जन जन में रमने वाले पुरुषोत्तम श्रीराम का जन्म चैत्र माह की शुक्ल नवमी को पुनर्वसु नक्षत्र में हुआ था अर्थात धरती से देखने पर क्रान्तिवृत्त के २७ भागों में से जो भाग पुनर्वसु कहलाता है अर्थात जिसमें पुनर्वसु तारकमण्डल पड़ता है, उनके जन्म के समय चन्द्रमा वहाँ स्थित थे।
पुनर्वसु नक्षत्र में चंद्रमा आज ०८.५९ तक हैं, अर्थात सूर्योदय के समय भी चंद्रमा पुनर्वसु नक्षत्र में हैं किंतु सूर्योदय की तिथि अष्टमी ही है अत: आज उदया तिथि अष्टमी मानी जायेगी। कल का सूर्योदय पुष्य नक्षत्र में है जब कि सूर्योदय की तिथि नवमी है। कल पुष्य नक्षत्र में चंद्रमा केवल ०७.४१ तक हैं तब भी उदया तिथि अनुसार नवमी कल ही मनाई जायेगी, जब कि नवमी कल केवल ०९.३६ तक ही है।
सूर्योदय से निरपेक्ष चंद्रमा की तिथि नवमी एवं मध्याह्न के सङ्गम पर श्रीराम का जन्मोत्सव होना चाहिये, ऐसा मानने वाले आज ही रामनवमी मनायेंगे।
संयोग देखिये कि कल सौर नववर्ष भी है - सौर संक्रांति पर्व सतुआन- नये अन्न के सत्त्व का पर्व जब सूर्य मीन से मेष राशि में संक्रमित होंगे अर्थात क्रांतिवृत्त के १२ राशि विभाजनों में से आज मीन नामक अंतिम क्षेत्र में हैं, कल ०२.२५ अपराह्न में मेष राशि में प्रवेश करेंगे। राशि चक्र के इस प्रथम क्षेत्र में सूर्य के प्रवेश से सौर नववर्ष होता है। कल भारत के अन्नक्षेत्र में पञ्जाबी बैसाखी होगी।
घट घट जीव पोषक विष्णु अवतारी श्रीराम के जन्म पर जगज्जननी सिद्धिदात्री के सान्निध्य में अन्नपूर्णा बनी महिलायें नये अन्न से 'नवमी के नौ रोटी' बना पूजन करती हैं।
मेरी माता जी स्वास्थ्य लाभ करने आई हुई हैं, उनके विवाहित जीवन की यह पहली रामनवमी है जब वह उस घर में नवमी पूजन नहीं कर पायेंगी जिसमें डोली से उतरी थीं। वह विशेष पूजन कहीं और नहीं किया जाता। उनकी व्यग्रता देख समझ रहा हूँ, साथ ही सहस्राब्दियों पुरातन सनातन समाधान को भी कि चैत में न पूज पायें तो बैसाख की शुक्ल नवमी भी पूजी जा सकती है, ऐसा विधान है। गँवई महिलाओं के इस विधान में मैं उस प्रवाहित ज्ञानसरि को देख पा रहा हूँ जिसने पञ्चनद नववर्ष को बैसाखी नाम दिया होगा, मैं देख पा रहा हूँ कि पश्चिम के बैसाखी से पूरब के सतुआन तक भारत एक है - पश्चिमी समुद्र से पूर्वी समुद्र तक पसरी धरा - पुराण ऐसा ही कहते हैं। मनु भी आर्यावर्त का प्रसार ऐसा ही बताते हैं :
रामनवमी एवं नववर्ष सदा एक साथ नहीं पड़ते, इस वर्ष संयोग ही है कि दोनों साथ पड़े हैं। क्या आप जानते हैं कि जन्मदिन के ही दिन श्रीराम को युवराज पद पर अभिषिक्त करने की अपनी इच्छा उनके पिता ने बताई थी तथा अगले दिन पुष्य नक्षत्र में उनका अभिषेक होना था? पुनर्वसु एवं पुष्य के संधि काल एवं रजनी को श्रीराम एवं देवी सीता ने विशेष व्रत एवं उपवास के साथ बिताया था। होनी कुछ और ही होनी थी, अभिषेक के स्थान पर श्रीराम का वनवास हो गया!
कितना सांकेतिक है इस बार का पुनर्वसु-पुष्य काल कि लोकसभा के चुनाव चल रहे हैं अर्थात जिसका अभिषेक होना है, उसके चयन की प्रक्रिया है। इस नववर्ष पगे चुनाव अभियान में इस प्रकार मतदान करें कि कोई अनर्थ न हो।
मतदान अवश्य करें। आलस्य एवं प्रमाद वश उससे विरक्त हो छुट्टी या पिकनिक न मनायें। धूप से न घबरायें, नववर्ष माह के सूर्य का आतप अच्छा ही होता है।
(1) राष्ट्रहितशतप्रतिशत मतदान करें।
(2) उसके पक्ष में करें जिससे राष्ट्र का गौरव बढ़ता हो, जनसामान्य आयुष्मान होता हो।
फागुन रेचक है। वास्तविक मधुउत्सव तो चैत्र में होता है। नौ दिन नवदुर्गा अनुष्ठान, जन जन में रमते राम का नवजन्म नये संवत्सर में।
नवान्न दे पुनः प्रवृत्त होती धरा का स्वेद सिंचन, धूप में सँवरायी गोरी का पिया को आह्वान - गहना गढ़ा दो न, बखार तो सोने से भर ही गयी है!
चैत में शृंगार का परिपाक होता है। गेहूँ कटता है, रोटी की आस बँधती है, मधुमास भिन्न भिन्न अनुभूतियाँ ला रहा होता है एवं ऐसे में उस राम का जन्म होता है जो आगे चल कर मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाये किंतु उनके जन्मोत्सव में जो भिन्न भिन्न पृष्ठभूमियों के लोकगायकों एवं नर्तकों की हर्षाभिव्यक्ति होती है, उसमें उल्लास स्वर नागर शास्त्रीयता तथा अभिरुचि की मर्यादाओं को तोड़ता दिखता है। इसमें गाये जाने वाले चइता चइती की टेर अरे रामा, हो रामा होती है।
चइता पुरुष गान है। सुनिये चइता विशाल गगन के स्वर में।
(अंत तक सुनने पर ही समझ में आयेगा कि चैत क्यों फागुन से श्रेष्ठ!)
पूरी प्रस्तावना के साथ गान होता है। प्रकृति भी आने वाले के स्वागत में है, रसाल फल गए हैं, महुवा मधुवा गए हैं, पवन कभी लहराता है तो कभी सिहराता है।
घर में नया अन्न आ गया है, पूजन हो रहा है, मंगल गान है, क्रीड़ा है। मस्ती भरे वातावरण में राम जी जन्म लेते हैं! ढोल की ढमढम के साथ बधाई गीतों की धूम है।
श्रीराम जन्म का वर्णन वाल्मीकि से प्रारम्भ हो मराठी
भावगीत तक आते आते आह्लाद और भक्ति से पूरित होता चला गया है। भगवान वाल्मीकि
बालकाण्ड में संयत संस्कृत वर्णन करते हैं:
कौसल्या शुशुभे तेन पुत्रेण अमित तेजसा |
यथा वरेण देवानाम् अदितिः वज्र पाणिना || १-१८-१२
जगुः कलम् च गंधर्वा ननृतुः च अप्सरो गणाः |
देव दुंदुभयो नेदुः पुष्प वृष्टिः च खात् पतत् || १-१८-१७
उत्सवः च महान् आसीत् अयोध्यायाम् जनाकुलः |
रथ्याः च जन संबाधा नट नर्तक संकुलाः || १-१८-१८
गायनैः च विराविण्यो वादनैः च तथ अपरैः |
विरेजुर् विपुलाः तत्र सर्व रत्न समन्विताः || १-१८-१९
माता कौशल्या अमित तेजस्वी पुत्र
के साथ कैसे शोभायमान हो रही हैं? जैसे देवताओं में श्रेष्ठ इन्द्र के साथ उनकी
माता अदिति शोभती हैं। गन्धर्व मीठे स्वर में गा रहे हैं, अप्सरायें नृत्य कर रही हैं,
देवता दुन्दुभि बजा रजे हैं, आकाश से पुष्पवर्षा कर रहे हैं। अयोध्या में महान
उत्सव है। वीथियाँ जनसमूह से भर गई हैं, नट और नर्तकों के समूह उनमें घुल मिल गये
हैं। रत्न जटित पथों पर एक दूसरे में मिले जुले कलाकार और दर्शक शोभा पा रहे हैं।
पिता के रूप में राजा दशरथ का मोद बन्दी, मागध, सूत और ब्राह्मणों को धन और सहस्र
गायों के दान में अभिव्यक्त होता है।
यह वाल्मीकीय रामायण
के वर्तमान रूप में मिलता है। ढेरों उपलब्ध पाण्डुलिपियों की तुलना के पश्चात,
जिनमें कि एक हजार वर्ष से भी अधिक पुरानी है, जो विक्रमादित्य के समय के आस पास
का पाठ (बड़ौदा संस्करण, महाराज सयाजीराव विश्वविद्यालय) निर्धारित किया गया उसमें पहले श्लोक को छोड़ कर बाकी
हैं ही नहीं। अदिति और इन्द्र की उपमा से स्पष्ट है कि वैदिक प्रभाव प्रबल है, विष्णु
वाल्मीकि के यहाँ इन्द्र के छोटे भाई कहे गये हैं। आख्यान का आदिकाव्य संस्करण एक धीर
गम्भीर ऋषि सा रूप लिये हुये है।
विक्रमादित्य से लगभग
नौ सौ वर्षों पश्चात ऋषि कम्बन ने तमिळ में रामकथा रची और उत्सवी आह्लाद छलक
उठा। वन प्रांतर के चित्रण में जो लाघव और भव्यता वाल्मीकि दर्शाते हैं वही भव्यता
नगर और लोकजीवन के चित्रण में कम्बन। महर्षि वाल्मीकि का काव्य तापस का अरण्यगान है
जिसकी भव्यता ऋतावरी प्रकृति के चित्रण में उभर कर सामने आती है। कम्बन नागरगान करते
हैं – चोल और चेर साम्राज्यों का सारा वैभव अयोध्यापुरी और उसके जन के चित्रण में
उड़ेल देते हैं।
वाल्मीकि और कालिदास के
काव्य यदि मिला दिये जायँ तो जो मिलेगा वह कंबन का काव्य होगा। अपने बारे में कहते
हैं कि रामकथा को कहने का मेरा दुस्साहस वैसा ही है जैसे विराट लहरों के साथ घनघोर
गर्जन करते क्षीरसागर के किनारे जा कर कोई बिल्ली दूध पीना चाहती हो!
अयोध्या की सरयू अपने
प्रवाह में उसी अनुशासन का अनुकरण करती है जिसका वहाँ के निवासी। पुरुषों के पंचेन्द्रिय
बाण सन्धान और रत्नहारों से विभूषित युवतियों के कटाक्ष बाण सन्धान – ये दोनों तक सन्मार्ग से विचलित नहीं होते!
श्रीराम के जन्म के
समय भूदेवी आनन्दित हुईं, पुनर्वसु नक्षत्र और कर्कट लग्न आनन्द से कुलाँचे
भरने लगे।
कम्बन इन्द्र के स्थान पर उपेन्द्र विष्णु की अनोखी उपमा देते हैं। सद्गुणों की खान
कौशल्या भूमा का अद्भुत रूप हो जाती हैं – गर्भ से उसे जन्म देती हैं जो अपने उदर
में समस्त सृष्टि को लीन कर लेता है। उसके आने से संसार की विभूति बढ़ गई – सबको लीन
करने वाला जो आ गया है!
राजा प्रसन्नता में
सरयू में स्नान करते हैं, सारे बन्दी राजागण मुक्त कर दिये जाते हैं, सात वर्षों के
लिये प्रजा को कर से मुक्त कर दिया जाता है, मन्दिरों, मार्गों और ब्राह्मण सदनों
के नवनिर्माण की राजाज्ञा प्रसारित होती है।
श्रीराम जन्म और राजा
के इन आदेशों की संयुक्त परिणति सात्विक विकार जनित देह लक्षणों की बाढ़ में होती
है, आकाश और धरा एक हो जाते हैं – कैसे? पुलक के कारण नेत्रों से निर्झरिणी बह रही
है और देह स्वेद से भर गई है। ऐसे वासंती समय में सुगन्धित तेल, चन्दन और कस्तूरी
मिश्रित जल का छिड़काब वीथियों पर नागरिक कर रहे हैं। कम्बन लिखते हैं कि अवध की नारियाँ
जिनकी कटि की तनुता और प्रभा तड़ित विद्युत सी है आनन्द सागर में डूब गयीं!
बिजली आकाश में चमकती है
और सागर धरती पर हहरता है, पहले सृष्टि को अपने उदर में लीन करने वाले का भूमि पर अवतरण
और अब यह, क्या कहें!
என்புழி, வள்ளுவர், யானை மீமிசை நன் பறை அறைந்தனர்; நகர மாந்தரும், மின் பிறழ் நுசுப்பினார்
தாமும், விம்மலால், இன்பம் என்ற அளக்க அரும்
அளக்கர் எய்தினார்.
ஆர்த்தனர் முறை முறை
அன்பினால்; உடல் போர்த்தன புளகம்; வேர் பொடித்த; நீள் நிதி தூர்த்தனர், எதிர் எதிர் சொல்லினார்க்கு எலாம்;-
'தீர்த்தன்' என்று அறிந்ததோ அவர்தம் சிந்தையே?
பண்ணையும் ஆயமும், திரளும் பாங்கரும், கண் அகன் திரு நகர்
களிப்புக் கைம்மிகுந்து, எண்ணெயும், களபமும், இழுதும், நானமும், சுண்ணமும், தூவினார் - வீதிதோறுமே.
लगभग सात सौ वर्षों के पश्चात अवध से
काशी तक प्रसरित व्यक्तित्त्व वाले अवधी कवि हुये तुलसीदास – शुद्ध भक्त। रामचरितमानस
को किसी परिचय की आवश्यकता नहीं। कम ही लोग जानते हैं कि उन्हों ने कंबरामायण से
भी प्रेरणा ली थी। इन लोकधर्मा कवि की दृष्टि राम जन्म के समय पर ठहरती है – मध्य दिवस
है, न अधिक ठण्ढ है और न ताप, ऐसा पावन काल है जब लोक विश्राम करता है। लोकरंजक श्रीराम
ऐसे समय में जन्म लेते हैं। यहाँ भी प्रवाह उमड़ता है, सरितायें अमृतधारा उड़ेलती हैं
और दुन्दुभि नाद के बीच सुमन बरस रहे हैं। छ: ऋतुओं की गणना पंडित जन करें, यहाँ
तो तीनो मौसम – जाड़ा, गरमी और बरसात सम पर आ गये हैं!
भक्त की भावसरि भी उमड़ पड़ती है और
जन्म होता है लोकप्रिय स्तुति आरती का – भये प्रकट कृपाला। महतारी हर्षित होने के
पश्चात भक्ति से भर जाती हैं – इन्द्र और विष्णु के पश्चात साक्षात अवतार। वेदातीत
अवतार कंबन के यहाँ भी है किंतु ऐसी भव्यता नहीं है। भक्ति के पश्चात आता है ज्ञान
और जननी शिशु’लीला’ की प्रार्थना करती हैं – तुम परम हो, तुम्हें नमन है लेकिन मैं
तुम्हें अपनी गोद में शिशु की तरह क्रीड़ा करते देखना चाहती हूँ। वाल्मीकि और कम्बन
की उपमाओं में छिपा अव्यक्त रह गया मातृत्त्व तुलसी के यहाँ पूर्ण प्रगल्भ है और अवतार
सुरबालक हो रोदन ठान लेते हैं – केहाँ, केहाँ। माता को तो बस इसकी ही प्रतीक्षा थी।
तुलसी की लोकधर्मिता कंबन से आगे निकल जाती है!
मध्यदिवस अति सीत न घामा।
पावन काल लोक बिश्रामा।। सीतल मंद सुरभि बह
बाऊ। हरषित सुर संतन मन चाऊ।। बन कुसुमित गिरिगन
मनिआरा। स्त्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा।।... बरषहिं सुमन सुअंजलि
साजी। गहगहि गगन दुंदुभी बाजी।। ...
छं0-भए प्रगट
कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी। हरषित महतारी मुनि
मन हारी अद्भुत रूप बिचारी।। लोचन अभिरामा तनु
घनस्यामा निज आयुध भुज चारी। भूषन बनमाला नयन
बिसाला सोभासिंधु खरारी।। कह दुइ कर जोरी
अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता। माया गुन ग्यानातीत
अमाना बेद पुरान भनंता।। करुना सुख सागर सब
गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता। सो मम हित लागी जन
अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता।। ब्रह्मांड निकाया
निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै। मम उर सो बासी यह
उपहासी सुनत धीर पति थिर न रहै।। उपजा जब ग्याना
प्रभु मुसकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै। कहि कथा सुहाई मातु
बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै।। माता पुनि बोली सो
मति डौली तजहु तात यह रूपा। कीजै सिसुलीला अति
प्रियसीला यह सुख परम अनूपा।। सुनि बचन सुजाना
रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा।
समाचार जान राजा दशरथ भी पहले लौकिक पिता
सा ही व्यवहार करते हैं किंतु उस पावन का पितृव्य भर इतना प्रभावी है कि पहले ब्रह्मानन्द
और उसके पश्चात परमानन्द की लब्धि हो जाती है - पुलक गात भर मौन मति धीर। चेतते
हैं तो बस यही कह पाते हैं – बजनियों को बुला कर बाजा बजवाओ! राजा नहीं, सामान्य
लौकिक पिता का रूप निखर उठा है।
दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना।
मानहुँ ब्रह्मानंद समाना।। परम प्रेम मन पुलक सरीरा। चाहत उठत करत मति धीरा।। जाकर नाम सुनत सुभ होई। मोरें गृह आवा प्रभु सोई।। परमानंद पूरि मन राजा। कहा बोलाइ बजावहु बाजा।।
उसके पश्चात दिव्य पुष्पवर्षा है, शृंगार है, आरती नेवछावर
है और हर्ष जनित चन्दन कुंकुम कीच काच।
कम्बन के यहाँ 12 दिन आनन्द मग्न जनता को
सुध नहीं रहती और तुलसी के यहाँ महीना भर ऐसे बीतता है कि पता ही नहीं चलता!
चार सौ वर्ष पश्चात प्रारम्भ में नववर्ष
गुड़ि पड़वा के दिन प्रसारित करने की योजना वाली गजानन दिगम्बर माडगूळकर
की गीत रामायण रामनवमी के दिन 1 अप्रैल 1955 को पहली बार
आकाशवाणी से प्रसारित हुई, संगीत और मुख्य गायन थे प्रख्यात सुधीर फड़के के।
भूप, भीमपलासी, मधुवंती, विभास आदि
रागों पर आधारित इस गीतमाला में पुरुषोत्तममासी वर्ष के 56 सप्ताहों के लिये 56
गीत थे जिसमें समूची रामकथा गायी गयी। यह मराठी गीतरामायण जन जन का कंठहार हो
गयी।
चैत्रमास, त्यांत शुद्ध नवमि ही तिथी
गंधयुक्त तरिहि वात उष्ण हे किती !
दोन प्रहरिं कां ग शिरीं सूर्य थांबला ?
राम जन्मला ग सखी राम जन्मला
कौसल्याराणि हळूं उघडि लोचनें
दिपुन जाय माय स्वतः पुत्र-दर्शनें
ओघळले आंसु, सुखे कंठ दाटला
राजगृहीं येइ नवी सौख्य-पर्वणी
पान्हावुन हंबरल्या धेनु अंगणीं
दुंदुभिचा नाद तोंच धुंद कोंदला
पेंगुळल्या आतपांत जागत्या कळ्या
'काय काय' करित पुन्हां
उमलल्या खुळ्या
उच्चरवें वायु त्यांस हंसुन बोलला
वार्ता ही सुखद जधीं पोंचली जनीं
गेहांतुन राजपथीं धावले कुणी
युवतींचा संघ कुणी गात चालला
पुष्पांजलि फेंकि कुणी, कोणी भूषणें
हास्याने लोपविले शब्द, भाषणें
वाद्यांचा ताल मात्र जलद वाढला
वीणारव नूपुरांत पार लोपले
कर्ण्याचे कंठ त्यांत अधिक तापले
बावरल्या आम्रशिरीं मूक कोकिला
दिग्गजही हलुन जरा चित्र पाहती
गगनांतुन आज नवे रंग पोहती
मोत्यांचा चूर नभीं भरुन राहिला
बुडुनि जाय नगर सर्व नृत्यगायनीं
सूर, रंग, ताल यांत मग्न
मेदिनी
डोलतसे तीहि, जरा, शेष डोलला
कैसा है रामजन्म? सुगन्धित और किंचित ऊष्ण वायु है। प्रकृति
स्तम्भित है। कोई अपनी सखी से पूछती है – री, यह दूसरे पहर सूरज भी क्यों थम गये
हैं? उत्तर मिलता है – क्यों कि राम का जन्म हुआ है!
कवि माता की स्थिति का बहुत सूक्ष्म चित्रण करते हैं – हौले
से माँ आखें खोलती हैं और निज जात के तेज से दीप्त हो जाती हैं, आँखों से सुख के
आँसू उमड़ पड़ते हैं और गला रूँध जाता है। भाव संक्रामक है और समूची प्रकृति
उद्वेलित हो उठती है। वात्सल्य से भरी गायें भी रँभाने लगी हैं। दुन्दुभि नाद है। सनसनाती
वायु ने यह आनन्द भरा समाचार दिया है और धूप में कुम्हलाये पुहुप भी उत्सुकता में ‘काय
काय’ करते पुन: खिल उठे हैं। लोक का मोद भी प्रकृति से जुड़ जाता है - वाद्यांचा ताल मात्र जलद वाढला।
नूपुर धुनि वीणा के स्वर में घुलमिल गयी है। यह रव इतना मधुर
है कि उसने आम के कुंज में छिपी कोकिला के कानों में पहुँच उसे भी बावरी बना मूक कर
दिया है! उत्सवी वातावरण को देख दिग्गज भी धीमे धीमे डोलने लगे हैं, गगन नये रंग उड़ेल
रहा है – जलद उमगे जो हैं! नभ मोतियों की प्रभा बिखेर रहा है। उत्सव में अयोध्या नगरी
तो बूड़ ही गयी है, समूची मेदिनी भी सुर, ताल, यति और रंग से भर उठी है। धरती धीमे
धीमे डोल रही है या शेषनाग मगन हो सिर हिला रहे हैं?
सहस्रो वर्षों से नित नवीन हो प्रवाहित होती रामकथा के ये
चार भाषिक रूप इसकी लोकधर्मिता और सनातन जीवनशक्ति के परिचायक हैं। आप सब को
रामनवमी की राम राम।