रविवार, 16 जनवरी 2011

लंठ महाचर्चा: बाउ और नेबुआ के झाँखी - 8

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मेरे पात्र बैताल की भाँति,  
चढ़ जाते हैं सिर और कंधे पर, पूछते हैं हजार प्रश्न।
मुझमें इतना कहाँ विक्रम जो दे सकूँ उत्तर? 
... नित दिन मेरा सिर हजार टुकड़े होता है।
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भाग–1, भाग-2, भाग–3भाग-4, भाग-5, भाग-6, भाग-7  से आगे...
हिमालय के पास की तिलस्मी धरती से तराई से लगे इलाके में आने के बाद खदेरन को लगा कि तिलस्म वहाँ नहीं उनके गाँव में था। एक ऐसी धुंध गाँव में बसती थी जिसका घेरा इलाके के लोगों को एक अलग तरह की समझ देता था। उसे समझने के लिए उस धुन्ध से बाहर आना जरूरी था लेकिन जाने कितनी ही पीढ़ियाँ बिना इलाके से बाहर गए ही मर खप गईं और बाकी दुनिया से कटे हुए इलाके का एक अलग ही व्यक्तित्त्व विकसित हो गया। जिन्दगी एक नाबदान की तरह थी और अच्छे बुरे लोग उसमें बजबजाते कीड़े।
(ज)
खदेरन के जाने के बाद कुछ दिन बाद जब मतवा चरम अवसाद से उबरीं तो ध्यान उस अग्निशाला पर गया जिसमें अब कोई देवता नहीं थे। मंत्र तो आते नहीं थे लेकिन उन्हों ने कुंड में दुबारा आग जलायी और उसे जीवित रखा। सुबह शाम बस कुछ पल आँसुओं की जलांजलि दे जाती थीं। जब फेंकरनी को लेकर माधव और उनके पति के ऊपर आक्षेप लगने और फैलने शुरू हुए तब उनका हाल फिर खराब हो गया। पति की विद्या उन्हें पता थी और मन था कि शंका को उभरने के पहले ही दबा देता था। उनका ऐसे गायब होना शंका को उभारता ही रहता और उसे जीवित रखने को आँसू बहते रहते।
फेंकरनी चुप रहती और उसकी माई तो सामने पड़ते ऐसी चुप होती कि शंका दुगुनी हो जाती। चमाइनें मुँह से आग पानी झराझर बरसाने के लिए जानी जाती थीं। उनकी चुप्पी रहस्य को गहराती ही थी। फिर भी मतवा ने उन्हें गोयड़ें के खेत में बसे रहने दिया और कभी कभार खाने पीने को कुछ देती भी रहीं - विधना का लेख कौन टार पाया, अपने से खराबी क्यों करें?
गर्भ की अंतिम अवस्था में जब कि आज बिहान कब नहान सी स्थिति रहती है, एक दिन दोनों माई धिया नींबू के पास से गुजरीं और फेंकरनी नीबू के फल को देख वहीं ठिठक कर खड़ी हो गई। उसे अरुई के पत्ते का खटलोस चोखा खाने का मन हो आया।
“माई रे! नेबुअवा तूर लीं? केहू देखत नइखे। तोरे हाथे के पत्ता के चोखा खाये के मन करता।“(माँ! नींबू तोड्फ़् लूँ? कोई नहीं देख रहा। तुम्हारे हाथ का पत्ते का चोखा खाने को मन कर रहा है।)
“सब दिन पूर गइल, अब छिनरो बीजन खइहें! मुहझौंसी सगरी तमाशा तोरिये कइल हे तब्बो कहतले कि नेबुअवा तूर लीं? कपरा पर कौनो चुरइल बइठल बा का? देखतनी गाँवे में केहू इहाँ मिलि जा त बना देब। लेकिन ई नेबुआ जनि छुइहे।” (सारा समय बीत गया और छिनार को अब व्यंजन खाने की सूझ रही है। कलमुही! सारा तमाशा तुम्हारा किया धरा है। तब भी यह पूछ रही हो कि नींबू तोड़ लूँ? सिर पर कोई चुड़ैल सवार है क्या? देखती हूँ गाँव में किसी के यहाँ मिलता है तो बना दूँगी। लेकिन तुम इस नीबू को छूना भी मत।)
अजीब संयोग माई को गाँव भर में नेबुआ कहीं नहीं मिला-हुमचावन के यहाँ भी नहीं। मतवा से अमचूर माँग उसने चोखा बनाया जिसे जीभ पर रखते ही फेंकरनी ने मुँह बिचका दिया – ई त करसी के तरे लागता रे माई! (यह तो सूखे गोबर की तरह लग रहा है!)
“हँ बुजरो तोहरा खातिर महराज बोलाईं?” (हाँ बुजरी! तुम्हारे लिये महाराज बुलाऊँ क्या?)
फेंकरनी की जुबान ऐंठ कर रह गई।
अगले ही दिन सुबह सुबह सग्गर बाबू हाँफते खदेरन के गोंयड़े खड़े थे – चलु रे माई! जल्दी चलु, बहुरिया प्रसव पीड़ा से त्रस्त हो रही थी। फेंकरनी भी साथ जाने की ज़िद में पड़ गई और दोनों के मना करने के बावजूद साथ चल दी। माई जब पहुँची तो भीतर से करुण चीखें रह रह कर आ रही थीं। रामसनेही बेचैन से दुआरे टहल रहे थे। जुग्गुल जंत्री सिंघ के साथ बतिया रहा था। उसे देखते ही माई के भीतर घिरना (घृणा) की बाढ़ उमड़ आई लेकिन उस समय घर के भीतर की पीर सब पर भारी थी।
भीतर का दृश्य हृदयविदारक था। बच्चा पेट में आड़ा था और सग्गर बहू का चेहरा इतनी ही देर में बेनूर लाश की तरह हो चला था जिस पर जीवन के चिह्न ऐंठन और चीख के साथ आते और उनके साथ ही चले जाते। फेंकरनी ने ऐसा बहुत देखा सुना था लेकिन सग्गर बहू को देख कर इस बार उसे अपनी कोख की सुध आई और एक डर भीतर पैसता चला गया। उसके मुँह का स्वाद किसी ने सोख लिया और देह पानी पानी हो गई – बारिश में चँवर। देह का भारीपन मन पर सवार हो गया। उसने माई से जाने की अनुमति माँगी। माई उस समय क्या करती? – जा बच्चा! धीरे धीरे जइह (जाओ बच्ची! धीरे धीरे जाना) – उसने पहली बार फेंकरनी को बच्चा कहा था। दूर कहीं अदृश्य नक्षत्रों के बीच कुछ कानाफूसी हुई और नियति का चक्का तेजी से घूम उठा।
दुआर से जाने के बजाय फेंकरनी ने खिरकी का रास्ता पकड़ा और उस बेस्वाद मुँह वाली को सामने नींबू का फल दिखा। उसने झपट कर उसे तोड़ कर आँचल में छिपा लिया। उसे पता ही नहीं चला कि पेशाब करने आ रहे जुग्गुल ने उसे देख लिया था। कुछ ही कदम चली होगी कि गालियों की बौछार के साथ पेट पर तेज लात पड़ी और एक साथ दो जन जमीन पर थे। जुग्गुल संतुलन बिगड़ने के कारण गिरा था तो फेंकरनी आघात से। नींबू दूर छटक गया। भयानक दर्द के बीच उसने जुग्गुल को देखा जो अभी सँभल रहा था। आदिम भय और आने वाली संतान की सुरक्षा की भावना ने उसके पैरों में जैसे पंख लगा दिये। दर्द दब गया। भागती हुई अपने पलानी में जब पहुँची तो जैसे देह से पानी का सोता फूट रहा था। उसे प्रसव पीड़ा शुरू हो गई।
उस समय मतवा अग्निशाला में आग को जीवन दे पूजा वाली पियरी (पीली धोती) सहेज रही थीं। उन्हें ध्यान आया कि गोंयड़े से सुबह से कोई दिखा नहीं! पलानी के पास पहुँची तो भीतर से कराहने के स्वर आ रहे थे। वह समझ गईं। पुकारने पर किसी तरह फेंकरनी ने बताया कि माई सग्गर सिंघ के यहाँ थी। मतवा ने एक लड़के को पकड़ कर माई को बताने को दौड़ाया लेकिन जुग्गुल ने उसे दुआर से ही चलता कर दिया। वापस आये लड़के को रोक कर मतवा ने कुछ पल सोचा और चमटोली में बिघना बहू के लिये सन्देशा भेजा। लड़का जब फिर से वैसे ही लौट आया, तब मतवा खुद चमटोली गईं और गिरधरिया मेठ के इनकार से ठकुआ कर रह गईं। समय नहीं था और उस नराधम के आगे और कहना बेकार था। मतवा निराश लगभग भागते वापस आईं तो फेंकरनी की पीड़ा बढ़ चली थी।
भीतर से टूटती आवाज़ आई – मतवा, कुछु करीं... पेटे में राछस किकोरता... राउर एहसान जनम भर राखब।(मतवा! कुछ कीजिए... पेट में राक्षस छील रहा है...आप का एहसान आजन्म मानूँगी।) मतवा को अस्पृश्यता का ध्यान क्षण भर को आया लेकिन वाह रे ममता! उसकी एक लहर गाय और भैंसों के प्रसव का ध्यान दिला गई। जब पशुओं के लिये छूतछात की परवाह नहीं तो मानुख के लिये क्यों? मतवा ने चिपरी (एक तरह का उपला) के कुछ टुकड़े उठाये और अग्निशाला के पास आकर फिर से ठिठक गईं। पति खदेरन का कहा ध्यान में आया – अग्नि कभी अपवित्र नहीं होती, सब पवित्र कर देती है। उनके ऊपर लगा लांछ्न भी ध्यान में आया और उनका बिना बताये गायब होना भी। आँखें भर आईं, मन में जाने कितने भाव आये और चले गए।
दहकती समिधा के कुछ टुकड़े चिपरी पर सज गये और पियरी सँभाले मतवा ने चमइन के प्रसूति गृह में प्रवेश किया। उधर उस समय जुग्गुल ने रामसनेही के हाथों में नींबू सौंपा और सारी बात कह सुनाई। अभी पोता गर्भ से बाहर आने को संघर्ष कर रहा था और कुलटा चमइन पहला फल ही तोड़ गई! अनर्थ की आशंका से रामसनेही सिंघ का खून खौल उठा। कान लाल हो उठे, कुछ न कह कर नींबू गमछे में गठिया लिये और बेचैन से टहलने लगे। जुग्गुल सिर पर हाथ रखे अवसादग्रस्त सोचता रहा – एतना अबेर काहें होता? (इतनी देर क्यों हो रही है?)
प्रतीक्षा की लम्बी घड़ियाँ सिमटीं, बाहर आकर माई ने थाली बजाते हुए पोते के आगमन की सूचना दी और थाली को दुआर पर ही पटक कर अपने पलानी की ओर भाग चली। उसे लग रहा था कि हो न हो फेंकरनी भी...
...हाँफती माई को पलानी के भीतर पियरी में लिपटे साँवले बच्चे को लिये मतवा मिलीं। भौंचक्की चमइन को कुछ नहीं सूझा। मतवा के पैर पकड़ फूट फूट रो पड़ी – कवनो एहसान नाहीं बचल हो मतवा! कवनो नाहीं। (कोई एहसान नहीं बचा मतवा! कोई नहीं)
मतवा उदास भाव से मुस्कुराईं – माई रे! सोहर गाउ, सोहर ...कोसिला से भेजलें पियरिया हो राजाss।
... यह पियरी नैहर की है। तोर ससुरा कहाँ रे छिनरी फेंकरनी? ...माई को कन्हैया बलराम ध्यान में आये - एक भैया साँवर एक भैया गोर...झूलहु हो लाल झूलहु लेकिन झुलाने वाली फेंकरनी तो निढाल पड़ी हुई थी और चन्दन गाछ? नपत्ता! 
फेंकरनी के चेहरे पर मुक्ति के तोष का अता पता नहीं था - सारा रक्त निचुड़ गया था! साँसें आँखों में अटकी थीं – जाने किसकी प्रतीक्षा थी? मतवा बाहर हो गईं। फेंकरनी ने माई का हाथ पकड़ पास बैठा लिया।...
यह काण्ड सुनने के बाद लगभग अन्धे हो चले जलपा(बहुत बूढ़े) महामहोपाध्याय पंडित चंडीदत्त शुक्ल निकृष्ट कर्म कर चुकी ब्राह्मणी के लिये मनु, याज्ञवल्क्य, गर्गादि की वाणी में दंड विधान के मानसिक अन्वेषण में लग गए।
...माई रे! लागता पेटवा में लंगड़ा के लात धइल बा।(माँ! लग रहा है कि पेट में लंगड़े का पैर रखा हुआ है।) जुग्गुल की करनी सुन कर क्रोधोन्मत्त माई हिसाब किताब करने चल दी – सहना बहुत हुआ, अब लड़ा जा सकता था। (जारी)