मंगलवार, 25 जनवरी 2011

लेंठड़े का गाली विमर्श - 3


भाग- 1 और 2 से आगे... 

स्त्री पुरुष का आपसी आकर्षण, जिसकी चरम परिणति दैहिक समागम और संतति मे होती है, संसार का सबसे बड़ा सच है। नियमन की प्रक्रिया में समाज ने समागम को निकृष्ट कर्म बना दिया जिसका पार्श्व प्रभाव गालियाँ थी। विवाह स्त्री पुरुष सम्बन्ध को एक नैतिक और स्वीकार्य धरातल देता है लेकिन इसके बाद बहुसंख्य समाज सेक्स शिक्षा का कोई आयोजन नहीं करता। स्त्री को यह शिक्षा माँ और सहेलियों से मिलती है तो पुरुष को अंतरंग मित्रों से। सही गलत की बात नहीं, जो है सो है। विवाह के मांगलिक अवसर पर निकट सम्बन्धों का आलम्बन ले कर होने वाला गाली गायन नई पीढ़ी को परम्परा के माध्यम से स्त्री पुरुष सम्बन्धों के निकृष्ट न होने का सूक्ष्म संकेत होता है। नई पीढ़ी मैथुन क्रिया का आलम्बन ले घृणित गालियाँ रोज कहती सुनती रहती है। क्रिया आधारित जुगुप्सित गालियों के बजाय सम्बन्ध आधारित सरस गालियों का सबसे महत्त्वपूर्ण संस्कार अनुष्ठान में आवश्यक अंग बनना मस्तिष्क के भीतर की उस स्वाभाविक रागात्मकता को स्वास्थ्य प्रदान करता है जिसे दैनन्दिन निषेध रोग की तरह घोषित किये रहते हैं।
वैवाहिक अनुष्ठान में ‘माटिकोड़वा’ के अवसर पर केवल स्त्रियाँ होती हैं। बुआ या बहन मिट्टी खोद कर गड्ढा बनाती है जिसमें पानी भर कर सिक्के डाल दिये जाते हैं और उन्हें ढूढ़ने के कौतुक होते हैं। सिक्के रत्नगर्भा की क्षमता के प्रतीक होते हैं जिसका दोहन नया परिवार बसाने जाते दम्पति को करना होता है। इस अवसर पर बेहिचक और बिन्दास लैंगिक गालीगलौज होता है। मैथुन के प्रत्यक्ष सन्दर्भ वाली गालियाँ भी खूब चलती हैं। कृषि के पुरुषकेन्द्रित होते जाने और पैतृक भूमि सम्पत्ति से स्त्री को बेदखल कर दिये जाने के प्रति यह कहीं स्त्री का विरोध प्रदर्शन तो नहीं? ठीक वैसे ही जैसे आम पुरुष हताशा में गाली बक कर, नपुंसक ही सही, प्रतिरोध का संतोष कर लेता है और आगे के संघर्ष के लिये तैयार हो जाता है। यह क्रिया इतनी स्वाभाविक है कि पुरुष व्यक्तित्त्व का अंग सी हो गई है। घर में केन्द्रित स्त्री या कृषि कर्म में सहयोगी लेकिन उपेक्षिता स्त्री को अपने लिये सम्भवत: विरोध प्रदर्शन का यही अवसर मिला।
विवाह के बाद, जब कि एक नया परिवार बनता है, स्त्री धरती माँ की तरह ही बीज को गर्भ में सहेज सृजन करती है। स्त्री के लिये धरती से बेहतर अपनापन क्या हो सकता है? विवाहोपरांत स्त्री पैतृक भूमि अधिकार से वंचित होकर ससुराल की भू सम्पत्ति में भागीदार बनती है। कहीं गालीबाजी विरोध प्रदर्शन के साथ नई सम्भावना के लिये उल्लास प्रदर्शन तो नहीं? प्रश्न उठता है कि गाली ही क्यों? किसी और कथ्य में कठोरता से नियमित समागम क्रिया केन्द्रित गालियों जैसी तीव्रता कहाँ? वह भी पुरुष केन्द्रित समाज में जहाँ गाली बकना पौरुष का प्रतीक माना जाता हो और गाली देना स्त्री के लिये एक निहायत ही गलीज निकृष्ट कर्म।
ऐसी प्रथायें नगरीकरण के साथ साथ ‘सभ्यता’ के तकाजे को ध्यान में रखते हुए लुप्त हो रही हैं – अप्रासंगिक हो गई हैं। कुंठा और आक्रोश अभिव्यक्ति के तमाम साधन उपलब्ध हैं। हिंसक प्रमोद का अपना आनन्द है। स्त्री बराबरी के प्लेटफॉर्म पर उतनी ही बर्बर या क्रूर हो रही है जितना पुरुष। यहाँ के नियम और विधियाँ अलग हैं।
 निकट सम्बन्धों जैसे देवर भाभी में गालीबाजी मनोविनोद का साधन तो है ही, समाज द्वारा इसकी स्वीकृति एक तरह से सम्भावित विपत्ति से निपटने की परोक्ष व्यवस्था भी। यह मनोविनोद पारिवारिक दायरे के भीतर एक अलग सी रागात्मक निकटता गढ़ता है। देवर शब्द से ही दूसरा पति ध्वनित होता है। ऐसी तमाम घटनायें हैं जहाँ अकाल मृत्यु की स्थिति में समाज ने स्त्री को देवर से विवाह की अनुमति दे दी। कई मामलों में तो स्त्री संतानवती भी थी।
 कोई आवश्यक नहीं कि दैनन्दिन गाली बकने वाला स्त्री जाति के प्रति अनादर का भाव रखता हो। जैसा कि पहले कहा, यह क्रिया उसके संस्कारों और परिवेश से अनुकूलित मस्तिष्क में स्वचालित सी आती है और अप्रत्यक्ष रूप से अवसाद या क्रोध का निवारण कर उसे आगे के संघर्ष के लिये तैयार कर देती है। अपने परिवार के और दीगर स्त्रियों के प्रति वह आदर, अनादर या तटस्थता का वही भाव रखता है जो पुरुषों के लिये रखता है।
अब सवाल यह कि स्त्रियाँ गाली क्यों बकती हैं? पुरुष केन्द्रित समाज में अगर पुरुष को झटका देना है या उसके ऊपर ‘विजय’ प्राप्त करनी है तो उन्हीं अस्त्रों का प्रयोग क्यों नहीं जिनका प्रयोग वह स्त्री को पीड़ित करने के लिये करता है? बहुधा स्त्री के मुँह से लैंगिक गालियाँ निरर्थक लगती हैं लेकिन पुरुष के लिये स्त्री की यह ‘निर्लज्जता’ एक जोरदार झटका होती है, साथ ही समागम क्रिया में पुरुष वर्चस्व को चुनौती भी – फक यू! चोद तुम ही नहीं मैं भी सकती हूँ, तुम्हें आनन्द आता है तो मुझे भी आता है। ऐसी स्त्री प्रतिद्वन्द्वी को मानसिक रूप से हीन भाव ग्रसित कर देती है। लड़ाई में शत्रु का यही हाल होना चाहिये न। परिणाम देखो, अपनाया गया मार्ग नहीं।
गाँव गिराम में तो ऐसी स्त्रियाँ हमेशा से रही हैं, महानगरीय संस्कृति में उच्च शिक्षित प्रोफेशनल स्त्री तबके में भी इस प्रवृत्ति का अवतरण सबको चौंका रहा है।  इसमें चौंकने जैसी कोई बात नहीं है। स्त्री पुरुष से कन्धा मिला कर साथ चल रही है। उसे भी उन्हीं चुनौतियों और निराशाओं का सामना करना है जिनका सामना पुरुष करता रहा है। अपने लिये कुछ नया ढूँढने की उसे कहाँ फुरसत? गाली दे देना अच्छा है या घुटते हुये मनोरोगी होना? बहुतेरी के लिये तो यह स्वाभाविक बात है, ठीक पुरुषों की तरह वे इसके बारे में सोचती भी नहीं। हाँ, यह प्रवृत्ति बहुधा इतनी स्वस्थ मनोवृत्ति को नहीं दर्शाती। इसका उल्टा कुछ अधिक ही सच है। लेकिन ऐसा स्त्री पुरुष दोनों के लिये है। अभी संक्रमण काल है, आगे बदलाव होंगे। परिवेश का ‘लिंग्वा फ्रैंका’ ऐसी कामकाजी स्त्रियों का भी है। सामाजिक वर्गानुसार संस्कृत और प्राकृत सम्वाद विभेद साहित्य में चल सकता है, दैनिक जीवन में नहीं।   
 गालियों को लेकर सारी चिंतायें मध्य वर्ग की ही हैं। निम्न और उच्च वर्ग इनसे अधिक हलकान नहीं होते। मध्य वर्ग ने सारी अच्छाइयों का ठीका जो ले रखा है! प्रश्न यह है कि समाज या साहित्य में गालीबाजी क्या एक चिंतनीय विषय है? हिन्दी पट्टी के परिप्रेक्ष्य में गालियों का साहित्य में उतरना कहाँ तक उसके छिछलेपन से जुड़ता है? कहीं यह महज उसकी निराशाओं और यथार्थ को चित्रित करने की एक विधि तो नहीं? हम किसी साहित्य का क्या याद रखते हैं – गालियाँ या उनसे जुड़ी सम्वेदनशीलता? गालियों के बिना भी साहित्य रचा जा सकता है लेकिन क्या बस इसे न मानने के कारण कोई साहित्य या साहित्यकार छिछ्ला और त्याज्य हो जाता है? ...(अगला भाग) 
लेंठड़े की पुरानी बातें: