रविवार, 27 नवंबर 2011

कास, कुश, खस, दर्भ, दूब, बाँस के फूल और कुछ मनबढ़ई

kaasa
शरद ऋतु में कास, Saccharum spontaneum
कास हर शरद फूलते हैं। प्रकृति मैदानों के उन सरेहों को यह उपहार हर वर्ष देती है जहाँ हिमपात नहीं होते। उन्हें बहलाती है – क्या हुआ जो हिमपात नहीं? इनका सौन्दर्य अलग है। मन्दानिल पर कभी हिम लहरा सकता है क्या? लेकिन इन्हें देखो तो सही! कितना सुन्दर नृत्य है!!
मेरे मन पर नहर किनारे पिताजी के साथ खेतवाही निकलने पर दूर दूर तक पसरे लहराते कास कुंजों की छवि अमिट है। पैसेंजर ट्रेन से गुजरते उन पर अठखेलियाँ करती धूप और लहराती शुभ्र धुपछैंया – खिड़कियों से इससे बढ़ कर प्यार नहीं किया जा सकता। आप भी सोचेंगे आज क्या ले कर मैं बैठ गया?
यदि आप निपट अकेले खेतों के मेड़, बाग, दिन में अँधियारे बगीचों, नहर किनारे नहीं भटके हैं, हर सौ एक पग पर किसी अनजान वनस्पति को देख बच्चे सरीखे कौतुहल के साथ बैठ उसे कुछ क्षण निहारे नहीं हैं और भोले आश्चर्य से ग्रसित नहीं हुये हैं तो आप को मुझे समझने में कठिनाई होगी। बचपन गया, कैशोर्य गया; नून रोटी के चक्कर में अब वैसा नहीं हो पाता लेकिन जब भी अवसर मिलता है, मैं नहीं चूकता। इंटरनेट और ब्लॉग का संसार भी अवसर दे देता है।
इस बार चक्र प्रारम्भ हुआ अवधिया जी की इस पोस्ट से जिसमें कास का उल्लेख था। कास या काँस को देवी दुर्गा का स्वागत पुष्प माना जाता है - शारदीय नवरात्र के आसपास मातृपूजा हेतु प्रकृति का उपहार। अवधिया जी का फैन होने के लिये स्वयं को सराहा और मैं तो मैं! पुराना भ्रम सिर उठा बैठा - कहीं कास मूँज तो नहीं? यह प्रश्न अचानक उठा और पवित्री की स्मृति हो आई। वही पवित्री जो कुश की बनती है और पूजा पाठ के अवसर पर हाथ में अँगूठी की तरह पहनी जाती है। कुश और मूँज में अन्तर को लेकर मैं उलझा करता था। नवरात्र में पूजा करते पुरोहित जी अन्तर समझाने के असफल प्रयत्न करते और बात दर्भ पर आ कर और उलझ जाती। वैदिक युग से ही दूर्बा, कुश और दर्भ (आधुनिक विज्ञान के विश्लेषण से देखें तो सब के सब घास) बहुत पवित्र माने गये हैं। ऋग्वेद के प्रथम मंडल में कुश(र), दर्भ, सैर्या और मूँज का वर्णन मिलता है जहाँ साँप(?) और उस जैसे अन्य जीव अदृश्य विचरण करते हैं: 
शरास: कुशरासो दर्भास: सैर्या उत।
मौञ्जा अदृष्टा बैरिणा: सर्वे साकं न्यलिप्सत॥191.3॥ 
doob
'दूर्बा' या 'दूब'
Cynodon dactylon 
(syn. Panicum dactylonCapriola dactylon) 
कुश , Desmostachya bipinnata  
दूर्बा या दूब को तो आप सब पहचान सकते हैं लेकिन कुश और दर्भ? हमारे बच्चे तो सम्भवत: दूब भी न पहचान पायें! ऋग्वेद के भाष्यकार सायण के समय से ही कुश और दर्भ को लेकर भ्रांति व्याप्त रही है। लोक में और सामान्य व्यवहार में कुश या कुस या कुसा और दर्भ या दाभ या डाभ या डाभी प्राय: समानार्थी रूप में आज भी प्रयुक्त हो रहे हैं लेकिन वास्तव में ये भिन्न हैं। कुश का वैज्ञानिक नाम Desmostachya bipinnata है। पुराने समय में कुश को 'खर दर्भ' कहा जाता था जब कि दर्भ को 'मृदु दर्भ'। दोनों नामों में दर्भ प्रयुक्त होने से भ्रम हुआ और लोक ने सरलीकरण कर दोनों को एक कर दिया।


दर्भ का वैज्ञानिक नाम Imperata cylindrica  है। इसे लोक में डाभ या डाभी नाम से भी जाना जाता है लेकिन जैसा कि पहले बताया, कई बार लोग कुश को भी डाभ या डाभी बोलते हैं। अन्य देशों में इसे जापानी घास और Red Baron नामों से भी जाना जाता है। इसकी पत्तियाँ ऋतुचक्र और अवस्था अनुसार लाल या बैंगनी सदृश भी हो जाती हैं। अथर्ववेद में दर्भ की प्रशंसा में कई मंत्र हैं। 
दर्भ या डाभ, Imperata cylindrica

mooj
मूँज, Saccharum munja 
... इन वनस्पतियों को लेकर मन में घूमता चक्र कुछ धीमा पड़ा था कि आज अपने प्रिय कवि अविनाश चन्द्र की इस कविता पर दृष्टि पड़ी। हिमांशु, देवेन्द्र पांडेय, रजनीकांत, किशोर चौधरी, संजय व्यास और अविनाश ऐसे कविजन हैं जिनकी हर कविता से कुछ न कुछ नया सीखने को मिलता है। अविनाश ने ‘वानीर’ शब्द का प्रयोग किया जिसका अर्थ होता है – मूँज। अद्भुत बिम्बों के लिये बधाई देने के पश्चात अचानक यह पंक्तियाँ मन मथने लगीं (मन्मथ से अर्थ न जोड़ें Smile )
कौन खींचता है नियम से,
मारूति के नव परिपथ?
वानीर झुरमुटों के बीचोंबीच,
यत्र-तत्र काटते पगडंडियों को।
मैं सोचने लगा यहाँ वानीर के स्थान पर कास का प्रयोग किया जाय तो कैसा बिम्ब हो?
कौन नियम नित्य का यह?
नाचते हैं कास झुरमुट
मन्दानिल के मद्धम ताल

भूलती पगडंडियाँ मार्ग।
अविनाश के यहाँ मारुति के परिपथ को खींचने वाला प्रधान है – कदाचित उद्योगप्रधान बिम्ब और मेरी मनबढ़ई में नियम लेकिन कास झुरमुट के नृत्य पर पगडंडियों का मार्ग भूलना भारी पड़ जाता है – कदाचित अलसाता सा बिम्ब। ‘जाने दूर नक्षत्रों से कौन?’ और ‘कौन तुम संसृति जलनिधि तीर’ वाली उत्सुकता दोनों में है। खैर! यह मेरी मनबढ़ई ही है, उनके जैसा अर्थगहन बिम्ब गढ़ना अपने वश का नहीं है...मूँज और कास एक ही हैं क्या?
वामन शिवराम आप्टे के शब्दकोष में मूँज के लिये ‘दर्भाह्वय:’ शब्द बताया गया है। अब ‘आह्वय:’ का अर्थ कोई संस्कृत विदुषी/विद्वान बतायें तो पता चले। आप्टे शब्दकोष तो उसका अर्थ A name, appellation बताता है। तो क्या मूँज भी पवित्र दर्भ से सम्बन्धित है? उपनयन संस्कार के समय मूँज की मेखला पहनाई जाती है। सामान्य अवधारणा के विपरीत मूँज और कास अलग वनस्पतियाँ हैं। मूँज का वैज्ञानिक नाम Saccharum munja है। डा. पंकज अवधिया ने कास (Saccharum spontaneum) से इसकी भिन्नता को http://botanical.com पर अपने आलेख में स्पष्ट किया है। तय है कि प्राचीन काल से ही मूँज, कुश और दर्भ वनस्पतियाँ आनुष्ठानिक और औषधीय कार्यों में प्रयुक्त होती रही हैं लेकिन कास नहीं। 
kush
खस या खसखस या उशीर या वीरण या काळावाळा
Vetiveria zizanioides  
खस या खुश (Vetiveria zizanioides) की भीगी चट्टी गर्मियों में शीतल बयार के लिये जानी जाती रही है। वही जिसकी जड़ के अर्क से मीठा खस का शर्बत बनता है और जिसे परम्परा से उशीर, हरिप्रिय और सुगन्धिमूल के नाम से भी जाना जाता रहा है। बिहार में इसकी कृषि की जाती है। 
बिहार सिद्धार्थ गौतम के ज्ञानप्राप्ति की भूमि है और कहते हैं कि उन्हें कुश की चटाई पर बैठ कर ज्ञान की प्राप्ति हुई। इसलिये सनातन के साथ साथ बौद्ध परम्परा भी कुश को पवित्र मानती है लेकिन जिन्हें कुश की चटाई कह कर बौद्ध और अन्य देशों को निर्यात किया जाता है, वह वास्तव में खस या खुश की बनी होती हैं। बिहार में यह प्रचुरता से मिलता है। अब यह शोध का विषय है कि गौतम की चटाई कुश की बनी थी या खस खुश की? 
लोक में जिस तरह से दर्भ और कुश को लेकर भ्रांति व्याप्त है, कहीं बौद्ध परम्परा में कुश या खस को लेकर तो नहीं है? हो सकता है कि गौतम खश यानि उशीर की चटाई पर ही बैठे हों, वैदिक कुश की चटाई पर नहीं। मुझे संहिताओं में उशीर नहीं मिला। क्या वैदिक युग में यह वनस्पति ज्ञात नहीं थी? 


...शांत सन्ध्या में फोन आया तो गरिमा बिटिया लाइन पर थी – बड़े पापा! आप जानते हैं बाँस फूलते हैं तो बहुत बुरा होता है? मेरी टीचर ने बताया है और घर पर पूछने को भी कहा है। अब टीचर के मन में जो था, वही जानें लेकिन मैं एक और चक्कर खा गया। बाँस भी कथित घास जाति का ही है। अपने जीवनकाल में एक ही बार फूलता है और फिर मर जाता है। बाँस में ‘सामूहिक पुष्पन’ होता है – भूगोल-ऋतु-निरपेक्ष, जिसकी आवृत्ति दशकों से सदियों तक में होती है। जापान और संसार के कुछ भागों में 130 साल बाद बाँस फूलते पाये गये हैं तो मिजोरम और उत्तरपूर्व के अन्य राज्यों में लगभग 48 वर्षों की आवृत्ति देखी गई है। 1862, 1911, 1959 और 2008 में बाँस फूले और हर बार विनाश या उपद्रव घटित हुये। होता यह है कि बाँस फूलने के बाद उनमें बीज पड़ते हैं जिसके पश्चात बाँस मर जाते हैं। उनकी सामूहिक मृत्यु के कारण जिन क्षेत्रों में अर्थव्यवस्था बाँस पर आधारित है, वहाँ नई बाढ़ तैयार होने तक इस संसाधन का अभाव हो जाता है। बीजों की अधिकता से खाने की उपलब्धता कई गुना बढ़ जाने के कारण चूहे बहुत बढ़ जाते हैं। चूहे बाकी फसलों को चौपट कर देते हैं और दुर्भिक्ष की स्थिति आ जाती है।
bamboo_flower_MogensEngelund
(1)

(2)
bamboo_flowers_in_mizoram_ShahanazKimi
(3)

(1) बाँस के फूल, चित्र : Mogens Engelund
 
(2) बाँस के फूल, चित्र : Joi Ito

(3) बाँस के फूल, मिज़ोरम, चित्र : Shahanaz Kimi
1959 में मिजोरम में यही हुआ। धीरे धीरे अकाल सी स्थिति हो गई और केन्द्र सरकार की बेरुखी ने पहले से जारी अलगाववादी आन्दोलन को बहुत शक्तिशाली और जनप्रिय बना दिया। परिणाम हुआ – लगभग 20 वर्षों तक जारी संघर्ष जिसका समापन राजीव गान्धी लालडेंगा समझौते के साथ हुआ। मिजोरम में विद्रोहियों की सरकार बनी और वे मुख्य धारा में आये...
...अब समाप्त करता हूँ, बात बाँस के फूलने तक जो आ गई! अविनाश के रहते विनाश की बात कौन करे लेकिन विराम होना ही चाहिये Smile बहुत हो गई घास खोदाई! 
आप यह समझ लें कि मिलते जुलते नामों से बहुत भ्रम हो सकता है। उनके गुण एकदम अलग हो सकते हैं। 'कास, कुश और खस' या 'दूब, दर्भ(डाभ)' नामों के मामले में साम्यता रखते हैं लेकिन हैं एक दूसरे से एकदम अलग -  पृथक, स्वतंत्र अस्तित्त्वधारी।  
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आभार: 
विकिपीडिया, डा. पंकज अवधिया, एस. मेहदीहसन, एस. जयलक्ष्मी, अर्जुन पात्रा, वी. के. लाल, ए. के. घोष, तमाम अन्य वेबसाइट और अपने अभिषेक ओझा जिनकी टिप्पणी ने लोक प्रेक्षण से उद्भूत कुश और खस के एक ही होने की अपनी धारणा पर मुझे पुनर्विचार और शोध को प्रेरित किया। 
अभिषेक जी से अनुरोध है कि वह भी अपनी इस धारणा कि मूँज और कास एक ही है, में सुधार कर लें। :) 
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यह आलेख अपने प्रकाशन के पश्चात 01/12/2011 को प्रात: 9 बजे तक संशोधित, परिवर्द्धित और पुनर्प्रकाशित किया गया।

गुरुवार, 24 नवंबर 2011

बेहूदे समय में एक बेहूदी पैरोडी


सुन्दर लाल सफेद, उफ! सम्मान।
प्रख्यात कथाकार घड़ियाल।
लबार।
गुरु की जयंती
झापड़ कृपाण
भ्रष्टाचार।
गृह मंत्री
मुझे नहीं पता
यह देश किधर जा रहा?
रिटेल
एफ डी आई
कैबिनेट मंजूरी।
प्रधानमंत्री
देश के हालात खराब हो सकते हैं।
रुपया गिरता जा रहा।  
चीर दूँगा।
विपक्ष
चेताया  
पक्ष
उकसाया
सबपक्ष 
निन्दनीय कर्म।
चक्के जाम
प्रदर्शन
कल बन्द की नोटिस।  
एक सनकी
एक झापड़
वाहे गुरु!  
(सत्ता सेवक साहित्य, वाह रे कथाकार!
इनाम वसूलने को मिले लबार!
आत्मा की चिता ज्ञानपीठ
मर गये कवि कुल! रह गये तुम!!)
टी एस इलियट याद आया है – कहीं का रोड़ा, कहीं पर जोड़ा
...
What are the roots that clutch, what branches grow
Out of this stony rubbish? Son of man,
You cannot say, or guess, for you know only
A heap of broken images, where the sun beats,
And the dead tree gives no shelter, the cricket no relief,
And the dry stone no sound of water.
...
....
“My nerves are bad to-night. Yes, bad. Stay with me.
Speak to me. Why do you never speak? Speak.
What are you thinking of? What thinking? What?
I never know what you are thinking. Think.”
I think we are in rats’ alley
Where the dead men lost their bones.
 “What is that noise?”
 The wind under the door.
“What is that noise now? What is the wind doing?”
 Nothing again nothing.
 “Do
You know nothing?
Do you see nothing?
Do you remember Nothing?”
 I remember
Those are pearls that were his eyes.
“Are you alive, or not? Is there nothing in your head?”
...
मुझे नहीं पता
“चोर है!”
“सब चोर हैं।“
...
कानों पर अटखेलियाँ हैं गर्म सिसकी, देह पिघले मोम जमती सर हवा।
लगा चाटा चटाक, जल उठे हैं गाल, जम गई है देह डाँट- कल्पना मूर्ख!  
आ पहुँचे हो उनके सामने तैरते राख नदी पर, हवाई तिलस्म में घुलते
देखो! छिटक उठे हैं सितारे इस गहन चिरगर्भवती धरा की ममता कोख में  
देखो! निहारिकायें उड़ा रही हैं धूल धमाल अरे! साज ताल, सुनो पखावज
नाद निर्वात नित नृत्य नग्न हो उठा नवीन। काट खाया है निज को शोणित हीन
चमकती खाल से झाँकती शिरायें – यह सच है अज्ञानी, झुको सच के आगे!  
सामने सच विराट, श्याम मुंड लाट, श्याम भूधर हवाखोरों के वार
सहस्रों छिद्र मोहन, सहस्र रूप, सहस्र किनारे चमके  हजारो हजार
झुका हूँ, घुटनों को गला रहा शीतल तेज़ाब, देखा कभी कृष्ण प्रकाश?
इतना चौंधियाता! धड़के धड़ दिल हजार हजारो भुलक्कड़ साष्टांग अभिचार
उगलने लगी हैं पसीना घायल नोच दी गयी शिरायें, उतर रही है खाल
धीरे धीरे मांस पकता नमकीन जलन! देख रहा अस्थियों के चमके फास्फर;
 हे देव! तुम्हें ऐसे ही मिलना था। क्या करूँगा मैं जब देह ही नहीं रहेगी?
कौन हो तुम लोग मुझे रोकने वाले? सामने क्यों नहीं आते, क्यों यूँ लजाते?
हाथ घुमाओ यूँ जैसे कि किसी पास खड़े को लग न जाय, हम दिखेंगे
हुई है हाथों में जुम्बिश और मुझे घेरे खड़े हैं हजारों दमकते स्याह से –
यहाँ कोई काल नहीं सब वर्तमान है, फिकर करोगे तो सब दिखेंगे
....
...
न करो उम्मीद कि मैं फँसूगा 302  या 307 में - 
प्रतिष्ठित महापंडित रावणों का वध? 
हा, हा, हा 
सिवाय खुद को मारने के, 
किसी की ओर तना आक्रोश 
आतंकवाद की एक और घटना होती है। 
अट्टहास करता एक रावण चुप हो 
मीठी जुबाँ कहता है - 
अब सिर्फ मैं ही बचा एक ईमानदार 
मुझे मारना मानवता पर महान संकट लायेगा - 
I feel ashamed about myself 
I desire for fire
I desire to fire 
While still stuck up between these two fires - 
Economy takes twofold swings
It grows, it limps making millions neuter - 
Whole world is suffering from erectile dysfunction 
And population is growing, growing, growing on … 
ज़िबह होने को।
...
...
बरसती उमस रोज सूखे आसमान से
सत्ताइस डिग्री पंचानबे परसेंट 
चमकता कोलतार धूल लापता 
आदमी उड़ता भाप बन और हवायें नमक नमक। 
टपकते पसीनों से धुल गई सड़कें 
आकाओं की सवारियाँ गुज़री है अभी अभी 
हवा हुई है हर्जनुमा हसरतें हलाल हरदम 
हमारी आँखें लाल लाल इनमें गुस्सा नहीं 
आँसू सूख चुके इनमें घुसा पसीना देह का सभी। 
No we don’t cry, we laugh in ecstasy
For the air is filled with nitrous oxide 
We all are happy, this is land of happiness. 
There is no marrow left in our bones
They have filled the nectar of joy in. 
We never die, we are a cancer free society
We don’t cry, we are sons of heavenly spirits.
हम हैं बेपर्दा हमारा सब कुछ है सामने 
बढ़ रहे हैं पर्दानशीं घर में, दफ्तर में, सड़क पर 
मालों में खुलने लगे हैं शो रूम नकाबों के 
एक से बढ़ कर एक रकाबों के 
वे सवार हैं म्यूटेंट हिनहिनाते गुल घोड़ों पर 
जिनकी पूजा के मंत्र नहीं हमारी किताबों में 
निकला किये हैं रोज वे दिग्विजय को 
रोज़ उनकी जश्न है रोज विजय है 
But neither horses are sacrificed nor hymns are sung 
और रोज़ होता है अश्वमेध उनका।
सुनते हैं रोज़ हम उनकी दास्तान-ए-मुहब्बत
एच डी ट्रांसमिशन एल ई डी थ्री डी टीवियों पर 
उफ्फ! वे हसीं चमकते सुनहले चेहरे 
उफ्फ! वे काँपते होठ और लरजते आँसू 
उफ्फ! वो अन्दाजे बयाँ और वो नशीली मुस्कान 
उफ्फ! वो हरकतें और नेपथ्य में बजती ताली 
उफ्फ! सड़ी ज़िन्दगी, लफ्जों में बच रही गाली।
They have thoroughly abused us, raped us 
That we have learnt and mastered all the tones of orgasm
We are a joyful society. 
We dance, we sing, we experiment 
Fresh breed of fleshy musicians in Bollywood compose 
Sweet music of Satan laden with Khudai words
Ah Sufi! you have been resurrected.
Nothing is true, nothing is false, all are elusion.
O! your panty hose, written there liber allusion
हरहराती भागती सेक्सी ज़िन्दगी – Fuck you! 
गालियों में दम नहीं we are disappointed.
अफवाहें हैं कि दूध के पैकेटों में हैं वे हॉर्मोन 
जिनसे मर्दानगी खत्म होती है 
यह यूँ ही नहीं हुआ कि हिजड़े 
डिजायनर जींस पहनने लगे हैं और 
क्रांति के विश्वविद्यालयों में फ्रीडम ही फ्रीडम है। 
पढ़ो, सोचो, चिल्लाओ और नौकरी पाओ 
एक अदद बीवी, दो अदद बच्चे।
मजे जिन्दगी के ऐसे या वैसे 
आकाओं ने कर रखे हैं हजारो इंतजामात 
तुम्हें क्रांति चाहिये – ये लो 
तुम्हें भ्रांति चाहिये – ये लो 
तुम्हें शांति चाहिये – ये लो 
फ्रस्ट्रेशन चाहिये – ये लो 
सब बिकाऊ है, माल में सब मिलता है
खरीदने की भसोट होनी चाहिये 
यह मल्टी डायमेंशनल मार्केटिंग का दौर है
He who curses the market most 
Is marketed the most.
सत्यम् शिवम् सुन्दरम् 
Proletariats of the world! Be united.
हमारी सरकार सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय।
हर्फ टूटते हैं, बिखरते हैं और 
बातें कहाँ से कहाँ पहुँच जाती हैं। 
यह बातों पर संकट का दौर है कि 
कहना और लिखना पढ़ना होता जा रहा कम कम 
और टाइप करते सॉफ्टवेयर टूल बदल देता है चुपके से शब्द 
हो जाते हैं अर्थ ज़ुदा, बयाँ ज़ुदा
जो बात थी एक मासूम सी धड़कन रवाँ 
हो गई है बकबक बयाँ 
वो कहते हैं कि क्या हुआ जो दीपक हुआ पिनक 
उसका भी अर्थ है, उसकी भी जगह है। 
कविता की मौत का मर्सिया पढ़ने का यह उत्तम समय है। 
......
I sat upon the shore
Fishing, with the arid plain behind me
Shall I at least set my lands in order?
...
मैं नहीं कह रहा कि
मैंने पहले कहा
न जड़ना आरोप मुझ पर उकसावे का-
मैं राजनेता नहीं।
...
More fair than the sun, | a hall I see,
Roofed with gold, | on Gimle it stands;
There shall the righteous | rulers dwell,
And happiness ever | there shall they have.
....
These fragments I have shored against my ruins
...
दत्त – दें तो किसको दें? कस्मै देवाय?
दयध्वम् – किस पर करें दया? सुसाइड हो गई एक हॉबी!  
दम्यता – किसका दमन? नक्सली सरगना मारा गया!
अश्वत्थामा हतो हत: ... अर्द्ध सत्यम्
एक अदद बीवी, दो अदद बच्चे।
मजे जिन्दगी के ऐसे या वैसे 
आकाओं ने कर रखे हैं हजारो इंतजामात।
सत्यं शिवं सुन्दरं
शांति:, शांति:, शांति:। 

अर्द्धनारीश्वर

ardhanarishvara

क्या आप को अर्द्धनारीश्वर पशुपति का इससे अच्छा चित्र कहीं दिखा है?

इसे http://exoticindia.com पर पाया।

बुधवार, 23 नवंबर 2011

बचा ही कितना?

ज़िन्दगी शेयर बाज़ार है। बाज़ार में सबकुछ शेयर्ड है जब कि सीने से लगा कर रखा पोर्टफोलियो घटता बढ़ता  हुआ प्राइवेट है, बहुत ही प्राइवेट, ऐसा प्राइवेट जिसकी कीमत सटोरिये और भावनायें तय करती हैं जो सबके लिये खुले हैं – खुल्ला खेल, देख तमाशा।
जो पास है, मूल्यवान है लेकिन न दिया जा सकता और न बेचा जा सकता है, उसकी कीमत अभी कम है। जब तक बढ़ेगी तब तक वक़्त किसी और मुल्क में होगा जहाँ इस करेंसी की कीमत सड़क पर उड़ते आवारा कागज जितनी भी नहीं होगी। कोई जनता जमादार आ कर पूछेगा – इसे कूड़ेदान में डाल दो, उठा ले जाऊँ वरना बाद में लोगों के रास्ते गन्दे करोगे। यह भी हो सकता है कि जिसे करेंसी समझ सीने से लगा रखा है वह कभी का आना पाई की गति पा चुका हो और मुझे खबर तक नहीं।
कल ही फुटपाथ पर जो भिखारी मरा पाया गया, उसके ‘सामान’ से लाखों निकले। पूँजी बचाये दर दर भटकता भीख माँगता जाने किसकी तलाश में था? उसका वह भगवान उसे सुकून बख्शे जिसके नाम से वह माँगता गाँठ पूरी करने के ख्वाब में रोज मरता रहा।
एक और महीना बीतने जा रहा है। अगर प्रलय नहीं हुआ तो इसी सप्ताह एक रकम खाते में जमा हो जायेगी। ज़िन्दगी एक महीने और कम हो जायेगी और रकम आगे उड़ाने बचाने के लिये कुछ दिनों तक निश्चिंत कर जायेगी। निश्चिंतता से खामखयाली उपजती है। अक्षयपात्र कभी खाली नहीं होता – इस बात के साथ बहुत से पुछल्ले जुड़े हैं जो तभी दिखते हैं जब अक्षय पात्र अचानक ही क्षयग्रस्त हो जाता है।
इस बार न उसने मुझे सन्देश भेजा और न मैंने उसे। हम दोनों का जन्मदिन एक है। अरसे बाद कल मिला तो सहमता हुआ। बड़े लोगों के गिरोह में था। आभिजात्य की एक पारदर्शी चादर हमारे बीच तनी थी। मैंने बुलाया, अभी आया कह कर वह नहीं आया। पास जा कर मैंने उसकी पीठ पर एक धौल जमा दी। धौल में दोस्ती नहीं, धुलाई थी। चादर कुछ और पारदर्शी हो गई और मुझे अपने ‘क्लास’ का और अच्छे से आभास हुआ। आधा दिन बाकी था। मैं पूरा करने, मिलने नहीं गया। अगली बार जब हम मिलेंगे तो बड़े-छोटे होंगे, बॉस-मातहत होंगे और हमारे सम्वादों से वह ‘साला’ ग़ायब होगा जो हम दोनों में रिश्ता जोड़ता था। देसी ज़िन्दगी ऐसी ही है, अभी उस मल्टीनेशनल लेवल तक नहीं आई जिसमें बुलाया नाम से जाता है और पीठ का चाकू काम आता है।
सत्रह धन नौ बराबर छब्बीस, छब्बीस बार कल मैंने फोन लगाया, दूसरी छोर से नहीं उठाया गया जब कि बीच में इनगेज होने के संकेत भी सुनाई दिये। मैं जिस संसार में जीता हूँ, दूजे का उससे अलग है। सबकी दुनिया अलग होती है और सबके तरीके भी। कष्ट तब होता है जब दूजे के पैमाने से अपना मापन किया जाता है। मैं बातों में संतुष्टि पा लेता हूँ जब कि उसे खनक प्यारी है। गाहे बगाहे वह खनक सुना कर मुझे बताता रहता है। मैं बहुत शीघ्र भूलता हूँ और उसे याद दिलाने की बड़ी खराब आदत है।    
सच कहें तो मैं चुक चला हूँ। गये युग का हो गया हूँ जब बात मुँह पर कह देने वाले के लिये सम्मान का एक कतरा बचा होता था। अब ऐसे जन ‘यूज’ होते हैं। अनजाने ही उन खामोशियों के भोंपू बन जाते हैं जो सबसे पहले उन्हें ही बहरा बनाती हैं। एक दिन यूज करने वाला चीख चीख कर बताता है और लड़ते भिंड़ते आधा दिन निकल जाता है। रिश्ते फिर वही नहीं रह जाते। पीठ में भोंकने को नज़रें पीछा करने लगती हैं। बेवजह भुनभुनाया जाने लगता है। अन्धे कुयें में धकेलते कलाकारी दिखाई जाती है और हाथ झाड़ते उफ से सम्वेदना ग़ायब होती है।
मैं फिर से इश्क में हूँ। कल किसी का फोन आया और उसने बताया कि बारह साल की उमर में 31 दिसम्बर के बाद के खाली दो पन्नों पर मैंने 'साल का सारांश' लिखा था। उसमें बहुत निराशाजनक बातें थीं। उसने बताया कि तुम रत्ती भर भी नहीं बदले जिसका नतीजा यूँ पैर काट कर पहले चलने और अब ठहर कर घाव बाँचने में हुआ है। मैंने बस इतना कहा अंतिम पन्ने के दाहिने नीचे कोई निशान है क्या? उसे ध्यान से देखो, किसी के लिये है। मेरे लिये यही पर्याप्त है कि मैं उस कच्ची उमर में भी कर सकता था और अब भी कर सकता हूँ। उसका कोई नाम नहीं है। मेरा संसार अलग है, बहुत अलग! बचा ही कितना?                        

शनिवार, 19 नवंबर 2011

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ग्रेटर नोयडा। भारत के हर नगर को ऐसा ही होना चाहिये। सुनियोजित, स्वच्छ, सुन्दर और विहीनता के स्तर की जनसंख्या लेकिन चाई, फाई, ओमेगा जैसे ग्रीक अक्षर नामधारी खंड हृदय में शूल भोंकते हैं। डिजायनर जाति को भारतीय नाम ही न सूझे! अरे वृक्षों पर ही रख देते – अर्जुन, अमलतास, पाकड़, नीम आदि और उन खंडों में इनके वनखंड होते।  हम न भारतीय रहे और न आदर्श वैश्विक संस्कृति का प्रवेशपत्र ही पा सके। देश का सत्तर प्रतिशत देहात और बाकी तीस प्रतिशत का भी बहुलांश हाइवे, डिजाइनर स्पीड ब्रेकरों, डोलते पशुओं, थूकते मूतते मानुषों, गन्धाती बस्तियों, गड्ढों भरी सड़कों के किनारे चमकते अल्मुनियम कम्पोजिट से सजे चौंधा मारते मालों, सौन्दर्यबोध से हीन ईंट, कांक्रीट के मकानों, उनको जोड़ती सकुचाती सहमी सँकरी गलियों, उन पर सड़ते कूड़े के ढेरों, मुँह मारते कुकुर, गाय, नेताओं के भद्दे पोस्टरों, शीघ्रपतन का इलाज करने वाले हकीमों के विज्ञापनों, सस्ते चीनी मोबाइलों पर गला फाड़ जिलेबी बाई या मिस किस ... आदि आदि से पटा पड़ा है। मुझे कोफ्त होती है। एक मित्र कहता है – जा सकते हो तो चले जाओ लेकिन मेरे आगे कोसा न करो। उससे कहता हूँ जरा पश्चिम से आयातित तकनीकी को निकाल कर देखो, यह वर्णन बीस साल पहले भी ऐसा ही होता और आज भी ...क्या है यह सब? थूकने और मूतने तक की तमीज नहीं, हगने में सरनाम – The national smell of India!
वह कहता है – आबादी है और ग़रीबी है।
मैं कहता हूँ – कौन है इसका जिम्मेदार? आबादी और ग़रीबी तमीज और सफाई के साथ नहीं रह सकते क्या? पूरा देश ही अनुशासनहीन आत्माओं से पटा पड़ा है!
वह कहता है – you are immature और बात अटक कर सटक जाती है।
मैंने उससे कह दिया था – no taxi waxi for me. मैं अपने आप आ जाऊँगा। मैं बहुत कुछ देखना चाहता हूँ।  
एस एम एस आया है – सर! आप का फोन लग नहीं रहा। मेट्रो से नोयडा सिटी सेंटर तक आइये और वहाँ से ऑटो कर के परी चौक। मैं आप को कासना के लिये पिकअप कर लूँगा। Kasna is at walking distance.
यह है तकनीकी और प्रोग्रेस! जिसमें न ‘नीक’ है और न ‘ग्रेस’। मेट्रो के जमाने में मोबाइल नेटवर्क नहीं लगता और साई, फाई, काई में परी चौक जीवित है जब कि कासना गाँव मूड़ा जा चुका है। सड़क पर भैंसें और साँड़ नहीं दिखते। सामने मध्यकालीन यूरोप के वास्तुशिल्प की नकल पर विशाल, बहुत विशाल आवासीय, व्यापारिक और मनोरंजन संकुल बन रहा है। चढ़ता हुआ ढलवा रैम्प कितना ‘out of sync’ दिखता है! कौन *तिया है यहाँ का आर्किटेक्ट? साले को भारतीय वास्तु के तत्त्व नहीं ध्यान में आये और गोथिक/यूरोपीय वास्तु की भी ऐसी तैसी कर रहा है। प्रोफेसर मन में चीखें मार रहे हैं – architecture is about harmony. It is about gradual change and transformation, in case they are required. It is about fusion of senses, of aesthetics which develop gradually. मैं उनकी बात को दो शब्दों में संकुचित कर देता हूँ – सौन्दर्यबोधी संस्कार।
पूरे चार घंटे चिल्लाता रह जाता हूँ। Where are basics? प्रोग्रेस की वेदी पर गुणवत्ता की बलि न चढ़ाओ। काम बन्द। पहले चेक कराओ।
वापसी में नोयडा सिटी सेंटर मेट्रो में मन शांत हुआ है। रखरखाव में थोड़ी कमी है लेकिन सुन्दर है, व्यवस्थित है। सुन्दरता अनुशासन लाती है। लोग अनुशासित हैं। राजीव चौक और नई दिल्ली स्टेशनों पर फिर से जाहिल अनुशासनहीन भीड़ के दर्शन होते हैं। केवल सुन्दरता पर्याप्त नहीं है। उसके साथ डंडा भी आवश्यक है।
मेट्रो एयरपोर्ट एक्सप्रेस सेवा। अहा! ऐसा ही होना चाहिये। टोकेन टिकट ले कर घूमता हूँ – ओ! वही है। चश्मिस। कल्पना यथार्थ बन कर सामने आ जाय तो क्या हाल हो सकता है? पूरा परिवार साथ है। नहीं, यह सच नहीं है। एक्सप्रेस सेवा का रेल ट्रैक काँच के मूवेबल एंक्लोजर से घिरा है। यह है वर्ल्ड क्लास! उधार की तकनीकी। उधार के दिमाग, लेकिन है तो।
ट्रमिनल 1 डी। विशाल स्ट्रक्चरल तकनीकी। त्रिभुजाकार ट्रस। पिन कनेक्शन। आँखें सीलिंग पर अटकी हैं। जहाँ ट्रस का एलीमेंट सीलिंग को भेदता है, वहाँ सीलिंग को भद्दे तरीके से काट दिया गया है। एक, दो, तीन ... हर जगह वही किया गया है। कुछ तो भारतीय लगना चाहिये। पब्लिक वाइ फाइ इंटरनेट बस कहने के लिये है। एयरटेल मोबाइल नम्बर माँगता है, पास कोड भेजने के लिये। बाद में मेरा मोबाइल नम्बर विज्ञापनबाजों को बेंच कर खर्च निकाल लेगा। विनायल पर डिसप्ले के सन्देश और चिह्न लगाये जा रहे हैं। अंग्रेजी ऊपर है और हिन्दी नीचे – राजभाषा क्रियान्वयन के सांसद यहाँ से गुजरेंगे। किसी को कुछ न दिखेगा और कहीं किसी विभाग की समीक्षा में बस इस पर हो हल्ला मच जायेगा कि फाइल पर नागरी में OK क्यों नहीं लिखा? हताश मन सोचता है - कुछ भी, हम कुछ भी ठीक से नहीं कर सकते।
कुछ दिन पहले की किसी से चैट याद आई है।
 ‘डे ऑफ्टर टुमारो’ फिल्म देखने के बाद मन में आया था कि क्या ऐसी फिल्म हिन्दी में बन सकती है? मेरा मतलब विचार और क्रियान्वयन में नवोन्मेष से था, नकल या उधार की तकनीकी से नहीं। नहीं बन सकती। This is a degenerating civilization. कोई हादसा होना चाहिये, बहुत भयानक ताकि कम से कम दो तिहाई जनसंख्या समाप्त हो जाय। बाकी बचों को तमीज आयेगी। मन की रौ – अगर टिहरी बाँध टूट जाय तो क्या हो? उत्तराखंड से लेकर बंगाली समुद्र तक विनाश ही विनाश। समूची गांगेय सभ्यता तहस नहस। कितनी विविधता है गंगा-किनारे की बसावट में!
अरे! मुझे स्टीवेन स्पीलबर्ग का ई मेल आइ डी तो दो, मैं उसे आइडिया मेल कर देता हूँ। इस पर बहुत बढ़िया फिल्म बनेगी। तकनीकी और मानवीयता दोनों के उदात्त, निकृष्ट, हर तरह के पहलू सेलुलाइड पर उतर सकेंगे। भारत में कौन बनायेगा ऐसी फिल्म? किसमें इतना दम है? ले दे के ‘राम तेरी गंगा मैली’ और फुस्स! गान्धी पर फिल्म बनी भी तो एक अंग्रेज ने बनाई। उस फिल्म के मानकों को हम आज तक पार नहीं कर सके। न हमसे ढंग से प्रेम हो पाता है और न घृणा। न पूजा हो पाती है और न निर्मम आलोचना। हम सहमे हुये, ठिठके हुये सुरक्षित जन हैं।
हाँ, सही है। आप इंजीनियर हुये, यह उसका प्रमाण है।    
देखिये, मेरा एक दोस्त कहता है अमेरिका में इस तरह के रचनात्मक काम अधिकतर यहूदी ही करते हैं। होलोकास्ट में survival of fittest का फंडा लगाइये तो कहा जा सकता है कि यहूदियों में जो बेस्ट था वही बचा रह पया। पुरखों ने संहार देखा और नई पीढ़ी सृजन की विराटता को समझ पा रही है।
उसने कहा है – ऐसी फिल्मों में हर कोई अपने तरीके से मैनहट्टन को तबाह कर देता है। मैं सोचता हूँ कि क्या भारत के पास कोई मैनहट्टन है? मन में उत्तर कौंधता है – मुम्बई। समुद्र का जलस्तर भयानक स्तर तक उठ जाय तो तबाही ही तबाही। किसी जबरदस्त फिल्म लायक मसाला है लेकिन ... बस वही लेकिन।
...वह मेरे साथ ही फ्लाइट पर सवार हुई है। उसकी बातें मैं सुन सकता हूँ। हाँ, वही है। वह ऐसी ही है माने कल्पना नहीं यथार्थ है। संसार बहुत बड़ा है। इसमें सबके लिये जगह है। उसने किसी बात पर किसी को बुद्धू कहा है। मुड़ कर देखना नहीं रोक पाया हूँ। भीतर वात्सल्य उमड़ पड़ा है। समय कभी कभी वही हो जाता है जो आप चाहते हैं लेकिन आप वही नहीं रह पाते (बीस साल पुराना बहुत होता है)। दिल्ली कभी निराश नहीं करती, सीधे मार देती है – जी सको तो जी लो भरपूर...इतना सोचने और इस अचानक साक्षात्कार के बाद भी मैं भरपूर जी पाऊँगा? वह सब कुछ लिख पाऊँगा जो सोच रखा है?
एयरपोर्ट पर उतरते बाहर होते मन में यही प्रश्न हैं। उसे देख सकता हूँ, किसी बात पर उसे रोना आया है, आँखें पोंछ रही हैं। सम्भवत: लेने आया अधेड़ उसका कोई बहुत प्रिय है। कुछ याद आया है ... करम के लिखलका हो बेटा, दुनिया में कोइ ना मेटाई!
… Induced genetic defect dear! Neurons are destroyed before being charged.                             

मंगलवार, 15 नवंबर 2011

यू पी का एक भिखमंगा ठाकुर यानि कुहरे में कन्फ्यूजन

आज सीजन का पहला कुहरा है। मेरे मन की स्थिति भी कुहरीली है। कुहरा सदा से सम्मोहित करता रहा है लेकिन आज कुछ ठीक नहीं लग रहा। कारण कई हैं, सब खबरों से जुड़े जिन्हें सचाई भी कहा जाता है। विगत कुछ दिनों से कॉलोनी के पार्क की सफाई में हमलोग लगे हैं। मेरी चुप्पी रंग लाई और बरसात के बाद से ही लोगों को लगने लगा कि पार्क जंगल हो गया है और कुकर्म पुन: होने लगे हैं। मैं खुश हुआ कि शाम के अन्धेरे में झाड़ियों में सरकती जींस के साथ ‘लंच’ लेती बालाओं और ‘लंच’ को ठूँसते आनन्दवादी लौंडों के मुकाबले लोग चेतन हुये हैं। सुबह टहलती हुई मंडली को ‘प्रात के दुधिये’ प्रत्यक्ष न कह कर उन्हें सुनाते रहे, यह सोच कर कि बात सही जगह पहुँच ही जायेगी। परिणाम यह हुआ कि जब भिक्षाटन को उत्साही मंडली निकली तो अभूतपूर्व सहयोग के दर्शन हुये।

मन प्रसन्न रहा लेकिन ये खबरें! आज की बड़ी खबर हैं – राउल, जिन्हें अरसे बाद बालदिवस पर अपने पर(?)नाना का फूल याद आया और उनकी बचकानी सभा। अहिरमुसलमाँ पार्टी से जुड़े कथित कार्यकर्ताओं ने उसे काले झंडे दिखाये और परिणामत: केन्द्रीय मंत्री, महासचिव, सांसद, अध्यक्ष आदि के लात घूँसे सहने पड़े। मुझे यकीन हुआ कि खोल भले अलग अलग हों सब *षड़ी के एक ही टाइप के पशु हैं। रविवार को बाभन चेतना रैली में ठाकुर मुख्यमन्त्री का हौवा दिखाया गया जिसके बदले में दैवी शक्तिमयी न्याय की देवी उपाधि पाई गई। ‘ठाकुर बाभन बनिया चोर, बाकी हैं सब डी एस फोर’ और ‘तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’ की थीसिस एंटीथीसिस होते हुये सर्वजनवादी सिंथेसिस तो पाँच साल पहले गुपचुप हुई लेकिन अब मंच से दहाड़ते हुये विघटन की थीसिस का नगाड़ा पीट रही है। यू पी में बाभनों और बबुआनों की सनातन प्रतिद्वन्द्विता जगजाहिर है और मैं देखता हूँ कि अब मेरे ब्लॉगों पर अधिकतर पाँड़े, मिसरा, सरमाजी टाइप के लोग ही कमेंट करते हैं जब कि मैं ठाकुर हूँ। शायद मेरे भीतर ‘बन्दउँ प्रथम महीसुर चरना’ वाला ब्राह्मणवाद जीवित है, इसलिये! दलित की भाखा में कहूँ तो सब सबर्ण एक ही तार, इनको मारो ... कंफ्यूजन यथावत है लेकिन मुझे अभी भी मिसरा श्रेणी के उस ईमानदार नौकरशाह से सहानुभूति है जो एक घपले से पर्दा उठने के खतरे को भाँप प्रेस में बात बता कर ‘पगला’ गया। मुझे यकीन है कि वह बाभन भी है।
       
ठाकुर से याद आया कि एक पीढ़ी पहले तक सर्वहारा टाइप के ठाकुरों और अहिरों के बारे में एक उक्ति कही जाती थी – दोनों की बुद्धि घुटने में होती है। वह जमाना बाऊ और मुनेसर टाइप के लोगों का था जिनकी गोल बिना मिसिर के पूरी नहीं होती थी। आजकल तो एक ओर नामवर और रजेन्नर टाइप के तो दूसरी ओर अमार और दिगहगन टाइप के अहिर-ठाकुरों का जमाना है जब कि हिन्दी ब्लॉग जगत में आलसी की पंचम के साथ छनती है और उस पर न तो मिसरा को परेशानी होती है और न सरमा को। पाँड़े तो खैर सबको दू तीन शब्दों में निपटाते हुये समतामूलक समाज की छवि दिखाते ही रहते हैं। वैसे मुझे हमेशा से शक रहा है कि वे पढ़ने के बाद टीपते हैं या टीपने के बाद पढ़ते हैं। मैं इतना कन्फ्यूज हो गया हूँ कि तारतम्य में लिख भी नहीं पा रहा।

याद आया है कि जिस जमाने में कु-ग्रेस पार्टी बाभन और हरिजनों के सहजोग से यू पी में नई दिल्ली तिवारी टाइप के रसिया को गद्दी पर बिठाये रखती थी तब मेरे हरिजन हरवाहे ने बबुआनों के दूसरी ओर झुकाव पर एक बात कही थी – बाभन ठंडी जात होते हैं, उनसे परेशानी नहीं है। परेशानी अहिरों की उज्जडई, बबुआनों की लफंगई और बनिया की डाँड़मरई से है। चक्का घूम फिर कर वहीं आ गया है, बस सेंटर बदल गया है चुनांचे अगर मुझसे अधिक कोई कन्फ्यूज हुआ है तो वह है मुसलमान। गये हफ्ते राष्ट्रवादी पार्टी के एक नेता मेरे यहाँ पधारे थे। ठीकेदारी में अपने घपलों की लिस्ट को गर्व पूर्वक गिनाने के बाद उन्हों ने राज़  बताने जैसे अन्दाज में कहा – यू पी को चार भागों में बाँटना एक सोसेबाजी है, हमलोग इसे कभी नहीं होने देंगे। जिस दिन पूर्वांचल बन गया उसी दिन एक ‘मिनी पाकिस्तान’ की नींव पड़ जायेगी। जरा डेमोग्राफी देखिये... मैं उनकी राज़ की बात को राउल की यू पी के भिखमंगों से जोड़ कर देखने की असफल कोशिश कर रहा हूँ।
          
देर रात यू पी वाले भिखमंगे हैं या नहीं इस पर बहस को ऊँघते सुनते हुये सो गया। सुबह घना कुहरा देखा तो बिना श्रीमती जी की ‘व्यक्तिगत आलोचना’ की परवाह किये पार्क के राउंड पर निकल गया – हरामखोर बंगलादेसिये और झुग्गी वाले धुन्ध का फायदा उठा पार्क के किनारे हग न रहे हों! कोई नहीं मिला – सीजन का पहला कुहरा है, मौके का फायदा उठाने में समय लगेगा। सुकून के साथ आया और अखबार उठा लिया कि खुले में शौच की सनातनी भारतीय प्रवृत्ति पर जयरम्मी दृष्टि पर नज़र गई। खुले में हगने वालों में 60% भारतीय हैं (आधे भरे गिलास की तर्ज पर यह आप पर निर्भर है कि आप संतुष्ट हों - 40% और हैं या परेशाँ - एक अकेले देश में ही बाकी संसार से संख्या डेढ़ गुनी अधिक है)। ऐसे अनेक इलाके हैं जहाँ मोबाइल तो है लेकिन शौचालय नहीं हैं। अब मैं जयरम्मी को कैसे बताऊँ कि उपयुक्त जगह की तलाश में बाइक से निकले हासिल-ए-मंजिल जवान को मोबाइल से ‘जगह’ के बारे में बताते मैंने स्वयं सुना है? फिलहाल तो मुझे बस इस बात की खुशी है कि ‘बिकास की बास’ मेरे अलावा किसी और को भी लग रही है और वह सत्ता में है, मैं उसके आगे की सोच अपनी सोच का जायका नहीं बिगाड़ना चाहता...

एक बार एक पंडी जी से मैंने शौच के सही तरीके के बारे में पूछा तो उन्हों ने नाक सिकोड़ दिये। मैंने कहा कि यह एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है, इतनी है कि ‘सकल सौच करि राम नहावा’ जैसी बात तुलसी तक ने लिखी है। वाल्मीकि और मनु ने भी उस ओर संकेत किये हैं। उनकी नाक ठीक हुई और आँखों में वही अविश्वास सा दिखा जो किसी अद्विज जाति के प्रतिभाशाली व्यक्ति से पाला पड़ने पर ‘नस्ल सुधारने’ जैसी प्रतिक्रिया में अभिव्यक्त होता है। अब मैं तो तथाकथित द्विज ठहरा सो उन्हों ने कुछ कहा नहीं (ये बात अलग है कि ‘काशी का अस्सी’ पढ़ने के बाद से द्विज मीमांसा की मेरी सोच में विस्तार हुआ है) और बताया कि ‘शास्त्रीय’ तरीका यह है कि हमेशा गोंयड़े से दूर जाया जाय। पूरब दिशा की ओर गुह्यद्वार न हों माने कि उत्तर दक्षिण दिशा में बैठा जाय। पहली किरण आप को नग्न न देखे माने कि सूर्योदय के पहले ही निपट लिया जाय। पोंछा न जाय माने कि भर लोटा पानी ले कर जायें; अंतिम बात जो उन्हों ने बताई और जो कोई नहीं करता – खुरपा ले कर निपटने जायँ। पहले गढ्ढा करें, उसमें मल त्याग करें (पेट खराब हो तो बड़ा गढ्ढा करें) और बाद में उसे खुदी मिट्टी से ढक दें। मैं उन्हें आज तक पंडित मानता हूँ, उस सर्वहारा बाभन की श्रेणी में रखता हूँ जिसने सूअर की आँखों से टपकते आँसू देख मल का स्वाद कसैला बता कर पुरस्कार जीत लिया था (यह कहानी मैंने बचपन में चन्दामामा में पढ़ी थी)।
      
... वैसे भीख वाली बात पर मुझे इस बात का भी यकीन हो गया है कि लोगों को शब्दशक्तियों की समझ नहीं है। अभिधा, लक्षणा और व्यंजना की समझ वाकई ऐतिहासिक हो चुकी है। मुझे राउल को यह सीख देने को भी मन कर रहा है कि किसी को ऊँचा उठाना हो तो कोई जरूरी नहीं कि हमेशा उसके ‘उस’ में बाँस करके टाँगा जाय, दूसरे रास्ते तलाशो। तुम्हारे नाना, दादी, पप्पा, अम्मा और न जाने क्या क्या ये काम बहुत पहले ही कर चुके हैं। मुकाबले में मौलिकता इस बात से आयेगी कि भिन्न भिन्न योनिजों को कैसे सोसल इंजीनियरिंग द्वारा इकठ्ठा कर अपना गधा साधा जाय (मैं उल्लू नहीं लिख रहा, उसे बुद्धिमान मानता हूँ)। मतलब ये कि बात को अब ‘उस’ से ‘इस’ पर लाना पड़ेगा।
लेकिन चाहे दारूबाज हवा मलाई हों या राउल, हम जैसे नखादों की सीख उन तक पहुँच नहीं पाती। जब पेट्रोल में एथेनॉल मिलाना शुरू हुआ तो एक दारूबाज सेठ जी ने कहा था,”पहले ड्राइवर ही पीकर चलाते थे, अब गाड़ियाँ भी पी कर चलेंगी। बेड़ा गर्क हो इस देश का!”
देश का तो होइये रहा है, राजामच्छीमार-हवालाइन का भी हो गया। हमरे एक कक्का कहा करते थे कि अगर बेवकूफ के पास धन हो तो होशियार के बच्चे ऐश करते हैं। मलाई बिजै यही मान उधारी पर चलते रहे, गर्मागर्म कैलेंडर निकालते रहे और उमस को द्राक्षा से दहकाते रहे लेकिन अंतत: सब हवा हवाई हो गया। बेड़ा गर्क हो गया। हवाई जहाज दारू पी कर नहीं चलते सो संकट की घड़ी आ गई है। जिस शख्स के मुँह में स्कॉच और ‘उस’ में बाँस डाल कर ठोस ईंधन आधारित रॉकेट से अनंत की ओर रवाना कर दिया जाना चाहिये, उसे उबारने की बात की जा रही है। लोग भूल गये हैं कि दारूबाज कभी नहीं उबरता, यह भिखमंगा तो दूजे और कई नशों की गिरफ्फ में है।

मुझे लग रहा है कि मैं इस देश में एलियन हूँ। कुछ कर नहीं पा रहा इसलिये आलोचना ही कर के संतोष कर ले रहा हूँ। शोषक समाज से जुड़े (और उस पर कभी न लजा कर यह गर्वोक्ति करने वाले कि वास्तविक दुनिया लेखन की दुनिया से अलग होती है) एक शख्स की बात से बात समाप्त करता हूँ:


मत कहो आकाश में कुहरा घना है
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।

मैं अपनी दुनिया में सिमटना चाहता हूँ लेकिन भीतर की बेचैनी का क्या करूँ? 
                                 

शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

भूमि से नीचे बहुत - सच के सामने

पिछले से आगे ...


उन्नत, पतित, पतित, उन्नत घिरे हैं उलटबाँसी प्रश्नवाची आवर्त अविश्वास
नहीं, मैं नहीं सम्मोही अदृश्य यमदूतों की चुम्बकीय शीतलता से घिरा
महके गुलाब घेरे हैं उन्नतग्रीव ऊष्म सुकोमल गोरे बन्धन हाथ, साथ
तैर रही है देह सुचिक्कण फूलदार साटिन में जिस पर खिले कास कचनार
लिपटी है वह जो सुन्दर है, अलसाई आँखें कजरारी, रोज का जीवन है
कानों पर अटखेलियाँ हैं गर्म सिसकी, देह पिघले मोम जमती सर हवा।

लगा चाटा चटाक, जल उठे हैं गाल, जम गई है देह डाँट- कल्पना मूर्ख!  
दिव्य लोक आकर सोचता मल, मज्जा, विष्ठा, लार, लपार हासिल जो यूँ ही
तुम सचमुच आये हो सम्राट एकराट की दुनिया, किस्मत वाले हो, अटेंशन!
आ पहुँचे हो उनके सामने तैरते राख नदी पर, हवाई तिलस्म में घुलते
देखो! छिटक उठे हैं सितारे इस गहन चिरगर्भवती धरा की ममता कोख में  
देखो! निहारिकायें उड़ा रही हैं धूल धमाल अरे! साज ताल, सुनो पखावज
नाद निर्वात नित नृत्य नग्न हो उठा नवीन। काट खाया है निज को शोणित हीन
चमकती खाल से झाँकती शिरायें – यह सच है अज्ञानी, झुको सच के आगे!  

सामने सच विराट, श्याम मुंड लाट, श्याम भूधर हवाखोरों के वार
सहस्रों छिद्र मोहन, सहस्र रूप, सहस्र किनारे चमके  हजारो हजार
झुका हूँ, घुटनों को गला रहा शीतल तेज़ाब, देखा कभी कृष्ण प्रकाश?
इतना चौंधियाता! धड़के धड़ दिल हजार हजारो भुलक्कड़ साष्टांग अभिचार
उगलने लगी हैं पसीना घायल नोच दी गयी शिरायें, उतर रही है खाल
धीरे धीरे मांस पकता नमकीन जलन! देख रहा अस्थियों के चमके फास्फर;
 हे देव! तुम्हें ऐसे ही मिलना था। क्या करूँगा मैं जब देह ही नहीं रहेगी?

 हंग हहा गस्पा ज्या तुन ता मातल गहा.... सच स्वामी ने क्या कहा?
सिर उतार ले लिया है एक छाया ने हाथ में और कहा है बड़े प्यार से –
गुस्ताख! स्वामी से प्रश्न पूछते हो जैसे कि हम हों? सुनो जो सुना कहा –
भूमि के ऊपर प्रकाश वह अन्धकार, जीवन वह मृत्यु, देह वह हवा
मैं देता हूँ दिशायें उन्हें, मेरुप्रभायें दासियाँ मेरी जिनकी देह चुम्बक
भटका देती हैं राहों को जब मचलती हैं बिजलियाँ उनमें शाद को। 
मैं ऐसा ही हूँ कि तुम जान नहीं सकते, हाँ ऊपर नीचे जी सकते हो...
चूमा है मुझे अनुवादक ने, आह आनन्द! अभी बन्द भी न हुईं कि
घुसेड़ कोटरों में हड्डियाँ निकाल ली आँखें उसने, सौंप दिया है सच को
“रहेंगी तो रिसती रहेंगी, आका! तुम्हें भेंट है, तुम सब, तुममें सब रूप,
दिखने दिखाने का क्या काम?” गर्जन ध्वनि –तुन ता मातल गहाऽऽ
गलदश्रु हूँ मैं, ज्ञानचक्षु खुले हैं – पहला स्तवन, नासमझा बिला दहा।  (जारी)