शरद ऋतु में कास, Saccharum spontaneum |
कास हर शरद फूलते हैं। प्रकृति मैदानों के उन सरेहों को यह उपहार हर वर्ष देती है जहाँ हिमपात नहीं होते। उन्हें बहलाती है – क्या हुआ जो हिमपात नहीं? इनका सौन्दर्य अलग है। मन्दानिल पर कभी हिम लहरा सकता है क्या? लेकिन इन्हें देखो तो सही! कितना सुन्दर नृत्य है!!
मेरे मन पर नहर किनारे पिताजी के साथ खेतवाही निकलने पर दूर दूर तक पसरे लहराते कास कुंजों की छवि अमिट है। पैसेंजर ट्रेन से गुजरते उन पर अठखेलियाँ करती धूप और लहराती शुभ्र धुपछैंया – खिड़कियों से इससे बढ़ कर प्यार नहीं किया जा सकता। आप भी सोचेंगे आज क्या ले कर मैं बैठ गया?
यदि आप निपट अकेले खेतों के मेड़, बाग, दिन में अँधियारे बगीचों, नहर किनारे नहीं भटके हैं, हर सौ एक पग पर किसी अनजान वनस्पति को देख बच्चे सरीखे कौतुहल के साथ बैठ उसे कुछ क्षण निहारे नहीं हैं और भोले आश्चर्य से ग्रसित नहीं हुये हैं तो आप को मुझे समझने में कठिनाई होगी। बचपन गया, कैशोर्य गया; नून रोटी के चक्कर में अब वैसा नहीं हो पाता लेकिन जब भी अवसर मिलता है, मैं नहीं चूकता। इंटरनेट और ब्लॉग का संसार भी अवसर दे देता है।
इस बार चक्र प्रारम्भ हुआ अवधिया जी की इस पोस्ट से जिसमें कास का उल्लेख था। कास या काँस को देवी दुर्गा का स्वागत पुष्प माना जाता है - शारदीय नवरात्र के आसपास मातृपूजा हेतु प्रकृति का उपहार। अवधिया जी का फैन होने के लिये स्वयं को सराहा और मैं तो मैं! पुराना भ्रम सिर उठा बैठा - कहीं कास मूँज तो नहीं? यह प्रश्न अचानक उठा और पवित्री की स्मृति हो आई। वही पवित्री जो कुश की बनती है और पूजा पाठ के अवसर पर हाथ में अँगूठी की तरह पहनी जाती है। कुश और मूँज में अन्तर को लेकर मैं उलझा करता था। नवरात्र में पूजा करते पुरोहित जी अन्तर समझाने के असफल प्रयत्न करते और बात दर्भ पर आ कर और उलझ जाती। वैदिक युग से ही दूर्बा, कुश और दर्भ (आधुनिक विज्ञान के विश्लेषण से देखें तो सब के सब घास) बहुत पवित्र माने गये हैं। ऋग्वेद के प्रथम मंडल में कुश(र), दर्भ, सैर्या और मूँज का वर्णन मिलता है जहाँ साँप(?) और उस जैसे अन्य जीव अदृश्य विचरण करते हैं:
दूर्बा या दूब को तो आप सब पहचान सकते हैं लेकिन कुश और दर्भ? हमारे बच्चे तो सम्भवत: दूब भी न पहचान पायें! ऋग्वेद के भाष्यकार सायण के समय से ही कुश और दर्भ को लेकर भ्रांति व्याप्त रही है। लोक में और सामान्य व्यवहार में कुश या कुस या कुसा और दर्भ या दाभ या डाभ या डाभी प्राय: समानार्थी रूप में आज भी प्रयुक्त हो रहे हैं लेकिन वास्तव में ये भिन्न हैं। कुश का वैज्ञानिक नाम Desmostachya bipinnata है। पुराने समय में कुश को 'खर दर्भ' कहा जाता था जब कि दर्भ को 'मृदु दर्भ'। दोनों नामों में दर्भ प्रयुक्त होने से भ्रम हुआ और लोक ने सरलीकरण कर दोनों को एक कर दिया।
दर्भ का वैज्ञानिक नाम Imperata cylindrica है। इसे लोक में डाभ या डाभी नाम से भी जाना जाता है लेकिन जैसा कि पहले बताया, कई बार लोग कुश को भी डाभ या डाभी बोलते हैं। अन्य देशों में इसे जापानी घास और Red Baron नामों से भी जाना जाता है। इसकी पत्तियाँ ऋतुचक्र और अवस्था अनुसार लाल या बैंगनी सदृश भी हो जाती हैं। अथर्ववेद में दर्भ की प्रशंसा में कई मंत्र हैं।
शरास: कुशरासो दर्भास: सैर्या उत।
मौञ्जा अदृष्टा बैरिणा: सर्वे साकं न्यलिप्सत॥191.3॥
'दूर्बा' या 'दूब' Cynodon dactylon (syn. Panicum dactylon, Capriola dactylon) |
कुश , Desmostachya bipinnata |
दर्भ का वैज्ञानिक नाम Imperata cylindrica है। इसे लोक में डाभ या डाभी नाम से भी जाना जाता है लेकिन जैसा कि पहले बताया, कई बार लोग कुश को भी डाभ या डाभी बोलते हैं। अन्य देशों में इसे जापानी घास और Red Baron नामों से भी जाना जाता है। इसकी पत्तियाँ ऋतुचक्र और अवस्था अनुसार लाल या बैंगनी सदृश भी हो जाती हैं। अथर्ववेद में दर्भ की प्रशंसा में कई मंत्र हैं।
दर्भ या डाभ, Imperata cylindrica |
मूँज, Saccharum munja |
कौन खींचता है नियम से,
मारूति के नव परिपथ?वानीर झुरमुटों के बीचोंबीच,
यत्र-तत्र काटते पगडंडियों को।
मैं सोचने लगा यहाँ वानीर के स्थान पर कास का प्रयोग किया जाय तो कैसा बिम्ब हो?
कौन नियम नित्य का यह?
नाचते हैं कास झुरमुट
मन्दानिल के मद्धम ताल
भूलती पगडंडियाँ मार्ग।
अविनाश के यहाँ मारुति के परिपथ को खींचने वाला प्रधान है – कदाचित उद्योगप्रधान बिम्ब और मेरी मनबढ़ई में नियम लेकिन कास झुरमुट के नृत्य पर पगडंडियों का मार्ग भूलना भारी पड़ जाता है – कदाचित अलसाता सा बिम्ब। ‘जाने दूर नक्षत्रों से कौन?’ और ‘कौन तुम संसृति जलनिधि तीर’ वाली उत्सुकता दोनों में है। खैर! यह मेरी मनबढ़ई ही है, उनके जैसा अर्थगहन बिम्ब गढ़ना अपने वश का नहीं है...मूँज और कास एक ही हैं क्या?
वामन शिवराम आप्टे के शब्दकोष में मूँज के लिये ‘दर्भाह्वय:’ शब्द बताया गया है। अब ‘आह्वय:’ का अर्थ कोई संस्कृत विदुषी/विद्वान बतायें तो पता चले। आप्टे शब्दकोष तो उसका अर्थ A name, appellation बताता है। तो क्या मूँज भी पवित्र दर्भ से सम्बन्धित है? उपनयन संस्कार के समय मूँज की मेखला पहनाई जाती है। सामान्य अवधारणा के विपरीत मूँज और कास अलग वनस्पतियाँ हैं। मूँज का वैज्ञानिक नाम Saccharum munja है। डा. पंकज अवधिया ने कास (Saccharum spontaneum) से इसकी भिन्नता को http://botanical.com पर अपने आलेख में स्पष्ट किया है। तय है कि प्राचीन काल से ही मूँज, कुश और दर्भ वनस्पतियाँ आनुष्ठानिक और औषधीय कार्यों में प्रयुक्त होती रही हैं लेकिन कास नहीं।
वामन शिवराम आप्टे के शब्दकोष में मूँज के लिये ‘दर्भाह्वय:’ शब्द बताया गया है। अब ‘आह्वय:’ का अर्थ कोई संस्कृत विदुषी/विद्वान बतायें तो पता चले। आप्टे शब्दकोष तो उसका अर्थ A name, appellation बताता है। तो क्या मूँज भी पवित्र दर्भ से सम्बन्धित है? उपनयन संस्कार के समय मूँज की मेखला पहनाई जाती है। सामान्य अवधारणा के विपरीत मूँज और कास अलग वनस्पतियाँ हैं। मूँज का वैज्ञानिक नाम Saccharum munja है। डा. पंकज अवधिया ने कास (Saccharum spontaneum) से इसकी भिन्नता को http://botanical.com पर अपने आलेख में स्पष्ट किया है। तय है कि प्राचीन काल से ही मूँज, कुश और दर्भ वनस्पतियाँ आनुष्ठानिक और औषधीय कार्यों में प्रयुक्त होती रही हैं लेकिन कास नहीं।
खस या खसखस या उशीर या वीरण या काळावाळा Vetiveria zizanioides |
बिहार सिद्धार्थ गौतम के ज्ञानप्राप्ति की भूमि है और कहते हैं कि उन्हें कुश की चटाई पर बैठ कर ज्ञान की प्राप्ति हुई। इसलिये सनातन के साथ साथ बौद्ध परम्परा भी कुश को पवित्र मानती है लेकिन जिन्हें कुश की चटाई कह कर बौद्ध और अन्य देशों को निर्यात किया जाता है, वह वास्तव में खस या खुश की बनी होती हैं। बिहार में यह प्रचुरता से मिलता है। अब यह शोध का विषय है कि गौतम की चटाई कुश की बनी थी या खस खुश की?
लोक में जिस तरह से दर्भ और कुश को लेकर भ्रांति व्याप्त है, कहीं बौद्ध परम्परा में कुश या खस को लेकर तो नहीं है? हो सकता है कि गौतम खश यानि उशीर की चटाई पर ही बैठे हों, वैदिक कुश की चटाई पर नहीं। मुझे संहिताओं में उशीर नहीं मिला। क्या वैदिक युग में यह वनस्पति ज्ञात नहीं थी?
...शांत सन्ध्या में फोन आया तो गरिमा बिटिया लाइन पर थी – बड़े पापा! आप जानते हैं बाँस फूलते हैं तो बहुत बुरा होता है? मेरी टीचर ने बताया है और घर पर पूछने को भी कहा है। अब टीचर के मन में जो था, वही जानें लेकिन मैं एक और चक्कर खा गया। बाँस भी कथित घास जाति का ही है। अपने जीवनकाल में एक ही बार फूलता है और फिर मर जाता है। बाँस में ‘सामूहिक पुष्पन’ होता है – भूगोल-ऋतु-निरपेक्ष, जिसकी आवृत्ति दशकों से सदियों तक में होती है। जापान और संसार के कुछ भागों में 130 साल बाद बाँस फूलते पाये गये हैं तो मिजोरम और उत्तरपूर्व के अन्य राज्यों में लगभग 48 वर्षों की आवृत्ति देखी गई है। 1862, 1911, 1959 और 2008 में बाँस फूले और हर बार विनाश या उपद्रव घटित हुये। होता यह है कि बाँस फूलने के बाद उनमें बीज पड़ते हैं जिसके पश्चात बाँस मर जाते हैं। उनकी सामूहिक मृत्यु के कारण जिन क्षेत्रों में अर्थव्यवस्था बाँस पर आधारित है, वहाँ नई बाढ़ तैयार होने तक इस संसाधन का अभाव हो जाता है। बीजों की अधिकता से खाने की उपलब्धता कई गुना बढ़ जाने के कारण चूहे बहुत बढ़ जाते हैं। चूहे बाकी फसलों को चौपट कर देते हैं और दुर्भिक्ष की स्थिति आ जाती है।
(1) बाँस के फूल, चित्र : Mogens Engelund (2) बाँस के फूल, चित्र : Joi Ito (3) बाँस के फूल, मिज़ोरम, चित्र : Shahanaz Kimi |
1959 में मिजोरम में यही हुआ। धीरे धीरे अकाल सी स्थिति हो गई और केन्द्र सरकार की बेरुखी ने पहले से जारी अलगाववादी आन्दोलन को बहुत शक्तिशाली और जनप्रिय बना दिया। परिणाम हुआ – लगभग 20 वर्षों तक जारी संघर्ष जिसका समापन राजीव गान्धी लालडेंगा समझौते के साथ हुआ। मिजोरम में विद्रोहियों की सरकार बनी और वे मुख्य धारा में आये...
...अब समाप्त करता हूँ, बात बाँस के फूलने तक जो आ गई! अविनाश के रहते विनाश की बात कौन करे लेकिन विराम होना ही चाहिये बहुत हो गई घास खोदाई!
आप यह समझ लें कि मिलते जुलते नामों से बहुत भ्रम हो सकता है। उनके गुण एकदम अलग हो सकते हैं। 'कास, कुश और खस' या 'दूब, दर्भ(डाभ)' नामों के मामले में साम्यता रखते हैं लेकिन हैं एक दूसरे से एकदम अलग - पृथक, स्वतंत्र अस्तित्त्वधारी।
_________________________________
आभार:
विकिपीडिया, डा. पंकज अवधिया, एस. मेहदीहसन, एस. जयलक्ष्मी, अर्जुन पात्रा, वी. के. लाल, ए. के. घोष, तमाम अन्य वेबसाइट और अपने अभिषेक ओझा जिनकी टिप्पणी ने लोक प्रेक्षण से उद्भूत कुश और खस के एक ही होने की अपनी धारणा पर मुझे पुनर्विचार और शोध को प्रेरित किया।
अभिषेक जी से अनुरोध है कि वह भी अपनी इस धारणा कि मूँज और कास एक ही है, में सुधार कर लें। :)
_________________________________
यह आलेख अपने प्रकाशन के पश्चात 01/12/2011 को प्रात: 9 बजे तक संशोधित, परिवर्द्धित और पुनर्प्रकाशित किया गया।
आप यह समझ लें कि मिलते जुलते नामों से बहुत भ्रम हो सकता है। उनके गुण एकदम अलग हो सकते हैं। 'कास, कुश और खस' या 'दूब, दर्भ(डाभ)' नामों के मामले में साम्यता रखते हैं लेकिन हैं एक दूसरे से एकदम अलग - पृथक, स्वतंत्र अस्तित्त्वधारी।
_________________________________
आभार:
विकिपीडिया, डा. पंकज अवधिया, एस. मेहदीहसन, एस. जयलक्ष्मी, अर्जुन पात्रा, वी. के. लाल, ए. के. घोष, तमाम अन्य वेबसाइट और अपने अभिषेक ओझा जिनकी टिप्पणी ने लोक प्रेक्षण से उद्भूत कुश और खस के एक ही होने की अपनी धारणा पर मुझे पुनर्विचार और शोध को प्रेरित किया।
अभिषेक जी से अनुरोध है कि वह भी अपनी इस धारणा कि मूँज और कास एक ही है, में सुधार कर लें। :)
_________________________________
यह आलेख अपने प्रकाशन के पश्चात 01/12/2011 को प्रात: 9 बजे तक संशोधित, परिवर्द्धित और पुनर्प्रकाशित किया गया।