प्राय: जाति एवं वर्ण के ले कर लम्बे लम्बे विमर्श, वाद, विवाद, कलह, मनोमालिन्य आदि होते रहते हैं। दो आत्यंतिक विचार भी प्रचलित हैं - भारत की दुर्दशा जाति व्यवस्था के कारण हुई एवं भारत में जाति व्यवस्था थी ही नहीं, अंग्रेजों की देन है। कहना न होगा कि दोनों व्यर्थ के बकवाद से अधिक महत्व नहीं रखते।
जाति का अर्थ किसी भौगोलिक क्षेत्र में विकसित विशिष्ट लक्षणों वाले मानव समूह से है। जातियाँ वैविध्य को दर्शाती हैं - यक्ष, देव, नाग, किन्नर, गंधर्व इत्यादि जातियाँ हैं। वर्ण की अवधारणा एवं व्यवस्था जाति की परवर्ती है, तब की जब कि क्षेत्र विशेष में रहने वाला मानव समाज इतना उन्नत हो गया कि उसे कार्य विभाजन की आवश्यकता पड़ी।
भारत भूमि का ऐतिहासिक विस्तार आज के अफगान-ईरान सीमा से ले कर कामरूप तक था। उत्तर में उत्तर कुरु को तज भी दें तो कश्मीर से कन्याकुमारी तक। इस एक भूमि की अवधारणा शनै: शनै: विविध जातियों के परस्पर सम्पर्क, संघर्ष, समायोजन एवं सामञ्जस्य से विकसित हुई। एक बार हो गई तो सहस्राब्दियों तक सुरक्षित रही। स्पष्ट है कि ऐसा समाज जब वर्ण विभाजन करेगा तो उसमें विविध जातियों के गुणसूत्र रहेंगे। बंगाल के ब्राह्मण के गुणसूत्र वहीं के किसी अन्य वर्ण से सारस्वत क्षेत्र के ब्राह्मण से अधिक मेल खायेंगे। भारत वंश का यही सच है, इससे आगे वितण्डा, जातिवाद, जन्मना श्रेष्ठता भाव, अहङ्कार इत्यादि हैं जिनके तर्क वितर्क न केवल अंतहीन हैं अपितु पतनकारी भी।
कार्य विभाजन के साथ ही विविध जातियाँ वर्णसाम्यता की दिशा में अग्रसर हुईं, हो भी गयीं अर्थात शताब्दियों पश्चात जाति कोई भी रही हो, न तो उसकी स्मृति रही, न उससे कोई जुड़ाव। लम्बे कालखण्ड का वर्ण ही जाति विशेष हो गई।
उन्नत समाज व्यवहार संहितायें रखता ही है। स्मृतियाँ वही संहितायें हैं। यहाँ संहिता का अर्थ वेद संहिता से नहीं, विधानों के सम्यक एकत्रीकरण से है। वे उस व्यवस्था को अभिलिखित करती हैं जिसमें जाति-वर्ण के ऐक्य को सुनिश्चित रखने के लिये विविध विधान बनाये गये। समाज की दीर्घजीविता एवं शांति हेतु यह आवश्यक भी था। एक पीढ़ी से दूसरी, तीसरी ... को प्रवाहित कुशलता अल्पसाध्य थी, उत्कृष्टता को दीर्घजीवी भी बनाती थी एवं नवोन्मेष हेतु आवश्यक वातावरण भी सुनिश्चित करती थी। उदाहरण के लिये रथकार का पुत्र भी शिल्पी रथकार हो, इसमें अधिक सरलता है, समाज एवं तंत्र पर अल्प बोझ है। राजन्य का पुत्र रथकार बने तो पहले से चली आ रही कुशलता का लोप तो होगा ही, श्रमसाध्य भी होगा एवं सातत्य टूटेगा। ऐसा नहीं था कि अपवाद नहीं थे, किंतु वे अपवाद ही रहे। स्मृतियाँ इसी कारण उपनयन एवं शिक्षा आरम्भ का समय, वटुकों के वस्त्र, दण्ड आदि को उसके पिता के वर्ण से निर्धारित करती हैं। यह नैरंतर्य का सूचक है कि तू उत्पन्न हुआ इस जाति विशेष में, अत: तुझे ऐसे ही, यही सीखना है, यदि नहीं करेगा तो पतित हो जायेगा। पतित का सामाजिक बहिष्कार होता था या वह समाजबाह्य हो जाता था।
इस व्यवस्था की यदि एकमात्र विशेषता देखी जाय तो वह है - उत्कृष्टता Excellence। यहीं राजा एवं राजन्य की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। उसे उस पारिस्थितिकी को बनाये रखना है जो प्रत्येक जाति में, प्रत्येक उत्पादन कर्म में, प्रत्येक शिक्षा पद्धति में उत्कृष्टता सुरक्षित रखे। राजन् शब्द रञ्जन से जुड़ता है, यह रञ्जन मनोरञ्जन मात्र नहीं, प्रत्येक क्षेत्र में 'सुख समृद्धि शांति निरामयता' की स्थापना एवं दीर्घजीविता है जिससे समस्त समाज एवं राज्य तंत्र कल्याणकारी हो, वृद्धिपरक हो - राजन् [राज्-कनिन् रञ्जयति रञ्ज्-कनिन् नि ˚]। इसके साथ ही रक्षण है जो दुष्टों का दलन एवं सज्जनों की सुरक्षा है, क्षत से सुरक्षा करने वाला क्षात्र कर्म। राजा एवं राजन्य वर्ग में ये दोनों समाहित किये गये जिसके कारण ही अच्छा राजा विष्णु रूप माना गया, वह जो पोषण करता है, वह जो अत्याचारियों से रक्षा करता है, उसके लिये चाहे जो करना पड़े !
शब्द देखें तो यह सूक्ष्म संकल्पना उद्घाटित होती है। अच्छे राजा द्वारा शासित प्रदेश 'राजन्वत्' है किंतु सामान्य राजा, जिसमें कि कोई उत्कृष्टता नहीं, द्वारा शासित प्रदेश 'राजवत्' है। एक अर्द्ध 'न' के अंतर से वरेण्य एवं रूढ़ में अंतर स्पष्ट कर दिया गया है।
सामान्य प्रजा पहले विश् कहलाती थी, वैश्य उसी से है - कृषि, पशुपालन एवं शिल्प इत्यादि में रत रहने वाला बहुसंख्यक समाज। इसी से विशेषज्ञता एवं शिल्प कुशलता वाले कुशीलव निकले जिनका सामान्य स्तर सेवा करने वाला शूद्र हुआ। प्रजा से ही रक्षा करने वाले क्षत्रिय हुये एवं उन्हें निर्देशित करने वाले, विधि विधान के संयोजक पुरोहित ब्राह्मण। राजा या क्षेत्र विशेष का मुखिया विश्पति कहा गया, उसकी पत्नी विश्पत्नी - जो विश् अर्थात प्रजा का पालन करने के कारण पूज्य है, आदरणीय है।
अनेक प्रकार से कु-व्यञ्जित पुरुष सूक्त में राजन्य रूपी बाहु एवं वैश्य रूपी ऊरू अर्थात जानु (जंघे) पर ध्यान दें। राजन्य का आजानुबाहू होना शुभ लक्षण माना गया। इसके मूल में वही भाव है कि राजन्य वह जिसकी परास वैश्य तक हो।
ऐसा राजा उत्कृष्टता को सुनिश्चित करता है, धरती पर विष्णु का रूप होता है। इस आदर्श ने प्रत्येक क्षेत्र में उत्कृष्टता सुनिश्चित की। व्यापारी, सार्थवाह गण, कुशीलव उपनिवेश इत्यादि इतने शक्तिशाली थे कि राजसभा में उनका सम्माननीय प्रतिनिधित्व था। राजा मनमानी करते हुये निरङ्कुश नहीं हो सकता था। जो हुये, उनकी दुर्गति सुनिश्चित की गयी। राजा का कोश ही उसकी शक्ति है जो कि कराधान से भरता है। कराधान तब ही बढ़ेगा जब कृषक, वैश्य, शिल्पी, समृद्ध होंगे, फले फूलेंगे।
स्पष्ट होता है कि 'उत्कृष्टता एवं कुशलता' इस व्यवस्था की देन थे एवं यह भी कि कोई भी जाति अपने पर लज्जित नहीं थी। इस्लामी आक्रान्ताओं ने इस शक्ति से सामञ्जस्य कर ही राज्य किया एवं अंग्रेजों की चतुर वणिक बुद्धि ने इस शक्ति को भारत को उपनिवेश बनाये रखने के मार्ग का सबसे बड़ा रोड़ा पाया। इस शक्ति को विविध उपायों द्वारा जिनमें कि दमन, दुष्ट कराधान एवं वैमनस्य वपन प्रमुख थे, उन्हों ने नष्ट कर दिया जिससे भारत आज तक उपरा नहीं पाया है।
जाति आधारित आधुनिक मञ्चों में किसी को भी इसकी समझ है, प्रतीत नहीं होता। उत्कृष्टता की साधना के स्थान पर प्रयास जातिवादी राजनीतिक समूह प्रभाव सुनिश्चित करने की है जिसकी भीड़ आधारित लोकतन्त्र में सुनी जाय। ध्यान इस पर अधिक है जो कि प्रगति की मूलभूत आवश्यकता के विरुद्ध जाता है। पुराने का गौरव गान करते हुये वर्तमान स्थिति को विस्मृत कर देना हानिकारक है। प्रत्येक जाति अपने गौरव पुरुष ढूँढ़ने, बनाने एवं स्थापित करने में लगी है, बिना इस पर विचार किये कि सहस्राब्दियों के भारतीय इतिहास में किसी भी समूह को ऐसा करने की आवश्यकता क्यों नहीं पड़ी, अब क्यों पड़ रही है?
ब्राह्मणों पर बहुत लिखा गया, लिखा जा रहा है किन्तु उस राजन्य वर्ग का क्या जिसे कि ब्रह्मविद्या का पोषक माना गया, जिसे कि कभी ब्राह्मण ग्रंथों ने ब्राह्मण से भी श्रेष्ठ घोषित किया? यह वर्ग भी पतनोन्मुख है। तामस, अनावश्यक उग्रता, मद्यपता एवं क्षुद्रता इसके लक्षण हो गये हैं। महाराणा का घोष करने वाले जानते तक नहीं कि महाराणा ने अपने अल्प शासन काल में ही उत्कृष्टता के कितने आयामों का स्पर्श किया। राजपूत का पूत उस संतति परम्परा हेतु है जो पुरखों की थाती सँभाले, उत्कृष्टता में उनसे आगे बढ़े अन्यथा काहे का राज, काहे का राजपूत? ज्ञान के अभाव में झूठा गर्व हास्यास्पद तो लगता ही है, युवाओं को दिशा भी नहीं देता, उल्टे गर्त में ही ढकेलता है।
राज शब्द राजति, प्रकाशित होने का भी अर्थ रखता है, उत्कृष्टता होगी तो प्रकाशित होगी ही। किसी भी जाति ने निकृष्टता को आदर्श नहीं बनाया, बड़ी सामान्य सी बात है किन्तु वही आँखों से ओझल है।
ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य; जो भी अपने को इन तीन जातियों में मानते हैं, यदि जाति आधारित मञ्चों को ही सब कुछ मान बैठे हैं तो भयानक भूल कर रहे हैं। स्वीकार कर रहे हैं कि वे चुक गये, उनके पुरखों का प्रभाव मर गया।
ऐसे मञ्च अनुपयोगी हैं, ऐसा नहीं है किन्तु एक देश के रूप में, एक समाज के रूप में उत्कृष्टता सुनिश्चित करने में गौण भूमिका ही रखेंगे। यदि आप ऐसे किसी मञ्च से जुड़े हैं तथा वहाँ जय परशुराम, जय रावण, जय महाराणा; जैसी जय जय मात्र है तो बाहर आयें। जाति का गौरव तब ही बढ़ेगा जब उत्कृष्टता होगी, देश का भी नाम होगा जो कि द्विजता का अर्हण होगी। प्रतिद्वन्द्विता में शूद्र न बनें। भार्गव राम ने या महाराणा ने या अग्रसेन महाराज ने जय जाति, जय जाति उद्घोष कर अपने को स्थापित नहीं किया था।
चेतें ! आप की सन्तानों के लिये आगत समय कठिन होने वाला है। अब्राहमी पंथ वैधानिक संरक्षण में आप को दिन प्रतिदिन काटने में लगे हुये हैं। जाति से जुड़े रहते हुये भी दृष्टि को व्यापक विराट बनायें, सूक्ष्म आक्रमणों पर ध्यान दें एवं उत्कृष्टता में लग जायें। एक साथ उठें, खण्ड खण्ड नहीं। ऐसे उदाहरण हैं जहाँ विविध जाति समूह एक उद्देश्य के साथ व्यापक एवं सूक्ष्म, दोनों स्तरों पर एक साथ लड़ते हैं, उपाय भले भिन्न हों, उद्देश्य एक है। दूजा कोई मार्ग नहीं।