बुधवार, 26 जनवरी 2011

गणतंत्र की बकरियाँ

कॉलोनी में खाली प्लॉट है
प्लॉट पर चहारदीवारी है
चहारदीवारी के घेरे में
बकरियाँ रहती हैं -
आधुनिक गणतंत्र की।

बकरियाँ रहती हैं
दलित शोषित वर्ग के एक परिवार के साथ
जिसने चुना है स्वयं शोषित होना
उसके शोषण के आगे 'कथित' शब्द लगाना
असंवैधानिक, असंसदीय और अवास्तविक होगा
(आप अपने रिस्क पर लगा सकते हैं)।

प्लॉट के मालिक रस्तोगी साहब
करते हैं बकरी व्यापार।
उनकी छनती है यादव जी से
जो सचिव हैं ठाकुर साहब मंत्री महोदय के
जो खासमखास हैं मुख्यमंत्री शुक्लाजी के।
सबसे नीचे से सबसे ऊपर तक
दलित-बनिया-अहिर-राजपूत-ब्राह्मण
पूरी वर्णव्यवस्था लगी है -
कुल गोत्र जातिहीन बकरियों के व्यापार में।

बहुत लाभदायी है यह व्यापार -
बकरियाँ कुछ भी खाकर जी लेती हैं
लेकिन बकरियों को खाने वाले
कुछ भी खा कर नहीं जी सकते -
उन्हें गोश्त चाहिये।

स्मृति, पुराण, संहितादि को परे ढकेल
प्रसाद, अम्बेडकर, कोई फर, कोई सर
कर महीनों टर्र टर्र
रचे एक और संहिता।
जाति, वर्ण, लिंग, सम्प्रदाय जैसे
आदमीयत के तमाम भेदों को
सुनहरे अक्षरों के नीचे दबा दिये।
लेकिन सोच भी नहीं पाये
उन कुल जातिविहीन बकरियों के बारे में
जिनकी आड़ में वर्णव्यवस्था में होता है एका -
गोश्त के व्यापार को।

कॉलोनी के भले मानुष जानते हैं
कि यह ग़ैरकानूनी है
लेकिन वे यह भी जानते हैं
- दलित कँटिया लगा वाशिंग मशीन चला सकता है।
- शोषित बाला पल भर में किसी की इज़्ज़त उतार सकती है।
- उनके एक मोबाइल काल पर पूरी मशीनरी आ सकती है
और
- लोकल सम्वाददाता के एन जी ओ रजिस्टर में
दलित परिवार शोषित है
(उसके कथित रजिस्टर में 'कथित' का कहीं ज़िक्र नहीं।)
लिहाजा बकरियों की बेसुरी बकबकाहट
वह सकपकाहट फैलाती है
जिससे
- आँखें दिव्यद्रष्टा हो जाती हैं
- कान सुरीले हो जाते हैं
- जुबान पर जोर जोर से चालीसा चलने लगता है
और खास अध्यात्म की खास अफीम खा
आत्मायें सो जाती हैं -
उनके सपनों में होते हैं - ठंडे ठंडे गोश्त -
उनके काँपते हाथों के
लड़खड़ाती चापलूसी करती जीभ के...
लिस्ट आप पूरी कर लें
(दिमाग तो है ही।)
मुझे इतना पता है
बकरी का गोश्त भले लोगों के लिये अखाद्य है
सो वे उसके सपने नहीं देखते।

इस तरह से -
वर्ण व्यवस्था बनी रहती है
(थोड़ा हेरफेर चलता है
वृत्त वही रहता है,
केन्द्र बदलते रहते हैं।)
सामाजिक समरसता बनी रहती है
आर्थिक प्रगति होती रहती है
और भले मानुष भले भी बने रहते हैं।

वे तब भी भले थे
जब नई संहिता बन रही थी।
वे अब भी भले हैं
जब कि नई संहिता पुरानी हो चली है
और उसकी धाराप्रवाह धारायें
उन्हें धराशायी कर चुकी हैं -
और वे लगे हैं
जमीन की कीच में इबारते बाँचने में।

बकरियाँ बकबकाती रहती हैं -
उनकी बकबकाहट में
मुझे सुनाई पड़ते हैं -
वेरायटी बोटीदार अट्टहास।
दलित के
ग ग ग ग
बनिया के
ण ण ण ण
अहिर के
त त त त
राजपूत् के
न न न न
ब्राह्मण के
तर तर तर तर...तर माल!

मैं भी उसी कॉलोनी में रहता हूँ
मुझे नगर निगम के नियम पढ़ने के बजाय
कविता ठेलना बेहतर लगता है -
गणतंत्र की बकरियाँ मेरे बहुत पास रहती हैं...
आप कल्पना तक नहीं कर सकते
उनकी बकबकाहट के दिव्य अट्टहास की।
आप को अंदाज हो इसलिये
यह सब अर्ज किया है।

फालतू बकबक से सिर में दर्द होने लगा है?
जाइये बाम लगा कर टी वी पर परेड देखिये -
आज के शुभ दिन मेरा गोश्त खाने का मन है।

जय हिन्द!
जय गणतंत्र!!