श्रीराम एवं बाली का प्रसङ्ग तो लगाया ही था। अब देखिये एक दूसरे अवतारी श्रीकृष्ण को जिन्हों ने महाभारत युद्ध में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा की थी। सम्भावित आपदा काल हेतु क्या योजना बनाये थे?
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कुरुवंश की नयी पीढ़ी के सबसे योग्य कुमार अभिमन्यु का छल पूर्वक वध किया जा चुका था। अधर्मपूर्वक उन्हें घेर कर मारने वाले छ: महारथियों में आचार्य द्रोण एवं कर्ण भी थे। अन्य चार थे - कृपाचार्य, कृतवर्मा, बृहद्वल एवं अश्वत्थामा। अभिमन्यु के संतप्त पिता अर्जुन ने प्रतिज्ञा कर ली कि जिस जयद्रथ ने व्यूह में अभिमन्यु की रक्षा हेतु मेरे भाइयों को प्रवेश नहीं करने दिया, यदि उसने,
- मारे जाने के भय से धृतराष्ट्रपुत्रों का त्याग नहीं कर दिया,
या
- मेरी, श्रीकृष्ण या महाराज युधिष्ठिर की शरण में नहीं आ गया,
तो कल मैं उसका वध अवश्य कर डालूँगा।
न चेद्वधभयाद्भीतो धार्तराष्ट्रांप्रहास्यति
न चास्माञ्शरणं गच्छेत्कृष्णं वा पुरुषोत्तमम्
भवन्तं वा महाराज श्वोऽस्मि हन्ता जयद्रथम्
इसमें असफल होने पर अपने ऊपर संसार भर के ढेर सारे विविध पापों के पड़ने की बात करते हुये अर्जुन ने जोड़ दिया :
यद्यस्मिन्नहते पापे सूर्योऽस्तमुप्यास्यति
इहैव सम्प्रवेष्टाहं ज्वलितं जातवेदसम्
यदि पापी जयद्रथ को मारे बिना ही सूर्य अस्त हो गये तो मैं यहीं प्रज्वलित अग्नि में प्रवेश कर जाऊँगा।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन के क्रोध में साथ देते हुये उस समय अपना पाञ्चजन्य शङ्ख फूँक दिया। अर्जुन ने अपना देवदत्त शंख फूँका। सेना उत्साह में भर गयी। पाण्डव पक्ष का सिंहनाद उस अतीव शोक के समय में भी समस्त अवनी को पाताल सहित कम्पित करने लगा -
जगत् सपाताल ... प्रकम्पयामास !
[युद्ध में स्थायी शोक के लिये न समय होता है, न अवसर। हृदय पर पत्थर रख कर भी सेना का मनोबल बना रहे, ऐसा करने रहना पड़ता है। जो नेतृत्त्व में हैं, उन्हें तो दैन्य कदापि नहीं प्रदर्शित करना चाहिये।]
दुर्योधन के पक्ष ने सुना तो सभी का उत्साह क्षीण हो गया। जयद्रथ तो मारे भय के काँपने लगा। द्रोण ने उसे आश्वस्त किया कि तुम्हारी रक्षा मैं करूँगा तथा जिसकी रक्षा मैं करूँ उस पर देवताओं का भी वश नहीं चलना -
अहं हि रक्षिता तात भयात्त्वां नात्र संशय:, न हि मद्बाहुगुप्तस्य प्रभवन्त्यमरा अपि।
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सब हो गया तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को झिड़का, बिना मुझसे मंत्रणा किये तुमने यह बड़ा भारी भार उठा लिया। ऐसी स्थिति में हम सम्पूर्ण लोकों के उपहास के पात्र कैसे नहीं बनेंगे (यदि असफल हुये तो) -
असम्मन्त्र्य मया सार्धमतिभारोऽयमुद्यत:, कथं तु सर्वलोकस्य नावहास्या भवेमहि ?
मैंने दुर्योधन के शिविर में गुप्तचर भेजे थे तथा वे वहाँ का समस्त समाचार मुझे बता गये हैं। जयद्रथ तो भाग जाना चाहता था किंतु उसकी रक्षा हेतु द्रोण ने विशेष प्रबंध किये तो रह गया।
कर्ण, भूरिश्रवा, अश्वत्थामा, वृषसेन, कृपाचार्य एवं शल्य; ये छ: महारथी कल उसकी रक्षा में उससे आगे रहेंगे। द्रोण ने शकट-कमल व्यूह रचने का निर्णय लिया है। पिछले कमल व्यूह के मध्य की कर्णिमा के बीच सूचीव्यूह होगा तथा उसके पार्श्व में अन्यान्य वीरों से रक्षित जयद्रथ रहेगा।
अर्जुन ने सुना तथा वीर वचन कहने लगे कि मधुसूदन, जिन छ: के नाम आप ने गिनाये हैं उनका बल मेरे आधे जितना भी नहीं है -
तेषां वीर्यं ममार्धेन न तुल्यमिति मे मति: । केशव ! उस दुर्मति पापी जयद्रथ की रक्षा का बीड़ा उठाये जो द्रोण हैं न, पहले उन्हीं पर आक्रमण करूँगा -
यस्तु गोप्ता महेष्वासस्तस्य पापस्य दुर्मते:, तमेव प्रथमं द्रोणम् अभियास्यामि केशव।
आप की कृपा से इस युद्धस्थल में कौन सी ऐसी शक्ति है, जो मेरे लिये असह्य हो !
तव प्रसादाद्भगवन्किमिवास्ति रणे मम ! जिस प्रकार यज्ञ में लक्ष्मी का होना ध्रुवसत्य है, उसी प्रकार जहाँ आप नारायण विद्यमान हैं, वहाँ विजय भी अटल है -
श्रीर्ध्रुवापि च यज्ञेषु ध्रुवो नारायणे जय: । अर्जुन ने श्रीकृष्ण को रात बीतते ही सर्वसज्ज रथ प्रस्तुत करने का निर्देश भी दे दिया -
संदिदेशार्जुनो नर्दन्वासवि: केशवं प्रभुम्, यथा प्रभातां रजनीं कल्पित: स्याद रथो मम।
अर्जुन के कहने पर श्रीकृष्ण अपनी बहन सुभद्रा एवं अभिमन्यु पत्नी उत्तरा सहित अन्य स्त्रियों को ढाँढ़स बँधाने चले गये।
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श्रीकृष्ण के मन में बहुत कुछ चल रहा था। लौट कर अर्जुन के शिविर पहुँचे, जलस्पर्श किये, कुश की शय्या बना कर अक्षत, गंध, माला सहित उस पर समस्त शस्त्रास्त्र रखे तथा अर्जुन से आचमन करवाया। परिचारकों ने उन्हें दिखाते हुये त्र्यम्बक निशा बलि पूजन किया -
नैशं त्रैयम्बकं बलिम् । अर्जुन ने समस्त पूजा उपहार श्रीकृष्ण को अर्पित कर दिये। श्रीकृष्ण ने उन्हें शयन करने को कहते हुये यह भी बताया कि मैं अब तुम्हारा कल्याण साधन करने जा रहा हूँ -
सुप्यतां पार्थ भद्रं ते कल्याणाय व्रजाम्यहम्।
सोना कहाँ था, उस रात शिविर में कोई सो न सका, सब में जागरण का आवेश हो गया था -
प्रजागर: सर्वजनं ह्याविवेश विशाम्पते।
अर्द्धरात्रि हुयी तथा अर्जुन की प्रतिज्ञा का स्मरण करते हुये श्रीकृष्ण जाग उठे। अपने सारथी दारुक से बोले कि कल जयद्रथ की रक्षा हेतु समूचा दुर्योधन पक्ष लग जायेगा। दैत्यों एवं दानवों के दर्प का दलन करने वाले त्रिलोकी में एकमात्र वीर इंद्र हैं परंतु वे भी द्रोणाचार्य से रक्षित जयद्रथ को नहीं मार सकते -
एको वीर: सहस्राक्षो दैत्यदानवदर्पहा, सोऽपि तं नोत्सहेताजौ हन्तुं द्रोणेन रक्षितम्। मैं कल कुछ ऐसा करूँगा कि सूर्यास्त के पूर्व अर्जुन जयद्रथ का वध कर दें। मित्रता से भीने भगवान कहते चले गये :
न हि दारा न मित्राणि ज्ञातयो न च बान्धवाः
कश्चिन्नान्यः प्रियतरः कुन्तीपुत्रान्ममार्जुनात्
अनर्जुनमिमं लोकं मुहूर्तमपि दारुक
उदीक्षितुं न शक्तोऽहं भविता न च तत्तथा
अहं ध्वजिन्यः शत्रूणां सहयाः सरथद्विपाः
अर्जुनार्थे हनिष्यामि सकर्णाः ससुयोधनाः
श्वो निरीक्षन्तु मे वीर्यं त्रयो लोका महाहवे
धनंजयार्थं समरे पराक्रान्तस्य दारुक
श्वो नरेन्द्रसहस्राणि राजपुत्रशतानि च
साश्वद्विपरथान्याजौ विद्रविष्यन्ति दारुक
श्वस्तां चक्रप्रमथितां द्रक्ष्यसे नृपवाहिनीम्
मया क्रुद्धेन समरे पाण्डवार्थे निपातिताम्
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ज्ञास्यन्ति लोकाः सर्वे मां सुहृदं सव्यसाचिनः
यस्तं द्वेष्टि स मां द्वेष्टि यस्तमनु स मामनु
इति संकल्प्यतां बुद्ध्या शरीरार्धं ममार्जुनः
मुझे स्त्री, मित्र, ज्ञाति, बंधु तथा अन्य कोई भी कुन्तीपुत्र अर्जुन से अधिक प्रिय नहीं है। मैं अर्जुन से रहित इस संसार को दो घड़ी भी नहीं देख सकता। ऐसा हो ही नहीं सकता (कि मेरे रहते अर्जुन का अनिष्ट हो)।
मैं अर्जुन के लिये हाथी घोड़े, कर्ण एवं दुर्योधन सहित समस्त शत्रुओं को जीत कर सहसा उनका संहार कर डालूँगा। तुम कल देखोगे कि मैंने समराङ्गण में कुपित हो कर पाण्डव अर्जुन हेतु सारी शत्रु राजसेना को चक्र से प्रमथित कर मार गिराया है। कल सभी जानेंगे कि मैं अर्जुन का सुहृद हूँ। जो अर्जुन से द्वेष करता है, वह मुझसे द्वेष करता है और जो अर्जुन का अनुगामी है, वह मेरा अनुगामी है, तुम अपनी बुद्धि से निश्चय कर लो कि अर्जुन मेरा आधा शरीर है।
यथा त्वमप्रभातायामस्यां निशि रथोत्तमम्
कल्पयित्वा यथाशास्त्रमादाय व्रतसंयतः
गदां कौमोदकीं दिव्यां शक्तिं चक्रं धनुः शरान्
आरोप्य वै रथे सूत सर्वोपकरणानि च
स्थानं हि कल्पयित्वा च रथोपस्थे ध्वजस्य मे
वैनतेयस्य वीरस्य समरे रथशोभिनः
छत्रं जाम्बूनदैर्जालैरर्कज्वलनसंनिभैः
विश्वकर्मकृतैर्दिव्यैरश्वानपि च भूषितान्
बलाहकं मेघपुष्पं सैन्यं सुग्रीवमेव च
युक्त्वा वाजिवरान्यत्तः कवची तिष्ठ दारुक
कल प्रात:काल तुम शास्त्रविधि के अनुसार मेरे उत्तम रथ को ससुज्जित करके सावधानी के साथ ले कर युद्धस्थल में चलना। कौमोदकी गदा, दिव्य शक्ति, चक्र, धनुष, बाण तथा अन्य समस्त सामग्रियों को रथ पर रखकर उसके पिछले भाग में समराङ्गण रथ पर शोभा पाने वाले वीर विनतानन्दन गरुड़ के चिह्न वाले ध्वज के लिये भी स्थान बना लेना। उसमें मेरे चारो श्रेष्ठ अश्वों - बलाहक, मेघपुष्प, शैव्य तथा सुग्रीव को जोत लेना और स्वयं भी कवच धारण कर विराजमान रहना।
श्रीकृष्ण ने वह सङ्केत भी बताया जिसके होने पर दारुक को बड़े वेग से उनके पास पहुँचना था - पाञ्चजन्य शङ्ख का ऋषभ स्वर में नाद। वह भैरव नाद जब सुनाई दे तब
बड़े वेग से मेरे पास सज्जित युद्धक रथ ले कर पहुँच जाना।
पाञ्चजन्यस्य निर्घोषमार्षभेणैव पूरितम्
श्रुत्वा तु भैरवं नादमुपयाया जवेन माम्
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यह बात और है कि इसकी आवश्यकता नहींं पड़ी किन्तु श्रीकृष्ण अपने कर्म के बारे में, कर्तव्य के बारे में पूर्णत: निश्चित थे तथा परिणाम की गुरुता को देखते हुये उसके लिये अपनी प्रतिज्ञा को भी तोड़ने हेतु सन्नद्ध थे।
मित्रता हेतु सीख :
- संकट की स्थिति में साथ बना रहे,
- युद्ध में साथी योद्धा द्वारा सहसा निर्णय लेने पर भी सबके सामने उत्साह बढ़ाये,
- जब एकान्त हो तो उसकी करनी की गुरुता बताये,
- उसकी सुने, विश्वास बनाये रखे,
- वह मनोवैज्ञानिक रूप से सबल रहे, इस हेतु उपाय करे,
तथा
- विचार कर के ऐसी वैकल्पिक योजना Plan B बना कर नियोजित रखे कि आवश्यकता पड़ने पर तुरन्त प्रयोग में लाई जा सके।