मंगलवार, 18 जनवरी 2011

लंठ महाचर्चा: बाउ और नेबुआ के झाँखी - 9

मेरे पात्र बैताल की तरह
चढ़ जाते हैं सिर और कंधे पर, पूछते हैं हजार सवाल।
मुझमें इतना कहाँ विक्रम जो दे सकूं जवाब
...रोज़ मेरा सिर हजार टुकड़े होता है।

भाग–1, भाग-2, भाग–3भाग-4, भाग-5, भाग-6, भाग-7, भाग-8  से आगे...
तिजहर के बाद दिनबुड़ान का समय निकट था और रामसनेही सिंघ के यहाँ मजमा लगा था। गाजे बाजे के बाद आ जुटे पट्टीदारों का स्वागत गुड़ दही के रस से किया जा रहा था। सग्गर और रामसनेही दोनों खदेरन पंडित के ज्ञान की प्रशंसा में लगे थे और बाकी जन उनके ग़ायब होने को मन में दबाये हाँ, हूँ कर रहे थे कि फेंकरनी की माई ने दुआर पर कदम रखा। पहुँचते ही वह जुग्गुल लंगड़े पर पिल पड़ी – गालियाँ।
“हरे मुतपियना, लवँड़ा के पूत लंगड़ा! हमरे धिया के पेटे पर काहे मरले रे! एगो नेबुआ खातिर?” (गालियाँ, लंगड़े मेरी बेटी के पेट पर क्यों मारे? एक नीबू के लिये?)
जिस समाज के लिये फेंकरनी का प्रसव एक अघटना और मौज का सामान था, वह समाज सन्न रह गया। कहते हैं जब तक बरही न बीत जाय, नवजात को जीव नहीं मानते। नीबू तोड़ा और अब गालियाँ! वह भी इस समय!! भरी सभा में अपमान! – पहले से ही खार खाये रामसनेही अनहोनी की आशंका से दहल उठे। माई के कर्कश स्वर में आँसू और शिकायत घुल गए। उनकी ओर मुखातिब होकर अपनी बात कहने लगी। गालियाँ वैसे ही जारी रहीं। रामसनेही तड़प उठे – चुप्प!
“हरे बुढ़वा! कहाँ ले अपने लंगड़ा के धरियइबे, हमहीं के चुपवावतले? बनमरद हउवे का? हमरे मूते से मोछि बनवा ले।“ (रे बुढ्ढे! कहाँ तो तुम्हें इस लंगड़े को दंडित करना था, कहाँ मुझे ही चुप कराने लगे? कैसे मर्द हो? मेरे मूत से अपनी मूछ मुड़वा लो।)
चमइन के मूत से ठाकुर की मूँछ मुड़ायेगी? तमतमाये रामसनेही खड़े हो गये – “चुप्प भों....”
जीवन भर जिसने किसी की गाली न सुनी हो और न किसी को दी हो, उसके लिए यह सब बहुत भारी पड़ा। जैसे कोई गला घोंटने लगा, पूरे शरीर में सूइयाँ उभर आईं और चेहरा पीला पड़ गया – चौकी पर घम्म से बैठ गये। माई भागी। जुग्गुल माई को पकड़ने को लपका लेकिन एक हाथ से सग्गर का सहारा लेते रामसनेही ने उसका हाथ पकड़ लिया। वह चौकी पर वहीं ढेर हो गये – उद्दंड खड़जंगी(षड़यंत्रकारी) को प्रश्रय देने का दंड। उधर खदेरन के दुआरे पेड़ों पर ढेर सारे कौवे काँव काँव करने लगे।
आँगन में मतवा को वही पुरानी चिर परिचित कर्कश पुकार सुनाई दी – कहाँ बाड़ू हो? खदेरन पंडित लौट आए थे।
मन ही मन सारे देव देवियों को अपनी कृतज्ञता बताते मतवा गागर भर पानी लिये बाहर निकलीं। कृशकाय पति को देखा और गागर का पानी जमीन पर रख आँसुओं से पैर पखारने लगीं कि पूरब दिशा से पहले धीमे रोदन और उसके बाद रोने पीटने के स्वर आने लगे – जुग्गुल का स्वर दूर से भी अलग पहचाना जा सकता था। खदेरन ने चारो ओर चिल्लाते कौओं पर दृष्टि दौड़ाई – यह कैसा स्वागत? उसी समय गोंयड़े के खेत से तेज चीख सुनाई दी। हतप्रभ से दोनों उधर भागे।
भौंचक्के से उन्हों ने देखा - फेंकरनी का आधा ऊपरी धड़ पलानी से बाहर था। उसकी उल्टी साँसें चल रही थीं। पास बैठी अपने केश नोचती माई अपने आपे में नहीं थी। यह सब मेरे खेत में कैसे? खदेरन कुछ समझे, कुछ नहीं समझे। उनके लिये यह एक जन्म का आघात था। मतवा ने हाथ पकड़ रोका लेकिन डूबते सूरज के लाल गोले में अटके खदेरन कहीं और थे - तुम अपने पीछे जिनके लिए जो रच आये हो उसे भोगना उनकी नियति है और अपने रचे ध्वंस को सामने घटित देखना तुम्हारी नियति। ...माँ! इतना शीघ्र? ... ललाट लाल गोल तिलक... घटित देखना तुम्हारी नियति...काँव, काँव...
नीम के कोटर में गुड़ेरवा रात की तैयारी में लगा था।
 खदेरन फेंकरनी के सिरहाने जा खड़े हुए – सुभगा, नहीं फेंकरनी, नहीं माँ, नहीं त्रिपुर सुन्दरी, नहीं, नहीं...भीतर गड़गड़ाते स्वर ... कान फट जायेंगे। हाथ कान तक पहुँचने को थे कि फेंकरनी ने एक हाथ पकड़ लिया – पंडित हो! तोहरे आस...आँखें उलट गईं। प्राण पखेरू उड़ गए।
काठ हो चुके खदेरन के मन में श्मशान की स्मृति अर्धरात्रि घिर आई – हुआँ, हुआँ, फेंकरनी, खेंखरि... जिन्दा पुजल ह कि मुर्दा?... हमार कार करे के परी नाहीं त सब भरस्ट हो जाई। (जीवित की पूजा किये कि मृत की? ... मेरा काम करना पड़ेगा नहीं तो सब भ्रष्ट हो जायेगा।)  पगली! भ्रष्ट हुआ कि नाश? 
मतवा सब समझ गईं। माई धिया की चुप्पी! गाँव में फैला प्रवाद – सच, एकदम सच। भीतर से पियरी में लिपटे शिशु को लाकर खदेरन के हाथों में दे दिया।
...फेंकरनी! साँवर कन्हैया मिलेगा तुम्हें। ...अथ च इच्छेत्पुत्रो मे श्यामो लोहिताक्षो जायेत... ॐ ह्रीं स्त्रीं तारायै हुं ॐ फट् स्वाहा।... माई पंडित के पैर पकड़ घिघियाने लगी – हमरे धिया? कवन करनवा ये पंडित! काहें हो? (मेरी ही बेटी, किस कारण पंडित? क्यों?)...खदेरन के पास न उत्तर थे और न प्रश्न।  
...नींबू श्मशान में दो टटके प्रेत नाच उठे - जमुना पहुँचहूँ न पवलीं, घड़िलओ न भरलीं महल मुरली बाजे हो। झूलहु हो लाल झूलहु कन्हैया जी के पालन हो। ...पंडित हो! चन्दन गाछ पर झुलाओ।
(जारी)