद लगता है! राम और हनुमान तो वीरता साक्षात हैं। इस चित्र में भी लैण्डस्केप की न्यूनता और कैनवास का संकुचन इसे साधारण कोटि का बना देता है।
(18)  रावण वध के इस दृश्य में बस राम और रावण को देखिए और देखते रह जाइए। कितनी उदारता से चित्रण हुआ है!
(19)  विजय के पश्चात विभीषण को वानरों का सत्कार करने का निर्देश देते राम यहाँ चित्रित हुए हैं। यह चित्र मुझे कमजोर लगता है।
(20) लक्ष्मण द्वारा विभीषण के राज्याभिषेक का यह चित्र अवसरोचित गरिमा का वातावरण लिए हुए है। एकबार फिर वैष्णवी सादगी के मोह के कारण कैनवास लघु हो गया है और भव्यता की उपेक्षा हुई है।
(21)  ऋषियों द्वारा श्रीराम के अभिनन्दन के इस दृश्य में वैष्णवी गरिमा अपने शिखर पर है।
                                                                                                
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2_hanuman_sagar_langhan
3_seeta_sarma
4_sita_hanuman
5_hanuman_sita_conversation
6_hanuman_ashokvatika
7_ravan_sabha_hanuman
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9_Ram_samudra
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14_Shriram_Laxman_Garud
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16_Ram_Matali
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18_ravan_vadh
19_ram_vibheeshan_pushpak
20_Vibheeshan_rajyabhishek
21_ram_with_saints

चित्रों को बड़ा कर देखने के लिए उन पर क्लिक करें।
सारे चित्र चित्रकार जगन्नाथ ने बनाए हैं। गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित वाल्मीकि रामायण की आजकल की प्रतियों में ये चित्र नहीं मिलते। सोचा कि इन्हें भविष्य के लिए सहेज दूँ और आप सब का इनसे परिचय कराता चलूँ। गीताप्रेस, गोरखपुर का इन चित्रों के लिए मैं आभारी हूँ। बिना अनुमति लिए पोस्ट करने की धृष्ठता कर रहा हूँ इसके लिए गीताप्रेस से क्षमाप्रार्थी हूँ। अपनी शुभेच्छा पर भरोसा है। कोई व्यवसायिक उद्देश्य तो है ही नहीं। (दूसरे भाग में जारी)
चलते चलते :
22 अक्टूबर 2009 को प्रयोग करते भूलवश यह लेख अधूरा ही प्रकाशित हो गया था। अग्रिम क्षमा की सावधानी के बावजूद यह 
पोस्ट तीन बहुत ही महत्त्वपूर्ण ब्लॉगरों की टिप्पणियाँ सहेज लाई।
उसके बाद मैंने टिप्पणी का विकल्प हटा दिया था। चूँकि उस पोस्ट को आज हटा रहा हूँ इसलिए उन टिप्पणियों  को यहाँ मान दे रहा हूँ:  
 हिमांशु । Himanshu ने कहा… प्रयोग आप कर रहे हैं, धैर्य आप रखें । टिप्पणीकार तो टिप्पणी कर ही जायेगा । October 22, 2009 2:10 PM 
 संगीता पुरी ने कहा… हिमांशु जी ने सही कहा .. धैर्य तो आपको रखना था .. आपने आधा अधूरा प्रकाशित क्‍यूं किया ? October 22, 2009 2:32 PM 
 Arvind Mishra ने कहा… अधूराकाम अनुचित है -हमारे धैर्य की परीक्षा मत लें ! October 22, 2009 2:42 PM 

गुरुवार, 19 नवंबर 2009

पाठक मेरे !


पाठक मेरे! 
हाँ मैंने पढ़ी है तुम्हारी हर टिप्पणी
अक्षर, अक्षर , मात्रा , मात्रा
मैंने उनमें लय ढूढ़ने के जतन किए हैं
अपने लिए सम्मान प्यार तिरस्कार सब ढूढ़ा है
पाया है। 
वह बेचैनी भी ढूढ़ी है - 
काश ! थोड़ा ऐसे लिख दिया होता  
क्या बात होती ! 
कम्बख्त ने कबाड़ा कर दिया।
मैंने पाया है कई बार
स्तब्ध मौन - जब तुम बिना कुछ कहे चले गए।
वह स्पष्ट निन्दा बघार 
मेरे स्वर व्यंजन - व्यंजन स्वाद।
सब सवादा है।.... 
पाठक मेरे !
मैं मानता हूँ 
तुम भी पढ़ते होगे मुझे इसी तरह। 

शनिवार, 14 नवंबर 2009

हमहूँ मुक्तिबोध


हमहूँ मुक्ति 
हमहूँ बोध
हमहूँ मुक्तिबोध।
बोधुआ भी कर रहा
मुक्ति पर शोध
जो केहु टोके
करता है किरोध।
हमने कहा छोड़ आगे बढ़
का मुक्तिबोध के बाद कोई नहीं हुआ
उठाया जिसने अभिव्यक्ति का खतरा ?
उसने देखा
हमने जारी रखा अपना फेंका,
अगर ये सच है कि मुक्तिबोध के बाद
तुम्हें कोई नहीं दीखता
तो उनके ही शब्दों में
भारी भयानक सच है।
खतरनाक है।
हिन्दी क्या इतनी बाँझ है?
अगर कोई हुआ है
तो ये जन्मदिन पर क्या हुआँ हुआँ है?
कोई जरूरी है कि किसी को सिरफ
जन्मदिन पर ही याद करो?
फर्ज अदायगी करो
और फिर भूल जाओ अगले साल तक !
बोधुआ रे!
सही कहूँ तो हमको मार्क्सवाद अस्तित्त्ववाद वादबाद
कछु नहीं बुझात है
बुझात है सिरफ कि कामायनी की आलोचना
दूर की कौड़ी है
उनकी सभी लम्बी कविताएँ एक सी लगत हैं
तुम तो उन्हें सबसे बड़ा विचारक बनाए बैठे हो !
हमको तो विजय साही जियादा सही लगत हैं
एतना जो सुना
निकाला बोधुआ ने जूता ..
हमने पकड़ा उसका हाथ
समझाया
उन्हों ने गढ़ मठ तोड़ने की बात कही थी
है कि नहीं ?
उसने जूते की जुतारी भरी
खतरा टला जान हमने बात आगे करी
अब ये बताओ उनके नाम पर
तुम लोग काहे गढ़ मठ रचत हो ?
उसने बकास सा हमरी ओर देखा
हम खुश हुए अपनी झकास पर।
बात आगे बढ़ाई
देखो आँख खोल देखो
पाँच रुपए घंटा माँ
और एकाध सौ घंटा माँ
तुम नेट से जान जाओगे
कि दुनिया बहुते आगे जा चुकी है।
कि गढ़ मठ कुआँ बना
चेहरे पर मुर्दनी सजा
छापो तिलक लगा
राम राम मुक्ति मुक्ति जपत हैं।
हिन्दी मइया तकत हैं
हमका बोध कब होयगा
जे हाल है उस पर किरोध कब होयगा?
रुकी ग्रामोफोन की सुई
डीजे वीजे के जमाने में
मुक्तिबोध के सहारे लगे नौकरी हथियाने में ।
प्यार करो आदर करो
लेकिन उनके घेरे से बाहर चलो
हिन्दी अबहूँ दलिद्दर है
शोध के लिए कछु और चुनो
भूल गए क्या?
“ ... मेरे युवकों में होता जाता व्यक्तित्वान्तर,
विभिन्न क्षेत्रों में कई तरह से करते हैं संगर,
मानो कि ज्वाला-पँखरियों से घिरे हुए वे सब
अग्नि के शत-दल-कोष में बैठे !!
द्रुत-वेग बहती हैं शक्तियाँ निश्चयी।“

बोधुआ ने हमरी ओर देखा
जूते को फेंका
चल दिया बड़बड़ाता,
”पागलों के मुँह क्या लगना ?
जूते मार कर भी क्या होगा?"
मैं गली में आगे चल दिया
एक और बोधुआ की तलाश में ...   

शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

.. ये आग नहीं आसाँ

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यह लेख बहुत सरल तरीके से आम जनता और विशेषकर युवा वर्ग को तेल या गैस डिपो में लगने वाली आग के एक अनछुए से पहलू से अवगत कराने के लिए लिखा गया। कृपया तकनीकी बारीकियों की अपेक्षा न रखें।
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आग जिन्दगी है। कोई जिन्दा है कि नहीं, यह उसके शरीर की गर्मी से जाना जाता है। मनुष्य आग जलाना सीखने के बाद ही सभ्य हुआ। इसीलिए दुनिया के सभी पुराने धर्मों में आग को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। ऋग्वेद का पहला सूक्त ही अग्नि को समर्पित है। 
आग को जलाने के लिए तीन चीजें आवश्यक हैं – फ्यूल, ऑक्सीजन और स्पार्क। ये तीन मिलते हैं तो आग पैदा होती है। इन्हें फायर ट्रैंगल भी कहा जाता है। तीनों साइड पूरे हों तो आग लगती है। अगर कोई एक नहीं रहेगा तो आग नहीं जलेगी। इस जानकारी का उपयोग आग को रोकने और उसको बुझाने में किया जाता है।
तेल के डिपो या एक्स्प्लोजिव स्टोरेज में यह प्रयास किया जाता है कि स्पार्क न पैदा हो क्यों कि फ्यूल और ऑक्सीजन तो ऐसी जगहों पर रहते ही हैं। इसीलिए ऐसे स्थानों पर स्मोकिंग, कुकिंग वगैरह वर्जित होते हैं। लाइटिंग और स्विच भी स्पार्करोधी होते हैं और विस्फोटक विभाग के लाइसेंस के बाद ही बनाए जाते हैं।   ऐसी जगहों पर यदि किसी कारण से आग लग गई और शुरू के कुछ मिनटों, जी हाँ मिनटों- घंटों नहीं, में नियंत्रित नहीं हुई तो विस्फोटक होने के कारण उसे बुझाया नहीं जा सकता। असल में हवा गर्म होकर उपर उठती है और खाली स्थान भरने को अगल बगल से हवा जोरों से आती है । इस कारण यह पूरा प्रॉसेस दुगुना चौगुना रफ्तार से बढ़ता जाता है। पानी का कोई असर नहीं होता। प्रोडक्ट के पूरी तरह जल जाने पर ही आग बुझती है। कुछ आधुनिक तकनीकें जैसे विस्फोट कर ऑक्सीजन को आग वाले स्थान पर एकदम समाप्त कर देना बहुत महंगी, कठिन और अप्रभावी साबित हुई हैं। बड़ी स्केल की आग को नियंत्रित करना कितना कठिन है यह इससे समझा जा सकता है कि ऑस्ट्रेलिया जैसा विकसित देश भी अपने जंगलों में लगी आग को नियंत्रित नहीं कर पाता है और वहाँ इससे हाल के वर्षों में बहुत नुकसान हुआ है।  ऐसी आग की सूरत में आबादी खाली कराने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता।
आग से बचाव और नागरिकों की सुरक्षा के लिए ही तेल और एल पी जी डिपो आबादी से बहुत दूर बनाए जाते हैं। लेकिन ऐसी जगहों के चारो ओर रोजगार के अवसर बढने से आबादी बसती जाती है। दुर्भाग्य से भारत में नागरिक जागरूक नही हैं और न ही सरकारें आबादी के बसाव को रोकती हैं। लॉ और ऑर्डर का मामला होने के कारण तेल कम्पनियाँ अपनी बाउंड्री के बाहर आबादी की ऐसी बाढ़ को रोकने के लिए कुछ अधिक नहीं कर पातीं । ऐसी आबादी आग लगने का कारण हो सकती है और आग लगने पर उसका आसान शिकार भी।  
डिपो के भीतर सुरक्षा के तमाम इन्तजामात होते हैं। सुरक्षा के उपर खर्च 30 से 35% तक भी हो जाता है। सारे कर्मचारी आग न लगने देने की सावधानियों और आग पर समय रहते काबू पाने के लिए ट्रेंड होते हैं। शेड्यूल के हिसाब से नियमित रूप से मॉक फायर ड्रिलें होती हैं जिनमें प्रशासन और फायर डिपार्टमेंट भी हिस्सा लेता है। आग लगने पर कौन कर्मचारी क्या करेगा, यह सब पूर्व निर्धारित रहता है। मॉक ड्रिल में इसी हिसाब से कर्मचारी ऐक्शन लेते हैं ताकि हादसा होने पर किसी तरह का कंफ्यूजन न हो।
सवाल यह है कि इतनी तैयारी के बाद भी आग लग कैसे जाती है? ऐसे समझिए कि सावधानियों के चलते ही आग की घटनाएँ बहुत कम होती हैं नहीं तो जिस तरह के प्रोडक्ट होते हैं, उनसे बार बार आग लगे ! गैस या पेट्रोल का हवा के साथ मिश्रण बहुत ज्वलनशील होता है। मानवीय चूक या मशीनरी के फेल्योर से अगर इनका लीकेज बहुत देर तक होता रहे तो ये अदृश्य वेपर क्लाउड  बनाते हैं। यह क्लाउड हवा में तैरता रहता है। इस क्लाउड में ऑक्सीजन और फ्यूल का एक निश्चित अनुपात होने पर जरा सी चिनगारी कहर मचा सकती है क्यों कि पूरा क्लाउड एकदम से आग पकड़ता है। अब आप कहेंगे कि चिनगारी आएगी कहाँ से? होता यह है कि हवा के साथ यह अदृश्य क्लाउड बहुत दूर तक डिपो की  बाउंड्री के पार भी चला जा सकता है।  अब यदि आबादी में कहीं किसी ने  कुछ सुलगाया तो आग क्लाउड को पकड़ डिपो तक आ जाती है और फिर तबाही पक्की ! इसीलिए डिपो के चारो ओर आबादी का हिस्सा न बनें और दूसरों को भी ऐसी बस्ती न बनाने के लिए चेताएँ।
अब तो आप समझ ही गए होंगें, ये आग नहीं आसाँ ।                

मंगलवार, 10 नवंबर 2009

मुड़े तुड़े अक्षर

... बहुत पीड़ादायक होता है एक कविता का खो जाना। ऐसी कविता जो आप की विकसित होती संवेदना, कल्पना, पीड़ा, आक्रोश, क्षोभ, यातना, परदु:खकातरता, संसार को बदल देने, उलट पुलट देने के ज़ुनून और मन के नरक की वर्षों तक साक्षी रही हो ...अचानक पता चले कि गुम हो गई तो क्या हो? उच्चाटन ?? अनिद्रा ??? mude_tude
कविता जो किताबों के कवर पर लिखी गई, कापियों के बीच लिखी गई, छुट्टे पन्नों पर लिखी गई ..... जब मन बेचैन हुआ तब लिख दी गई – पेंसिल से, पेन से... रोमन, देवनागरी, ग्रीक लिपियों में अपने को लिखाती चली गई, अचानक पाया कि खो गई !
..पुरानी डायरी के साथ ही क्लिप वाले पैड में दबा कर रखे गए मुड़े तुड़े अक्षर, तिरछे वाक्य, बारिश की बूँदों से फैल गए शब्द, प्रेम मिलन के पूर्व भोर में धीमी रोशनी में रचे गए सरताज, कभी कुछ अचानक सूझ जाने पर यूँ ही पढ़े जाते उपन्यास के पन्ने के हाशिए पर उतार दिए गए जज्बात ... सब गुम हो गए !
...गहरी यातना, दु:ख। अज्ञेय की मानें तो दु:ख मांजता है। जिन्हें माजता हो वो जानें, मैं तो खरोंचों के घाव लुहलुहान होता जा रहा हूँ। क्या करूँ .. दुबारा रचूँ? चलूँ पन्द्रहों वर्ष पीछे? लेकिन वे अनुभूतियाँ कैसे आएँगी? .. यह तो दुहरी यातना होगी ! ... स्मृति दोष .. बहुत कुछ छूट जाएगा। फिर टुकड़ा टुकड़ा याद आ कर सताएगा.. मुझे याद है उस कभी न समाप्त होने जैसी लगती कविता की अंतिम पंक्तियाँ जब लिखी थीं तो लगा कि अनुभूति के अंत पर पहुँच गया हूँ – प्रगाढ़ प्रशांति ! ..वो यातनाओं का नरक, कुम्भीपाक लुप्त हो गया था अंतिम अक्षर के विराम पर ! ... बाद के वर्षों में पाया कि कविता साधारण थी और उसका अंत तो और भी साधारण था ...फिर वह प्रशांति क्या थी? क्या इसी लिए स्वांत: सुखाय की बात की जाती है? वह कविता तो दूसरों के किसी काम की न थी, न शब्दों का यातु, न शिल्प का विधान, लय हीन, छन्द हीन। तो वह अनुभव? क्या वह कविता बस मेरे लिए थी? ... ऐसी थी तो आज जब एक मंच मिला तो उसे साझा करने की बेचैनी क्यों? ढूढ़ता क्यों रहता हूँ उसे? ....
कभी सोचा ही न था कि छपवाऊँगा ! ...
.. याद आती है कब्रिस्तान के उपर बने उस तिमंजिला प्राइवेट हॉस्टल की कोठरी में गरमी की बिताई गई वह दुपहर। कमरा बन्द कर जोर जोर से मैं पढ़ता चला गया था। तब वह कविता समाप्त नहीं हुई थी। ...
41.. लेकिन उसके बाद मैंने वह सारे फेयर किए हुए पन्ने फाड़ डाले थे – याद हो चुकी कविता को दुबारा लिखा था देर शाम तक लगातार और फिर पिताजी के आदेशानुसार राहु मंत्र के जप पर बैठ गया था – अजीब संतोष लिए कि अब कविता आसान हो गई ! वाकमैन स्पीकर मोड पर था और बज रही थी मोज़ार्ट की सिम्फनी – जुपिटर। ...
.. अगले दिन अपने साहित्यिक मित्र आनन्द को कविता सुनाई तो वह स्तब्ध हो गए थे । जब बताया कि मैंने फाड़ कर दुबारा लिखा है तो उन्हों ने यही कहा था,”ठीक नहीं किया।“ ....अधूरी ही छपने के लिए भेजा तो न छपी और न वापस आई। मेरा सरलीकरण प्रयास अपनी नियति को प्राप्त हुआ था .. हाँ, वह मेरा पहला प्रयास था। ... मेरे पास फिर बँचे रह गए थे - क्लिप वाले पैड में दबा कर रखे गए मुड़े तुड़े अक्षर, तिरछे वाक्य, बारिश की बूँदों से फैल गए शब्द, प्रेम मिलन के पूर्व भोर में धीमी रोशनी में रचे गए सरताज, कभी कुछ अचानक सूझ जाने पर यूँ ही पढ़े जाते उपन्यास के पन्ने के हाशिए पर उतार दिए गए जज्बात ...
... अंतिम प्रयास सफल रहा था - उसी आनन्द सोमानी ने कराया था – नई दुनिया, इन्दौर से एक दूसरी छोटी सी कविता छपी थी... मुझे याद है उस दिन बहुत खुश था। बाद में पिताजी ने उसे सहेज कर रख लिया था ... अब की दशहरे में गाँव गया तो पता चला कि टाउन वाली मकान को किराएदार के लिए खाली करते समय जो कबाड़ फेंका गया था – उसमें नई दुनिया का वह पेज भी ... हाँ, पिताजी ने एक एक पृष्ठ को खुद छाँटा था!
.. यह आप ने क्या किया पूज्य? वह एक पन्ना इतना गढ़ू हो गया था !! .. या फिर आप ने यह सोचा कि अब इसका क्या काम ? .. ले दे के वही बात – कविता किस काम की?..
..आप को क्या पता पूज्य! अनिद्रा के उन अनगिनत हफ्तों में आप जब अपनी गोद में चिपटा कर सुलाया करते थे तो कुम्भीपाक की यातना के सामने आप का यह पुत्र अपने को निरीह सा पाता था लेकिन एक लम्बी कभी खत्म न होने वाली कविता ही उसे लोरी सुना बल दे जाती थी।... पैदा होने के कुछ घंटों के भीतर ही आप की गोद में आ गया था। .उस दिन मेरे अस्तित्त्व को आप की आँखों ने रात भर सींचा था! आप की गोद में इतने बड़े होने पर भी नींद तो आनी ही थी।
.. लेकिन लोरी वही कविता सुनाती थी। ..और वह खो गई।
.. अब मैं बड़ा हो गया हूँ, दो बच्चों का पिता हो गया हूँ। पिताजी! सोचता हूँ कल जब मुझे बड़े होते बच्चों को कभी गोद में ले खुद लोरी गाते सुलाना पड़ेगा, तब अगर वह कुम्भीपाक फिर सिर उठाएगा तो . . ?
उन दिनों क्या आप के पास भी कोई कभी खत्म न होने वाली कविता थी?