रविवार, 24 फ़रवरी 2013

जाते माघ की बारिश

हल्की हरजाई बारिश प्रेम में विघ्न डालती है। ऐसे अनमोल समय जब कि भुगतानी अतिथिगृह  की छ्त के नीचे से चेहरे को हल्के मेकअप से हसीन कर और पीछे केशों पर चढ़ाये जाते शक़ के विग को झटक कर निकलने का साहस करे युवती लेकिन खराब बाइक को घसीटता प्रेमी युवक मौसम पर गालियों की बरसात को मजबूर हो तो सिवाय शाप के कुछ और बयाँ नहीं हो सकता।

रेस्ट्रॉ में चिपिर चिप चिप है। चमकती सड़क और खुले में लगे स्टेनलेस स्टील के फर्नीचर पर रोशनी चमकती है। रुकती होती बारिश से त्रस्त इश्क़ को कहाँ चैन कि देखे ऊपर असम्भव चाँद है और नीचे छ: मीटर ऊँचाई पर टँगी हैं तीखी प्रस्फुर लड़ियाँ? कालिख जबर है – वात में, आवरण में और सड़क पर भी!  
सीली टेबल पर आमने सामने कोहनियों से कलाई तक हाथ चिपके हुये हैं, अँगुलियाँ किस्सी किस्सी खेल रही हैं। कल तक कोला में मिला कर पीती थी, आज लड़की व्हिस्की के पैग को स्ट्रा से चूस रही है, वह खफा है मौसम पर! उस मौसम पर जो कि टीवी से चिल्ला चिल्ला खून के छींटे मार रहा है। ह्विस्की के कड़वे रंग पीले में लाली लिपिस्टिक नहीं हो सकती। चिपचिपा अनुभव है कि आँखों को आँखें पी नहीं सकती, होठ चूमने लायक अन्धेरा भी नहीं। सत्यानाश है, कितनी बेहूदा शाम है! नशा हिरन है।

टाइम दिखा कर भगाते रेस्ट्रॉ मालिक पर लड़की ने पहली बार एक गाली आजमाई है – ऐसहोल! मालिक ने समझा ही नहीं है और प्रेमी ने उमड़ती खिलखिलाहट दबाई है, ओले गिरने लगे हैं, चाँद जाने कहाँ चला गया है? कोने मोड़ पर लड़के ने खींच कर चूमना चाहा है और लड़की के मन में सोडियम सनसना उठा है – रेप!

घुटना ऊपर उठा है- टाँगों के बीच जोर से आघात। बिलबिलाते लड़के ने धमकी सुनी है – मैं चिल्लाऊँगी! शटर गिराते पणि ने केवल सुन कर देख लिया है। कड़वी मुस्कान और फिर तान ये इश्क़ इश्क़ है, इश्क़ इश्क़! बाइक ठीक हो गयी है, एक साथ हजार हॉर्स पॉवर – यूँssss बूम्म्म्म! लड़की ने पहली बार शाम के नशे का अनुभव किया है – कल की कल देखेंगे।  

 

 रात वातायन की प्लास्टिक छत से रह रह कर धमाके आते रहे और घर वाले उनमें बम, बन्दूकें, पटाखों और चीखों को ढूँढ़ते रहे। ओले श्वेत होते हैं, ऐसी ध्वनियाँ तो लाली से आती हैं! मैं अकारण ही उदास होता रहा। इसे वे ऑफ लाइफ मानने को मन करता है और आर्ट ऑफ लिविंग की कक्षाओं की इबारतों में इस उदासी को लपेटने को मन करता है लेकिन मन माने तब न?

सबेरा धुला है। रात भर आसमान से पिघले और ठोस गीलेपन गिरते रहे, बूँदे और ओले बरसते रहे। शीत ऋतु के सीले कपड़े सा सबेरा सूखने को सूरज की सेंक चाहता है और हवा है कि सिहराये दे रही है। दुर्घटनाओं के प्रमाण मार्गों पर डिवाइडर नालियों की ढह गई भित्तियों में हैं, बहना रुक गया है लेकिन धरती की लाली धुल बह कर इन नालियों में जमा है। कुत्तों में इस बात पर बहस है कि रुके पानी में लहू इतना है क्या कि उतर कर जीभ लपलपा दी जाय?

लैपटॉप से आते ध्यान संगीत और चिड़ियों की चटर चूँ पर बहसी श्वान ध्वनियाँ चढ़ी हुई हैं कि आखिर पानी में रक्त है कितना? ये कैसी वर्षा कि नालियाँ उफनी नहीं, नगर निगम को गालियाँ मिली नहीं, क्रोध निकल कर दयनीय हुआ नहीं और जीवन थमा नहीं?

सोने के समय तक चन्द्रमा आजकल खमध्य पर होता है। ऐसी चमक जिसका आभास हो, पता हो, पर स्रोत दिखे नहीं। अन्धेरों से लड़ते हम ऐसे ही जिये जा रहे हैं, प्रेम किये जा रहे हैं।

 स्त्रियाँ कहती हैं कि ब्याह के बाद इश्क़ या तो इस्स रह जाता है या बीते वर्षों के शक़ जैसा। पुरुष कहते हैं मद उतर जाता है और इलाके के सिमट जाने से मर्दानगी खो जाती है, मूतने तक की हदबन्दी हो जाती है। ऐसे बेहूदे वातावरण में भी स्त्री पुरुष जिये जा रहे हैं, बच्चे पैदा किये जा रहे हैं। उनके होने से ही धरा पर वात का आवरण है, एक भ्रम है कि जीवन है और ऐसा ही है!

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013

हिन्दी ब्लॉगरी की दशकोत्सव यात्रा - 5 [नौ गम्भीर]

पिछले से आगे...

पहले अश'आर बोलने का नुस्खा!
Anurag Sharma उवाच
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मुंह में ज़र्दे वाला पान घोलकर बोलिए आ,फिर ज़रा (जरा नहीं वरना क़यामत हो जाएगी) रुकिए फिर बोलिए शआर, उसके बाद पान को बगल में थूक दीजिये, तब बनेगा खालिस अ'शआर
... और कहीं गलती से पिलूरल कर दिया तो शेर में तब्दील हो जाएगा ...
___________
फेसबुक पर यात्रा जारी है। ऊपर का नुस्खा भी वहीं से आयातित है
आज नौ गम्भीर ब्लॉग ब्लॉगर। इन नगीनों से हिन्दी ब्लॉगरी गौरवान्वित है।  
 

36 गढ़ की धरती ब्लॉगरी के लिये बहुत उपजाऊ है! राहुल सिंह के गम्भीर शोधपरक आलेख एकदम कसे बसे और नयी जानकारियों से भरे होते हैं। ब्लॉग जगत के जो कुछ जन अकादमिक गरिमा रखते हैं उनमें राहुल जी शीर्षस्थ हैं। इनके ब्लॉग का नाम है 'सिंहावलोकन' तो श्लेष बनता है, एक अर्थ में कुलनाम से संगति और दूसरे अर्थ में सिंह की प्रसिद्ध चाल जिसमें वह चलते हुये रह रह पीछे देख लेता है। अपने संस्मरणों को राहुल सिंह वैसे ही देख कर सबके सामने रख देते हैं।
इनके विषय हैं संस्कृति, लोक कला और पुरातत्त्व और सिंहावलोकन को यूँ बताते हैं 'आगे बढ़ते हुए पूर्व कृत पर वय वानप्रस्‍थ दृष्टि'। ललित गद्य भी बहुत अच्छा लिखते हैं।
देखिये एक पत्र का नमूना। पूरा ब्लॉग ही ऐसी जाने कितनी अछूती बातों पर लेखन से भरा हुआ है।
http://akaltara.blogspot.in/2013/01/blog-post.html

कविता, आलोचना, पुरातत्त्व, ज्ञान विज्ञान, पास पड़ोस सब पर समान अधिकार और उत्कृष्टता के साथ लिखने वाले शरद कोकास की ब्लॉगीय चुप्पी अब अखरने लगी है। आशा है कि पुकार सुनेंगे Sharad Kokas इनके ब्लॉग लिंक यहाँ मिल जायेंगे:
http://www.blogger.com/profile/09435360513561915427

उत्कृष्ट विश्व साहित्य अनुवाद, कवितायें, फिल्म, संगीत, फोटोग्राफी आदि विविध विषयों के कबाड़ी पाये जाते हैं अशोक पांडे के ब्लॉग कबाड़खाना पर। फुलाये फूलों, पसीजते प्रेम, उखड़ी उदासी, बुलाती प्रकृति के गद्य और काव्य यहाँ प्रचुर हैं। कभी कभी तो सन्दर्भ ब्लॉग सा लगता है। कोई आश्चर्य नहीं कि 910 जनों ने इससे स्वयं को जोड़ रखा है।
http://kabaadkhaana.blogspot.in/

दक्षिण के हिन्दी अध्येता हैं पा.ना. सुब्रमणियन। गाते हैं राग मल्हार - पुरातत्त्व, मुद्राशास्त्र, इतिहास, यात्रा आदि पर। http://mallar.wordpress.com इनके ब्लॉग पर ऐसे ऐसे स्थलों के रोचक और ज्ञानवर्द्धक विवरण मिलेंगे कि आप दंग रह जायेंगे - भारत में ऐसा भी है!
चुपचाप उत्कृष्ट रचनाकर्म में रत ये उन जनों में से एक हैं जिनके कारण हिन्दी ब्लॉगरी समृद्ध है। पढ़िये आदि शंकर की एक 'और' जन्मस्थली के बारे में:
आदि शंकराचार्य की जन्मस्थली और भी है!

'हिन्दी वालों' से रूठे साहित्यकार उदय प्रकाश का हिन्दी ब्लॉग UDAY PRAKASH लगभग डेढ़ वर्ष से चुप है। निर्वासन जैसी बातें करते ये पाठकों के प्रेम पर निहाल होते हैं। फेसबुक पर खासे सक्रिय हैं। प्रतिष्ठित कथाकार हैं, कई भाषाओं में अनुवादित भी! ब्लॉग जगत वाली एक विशेष आत्ममुग्धता इन पर भी छायी दिख जाती है।
पढ़िये कि ये आदिवासी हैं:
http://uday-prakash.blogspot.in/2011/07/blog-post.html

कविता, साहित्य, ललित गद्य, राजनीति, वाद प्रतिवाद, सम सामयिक मुद्दों पर लिखते हैं और प्रसिद्ध व्यक्तियों की रचनाओं से भी परिचय करवाते हैं कम्युनिस्ट बनारसी ब्लॉगर रंगनाथ सिंह। इनका ब्लॉग है 'बना रहे बनारस'।
पढ़िये मुक्तिबोध पर हरिशंकर परसाई का संस्मरण:
http://www.banarahebanaras.com/2013/01/blog-post_6729.html

कम लिखने वाले सौरभ मालवीय अपने ब्लॉग सुमन सौरभ पर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को केन्द्र में रख कर लिखते हैं।
http://sumansourabh.blogspot.in/

संगणक, मुक्त सॉफ्टवेयर, लिनुक्स, तकनीकी, ग़ैजेट, इंटरनेट हिन्दी, व्यंग्य, कहानियाँ  एवं मुफ्त डाउनलोड जैसे विशाल परास पर रचना संसार है रविशंकर श्रीवास्तव उर्फ रवि रतलामी का। इनका ब्लॉग है छींटे और बौछारें
इनसे बस एक अनुरोध है कि अपने ब्लॉग का कलेवर बदलें। हम जैसे सौन्दर्य प्रेमी यहाँ पहुँच कर गड़बड़ा जाते हैं!  

अजय ब्रह्मात्मज अपने ब्लॉग चवन्नी चैप पर हिन्दी फिल्मों के बारे में हिन्दी में लिखते हैं और परिचय अंग्रेजी/रोमन में यूँ देते हैं:
i am a common audience of hindi cinema.critics and film industry call me CHAVANNI CHAP.i love this name.visit me to know my views. aur haan...yahan se aap apne pasandida sitaron aur filmon ki duniya mein seedhe ja sakte hain.to der kis baat ki..abhi click karen..aur bar-bar aayen. (और हाँ...यहाँ से आप अपने पसन्दीदा सितारों और फिल्मों की दुनिया में सीधे जा सकते हैं. तो देर किस बात की..अभी क्लिक करें..और बराबर आयें.)

(नोट : ब्लॉग क्रम का श्रेष्ठता कोटि से कोई सम्बन्ध नहीं है)

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

हिन्दी ब्लॉगरी की दशकोत्सव यात्रा - 4

अधिकांश हिन्दी ब्लॉगर अब फेसबुक पर हैं/भी हैं - 'हैं' उनके लिये जो ब्लॉग का लगभग त्याग ही कर चुके हैं; 'भी हैं' उनके लिये जो दोनों स्थानों पर अपने को स्थापित किये हुये हैं। कुछ तो ट्विटर पर भी सक्रिय हैं। आज के समय की आवश्यकता है इंटरनेट जिसे कतिपय जन अब नागरिक 'मौलिक अधिकारों' में सम्मिलित करने की माँग भी करने लगे हैं। जीवन की आपा धापी में पारम्परिक दृष्टि से देखें तो एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से दूर हुआ है किंतु एक दृष्टि से देखें तो इतना पास हुआ है जितना कभी नहीं था। भूगोल, लिंग, पंथ आदि की सीमायें ध्वस्त हो चली हैं और सोशल साइटों के द्वारा लोग बेतहाशा एक दूसरे से सम्वादित हो चले हैं। इस के नकारात्मक पहलू भी हैं लेकिन विधेयात्मक पक्ष यह है कि इसने उन्हें भी अभिव्यक्ति दे दी है जिन्हें व्यवस्था ने चुप कर रखा था। स्त्रियाँ इतनी मुखर पहले कभी नहीं हुईं! और वे आधी जनसंख्या हैं। यह एक बहुत बड़ा परिवर्तन है जिसके प्रभाव जीवन के हर क्षेत्र में दिखने लगे हैं।
फेसबुक या ट्विटर के 'हिट' होने के पहले सम्वाद की त्वरा की आवश्यकता की पूर्ति ब्लॉग प्लेटफार्म करता था। परिणामत: अधिक जीवन्त लगता था। इनके आने से त्वरित और लघु सम्वाद एवं उनके अन्य प्रकार ब्लॉग से हट गये। ऊबे और त्वरा की प्रचुरता के आदी जन ने ब्लॉग को बीते युग की बात घोषित कर दी एवं फेसबुक पर ‘फुल्ल' या 'प्रफुल्ल टाइमर' हो गये। हिन्दी ब्लॉगरी में ऐसा अधिक दिखा लेकिन अन्य भाषाओं से तुलना करें या आज भी स्वयं हिन्दी ब्लॉग जगत की सक्रियता और गुणवत्ता देखें तो 'बीते युग की बात' बकवाद ही लगती है। सोशल साइट और ब्लॉग एक साथ चल रहे हैं और चलते रहेंगे।
फेसबुक त्वरित है। अधिकतर विचार या अभिव्यक्ति आते हैं और बिना परिपाक हुये छप जाते हैं। विविधता और नयापन तो प्रचुर हैं लेकिन विकसित करने में समय न दिये जाने के कारण गुणवत्ता और गहराई की कमी ही दिखती है। सुतली बम कस के बाँधा न जाय तो धमाके और प्रभाव में कमी हो जाती है! यदि उन्हीं फेसबुकिया विचारों या अभिव्यक्तियों को ब्लॉग पर परिवर्धित और थोड़ा समय दे परिमार्जित कर डाला जाय तो क्या बात हो! फेसबुकिया ब्लॉगर या ब्लॉगर फेसबुकिये ध्यान दें! 
2013 में हिन्दी ब्लॉगरी के दस वर्ष पूरे हो रहे हैं। इस अवसर पर मैंने सोचा कि क्यों न फेसबुक के उन जनों को हिन्दी ब्लॉगरी की झलकियाँ दिखाई जायँ जो इससे अनभिज्ञ हैं? फेसबुकिया शैली में ही बिना वर्तनी या व्याकरण पर अधिक ध्यान दिये मैंने ब्लॉग जगत का परिचय देना प्रारम्भ किया तो लोग रुचि लेने लगे। मित्र निवेदन और चैट सन्देश भी मिलने लगे। मैं सनातन कालयात्री आगे बढ़ता चला गया। शिवम मिश्र ने ब्लॉग बुलेटिन पर छापना चाहा तो मैंने कहा कि डाल दीजिये [जब सामने वाला पश्चात प्रभाव झेलने को तैयार है तो अपने को क्या?] उन्हों ने ये तीन लिंक छापे: 1, 2, 3 । वह चाहें तो इसे भी अपने यहाँ कॉपी पेस्ट कर सकते हैं, वहाँ रहने पर पहुँच बढ़ेगी ही।
फेसबुक पर ही इस घोषणा के बावजूद कि
हिन्दी ब्लॉगरी के दस वर्ष पूरे होने वाले हैं। अपनी पसन्द के लेख शेयर करता रहूँगा- दशकोत्सव की अपनी विधि! इसमें कोई 'राजनैतिक या गुटीय' मंतव्य न ढूँढ़े जायँ, प्लीज! ;)'परशुराम जी' ठाकुर विश्वामित्र और बाभन वशिष्ठ प्रकरण ले आये जिससे मामला तनि एक रोचक हुआ। कुछ जन बिदके भी लेकिन टिप्पणी का सार समझते हुये पब्लिक चुप ही रही! इस स्टेट्स पर नम्बरी बिलागर समीर लाल ने लिखा: jindaabaad!! किसका जिन्दाबाद? ये तो वही जानें।
आप सब अपने अपने ब्लॉगों पर कुछ नया करें। अपने बारे में कॉलर टाइट करते रहे, पल्लू लहराते रहे; अब दूजों की सोचें। छिपो को प्रगटो करें, प्रशंसा करें, उनके योगदान को चिह्नित करें।  फागुन का महीना आ ही रहा है, नमकीन या रंगीन भी हो सकते हैं।
कविता के मारे हैं तो गद्य का लठ्ठ भाँजें, चुपो रहे हैं तो अनुराग शर्मा, अर्चना चाव जी, पद्म सिंह, सलिल वर्मा, हिन्द युग्म, रेडियो प्लेबैक इंडिया आदि के सहजोग से मुखो हो पॉडकास्ट ट्राई करें। आवाज के मामले में निश्चिंत रहें, जब मेरी आवाज को भी पसन्द किया जा सकता है तो सबके पसन्दकर्ता उपलब्ध होंगे। अस्तु, आगे बढ़ते हैं।

फिल्मों पर लिखते हैं स्वघोषित आवारा मिहिर पंड्या अपने ब्लॉग http://mihirpandya.com पर। वह अपने इस ब्लॉग पर अनवरत रचना संसार सृजित कर रहे हैं। सेल्यूलाइड पर अमर कर दिए गए दृश्य, ध्वनियाँ, गीत, संगीत, भावनाएँ, प्रकाश, अन्धकार .... सबको बहुत बारीकी से विश्लेषित करते हैं और तह दर तह खोलते जाते हैं।
लाइट, कैमरा, ऐक्शन !!
ये तीन शब्द जो रचते हैं, उस पर बहुत कुछ रचा जा सकता है। ज़रा देखिए तो सही । बस समीक्षा नहीं, साहित्य भी मिलेगा। 
 
अंग्रेजी की मास्टरनी शेफाली पांडेय अपने को कुमाउँनी चेली कहती हैं। http://shefalipande.blogspot.in में ग़जब के व्यंग्य रचती हैं। स्वभाव से ही विरोधी हैं, पुरस्कारों की भी। ये बात और है कि 'जब मुझे पुरस्कार मिल जाता था तो मैं उन लोगों की बातों का पुरज़ोर विरोध करती थी जो पुरस्कारों की पारदर्शिता पर संदेह करते थे'  
राजस्थान की धरती से किशोर चौधरी के मित्र संजय व्यास ब्लॉग लिखते हैं http://sanjayvyasjod.blogspot.in/ अपने बारे में कहते हैं कि मुझे तैरना बिल्कुल नहीं आता लेकिन मरुस्थल की रेत पर लहरों सा आनन्द लेना हो तो इन्हें पढ़िये। राजस्थान का रंग है, गँवई प्रेक्षण हैं, खिलखिलाती लड़कियाँ भी हैं, कुछ कवितायें भी और कुछ अद्भुत गद्य भी। व्यक्तिगत कहूँ तो दोनों में मुझे ये अधिक पसन्द हैं।  
लखनवी विनय प्रजापति कम्प्यूटर तकनीकी के टिप्स देते हैं अपने ब्लॉग http://www.techprevue.com/ पर। अब अंग्रेजियाने लगे हैं। नज़र तखल्लुस (यही कहते हैं न?) से ग़जलियाते भी हैं और ब्लॉग की अलेक्सा वलेक्सा रैंकिंग कैसे दुरुस्त रहे इसका भी खयाल रखते हैं। कविताकोश पर भी पाये गये हैं। 
शिक्षा, विज्ञान, सामयिकी, कविता, ललित गद्य, स्त्री मुद्दे आदि में निष्णात हैं अल्पना वर्मा। व्योम के पार मध्य पूर्व से लिखा जाने वाला इनका ब्लॉग है http://alpana-verma.blogspot.in
वतन से दूर हैं लेकिन इसकी मिट्टी से खिंचते रहने की बात कहती हैं। इन्हों ने जावा स्क्रिप्ट एनेबल कर ब्लॉग से कॉपी पेस्ट बन्द कर रखा है :) गायन भी करती हैं।
उम्मतें http://ummaten.blogspot.in/ नाम से ब्लॉग रचते हैं अली सईद। सुन्दर ललित विचारपूर्ण गद्य लिखते हैं। लेफ्ट सेंटर चलते हुये कहते हैं जो जी चाहे ले लीजिये ! कोई कापी राईट नहीं !.
नहीं जी, इनका ट्रैफिक विभाग से सम्बन्ध नहीं, छत्तीसगढ़ शिक्षा में उच्च पद पर हैं।  
अलग तरह का साहित्य है ब्लॉगर नवीन रांगियाल के ब्लॉग औघट घाट http://aughatghat.blogspot.in पर। राजेश खन्ना के अवसान के बाद चुप हैं लेकिन ब्लॉग के पुराने लेख भी पठनीय हैं। उनके मित्र उनके बारे में लिखते हैं:क्‍या कहूं तुम्‍हें                                                                  
कि तुम जितने पुराने हो रहे हो
उतना ही ताजा बन पडे हो..
रंगों मे रहकर रंगहीन क्‍यों हो तुम
काफ्काई गद्य पढ़ना हो तो आई टी क्षेत्र से जुड़े युवा ब्लॉगर नीरज बसलियाल के ब्लॉग काँव काँव प्रकाशन लि. http://kaanv-kaanv.blogspot.in/ पर जाइये। कम सामग्री है लेकिन जो है वह कभी कभी गुरुदत्त के सिनेमाई बिम्बों सा भी लगता है।
दीपक बाबा अब कम बकबक http://deepakmystical.blogspot.in करते हैं लेकिन जो करते हैं अलगे अन्दाज में करते हैं। चचा जैसे जन इनके टाइप की ब्लॉगरी को ही ब्लॉगरी मानते हैं। बाकी तो साहित्त फाहित्त सभी रच लेते हैं! है कि नहीं?
रोटी की रोजी का टैम हो गया, फिर मिलते हैं।

शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2013

बसंत की बकधुन!

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  काषाय यानि कसैले मन की स्थिति में आया है वसंत। शीतोष्ण वायु है, आज कल के सूर्योदय भी नवीन लगते हैं। बुद्ध काषाय यानि गेरुआ को निर्मल मन की स्थिति से जोड़ते हैं लेकिन मेरा स्तर वह नहीं है।
ऑफिस के प्रांगण में कल पतझड़ से नग्न स्वनामित वनसेमलों को सदाबहार सिल्वर ओक के साथ देर तक निहारता रहा। जीवन ऐसा ही है, किसलिये कसैला होना? भीतर शीत और बाहर ऊष्मा, स्वेद का अनुभव करते किसी कोने में आह्लाद सा उठा। भान हुआ कि वसंत की पंचमी में हूँ। पीली मिठाई और पीले पुहुप मँगाया, सबको बता बता कर खिलाया कि आज वसंत पंचमी है, कल अवकाश के दिन भी रहेगी। गैरिक काषाय पीला हो चला – अमल। 

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सरसो फूलती गयी और मन के किसी कोने में सहमे से बैठे बच्चे किलकारियाँ मारते दौड़ चले...रसायन प्रभाव।
यह ऋतु पुष्पऋतु है। सौन्दर्य और आकर्षण की ऋतु है। मिलन की ऋतु है। सृष्टि के नूतन बीज उपजाने के लिये यज्ञ
ऋतु है यह - जीवंत काम अध्वर!भारत में बहुत पहले से यह कामदेव की उपासना का काल रहा है जिसका समापन होली से होता है।

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एक प्रश्न उठा - वसंत का स्वागत पाँचवे दिन ही क्यों? यह क्या बात हुई कि नानाविहगनादित: कुसुमाकर: तिथि बता कर आता है और हम उसका अतिथियोग्य शिष्टाचार के साथ स्वागत करने के लिये भी पाँच दिन प्रतीक्षा करते हैं!
कुसमायुध कामदेव की ऋतु में विद्यादायिनी सरस्वती की उपासना क्यों?    
कामदेव अनंग हैं यानि देहविहीन। विचित्र बात है न प्रेम का देव देहविहीन? वह अनंग इसलिये है कि समस्त जीवधारी उसके अंग हैं।
 
कुसुमायुध के तूणीर में खिली प्रकृति से लिये पाँच बाण रहते हैं जिनके नाम और प्रभाव अमरकोश में ऐसे दिये गये हैं:


अरविन्दम् अशोकं च चूतं च नवमल्लिका ।
नीलोत्पलं च पञ्चैते पञ्चबाणस्य सायकाः ॥
उन्मादनस् तापनश् च शोषणः स्तम्भनस् तथा ।
संमोहनस्श् च कामश् च पञ्च बानाः प्रकीर्तिताः॥

पहला तीर: कमल (Nelumbo nucifera)
आघात स्थल: वक्षक्षेत्र

प्रभाव : उन्माद


दूसरा तीर : अशोक पुष्प (Saraca asoca)

आघात स्थल : होठ

प्रभाव : तपन

तीसरा तीर : आम्र मंजरी (Mangifera indica)

आघात स्थल: मस्तक

प्रभाव: शोषण

चौथा तीर : नवमल्लिका (Jasminum officinale)

आघात स्थल : आँखें

प्रभाव : स्तम्भन

पाँचवा तीर : नीलोत्पल (Nymphaea caerulea)

आघात स्थल : सर्वत्र

प्रभाव : सम्मोहन


कहीं ऐसा तो नहीं कि ऋतु आह्लाद के 'आघातों' का अनुभव करने और उन्हें अपने भीतर समो प्रकृति के नूतन रंग रसायनों से आपूरित हो जाने के लिये ये पाँच दिन दिये Towards-the-Temple-Yellow-Sari-Painting-by-Vijay-Kadamगये? जीवन की भागदौड़ में ठहर कर सायास अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का उद्योग पर्व तो नहीं यह? भारतीय मनीषा हर भाव को सम्मान देती है, हमारे यहाँ तो वीभत्स और जुगुप्सा भी रस हैं! basan
वसंत के पहले पाँच दिन ऐसे देखें क्या?
पहले दिन हृदयक्षेत्र पर आघात और उन्माद।
दूसरे दिन ओठ - देह के ताप प्रभाव में ओठों की थरथराहट, अभिव्यक्ति!
तीसरे दिन मस्तिष्क भी विचलित और सभी उत्तेजनाओं को भीतर सोख लेना।
चौथे दिन आँखें, अरे सब कुछ तो आँखों से ही होता रहा, तो अलग से क्यों? स्तम्भन पर ध्यान देने से खम्भे की तरह जड़ीभूत होना समझ में आता है। यह स्थिर बिम्ब है जिसे कहते हैं आँखों में बसा लेना!
और सबसे बाद में सम्मोहन तीर, सर्वत्र आघात। सुध बुध खोना और बात है, सम्मोहित हो कुछ भी कर देना और बात।
अब विवेक की आवश्यकता है अन्यथा अनर्थ की पूरी सम्भावना है।
तो पाँचवे दिन विद्या विवेक की देवी की आराधना होती है। सौन्दर्य से उपजे राग भाव को उदात्तता की ओर ले जाना ताकि शृंगार उच्छृंखल न हो, सरस हो।
देवी के साथ पद्म है - वनस्पति सौन्दर्य का चरम, मोर है - जंतु सौन्दर्य का चरम, लेकिन वह नीर क्षीर विवेकी हंस की सवारी करती हैं। वीणा से संगीत का सृजन करती हैं तो पुस्तकधारिणी भी हैं! 
वसंत पंचमी के दिन सरस्वती आराधना इसके लिये है कि ऋतु की शृंगार भावना रसवती हो किंतु विद्या के अनुशासन में! इस समय परिवेश में जो अपार सौन्दर्य बिखरा होता है, उसका आनन्द बिन विद्या के पूर्ण नहीं होता। उसके सूक्ष्म का, उसके स्थूल का, उसके समग्र का बिना विद्या के अवगाहन सम्भव नहीं! उससे काम पुष्ट होता है। काम जीवन का मूल है जिसके कारण उसकी पुष्टि जीवन को भरपूर करती है। क्रमश: पूर्णता की ओर बढ़ते हुये मनुष्य मुक्त हो, यही उद्देश्य है।
विद्या के साथ से रागात्मकता क्रमश: उदात्तता की ओर बढ़ती है जिसकी अभिव्यक्ति संगीत, कला, साहित्य, नृत्य आदि में उत्कृष्ट रूप में होती है। बौद्ध जन अविद्या या अवेज्ज पर बहुत मीमांसा किये हैं लेकिन वह निषेध अर्थ में है। विद्या का सूत्र यह है - सा विद्या या विमुक्तये, जो मुक्त करे वह विद्या है। जब आप 'विद्वान' होते हैं तो राग या प्रेम आप को बाँधते नहीं हैं, सौन्दर्य भी बाँधता नहीं है लेकिन आनन्द भरपूर होता है।
 
विद्या को घृणा से भी जोड़ कर देखना होगा। हम सब में घृणा है। जाने अनजाने हमारे व्यवहार घृणा से भी परिचालित होते हैं। घृणा से मुक्ति तो आदर्श स्थिति है लेकिन यदि घृणा की युति विद्या से हो जाय तो दो बातें होती हैं - विश्लेषण और कर्म। विश्लेषण और विवेक आप को अन्ध कूप में गिरने से बचाते हैं। ऐसे में घृणा से प्रेरित आप के कर्म क्रमश: विधेयात्मक होते जाते हैं। आप कारण के उन्मूलन की सोचने लगते हैं न कि कारकों के। यह एक ऐसी मानसिक अवस्था होती है जहाँ आप के प्रहार भी वस्तुनिष्ठ होते हैं। ऐसे में भीतर की घृणा जो कि एक आम जन होने के कारण आप में पैठी हुई है, निषेधात्मक प्रभाव नहीं छोड़ती। तो आज विद्या दिवस पर भीतर की घृणा का विश्लेषण करें, उसे विद्या से युत करें। द्रष्टा बनें।
वायु शीतोष्ण है, अपनी त्वचा पर उसकी सहलान का अनुभव करें। सूर्योदय नये से दिखते हैं, उन्हें अपनी आँखों में स्थान दें। सौन्दर्य के लिये एक असंपृक्त सराह और अनुभूतिमय दृष्टि अपने भीतर विकसित करें। संसार और सुन्दर होगा।
 पावका न: सरस्वती वाजेभि: वाजिनीवती यज्ञम् वष्टु धियावसुः
चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम् यज्ञम् दधे सरस्वती
महो अर्ण: सरस्वती प्र चेतयति केतुना धियो विश्वा वि राजति। - ऋग्वेद

(देवी सरस्वती जो पवित्र करने वाली हैं, पोषण करने वाली हैं और जो बुद्धि से किए गए कर्म को धन प्रदान करती हैं। हमारे यज्ञ को सफल बनाएँ। जो सच बोलने की प्रेरणा देती हैं और अच्छे लोगों को सुमति प्रदान करने वाली हैं। जो नदी के जल के रूप में प्रवाहित होकर हमें जल प्रदान करती हैं और अच्छे कर्म करने वालों की बुद्धि को प्रखर बनाती हैं। वो देवी सरस्वती हमारे यज्ञ को सफल बनाएँ।)
अंत में मेरे प्रिय रजनी कांत जी की पंक्तियाँ:
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पीर बनकर बस गयी है मौन मन के पोर में
बीतते पतझड़ में डाली से विलग पत्ते सरीखा
चाहता तन बँध के रहना पीत आँचल कोर में
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बुधवार, 6 फ़रवरी 2013

एक था गाँव


एक गाँव था जिसमें बच्चे, जवान और बूढ़े सभी रहते थे। रोज सुबह चार बजे के करीब गाँव जग जाता। मर्दों की आँखों से रोशनी हो जाती और वे गोरुओं के लिये छाँटी काटने लगते, गोबर फेंकते, दुवार बहारते। घरों की बुढ़िया सब जनानियों को जगा शौच सफाई को सरेह में निकल जातीं और रास्ते में दिन भर का काम काज तय हो जाता - धान का भुजिया, साहुन की तोरी, सलोनी का बियाह और नर्बदा का गौना सब। जब वो लौटतीं तो उनके साथ लक्ष्मी भी घरों में आ पहुँचती। टहल काका तब तक गाँव भर का चक्कर लगा रात भर की खोज खबर ले चुके होते और अपने मितऊ जन से लदनी के बारे में तय तड़ाबा भी।

चन्दन की नींद ठीक उस समय खुलती जब परसाद बाबा गोरुओं को नाद पर लगा भुअरी भैंस का दूध दुहने बैठते । वह दौड़ता पीछे से उनकी पीठ पर सवार हो जाता। बाल्टी में गर्र गोंय गर्र गोंय भरते फेन को देखता रहता। उसे भूख महसूस होती और आगे आ मुँह बा देता। बाबा उसे बरजते कि कहीं मरखही लात मार उसे घाव न लगा दे लेकिन चन्दन माने तब न! बाबा दूध की धार चन्दन के मुँह की ओर कर देते और वह थाने तर के दूध से तर हो जाता। भर पेट लिये दूध नहाया भीतर जाता तो अम्मा बड़बड़ाते हुये उसका मुँह धोतीं। उस समय वह मुस्कुरा भी रही होतीं।

 इन सबसे बेखबर बहिना चौखट पर बैठी अपनी पुतरी के तिलक की चिंता में घुल रही होती जो चोटी पूरने के लिये काकी के हाथ लगाते ही फुर्र हो जाती। चन्दन दौड़ता हुआ गाँव में निकल जाता और घर घर से उठते धुँओं की तुलना करता – किसके दुवार का धुँअरहा बड़ा है तो किस रसोई का धुँआ काला तो किसका उजला? उसे पता ही नहीं चलता कि कब वह मदन के साथ गुल्ली डंटा खेलने लगता। उसे पता होता कि बाबू के खेत जाने तक उसके खेल में कोई बाधा नहीं। जिस समय उसके धूल में लोटने की परवाह किये बिना बहिना उसे खींच कर घर ले जा रही होती उस समय बाबू किसी खेत में खर पात का अन्दाज ले रहे होते। उस समय परसाद बाबा धौरा गोलवा जोड़ी को नाध कर खेत जोत रहे होते और पास ही टहल काका के मोर हरिहें कलेस रे बिदेसिया गा रहे होते।

दुपहरिया में लौटे बाबू कनिया को पूछते क्यों कि कनिया को यह पता होता कि किस तरह की पियाज बाबू खाते हैं और उसे किस तरह काटना है लेकिन कनिया उस समय बगीचों में टिकोरों की गिनती में लगी होती। बाबू महतारी पर भुनभुनाते खाने बैठते तो चन्दन उनकी थाली के भात और परसाद की थाली के भात के अंतर पर अगले सवाल की तैयारी पर लग जाता। अंतिम ग्रास के कुछ पहले ही कनिया थालियों में टिकोरा, मिर्चा, नमक और नींबू की चटनी ला कर रख देती। बाबू रीस भूल और भात माँगने लगते। बाबू खाना खा और सोये चन्दन को एक नज़र निहार वापस खेत चले जाते। वह चन्दन को साथ खेत ले जाने के खयाल को झटक देते – क्या रखा है इस खेती में?

साँझ होती और गाँव में अलग सुनगुन शुरू हो जाती। जमंती काकी के इहाँ से आग लेने के बहाने एक एक कर बुढ़िया निकलतीं और रस्ता, खिरकी, दुआर कभी दो कभी तीन की गोल में बात छेड़ देतीं। कुछ ही मिनटों में सबका हाल चाल हो जाता, खोज खबर लग जाती। माई दीया ले सब ओर रोशनी बिखेर आतीं – नाँद, भुसउला, कोठरी, इनार, तुलसी, बरम, कुलदेवी, नीबि और छत के नौगोल में भी। परसाद बाबा गोरुओं के लिये धुँअरहा जला रहे होते, छाँटी भूसे का हिसाब ले रहे होते और चन्दन पीछे पीछे। उसे चिरई, खूँटा और बढ़ई की कथा सुननी होती जब कि बाबा मलकिन की धिरवन सँजो रहे होते – जब तक खा न ले तब तक कथ्था कहानी न सुनाया कीजिये। सुनते सुनते सो जाता है। उपास पेट सोना ठीक नहीं। जगा कर खिलाना मान का नहीं। दिया बारने की बेला के कुछ देर बाद परसाद की गोद में सोया चन्दन दाना और चिरई के मिलन की खुशी सपनों को बाँट रहा होता।

रात के खाने के बाद सब छ्त पर जमा हो जाते। कनिया आसमान को निहारती ईया से सितारों के सवाल पूछती। ईया के उत्तर बर्म्हाबरमंड की दूरियों को कनिया के बालों में टाँकने लगते – सलमा एक, सितारा दो, नदी किनारे तीन, पोखरा बारी चार, नैहर नारी पाँच ...कनिया खर्राटे लेने लगती। ईया उसे मन ही मन मुँहझौंसी कहतीं – मर्दाना नींद सोती है!

परसाद बिरझाभार की टेर लेते – एकिया हो रामा, कवने करनवा ... और अगल बगल, छत, दुआर, भँड़सार सब तरफ सन्न हो जाता। बाबू सुरती थूक चौकी से उठ जाते – उन्हें गीत गवनई पसन्द नहीं। वह इयार से हिसाब करने दुसरे दुवार चल देते। माई जल्दी जल्दी घर से बाहर निकलतीं। सुद्धा गोलवा बैल के मुँह में उसे दुलराते हुये कौरा खिलातीं और मरखाह धवरा के आगे थाली का भात सरका देती। दोनों उस समय तक रसोई की ओर टकटकी लगाये खड़े रहते। माई जाने को मुड़तीं तो गोलवा चूनर को मुँह में दबाना नहीं भूलता और धवरा फुफकारना। कढ़ुआर की गोहटी अंतिम छपाका लेती और सब सो जाते ...

वहाँ अब वृद्धाश्रम है जिसमें कनिया और चन्दन भी हैं लेकिन न पुतरी है और न परसाद की टेर। बाबू जैसे जन शहर कमाते हैं। मोबाइल पर गीत बजाते हैं। जिनके पास खेत हैं वे सरेह नहीं शहर की खाक छानते हैं और जिनके पास नहीं हैं, वे मजूरी करते सड़कों पर रात को सोते हैं। गोलवा, धौरा की जगह कहानियों में है। हर घर में अगिन को पाला मार गया है, बुढ़ियों के पास बीमारी के अलावा कोई काम ही नहीं बचा। खरिहाने की पाकड़ तले बचे खुचे जवान नरेगा की बोटी तोड़ते हैं, हवा में गाँजा उड़ाते हैं और गले को दहकती आग से तर करते हैं।   
                      
आत्मा का चोला तो बदलता ही रहता है लेकिन चोला बदलने वाले शहर की सूरत बदलने में लगे हैं। वह गाँव मर गया। उसकी आत्मा मर गई। रातों में अब टहल काका का प्रेत घूमता है। वह पूछते रहते हैं – अब का होई?
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(यह बस नोस्टालजिया में हेर फेर और हेन तेन है। ढेर दिन से परा था, सोचा आज छाप ही दूँ)     

सोमवार, 4 फ़रवरी 2013

जींस वाली दो लड़कियाँ


... छ: साल पहले ऑफिस में आई थी एक इंजीनियर लड़की जो Girish स्विचों के लिये सेल्स इंजीनियर थी। पौना घंटे में ही वह बहुत प्रसन्न हो अपनी पढ़ाई लिखाई, घर परिवार और अपने सपनों के बारे में बहुत कुछ बता कर यह बताते हुये विदा हुई कि आप अप्रूव करें या न करें, मुझे बहुत कुछ मिल गया, इतने सीरियसनेस के साथ किसी ने भी मुझे ट्रीट नहीं किया था, आप बिल्कुल पा...(शायद मेरी कम आयु देख वह 'पापा' पूरा नहीं कर सकी) और फिर नि:संकोच हाथ मिलाने के लिये बढ़ा दिया।

... और आज, 16 दिसम्बर 2012 के इतने दिनों के बाद, एक और सेल्स इंजीनियर लड़की आई L&T की प्रोडक्ट रेंज और केटेलॉग का भारी बैग, एक लैपटॉप और दो मोबाइल सँभाले... मुझे याद नहीं कि मैं क्या क्या पूछ गया लेकिन जाते हुये उसके चेहरे की संतुष्टि, प्रसन्नता और जींस पहने पैरों की मज़बूती देख मन में जमा बहुत सा अवसाद बह गया।
लंच में नीचे उतरा तो स्कूटी पर बैठी वह किसी को मीटिंग का ब्यौरा दे रही थी। बात समाप्त कर उसने चेहरे पर रुमाल (या जो भी कहते हों) बाँधा और उड़ चली। मैं दूर तक उसे ओझल होते देखता रहा। मैंने एक अशब्द प्रार्थना पढ़ी और उसके बाद स्वयं को बुदबुदाते पाया - वे अपनी राह बनाती आ रही हैं!  उन्हें कोई नहीं रोक सकता!!

रविवार, 3 फ़रवरी 2013

बाऊ और नेबुआ के झाँखी - 24

पिछले भाग से आगे...

गाँव में दसबजिया सनाटा पसरा है। पुजारी सूरज ने रोज की ही तरह हर पत्ते को चन्दन से टीक दिया है और पवन देव घर घर घूम जामा तलासी ले रहे हैं। दुआर पर एक अकेला पिल्ला गरदन जमीन से सटाये आँखें मूँद उकड़ू है। रात की कुकरौझ के लिये माफी माँग रहा है साइत! पड़ोस की खिरकी में लगी असुभ केरवानि की छाँव में निखहरे खटिया बैठा सोहित पत्ते हिलने डुलने से भउजी के मुखड़े पर होती घमछँइया निरख रहा है। भउजी ने आज केश धोये हैं।

पीठ की कोर्रा उज्जर साड़ी पर खुले केश फैले हैं। रमइनी काकी चुपके से झाँक गयी है – आजु नगिनिया पुरा खनदान बटोरले बा! ...

 

नये रोपे जोड़ा अँवरा की जमीन लीपने को जब भउजी ने धरती पर पहला हाथ लगाया तो सिहर उठी। दुबारा हाथ रखते जैसे किसी ने पूछा – सोहित के बतवलू कि नाहीं? भउजी ने सिर उठा निहारते देवर को देखा और पुन: झुक कर मन में ही उत्तर दिया – बूझ त गइले होंइहें, इशारा नाहीं बुझिहें देवर! ...नाहीं त बादि में जानि जइहें। पुन: आदेश जैसी पूछ हुई – बतावल जरूरी नइखे?

हाथ तेज चलने लगे। लीपना खत्म कर जब धोने के लिये लोटे की ओर हाथ बढ़ाई तो भउजी ने देखा बाईं ओर थाली में रखी रोरी में कुमकुम पर धूप रह रह चमक रही थी। अच्छत, दूब, हरदी को भी देखा और  भउजी ने रोरी में मटिहा दहिने हाथ की बिचली अंगुरी बोरा। माँग तक ले जाते भीतर हूक सी उठी – कत्थी खातिर रे! ... बबुना के पगलावे खातिर? हाथ रुक गये और हाँक सी पारी – हे आईँ बबुना!  

सामने आ बैठे सोहित के माथे माटी सनी रोली लगा भउजी ने अच्छत लगाया – खेत के अन्न बबुना! हाथ देईं। सोहित के हाथ दूब पड़ी – ज़मीन बबुना! और उस पर हल्दी गाँठ – सुभ बबुना! ... बइठल रहीं बबुना! ए खनदान के आँखुर हमरे कोखि में बा। संतान जनि के मेहरारू असल में सोहागिन होले। हम सोहागिन बबुना! हमके पक्का पियरी आनि देईं।

कोर्रा लुग्गा पहनने वाली भउजी जब तब हल्दी से रँग कर भी पहनती थी। बजार से पक्की पियरी ले आने की माँग से सोहित पहले हैरान हुआ और उसके बाद घाम जैसे और फरछीन हो गया। अब तक जिस सचाई को जानते हुये भी मन के भीतर दबे ढके था, उसका रूप बदल गया। कन्धे बोझिल से लगे और मन में बात धसती चली गई – आँखुर, अन्न, जमीन, सुभ। भउजी की माँग पूरी करनी ही होगी लेकिन कैसे?

सोहित अपने कर्मों से जवार में मसहूर, मुसमाति भउजी गाँव में नगिनिया नाम मसहूर। किस पटवा के यहाँ से लुग्गा बेसहि लाये सोहित? स्वयं के सरनाम चरित्र को जानने वाले पटवा की आँखों के व्यंग्य को सह पायेगा सोहित? और फिर बात में बात जोड़ कहीं बात खुल गई तो? कानों में साँप फुफकार उठा -  पार त हमहीं लगाइब ए भतीजा! केहू अउरी से जनि उघटि दीह! सम्मोहित सा चलता सोहित जाने कब जुग्गुल के आगे पहुँच गया।
जुग्गुल सरीखे धूर्तों में एक खासियत बहुत विलक्षण होती है – वे आदमी के रंग को समय से जोड़ कर पहचानते हैं।  सोहित को देखते ही घोड़वने के पास मदिया को हिदायत देता जुग्गुल अपनी लँगड़ी चाल से तीन पगों में ही उसके पास पहुँच गया और सीधे पूछ पड़ा – का हे? पलानी की ओर खिसकते हुये ही उसने सोहित की बात सुननी शुरू की और खत्म होते होते भीतर पहुँच गया। चुपचाप छोटकी सन्दूक से पियरी निकाला और सोहित को नरखा ऊपर करने का इशारा किया। कमर के कुछ नीचे से शुरू कर पेट से कुछ ऊपर तक बहुत सफाई से लुग्गा लपेट नरखा नीचे कर छिपा दिया – अब्बे नाहींs, साँझि के अपने भउजी के दे दीहs। अब जा!...

 

...समय बीत चला। खदेरन और मतवा के मनमेल बीच पड़ी किनकिनी सीपी बीच रेत सी हो गई – दोखी मोती। बेदमुनि का वात्सल्य ही उन्हें जोड़े हुये था, कभी कभी साथ हँसा भी देता था लेकिन अकेली मतवा स्वयं को आगम से सामना करने के लिये तैयार करती पत्थर होती गयी और खदेरन घिसते चन्दन - घिसें, लगें, बहें, निरर्थक, चुप कर्मकांडी।

भउजी की कांति बढ़ती गई और साथ ही देवर पर किये जाने वाले हास्य कटाक्ष भी मारक होते गये। ढेबरी की रोशनी में भउजी को देखता सोहित तो पुर्नवासी होती और दिन के उजाले में देखता तो गरहन। उस के ऊपर चिंता का भार बढ़ता गया। ऐसे में वह और जुग्गुल एक बन्धन बँधते गये – जाल में सोहित और कूट रस्सी जुग्गुल के हाथ। मन्नी बाबू घोड़े के साथ तरक्की करते गये।

सुनयना की किलकारियों पर रमइनी काकी की जब तब लग जाने वाली नजर गाँव भर में परसिद्ध हो चली। परसू पंडित की मलिकाइन सुनयना को हमेशा टीके रहतीं, कजरवटा से लगाये तीन निशान – एक माथे और दुन्नू गाल।

बाकी गाँव में वैसे ही अमन चैन। गोपन पाप, पवित्तर बैन।

 

...तिजहर को कोख में धीमी धीमी पीर शूरू हो गयी। नैसर्गिक समझ ने बता दिया कि वक्त हो गया है। भीतर की जुड़ान को हवा होते अनुभव करती भउजी सुख और दुख से परे हो कठिन उद्योग में लग गई।

 घर की मनही बाहर ले भागे वेदमुनि के पीछे दौड़ती मतवा की दीठ बहकी और पाँव जहाँ के तहाँ जम गये। सोहित की बैठकी की पलानी पर फैलाई गयी पियरी रह रह उड़ रही थी। खदेरन ने देखा जैसे मतवा के चेहरे से सारी ललाई निचुड़ गयी हो – पांडुरोगी सी! अकस्मात कुघटना समझ सँभालने को उन्हों ने हाथ बढ़ाया और मतवा की तर्जनी उठ गई – हम सँभारि लेब! रउरे चिंता जनि करीं। आवाज थी या सिर पर पत्थर! खदेरन उपेक्षा और अनादर की चोट से एक झटके में सब समझ गये।  

घड़ी भर बाद खेत से लौटते जुग्गुल ने पियरी को पहचाना और उसकी आँखें सिकुड़ती चली गईं – मन्नी बाबू, हमार एहसान बड़हन होखले पर बुझबs! (जारी)