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बुधवार, 22 अगस्त 2012

भोर भर

नींद आँखों से निकल, सँवराई शीतल सलमा सितारों जड़ी, नाचती हवा पर रही फिसल। क्या कहूँ इस भोर को कि भकजोन्हियाँ भूल गई हैं झपकाना, बस एक अंगुल इशारे की प्रतीक्षा में दीवारों पर एल ई डी अनवरत दीप्त और मैं धीमी सुगन्ध से जगा मूर्च्छित। नीम अन्धेरे में अकेली अगरबत्ती रही पिघल धीमे धीमे, जिसे किसी ने कभी नहीं जलाया कि उसकी राख से ही बनी संज्ञा और क्रियायें।

कल्प अकल्पों में बहकती साँसें यूँ सुलगने को प्रेम बताती रहीं। समझा जीवन का नेम।

लाज की चादर हटा उजाला पसरता हो और साँवरी सिमटती हो तो मैं कहूँ कि नींद उचटी नहीं, है सिमट गई आँखों में, ओट से देखने को उजाले की नासमझ बगावतें जो समझेगा थकने पर कि चादर स्मृति है उस अन्धेरे की, जिससे सृष्टि फूटती है और भूलती है सुगन्ध।

राह में धूल नहीं, उड़ती है राख, मेरी जानी पहचानी भस्म। लपेट कर देह पर जिसे मैं सनातन साख - राख। देव उपजते हैं, महानतायें पाती हैं अक्षर और कवि रचते हैं सत्य, शिव, सुन्दर। पलटते पन्नों से आती है सुगन्ध और तुम कहती हो अंगुलियों के स्पर्श आवर्त छोड़ रखे हैं तुमने इन पर जो मेरी छुअन पा तप उठते हैं। कागज यूँ होते हैं पीले, उठती है निर्धूम सुवास।

सच में मैं लिखता नहीं, बस सहलाता हूँ पन्नों को, रुकता नहीं कभी छोड़ने को फिंगर प्रिंट – मुझे आती है हँसी शायरों की क्षुद्र गिरफ्तारियों पर और तुम्हारे चेहरे से झड़ने लगते हैं फूल, पन्ने बन्द, आँखें बन्द राँधने को पलकों के नीचे आँसुओं में – आराधना।
  
लोग सोना कहते हैं जब कि फूल सँजो रहे होते हैं पन्नों के बीच सुगन्धियाँ, साँसें करतीं अदला बदली, ललाट फैलाते वितान - अंतरिक्ष में आकाशगंगायें। निहारिकायें नाचती हैं और आहटें छूट रहती है दो चेहरों पर - सुबह होती है। कहते हैं एक को देख, सुहाने सपने जम गये हैं कर के नींद से विद्रोह, कहेंगे वे दूसरे को देख कि जिसके चेहरे रह गई है अँगड़ाइयाँ लेती भस्म, एक और रात भर सुगन्धि के इंतज़ार में – पगला है अनिद्रारोगी।

सुना है कि अब वो डिग्रियाँ बिकने लगी हैं जिन्हें कभी यूँ ही किसी को दे देता था आसमान – होते थे सच में, धन्वन्तरी नहीं मिथक बस जो चेहरे बाँचते थे। उनकी अंगुलियाँ नाड़ी नहीं, पढ़ती थीं कलाई पर रह गई जकड़नों की धड़कनें। आसमान हो गया कंजूस, मानव शिक्षाकुबेर – पढ़े कौन कि ऐसी बातें हैं ज्यों मिथक भर धन्वन्तरी अब और भोर में जगना एक दुर्लभ रोग - डिग्रीद्रोही?

बुझ गया दीप देवालय खग कूक फूँक सी। नथुने भर रहे उच्छिष्ट गोघृत धूम, जन का जागरण है। सहमी नींद करुआयेगी आँखों तले गोधूलि तक। धूल उड़ती रहेगी साँझ तक। सुगन्ध बाकी है भस्म होने को दिन भर।  बाकी है, भोर तक बाकी है – पुन: होने को।                                   

मंगलवार, 31 जुलाई 2012

एक परम्परा ऐसी भी

चित्राभार :  http://www.kamat.com/database/pictures/corel/515043.jpg  
रुक जाऊँगा एक दिन जब चलने को राह नहीं रहेगी और कहीं किसी लैब में कोई वैज्ञानिक पृथ्वी की परिधि  माप लेगी। 
इस युग की तमाम घिसी पिटी बातों से नुकीली तराश लिये एक बात - एकला चलो रे! मुझसे नहीं जुड़ती। 
मैं कभी अकेला नहीं होता, मेरे साथ होती हैं - कानों में ऊष्म फुसफुसाहटें, पैरों में तलवे काँटों से मढ़े  - मैं चलता हूँ।  

मुठ्ठियों में भिंचे काँटेदार शब्द राहत पाने को करवटें बदलते हैं, रक्त रिसता है - पैरों से नहीं, हाथों से - मैं लिखता हूँ।
चित्राभार: http://www.cse.iitk.ac.in/~amit/birds/good/0650sw_brahminy-chased-off-by-babbler_14.10.jpg
मैं चलता हूँ वह लीक पकड़ जिस पर हैं विशाल झंखाड़ बरगद, पाकड़ - अमरबेलों के बलियूप। 
कभी बोये थे रक्तबीज पथिकों ने, जिनके हाथ रिसते थे, जो लिखते भी थे। 

हाँ, मुझे पता है कि हैं कुछ उद्यान, सदियों से परिरक्षित ज्ञान, कहलाते जीवंत!  
जिनमें खेलती हैं नई पीढ़ियाँ, जिनकी बेंचों पर बैठ बूढ़े करते हैं लेखजोख सभ्यताओं की मृत्यु के! 
और युवा नशा पीते हैं, संसार को जीते हैं।
चित्राभार : http://previews.agefotostock.com/previewimage/bajaage/b44450dcfd457e8ef02516a1ed7f9720/IBR-591303.jpg
मैं नहीं वहाँ यायावर अक्सर, नहीं अच्छे लगते वे, साज सँभाल बनाती है शंकालु मुझे, मृत्यु की बातें बनाती हैं दयालु मुझे वहाँ बू आती है - षड़यंत्रों, दुरभिसन्धियों की, समझ सकता हूँ जिन्हें समझा नहीं सकता, सूँघ सकता हूँ सूत्रों में सँजो नहीं सकता -गन्ध सूत्रबद्ध न हुये कभी, न होंगे कभी। 
मैं बता नहीं सकता कि शब्द भिंचे छ्टपटाते छोड़ने पड़ेंगे, मुठ्ठियाँ खोलनी होंगी, होना होगा अकेला निपट - 
मैं अकेले चल नहीं सकता और रुकना मुझे स्वीकार नहीं। मैं हूँ वाहक घनचक्करों की परम्परा का - भाषा है, भाष्य नहीं।

रविवार, 17 जून 2012

...वही आदिम टोटके उपाय

रिसता आषाढ़ आतप स्वेद ग्रंथियों से, निहारता है अनिल ठिठक भीग चिपके वस्त्रों को। समय ठहरता है आँख सलवटें उभरती हैं, बादल उतरते हैं वदन पर बन आब बेचैन बारिशें हों कैसे जब धरा पर प्रेम विराम? 

किरकिरी कुनकुनी डाह बात, कान छूती दाह सात, बहुत हो चुका सिरफिरी टिटिहरी को कोसना कि लोट धूल धाल करें आदिम टोटके उपाय। समझो कि लिपटना स्वेद भीगी देह का निज देह के अंश से, लजवाता है बादल हवा युग्म को और ठिठकन टूटती है। बह चलता है आर्द्र अनिल क्षमा माँगते मरमर सहलाते धीर तरुओं को, उमस बढ़ती है उफ्फ! हवा चलती है?

लाज भरती है चिपके वस्त्रों में करना क्या दिखावा अंतरंग जो मिला ही हुआ है रीत से? लोग राहत कहते हैं, बिसूरते हैं कि होगा पुन: विलम्ब बादर की गह गह में, बूँदों की झड़ियों में? नहीं जानते कि एक ने तोड़ा है मौसम की पटरी से सुख निषेध का मिलीमीटर!

जो उठती हैं हजारो मील लम्बी चादरें पनीली ढकती पोतती गर्वीले नीले के मुँह कालिख बदरी। आँखें मूँद लेता है वह पलकों में दूरियाँ घटती हैं। निचुड़ जाती है पहली बूँद गिरती धूल धाल पर धप्प से बरसने लगते हैं बादल पसीने पसीने खोल देती है हवा सीना धरा समोने को सृष्टि बीज के कण तत्क्षण!

करो विश्वास कि हर वर्ष वर्षा आरम्भ होता है ऐसे ही, वर्षा आती रहेगी तब तक जब तक रहेंगे किसी एक को याद वही आदिम टोटके उपाय। नहीं आई अब तक तो समझो कि इतने बड़े परिवेश में किसी ने नहीं किया नैसर्गिक वही, उपाय तोड़ने का जुड़ने का, नहीं किया अब तक।

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अब सुनिये राग मल्हार और बहार की सजावट

बुधवार, 18 अप्रैल 2012

पहली भेंट...

अचानक एक दिन 
ठिठके हम अनजान प्रांतर।  
देखा मैंने - गौर मुख, आँखें कुछ सिकुड़ीं स्वच्छ, रजत पात्र गंगाजल बीच शालिग्राम 
  गौर ललाट, धूप गौर - झुठलाये जाते कारे केशों से
फिसल रहा प्रकाश हारता कालेपन से। 
  
 हवा कजराये केशों पर फुनगियाँ टाँकती रही।  
तमतमाई दुपहर धूप आरक्त कपोल दुलराती रही।
पहली बार मेरी आँखों ने तुम्हें उस समय छुआ - 
प्रस्तावना थी पहली भेंट की
(परिचय पगे अनजानेपन का सहसा मिलना भेंट नहीं, 
तब हो जब निमंत्रण हो, स्वीकार हो)

सदेह स्पर्श का अवसर आया तो मैं तुम्हें वैसे ही छूना चाहता था
कि फुनगियाँ खुलें और चिड़ियाँ उड़ जायें।
कि लाली निकसे और अंगुलियाँ ऊष्ण हो जायें।
कितना भोला था मैं! युगसंचित परिवर्द्धित परिपाटी को पहली भेंट में ही सिद्ध कर लेना चाहता था!
कितना भोला था मैं! धूप के आँचल में छिपे अरुण से मित्रता करना चाहता था!
कितना भोला था मैं! इन्द्रधनु की बूँदों से एक रंग चुराना चाहता था!
कितना भोला था मैं! हवा से लुकछिप खेलना चाहता था।
कितना भोला था मैं! लाज से अनभिज्ञ था!
पूछा तुमने - क्यों आये?
मैं बगलें झाँकने लगा।
दूसरा प्रश्न - आने के मायने समझते हो?
मैंने समझा कि मौन गला भी घोंट सकता है।
तुम मुस्कुराई - कुछ कहोगे भी?
पुस्तक का वाक्य कौंधा - शब्द ब्रह्म है।
जीभ लड़खड़ाईमैंने नहीं कहा - समय क्या हुआ होगा?
तुम्हारे चेहरे पर समय जम गया।
मैंने जाना कि जमे सतरंग में लहरें भी उठती हैं,
आँखें पुन: तुम्हें वैसे ही छूने लगीं।
कपोल आरक्त हुये
फुनगियाँ खिल उठीं
खग पाँख उगे ओठ ऊपर
दाँत दबे प्रगल्भ
भूली लाज अछ्न्द पसरी
समय रुका
शब्द मौन
ब्रह्म गुम!
हवा फुसफुसाई - जाऊँ?
अँ..हँ..हाँ...


तुम्हें जाते निरखता रहा
जब स्पर्श दीठ टूटी
तो पाया
भीगी अंगुलियाँ शीतल थीं। 

बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

उत्तरोर्मि - मैं तुम्हें लिखती हूँ


स्वेद पगा तुम्हारा कोरा कागज बिछा है इस धरती। पुलक गात भर ममत्त्व सिहरती हूँ। उसी पर वही लिखती हूँ। न कहना कि इसमें कुछ नहीं! यह कम नहीं कि थम गये हैं धड़कन प्राण, जो कहती हूँ। मैं मरती हूँ।

कागज वही, खुला है इस रात वही श्रावणी वातायन और कुबेर भर गया है वसंत। झर झर झरती हूँ। मैं भीगती हूँ।

कमरे की छ्त है तारों भरा आसमान। सुना है तुमने कभी कूक कोई रातों में? नीरवता को समेट कहती हूँ, लोग कहते हैं कुहुकती हूँ। मैं तुम्हें कहती हूँ।


तुम सीझते हो – रह रह? संचित हैं युगों के बीज, तुम्हारी सोच मैं रत्नगर्भा रह रह। अँगड़ाइयाँ लेते हैं अनकहे अरमान रह रह। फूटती हूँ तुम्हारी आँच से। सहती हूँ। मैं हँसती हूँ।

मेरा आशीष सदा तुम्हें है। अपने सिर हाथ यूँ ही नहीं रखती बार बार! इस सीले कागज पर कैसे धरोगे हाथ जैसे रख देते हो मेरे मुँह पर? लो आज फिर कहती हूँ किसी जनम तुम थे मेरी कोखभार और किसी जनम खींच चोटी भागे बार बार। इस जनम लगती हूँ तुम्हारा अंग विस्तार कि अगले में खेलना है गोद में टपकाती लार! तुम्हें रचती हूँ और मरती हूँ हर बार। बुद्धू! कहाँ जीती हूँ? मैं तुम्हें रचती हूँ।

छोड़ो यूँ लिखना, आहें भरना, दूर से बातें बनाना। बस आ जाओ। न! कोई बहाना नहीं।
मेरा नाम लेना और खुल जायेगी टिकट खिड़की जंगल के परित्यक्त स्टेशन पर। हाथ हिलाना नभ की इकलौती परछाईं की ओर और पटरियाँ जुड़ जायेंगी। बस ट्रेन में बैठ लेना।
आ जाओ कि रिज की चट्टानें धुल दी हैं मैंने (अश्रु और स्वेद मुझे भी आते हैं)। 
आ जाओ कि बबूलों में बो दिये हैं काँटे अनेक।
साथ साथ लिखेंगे इबारतें अनेक। सूँघ लेना मेरी भूमा गन्ध (वही जिसे निज स्वेद सनी खाकी में पाते हो)।
मैं पा लूँगी घहरती कड़क झमझम बेमौसम (तुम्हीं तो हो ऋषियों के पर्जन्य!)
ठसक तुमसे है, तुम पर ही लदती हूँ।

मैं तुम्हें लिखती हूँ।
  
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ध्वनि मिश्रण: स्वयं 
सॉफ्टवेयर: Audacity
नेपथ्य संगीत:
Piano Acoustic Guitar Ballad, Artists: Jocelyn Enriquez, Kylie Rothfield, Julie Plug, Scott Iwata