गुरुवार, 27 जनवरी 2011

लेंठड़े का गाली विमर्श - अंतिम भाग

भाग- 1, 2 और 3 से आगे...
गालियाँ सीख कर उनका धड़ल्ले से प्रयोग कर लेने वाले भी समझते हैं कि गालियाँ संवाद की मुख्य धारा नहीं है। अधिकांश बाल बच्चेदार हो जाने के बाद गाली बकना अंतरंग मित्रों की बैठक के लिये सुरक्षित कर देते हैं। यह दर्शाता है कि परिवार के बाहर भी एक अलग सा रागात्मक परिवेश है जो एक दूसरे से इतना खुला है कि निषिद्ध सम्वाद भी बेहिचक कर लेता है। गालियाँ वहाँ सहज ही आती हैं चली जाती हैं। यह ‘निजी’ परिवेश परिवार इतना महत्त्वपूर्ण भले न हो, कम महत्त्व नहीं रखता। इस परिवेश में निराशायें, दुख, क्षोभ साझा किये जाते हैं और आगे के लिये महत्त्वपूर्ण बातें तय की जाती हैं। इस परिवेश से गालियाँ निकाल कर देखिये – औपचारिकता हाबी होने लगेगी।
हिन्दी साहित्यिक समाज छिछ्ला आत्ममुग्ध समाज है। अध्ययन, उदारता और आत्ममंथन का घोर अभाव है। मजे की बात यह है कि इससे जुड़े सभी इस बात को अच्छी तरह समझते हैं लेकिन वे स्वयं छिछ्ले तर्कों और जुमलों का प्रयोग दूसरों के लिये करते हैं। समृद्ध परम्परा वाली भाषा बोलियों के स्थान पर एक नई भाषा खड़ी बोली को संस्कारित कर विकसित की गयी और देखते ही देखते सौ वर्षों से भी कम समय में इस पूरे क्षेत्र की सभ्य, असभ्य, औपचारिक, अनौपचारिक सब भाव की भाषा बन गई। यह चमत्कार नहीं था। इसकी सफलता के पीछे एक अंगड़ाई लेते समाज की आशायें थीं और कर्मयोगियों का श्रम था। लेकिन बाद की साहित्यिक पीढ़ी समाज से कटती चली गई। उसके कथित क्रांतिकारी साहित्य के पन्ने ‘दीवारी क्रांति’ तक सीमित रह गये। जनवाद की बातें तो खूब हुईं लेकिन उन्हें सुनने वाले जन कब ‘बतकही’ को छोड़ गए, पता ही नहीं चला।
आज हिन्दी समाज में सिनेमा और टी वी की पैठ साहित्य से अधिक है। पढ़े लिखे तबके में इंटरनेट का प्रयोग तेजी से फैल रहा है। हिन्दी क्षेत्र के बुद्धिजीवी वर्ग का बहुसंख्य अंग्रेजी में और अंग्रेजी को पढ़ता है। वह गम्भीर विमर्श अंग्रेजी में करता है। उसे अपने लिये अलग से न गढ़ना है और न अपनी भाषा को सक्षम बनाने का उद्योग करना है। इतनी बड़ी जनसंख्या होने के बाद भी नेट पर स्तरीय हिन्दी सामग्री का अकाल है। साहित्य और लक्षित पाठक में एक दूसरे से कटाव की स्थिति है। कोई आश्चर्य नहीं कि हिन्दी में ‘नया बेस्ट सेलर साहित्य’ नहीं के बराबर है। विश्वविद्यालयों में हिन्दी बची है तो उसका भी कमोबेश वही हाल है जो राज्य से आश्रय पाई ‘राजभाषा हिन्दी’ का है। अकादमिक गलियों में मेरिट के बजाय गोल और गोलबन्दी को आगे बढ़ाने का चलन है। ऐसे में यह स्पष्ट है कि हिन्दी साहित्य से क्रांति नहीं हो सकती। दूसरी भाषाओं में भी साहित्यिक कृतियों के कारण क्रांति का कोई उदाहरण नहीं मिलता, हाँ वन्दे मातरम जैसे विरल उदाहरण अवश्य हैं जिन्हों ने क्रांति के जुनून को स्वर और सहारे दिये। यह साहित्य की शक्ति और सीमा दोनों है लेकिन हिन्दी की स्थिति में केवल सीमा ही सीमा है।
यहाँ साहित्य समाज को दिशा नहीं दे सकता लेकिन अपने समाज का दर्पण तो बन ही सकता है। जिस समाज में सड़क किनारे या हर उस जगह पर जो साफ, समतल और चिकनी हो, हगने का रिवाज हो, गालियों का चलन सीधे मनोवृत्ति से जुड़ता है। अब साहित्य अपने समाज की ही बात करेगा, दूसरे समाज की नहीं। दूसरे साहित्य में भी ऐसी प्रवृत्तियाँ हैं। जिनके यहाँ जैसी गालियाँ हैं, साहित्य में वैसी आती हैं। हिन्दी में भदेस और लैंगिक गालियाँ आनी कुछ अधिक ही स्वाभाविक हैं, जो समाज का सच हैं।
यह युग उदारीकरण के साथ साथ ध्रुवीकरण का भी युग है। जाति, लिंग, सम्प्रदाय, भाषा, क्षेत्र आदि को लेकर नित नई गोलबन्दियाँ हो रही हैं। ऐसे में साहित्य की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाती है। क्या हिन्दी साहित्यिक समाज संवाद, संवेदना, सहानुभूति और उदात्त मानवीयता को स्वर देने को तैयार है? स्थापित साहित्यिक समाज सुविधापरस्त, भ्रष्ट और पाखंडी है और तकनीकी के कारण आम पढ़े लिखे लोगों को अभिव्यक्ति के जो नए प्लेटफॉर्म मिले हैं, उन पर हो रहे सृजन को देखकर भयभीत है। अनर्गल प्रलाप, जुमलेबाजी और आरोप शुरू हो गये हैं। ये सभी उनके छिछ्लेपन के प्रमाण हैं। वे यह भी भूल गये हैं कि काल की गति रोकना सम्भव नहीं।
साहित्य में गालियों के उन सीमित प्रयोगों पर हो हल्ला मचाना जो कि कथ्य को स्वाभाविकता और सम्वेदना से पूरित करती हैं, एक साजिश है और कुछ नहीं। पाठक वर्ग में तमीज थी और हमेशा रहेगी। उसे फुटपाथिये मस्तराम की गाली और ‘काशी का अस्सी’ की गाली में फर्क करना बखूबी आता है। साहित्यकारों से श्रम और ईमानदारी अपेक्षित है न कि एक दूजे का पीठ खुजाने की गोलबन्दी और सतही जुमलेबाजी। गालियाँ साहित्य से समाज में नहीं जातीं, समाज से साहित्य में आती हैं। समाज इतना संस्कारित हो जाय कि गाली बकना ही छोड़ दे, एक बहुत व्यापक फलक वाला विषय है और उसमें साहित्य का योगदान तो है लेकिन इतना भी नहीं कि उसे शुचितावादी होकर कृत्रिमता का चोला पहनने की आवश्यकता पड़े। (समाप्त)
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धूप खिल चुकी थी। लेंठड़े ने प्रवचन समाप्त करते हुये अपनी यह बात दुहराई कि उसे मानव समाज का बहुत कुछ समझ में नहीं आता। जानना एक बात है और समझना दूजी बात।
मुझे पढ़ने के लिये एक ब्लॉग लिंक देकर वह वापस लाइब्रेरी में चला गया।