कल्प अकल्पों में बहकती साँसें यूँ सुलगने को प्रेम बताती रहीं। समझा जीवन का नेम।
बुधवार, 22 अगस्त 2012
भोर भर
कल्प अकल्पों में बहकती साँसें यूँ सुलगने को प्रेम बताती रहीं। समझा जीवन का नेम।
मंगलवार, 31 जुलाई 2012
एक परम्परा ऐसी भी
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चित्राभार : http://www.kamat.com/database/pictures/corel/515043.jpg |
चित्राभार: http://www.cse.iitk.ac.in/~amit/birds/good/0650sw_brahminy-chased-off-by-babbler_14.10.jpg |
चित्राभार : http://previews.agefotostock.com/previewimage/bajaage/b44450dcfd457e8ef02516a1ed7f9720/IBR-591303.jpg |
रविवार, 17 जून 2012
...वही आदिम टोटके उपाय
रिसता आषाढ़ आतप स्वेद ग्रंथियों से, निहारता है अनिल ठिठक भीग चिपके वस्त्रों को। समय ठहरता है आँख सलवटें उभरती हैं, बादल उतरते हैं वदन पर बन आब बेचैन बारिशें हों कैसे जब धरा पर प्रेम विराम?
किरकिरी कुनकुनी डाह बात, कान छूती दाह सात, बहुत हो चुका सिरफिरी टिटिहरी को कोसना कि लोट धूल धाल करें आदिम टोटके उपाय। समझो कि लिपटना स्वेद भीगी देह का निज देह के अंश से, लजवाता है बादल हवा युग्म को और ठिठकन टूटती है। बह चलता है आर्द्र अनिल क्षमा माँगते मरमर सहलाते धीर तरुओं को, उमस बढ़ती है उफ्फ! हवा चलती है?
लाज भरती है चिपके वस्त्रों में करना क्या दिखावा अंतरंग जो मिला ही हुआ है रीत से? लोग राहत कहते हैं, बिसूरते हैं कि होगा पुन: विलम्ब बादर की गह गह में, बूँदों की झड़ियों में? नहीं जानते कि एक ने तोड़ा है मौसम की पटरी से सुख निषेध का मिलीमीटर!
जो उठती हैं हजारो मील लम्बी चादरें पनीली ढकती पोतती गर्वीले नीले के मुँह कालिख बदरी। आँखें मूँद लेता है वह पलकों में दूरियाँ घटती हैं। निचुड़ जाती है पहली बूँद गिरती धूल धाल पर धप्प से बरसने लगते हैं बादल पसीने पसीने खोल देती है हवा सीना धरा समोने को सृष्टि बीज के कण तत्क्षण!
करो विश्वास कि हर वर्ष वर्षा आरम्भ होता है ऐसे ही, वर्षा आती रहेगी तब तक जब तक रहेंगे किसी एक को याद वही आदिम टोटके उपाय। नहीं आई अब तक तो समझो कि इतने बड़े परिवेश में किसी ने नहीं किया नैसर्गिक वही, उपाय तोड़ने का जुड़ने का, नहीं किया अब तक।
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अब सुनिये राग मल्हार और बहार की सजावट
बुधवार, 18 अप्रैल 2012
पहली भेंट...
प्रस्तावना थी पहली भेंट की
(परिचय पगे अनजानेपन का सहसा मिलना भेंट नहीं,
तब हो जब निमंत्रण हो, स्वीकार हो)
सदेह स्पर्श का अवसर आया तो मैं तुम्हें वैसे ही छूना चाहता था
पूछा तुमने - क्यों आये?
बुधवार, 29 फ़रवरी 2012
उत्तरोर्मि - मैं तुम्हें लिखती हूँ
आ जाओ कि बबूलों में बो दिये हैं काँटे अनेक।
साथ साथ लिखेंगे इबारतें अनेक। सूँघ लेना मेरी भूमा गन्ध (वही जिसे निज स्वेद सनी खाकी में पाते हो)।
मैं पा लूँगी घहरती कड़क झमझम बेमौसम (तुम्हीं तो हो ऋषियों के पर्जन्य!)
ठसक तुमसे है, तुम पर ही लदती हूँ।
मैं तुम्हें लिखती हूँ।
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