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शुक्रवार, 15 अप्रैल 2016

रामजन्म, सहस्रो वर्ष और चार कवि

श्रीराम जन्म का वर्णन वाल्मीकि से प्रारम्भ हो मराठी भावगीत तक आते आते आह्लाद और भक्ति से पूरित होता चला गया है। भगवान वाल्मीकि बालकाण्ड में संयत संस्कृत वर्णन करते हैं:
कौसल्या शुशुभे तेन पुत्रेण अमित तेजसा |
यथा वरेण देवानाम् अदितिः वज्र पाणिना || १-१८-१२
जगुः कलम् च गंधर्वा ननृतुः च अप्सरो गणाः |
देव दुंदुभयो नेदुः पुष्प वृष्टिः च खात् पतत् || १-१८-१७
उत्सवः च महान् आसीत् अयोध्यायाम् जनाकुलः |
रथ्याः च जन संबाधा नट नर्तक संकुलाः || १-१८-१८
गायनैः च विराविण्यो वादनैः च तथ अपरैः |
विरेजुर् विपुलाः तत्र सर्व रत्न समन्विताः || १-१८-१९
माता कौशल्या अमित तेजस्वी पुत्र के साथ कैसे शोभायमान हो रही हैं? जैसे देवताओं में श्रेष्ठ इन्द्र के साथ उनकी माता अदिति शोभती हैं। गन्धर्व मीठे स्वर में गा रहे हैं, अप्सरायें नृत्य कर रही हैं, देवता दुन्दुभि बजा रजे हैं, आकाश से पुष्पवर्षा कर रहे हैं। अयोध्या में महान उत्सव है। वीथियाँ जनसमूह से भर गई हैं, नट और नर्तकों के समूह उनमें घुल मिल गये हैं। रत्न जटित पथों पर एक दूसरे में मिले जुले कलाकार और दर्शक शोभा पा रहे हैं।
पिता के रूप में राजा दशरथ का मोद बन्दी, मागध, सूत और ब्राह्मणों को धन और सहस्र गायों के दान में अभिव्यक्त होता है।
यह वाल्मीकीय रामायण के वर्तमान रूप में मिलता है। ढेरों उपलब्ध पाण्डुलिपियों की तुलना के पश्चात, जिनमें कि एक हजार वर्ष से भी अधिक पुरानी है, जो विक्रमादित्य के समय के आस पास का पाठ (बड़ौदा संस्करण, महाराज सयाजीराव विश्वविद्यालय)  निर्धारित किया गया उसमें पहले श्लोक को छोड़ कर बाकी हैं ही नहीं। अदिति और इन्द्र की उपमा से स्पष्ट है कि वैदिक प्रभाव प्रबल है, विष्णु वाल्मीकि के यहाँ इन्द्र के छोटे भाई कहे गये हैं। आख्यान का आदिकाव्य संस्करण एक धीर गम्भीर ऋषि सा रूप लिये हुये है।  
 विक्रमादित्य से लगभग नौ सौ वर्षों पश्चात ऋषि कम्बन ने तमिळ में रामकथा रची और उत्सवी आह्लाद छलक उठा। वन प्रांतर के चित्रण में जो लाघव और भव्यता वाल्मीकि दर्शाते हैं वही भव्यता नगर और लोकजीवन के चित्रण में कम्बन। महर्षि वाल्मीकि का काव्य तापस का अरण्यगान है जिसकी भव्यता ऋतावरी प्रकृति के चित्रण में उभर कर सामने आती है। कम्बन नागरगान करते हैं – चोल और चेर साम्राज्यों का सारा वैभव अयोध्यापुरी और उसके जन के चित्रण में उड़ेल देते हैं।
वाल्मीकि और कालिदास के काव्य यदि मिला दिये जायँ तो जो मिलेगा वह कंबन का काव्य होगा। अपने बारे में कहते हैं कि रामकथा को कहने का मेरा दुस्साहस वैसा ही है जैसे विराट लहरों के साथ घनघोर गर्जन करते क्षीरसागर के किनारे जा कर कोई बिल्ली दूध पीना चाहती हो!
अयोध्या की सरयू अपने प्रवाह में उसी अनुशासन का अनुकरण करती है जिसका वहाँ के निवासी पुरुषों के पंचेन्द्रिय बाण सन्धान और रत्नहारों से विभूषित युवतियों के कटाक्ष बाण सन्धान – ये दोनों तक सन्मार्ग से विचलित नहीं होते!
श्रीराम के जन्म के समय भूदेवी आनन्दित हुईं, पुनर्वसु नक्षत्र और कर्कट लग्न आनन्द से कुलाँचे भरने लगे।
कम्बन इन्द्र के स्थान पर उपेन्द्र विष्णु की अनोखी उपमा देते हैं। सद्गुणों की खान कौशल्या भूमा का अद्भुत रूप हो जाती हैं – गर्भ से उसे जन्म देती हैं जो अपने उदर में समस्त सृष्टि को लीन कर लेता है। उसके आने से संसार की विभूति बढ़ गई – सबको लीन करने वाला जो आ गया है!
राजा प्रसन्नता में सरयू में स्नान करते हैं, सारे बन्दी राजागण मुक्त कर दिये जाते हैं, सात वर्षों के लिये प्रजा को कर से मुक्त कर दिया जाता है, मन्दिरों, मार्गों और ब्राह्मण सदनों के नवनिर्माण की राजाज्ञा प्रसारित होती है।
श्रीराम जन्म और राजा के इन आदेशों की संयुक्त परिणति सात्विक विकार जनित देह लक्षणों की बाढ़ में होती है, आकाश और धरा एक हो जाते हैं – कैसे? पुलक के कारण नेत्रों से निर्झरिणी बह रही है और देह स्वेद से भर गई है। ऐसे वासंती समय में सुगन्धित तेल, चन्दन और कस्तूरी मिश्रित जल का छिड़काब वीथियों पर नागरिक कर रहे हैं। कम्बन लिखते हैं कि अवध की नारियाँ जिनकी कटि की तनुता और प्रभा तड़ित विद्युत सी है आनन्द सागर में डूब गयीं!
बिजली आकाश में चमकती है और सागर धरती पर हहरता है, पहले सृष्टि को अपने उदर में लीन करने वाले का भूमि पर अवतरण और अब यह, क्या कहें!
என்புழி, வள்ளுவர், யானை மீமிசை
நன் பறை அறைந்தனர்; நகர மாந்தரும்,
மின் பிறழ் நுசுப்பினார் தாமும், விம்மலால்,
இன்பம் என்ற அளக்க அரும் அளக்கர் எய்தினார்.
ஆர்த்தனர் முறை முறை அன்பினால்; உடல்
போர்த்தன புளகம்; வேர் பொடித்த; நீள் நிதி
தூர்த்தனர், எதிர் எதிர் சொல்லினார்க்கு எலாம்;-
'
தீர்த்தன்' என்று அறிந்ததோ அவர்தம் சிந்தையே?
பண்ணையும் ஆயமும், திரளும் பாங்கரும்,
கண் அகன் திரு நகர் களிப்புக் கைம்மிகுந்து, 
எண்ணெயும், களபமும், இழுதும், நானமும்,
சுண்ணமும், தூவினார் - வீதிதோறுமே.
लगभग सात सौ वर्षों के पश्चात अवध से काशी तक प्रसरित व्यक्तित्त्व वाले अवधी कवि हुये तुलसीदास – शुद्ध भक्त। रामचरितमानस को किसी परिचय की आवश्यकता नहीं। कम ही लोग जानते हैं कि उन्हों ने कंबरामायण से भी प्रेरणा ली थी। इन लोकधर्मा कवि की दृष्टि राम जन्म के समय पर ठहरती है – मध्य दिवस है, न अधिक ठण्ढ है और न ताप, ऐसा पावन काल है जब लोक विश्राम करता है। लोकरंजक श्रीराम ऐसे समय में जन्म लेते हैं। यहाँ भी प्रवाह उमड़ता है, सरितायें अमृतधारा उड़ेलती हैं और दुन्दुभि नाद के बीच सुमन बरस रहे हैं। छ: ऋतुओं की गणना पंडित जन करें, यहाँ तो तीनो मौसम – जाड़ा, गरमी और बरसात सम पर आ गये हैं!  
भक्त की भावसरि भी उमड़ पड़ती है और जन्म होता है लोकप्रिय स्तुति आरती का – भये प्रकट कृपाला। महतारी हर्षित होने के पश्चात भक्ति से भर जाती हैं – इन्द्र और विष्णु के पश्चात साक्षात अवतार। वेदातीत अवतार कंबन के यहाँ भी है किंतु ऐसी भव्यता नहीं है। भक्ति के पश्चात आता है ज्ञान और जननी शिशु’लीला’ की प्रार्थना करती हैं – तुम परम हो, तुम्हें नमन है लेकिन मैं तुम्हें अपनी गोद में शिशु की तरह क्रीड़ा करते देखना चाहती हूँ। वाल्मीकि और कम्बन की उपमाओं में छिपा अव्यक्त रह गया मातृत्त्व तुलसी के यहाँ पूर्ण प्रगल्भ है और अवतार सुरबालक हो रोदन ठान लेते हैं – केहाँ, केहाँ। माता को तो बस इसकी ही प्रतीक्षा थी। तुलसी की लोकधर्मिता कंबन से आगे निकल जाती है!                
मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा।।
सीतल मंद सुरभि बह बाऊ। हरषित सुर संतन मन चाऊ।।
बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा। स्त्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा।।...
बरषहिं सुमन सुअंजलि साजी। गहगहि गगन दुंदुभी बाजी।।
...

छं0-भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी।।
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी।।
कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता।
माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता।।
करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता।
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता।।
ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै।
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर पति थिर न रहै।।
उपजा जब ग्याना प्रभु मुसकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै।
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै।।
माता पुनि बोली सो मति डौली तजहु तात यह रूपा।
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा।।
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा।

समाचार जान राजा दशरथ भी पहले लौकिक पिता सा ही व्यवहार करते हैं किंतु उस पावन का पितृव्य भर इतना प्रभावी है कि पहले ब्रह्मानन्द और उसके पश्चात परमानन्द की लब्धि हो जाती है - पुलक गात भर मौन मति धीर। चेतते हैं तो बस यही कह पाते हैं – बजनियों को बुला कर बाजा बजवाओ! राजा नहीं, सामान्य लौकिक पिता का रूप निखर उठा है।
दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना। मानहुँ ब्रह्मानंद समाना।।
परम प्रेम मन पुलक सरीरा। चाहत उठत करत मति धीरा।।
जाकर नाम सुनत सुभ होई। मोरें गृह आवा प्रभु सोई।।
परमानंद पूरि मन राजा। कहा बोलाइ बजावहु बाजा।।
उसके पश्चात दिव्य पुष्पवर्षा है, शृंगार है, आरती नेवछावर है और हर्ष जनित चन्दन कुंकुम कीच काच।
मृगमद चंदन कुंकुम कीचा। मची सकल बीथिन्ह बिच बीचा।।
कम्बन के यहाँ 12 दिन आनन्द मग्न जनता को सुध नहीं रहती और तुलसी के यहाँ महीना भर ऐसे बीतता है कि पता ही नहीं चलता!
चार सौ वर्ष पश्चात प्रारम्भ में नववर्ष गुड़ि पड़वा के दिन प्रसारित करने की योजना वाली गजानन दिगम्बर माडगूळकर की गीत रामायण रामनवमी के दिन 1 अप्रैल 1955 को पहली बार आकाशवाणी से प्रसारित हुई, संगीत और मुख्य गायन थे प्रख्यात सुधीर फड़के के।
 भूप, भीमपलासी, मधुवंती, विभास आदि रागों पर आधारित इस गीतमाला में पुरुषोत्तममासी वर्ष के 56 सप्ताहों के लिये 56 गीत थे जिसमें समूची रामकथा गायी गयी। यह मराठी गीतरामायण जन जन का कंठहार हो गयी।
चैत्रमास, त्यांत शुद्ध नवमि ही तिथी
गंधयुक्त तरिहि वात उष्ण हे किती !

दोन प्रहरिं कां ग शिरीं सूर्य थांबला ?
राम जन्मला ग सखी राम जन्मला

कौसल्याराणि हळूं उघडि लोचनें
दिपुन जाय माय स्वतः पुत्र-दर्शनें
ओघळले आंसु, सुखे कंठ दाटला

राजगृहीं येइ नवी सौख्य-पर्वणी
पान्हावुन हंबरल्या धेनु अंगणीं
दुंदुभिचा नाद तोंच धुंद कोंदला

पेंगुळल्या आतपांत जागत्या कळ्या
'काय काय' करित पुन्हां उमलल्या खुळ्या
उच्चरवें वायु त्यांस हंसुन बोलला

वार्ता ही सुखद जधीं पोंचली जनीं
गेहांतुन राजपथीं धावले कुणी
युवतींचा संघ कुणी गात चालला

पुष्पांजलि फेंकि कुणी, कोणी भूषणें
हास्याने लोपविले शब्द, भाषणें
वाद्यांचा ताल मात्र जलद वाढला

वीणारव नूपुरांत पार लोपले
कर्ण्याचे कंठ त्यांत अधिक तापले
बावरल्या आम्रशिरीं मूक कोकिला

दिग्गजही हलुन जरा चित्र पाहती
गगनांतुन आज नवे रंग पोहती
मोत्यांचा चूर नभीं भरुन राहिला

बुडुनि जाय नगर सर्व नृत्यगायनीं
सूर, रंग, ताल यांत मग्न मेदिनी
डोलतसे तीहि, जरा, शेष डोलला

कैसा है रामजन्म? सुगन्धित और किंचित ऊष्ण वायु है। प्रकृति स्तम्भित है। कोई अपनी सखी से पूछती है – री, यह दूसरे पहर सूरज भी क्यों थम गये हैं? उत्तर मिलता है – क्यों कि राम का जन्म हुआ है! 
कवि माता की स्थिति का बहुत सूक्ष्म चित्रण करते हैं – हौले से माँ आखें खोलती हैं और निज जात के तेज से दीप्त हो जाती हैं, आँखों से सुख के आँसू उमड़ पड़ते हैं और गला रूँध जाता है। भाव संक्रामक है और समूची प्रकृति उद्वेलित हो उठती है। वात्सल्य से भरी गायें भी रँभाने लगी हैं। दुन्दुभि नाद है। सनसनाती वायु ने यह आनन्द भरा समाचार दिया है और धूप में कुम्हलाये पुहुप भी उत्सुकता में ‘काय काय’ करते पुन: खिल उठे हैं। लोक का मोद भी प्रकृति से जुड़ जाता है -  वाद्यांचा ताल मात्र जलद वाढला।
नूपुर धुनि वीणा के स्वर में घुलमिल गयी है। यह रव इतना मधुर है कि उसने आम के कुंज में छिपी कोकिला के कानों में पहुँच उसे भी बावरी बना मूक कर दिया है! उत्सवी वातावरण को देख दिग्गज भी धीमे धीमे डोलने लगे हैं, गगन नये रंग उड़ेल रहा है – जलद उमगे जो हैं! नभ मोतियों की प्रभा बिखेर रहा है। उत्सव में अयोध्या नगरी तो बूड़ ही गयी है, समूची मेदिनी भी सुर, ताल, यति और रंग से भर उठी है। धरती धीमे धीमे डोल रही है या शेषनाग मगन हो सिर हिला रहे हैं?  
 सहस्रो वर्षों से नित नवीन हो प्रवाहित होती रामकथा के ये चार भाषिक रूप इसकी लोकधर्मिता और सनातन जीवनशक्ति के परिचायक हैं। आप सब को रामनवमी की राम राम।  

मंगलवार, 8 जून 2010

नरक के रस्ते


तकिया गीली है।
आँखें सीली हैं?
आँसू हैं या पसीना ?
अजीब मौसम
आँसू और पसीने में फर्क ही नहीं !
...... कमरे में आग लग गई है।
आग! खिड़कियों के किनारे
चौखट के सहारे दीवारों पर पसरी
छत पर दहकती सब तरफ आग ! 
बिस्तर से उठती लपटें
कमाल है एकदम ठंडी 
लेकिन शरीर के अन्दर इतनी जलन खुजली क्यों
दौड़ता जा रहा हूँ 
हाँफ रहा हूँ बिस्तर के किनारे कमरे में कितने ही रास्ते 
सबमें आग लगी हुई 
साथ साथ दौड़ते अग्नि पिल्ले 
यह क्या ? किसने फेंक दिया मुझे खौलते तेल के कड़ाहे में?
भयानक जलन खाल उतरती हुई
चीखती हुई सी गलाघोंटू बड़बड़ाहट 
झपट कर उठता हूँ 
शरीर के हर किनारे ठंढी आग लगी हुई
पसीने से लतपथ . . निढाल पसर जाता हूँ 
पत्नी का चेहरा मेरे चेहरे के उपर
आँखों में चिंन्ता क्या हुआ इन्हें ?
अजीब संकट है 
स्नेहिल स्त्री का पति होना।
कृतघ्न, पाखंडी, वंचक .... मनोवैज्ञानिक केस !
क्यों सताते हो उस नवेली को ?
.... सोच संकट है। क्या करूँ?
... भोर है कि सुबह
पूछना चाहता हूँ 
आवाज का गला किसने घोंट दिया?
खामोश चिल्लाहट ...|
... ”अशोच्यानन्वशोचंते प्रज्ञावादांश्च .....
पिताजी गा रहे हैं 
बेसमझ पारायण नहीं 
गा रहे हैं।
... आग अभी भी कमरे में लगी हुई है। 
लेकिन शमित हो रहा है
शरीर का अन्दरूनी दाह ।
शीतल हो रही हैं आँखें 
सीलन नहीं, पसीना नहीं 
..पत्नी का हाथ माथे पर पकड़ता हूँ
कानों में फुसफुसाहट 
लेटे रहिए 
आप को तेज बुखार है।“ ...
बुखार? सुख??
37 डिग्री बुखार माने जीवन
तेज बुखार माने और अधिक जीवन
इतना जीवन कि जिन्दगी ही बवाल हो जाए !
यह जीवन मेरे उपर इतना मेहरबान क्यों है?
ooo 
बुखार चढ़ रहा है
अजीब सुखानुभूति।
पत्नी से बोलता हूँ - 
भला बुखार में भी सुख होता है ?
बड़बड़ाहट समझ चादर उढ़ा 
हो जाती है कमरे से बाहर। 
ooo 
कमरे में एकांत
कोई बताओ भोर है कि सुबह?
....नानुशोचंति पंडिता:
कौन इस समय पिताजी के स्वर गा रहा
क्यों नहीं गा सकता ? सुबह है। 
 कमरे में घुस आई है
धूप की एक गोल खिड़की ।
कमाल है आग कहाँ गई
धूप सचमुच या बहम?
ooo 
हँइचो हँइचो हैण्डपम्प 
रँभाती गैया 
चारा काटने चले मणि
कमरे के कोने में नाच रही मकड़ी
चींटियाँ चटक लड्डू पपड़ी
जै सियराम जंगी का रिक्शा
खड़ंजे पर खड़ खड़ खड़का।
धूँ पीं धूँ SSssS हों ssss
रामकोला की गन्ना मिल 
राख उगलती गुल गिल
दे रही आवाज बाँधो रे साज 
पिताजी चले नहाने 
खड़ाऊँ खट पट खट टक 
बजे पौने सात सरपट।
रसोई का स्टोव हनहनाया
सुबह है, कस्बा सनसनाया।
ooo
गोड़न गाली दे रही 
बिटिया है उढ़री 
काहें वापस घर आई?
बाप चुप्प है
सब ससुरी गप्प है। 
बेटियाँ जब भागतीं
घर की नाक काटती
बेटा जब भागता 
कमाई है लादता ।
ऐसा क्यों है?
गोड़न तेरी ही नहीं
सारी दुनिया की पोल है,
कि मत्था बकलोल है। 
समस्या विकट है
सोच संक्कट्ट है। 
ooo
बुखार का जोर है ।
हरापन उतर आया है कमरे में।
कप के काढ़े से निकल हरियाली 
सीलिंग को रंग रही तुलसी बावरी।
छत की ओस कालिख पोत रही
हवा में हरियाली है 
नालियों में जमी काई
काली हरियाली ..
अचानक शुरू हुई डोमगाउज 
माँ बहन बेटी सब दिए समेट 
जीभ के पत्ते गाली लपेट
विवाद की पकौड़ी 
तल रही नंगी हो 
चौराहे पर चौकड़ी। 
रोज की रपट   
शिव बाबू की डपट 
से बन्द है होती
लेकिन ये नाली उफननी
बन्द क्यों नहीं होती?
ooo 
टाउन एरिया वाले चोर हैं 
कि मोहल्ले वाले चोर हैं ?
ले दे के बात वहीं है अटकती
ये नाली बन्द क्यों नहीं होती
ooo 
रोज का टंटा 
कितने सुदामा हो गए संकटा।

वह क्या है जो नाली की मरम्मत नहीं होने देता
इस उफनती नाली में पलते हैं बजबजाते कीड़े 
और घरों के कुम्भीपाक  
खौलता तेल आग 
ठंढा काई भरा पानी हरियाला  
अजब है घोटाला 
कौन हुआ मालामाल है ?
ooo
 धूँ पीं धूँ SSssS हों ssss
ओं sss होंsss कीं हें sss
साढ़े नौ पंजाब मिल की डबलदार सीटी|
जंगी का रिक्शा फिर खड़का है
अबकी दारू का नशा नहीं भड़का है। 
पीढ़े से डकारते पिताजी उठते हैं ।
बगल के घर से हँसी गुप्ता की 
तकिए की जगह नोट रखता है 
जाने बैंक जाते इतना खुश क्यों रहता है ?
गुड्डू की डेढ़ फीट पीठ पर 
आठ किलो का बस्ता चढ़ता है।
इस साढ़े नौ की सीटी से
पूरा कस्बा सिहरता है। 
ooo
कैसी इस कस्बे की सुबहे जिन्दगी !
इतने में ही सिमट गई !!
मुझे बेचैन करता है 
क़स्बे की सुबह का ऐसे सिमट जाना!
लगता है कि एक नरक में जी रहा हूँ
शायद ठीक से कह भी नहीं पाना 
एक नारकीय उपलब्धि है। 

कमरे में बदबू है 
मछली मार्केट सी।
जिन्दा मछलियाँ जिबह होती हुईं 
पहँसुल की धार इत्ती तेज ! 
जंगी के शरीर में जाने कितनी मछलियाँ 
ताजी ऊर्जावान हरदम उछलती हुईं 
शीतल आग में धीरे धीरे 
फ्राई हो रही हैं
कौन खा रहा है उन्हें ?

कौन है??  
चिल्लाता हूँ

भागती अम्माँ आती है 
आटा सने हाथ लिए
पीछे बीवी ।
... चादर के नीचे शरीर में दाने निकल आए हैं ।    
सुति रह ! 
कैसे सो जाऊँ ?
ये जो शराब पी कर वह जंगी जी रहा है
जिन्दगी की जंग बिना जाने बिना लड़े
अलमस्त हो हार रहा है।
वह रिक्शे की खड़खड़ जो हो जाएगी खामोश 
बस चार पाँच सालों में टायरों को जला जाएगी आग 
रह जाएगा झोंपड़ी में टीबी से खाँसता अस्थि पंजर 
मैं देख रहा हूँ कुम्भीपाक में खुद को तल रहा हूँ।
अम्माँ तुम कहती हो सुति रह !! 

मेरे इतिहास बोध में कंफ्यूजन है ! 
मैं मानता हूँ कि इस मुहल्ले में रहते 
ये पढ़े लिखे मास्टर कोई डबल एम ए कोई विशारद 
दुश्मन के सामने तमाशा देखती गारद ।
निर्लिप्त लेकिन अपनी दुनिया में घनघोर लिप्त 
करें भी तो क्या परिवार और स्कूल 
इन दो को साधना 
करनी एक साधना कि 
बेटे बेटियों को न बनना पड़े मास्टर।
कोई इतिहासकार न इनका इतिहास लिखेगा
और न जंगी की जंग का 
सही मानो तो वह जंग है ही नहीं ...
इसका न होना एक नारकीय सच है
समय के सिर पर बाल नहीं 
सनातन घटोत्कच है। 

गुड्डू जो किलो के भाव बस्ता उठाता है 
दौड़ते भागते हँसते पैदल स्कूल जाता है 
कॉलेज और फिर रोजगार दफ्तर भी जाएगा
उस समय उसे जोड़ों का दर्द सताएगा 
जब कुछ नहीं पाएगा 
समानांतर ही धँस जाएंगी आँखें
दीवारों पर स्वप्नदोष की दवाएँ बाँचते 
बाप को कोसेगा जुल्फी झारते और खाँसते ।
बाप एक बार फिर जोर लगाएगा
बूढ़े बैल में जान बँची होगी
भेज देगा तैयारी करने को इलाहाबाद 
सीधा आइ ए एस बनो बेटा मुझे मत कोसना ..

मैं अकेला बदबूदार कमरे में
मांस जलने की बू सूँघते 
बेशर्म हो हँसते 
मन में जोड़ता हूँ ये तुकबन्दी 
भविष्य देख रहा हूँ सोच संकट है।
अर्ज किया है:
खेतों के उस पार खड़ा 
रहता हरदम अड़ा अड़ा
सब कहते हैं ठूँठ ।

बढ़ कर के आकाश चूम लूँ
धरती का भंडार लूट लूँ
कितनी भी हरियाली आई
कोंपल धानी फूट न पाई 
चक्कर के घनचक्कर में
रह गया केवल झूठ
सब कहते हैं ठूँठ।

हार्मोन के इंजेक्शन से 
बन जाएगी पालक शाल 
इलहाबाद के टेसन  से 
फास्ट बनेगी गाड़ी माल 
आकाश कहाँ आए हाथों में 
छोटी सी है मूठ 
सब कहते हैं ठूँठ ।

गुलाब कहाँ फूले पेड़ों पर
दूब सदा उगती मेड़ों पर 
ताँगे के ये मरियल घोड़े 
खाते रहते हरदम कोड़े 
पड़ी रेस में लूट (?)
सब कहते हैं ठूँठ” 

ये जवानी की बरबादी 
ये जिन्दगी के सबसे अनमोल दिनों का
यूँ जाया होना
मुझे नहीं सुहाता।
..कमाल है इस बारे में कोई नहीं बताता। 

इस बेतुके दुनियावी नरक में 
तुकबन्दी करना डेंजर काम है।
शिक्षा भयभीत करती है
जो जितना ही शिक्षित है
उतना ही भयग्रस्त है।
उतने ही बन्धन में है ।
गीता गायन पर मुझे हँसी आती है
मन करता है गाऊँ -  
होली के फूहड़ अश्लील कबीरे।
मुझे उनमें मुक्ति सुनाई पड़ती है। 
बाइ द वे 
शिक्षा की परिभाषा क्या है ?

शिक्षा , भय सब पेंसिल की नोक 
जैसे चुभो रहे हों 
मुझे याद आता है सूरदास आचार्य जी का दण्ड 
मेरी दो अंगुलियों के बीच पेंसिल दबा कर घुमाना!
वह पीड़ा सहते थे मैं और मेरे साथी 
आचार्य जी हमें शिक्षित जो बना रहे थे ! 
हमें कायर, सम्मानभीरु और सनातन भयग्रस्त बना रहे थे 
हम अच्छे बच्चे पढ़ रहे थे 
घर वालों, बाप और समाज से तब भी भयग्रस्त थे 
वह क्या था जो हमारे बचपन को निचोड़ कर 
हमसे अलग कर रहा था?
जो हमें सुखा रहा था ..
नरक ही साक्षात था जो गुजरने को हमें तैयार कर रहा था। 
आज जो इस नरक के रस्ते चल रहा हूँ 
सूरदास की शिक्षा मेरी पथप्रदर्शक बन गई है...
अप्प दीपो भव  .. ठेंगे से  
अन्धे बुद्धों! तुम मानवता के गुनहगार हो
तुम्हारे टेंटुए क्यों नहीं दबाए जाते?
तुम पूजे क्यों जाते हो?...

..यहाँ सब कुछ ठहर गया है 
कितना व्यवस्थित और कितना कम ! 
गन्ना मिलों के भोंपू ही जिन्दगी में 
सिहरन पैदा करते हैं
नहीं मैं गलत कह रहा हूँ – 
ये भोंपू हैं इसलिए जिन्दगी है। ..
ये भोंपू बहुत सी बातों के अलावा 
तय करते हैं कि कब घरनी गृहपति से 
परोसी थाली के बदले 
गालियाँ और मार खाएगी। 
कब कोई हरामी मर्द 
माहवारी के दाग लिए 
सुखाए जा रहे कपड़ों को देख 
यह तय करेगा कि कल 
एक लड़की को औरत बनाना है
और वह इसके लिए भोंपू की आवाज से 
साइत तय करेगा
कल का भोंपू उसके लिए दिव्य आनन्द ले आएगा। 
... और शुरुआत होगी एक नई जिन्दगी की
जर्रा जर्रा प्रकाशित मौत की !!
वह हँसती हुई फुलझड़ियाँ 
अक्कुड़, दुक्कुड़ 
दही चटाकन बर फूले बरैला फूले
सावन में करैला फूले गाती लड़कियाँ
गुड़ियों के ब्याह को बापू के कन्धे झूलती लड़कियाँ
अचानक ही एक दिन औरत कटेगरी की हो जाती हैं
जिनकी छाया भी शापित 
और जिन्दगी जैसे जाँघ फैलाए दहकता नरक !  
..कभी एक औरत सोचेगी 
माँ का बताया 
वही डोली बनाम अर्थी वाला आदर्श वाक्य!
क्या उस समय कभी वह इस भोंपू की पुकार सुनेगी 

भोंपू जो नर हार्मोन का स्रावक भी है ! .. 
चित्त फरिया रहा है
मितली और फिर वमन !
...  चलो कमरे से जलते मांस की बू तो टली ।

कमरे में धूप की पगडण्डी बन गई है 
हवा में तैरते सूक्ष्म धूल कण 
आँख मिचौली खेल रहे 
अचानक सभी इकठ्ठे हो भागते हैं 
छत की ओर !
रुको !! 
छत टूट जाएगी 
मेरे सिर पर गिर जाएगी
..अचानक छत में हो गया है 
एक बड़ा सा छेद 
आह ! ठण्डी हवा का झोंका 
घुसा भीतर पौने दस का भोंपा !
मैं करवट बदलता हूँ
सो गया हूँ शायद..
चन्नुल जगा हुआ है।
तैयार है। 
निकल पड़ता है टाउन की ओर
जाने कितने रुपए बचाने को 
तीन किलोमीटर जाने को
पैदल। 

खेतों के सारे चकरोड 
टोली की पगडण्डियाँ
कमरे की धूप डण्डी 
रिक्शे और मनचलों के पैरों तले रौंदा जाता खड़ंजा
...
ये सब दिल्ली के राजपथ से जुड़ते हैं।
राजपथ जहाँ राजपाठ वाले महलों में बसते हैं। 
ये रास्ते सबको राजपथ की ओर चलाते हैं 
इन पर चलते इंसान बसाते हैं 
(देवगण गन्धाते हैं।)
कहीं भी कोई दीवार नहीं 
कोई द्वार नहीं 
राजपथ सबके लिए खुला है
लेकिन 
बहुत बड़ा घपला है 
पगडण्डी के किनारे झोंपड़ी भी है
और राजपथ के किनारे बंगला भी
झोंपड़ी में चेंचरा ही सही लगा है।
बंगले में लोहे का गेट और खिड़कियाँ लगी हैं
ये सब दीवारों की रखवाली करती हैं 
इनमें जनता और विधाता रहते हैं ।
कमाल है कि बाहर आकर भी 
इन्हें दीवारें याद रहती हैं
न चन्नुल कभी राजपथ पर फटक पाता है
न देवगण पगडण्डी पर। 
बँटवारा सुव्यवस्थित है
सभी रास्ते यथावत 
चन्नुल यथावत 
सिक्रेटरी मिस्टर चढ्ढा यथावत।
कानून व्यवस्था यथावत।
राजपथ यथावत
पगडण्डी यथावत 
खड़न्जा यथावत।
यथावत तेरी तो ... 
.. मालिक से ऊँख का हिसाब करने
चन्नुल चल पड़ा अपना साल बरबाद करने 
हरे हरे डालर नोट 
उड़ उड़ ठुमकते नोट 
चन्नुल आसमान की ओर देख रहा 
ऊँची उड़ान 
किसान की शान
गन्ना पहलवान ।
एक फसल इतनी मजबूत !
जीने के सारे विकल्पों के सीनों पर सवार 
एक साथ ।
किसान विकल्पहीन ही होता है
क्या हो जब फसल का विकल्प भी
दगा दे जाय ?
गन्ना पहलवान
बिटिया का बियाह गवना
बबुआ का अंगरखा          
- पूस की रजाई
- अम्मा की मोतियाबिन्द की दवाई
- गठिया और बिवाई
- रेहन का बेहन
- मेले की मिठाई
- कमर दर्द की सेंकाई
- कर्जे की भराई  ....
गन्ना पहलवान भारी जिम्मेदारी निबाहते हैं। 
सैकड़ो कोस के दायरे में उनकी धाक है 
चन्नुल भी किसान 
मालिक भी किसान 
गन्ना पहलवान किसानों के किसान 
खादी के दलाल।
प्रश्न: उनका मालिक कौन ?
उत्तर: खूँटी पर टँगी खाकी वर्दी 
ब्याख्या: फेर देती है चेहरों पर जर्दी 
सर्दी के बाद की सर्दी 
जब जब गिनती है नोट वर्दी
खाकी हो या खादी ।
चन्नुल के देस में वर्दी और नोट का राज है
ग़जब बेहूदा समाज है 
उतना ही बेहूदा मेरे मगज का मिजाज है 
भगवान बड़ा कारसाज है 
(अब ये कहने की क्या जरूरत थी? ).... 

आजादी -  जनवरी है या अगस्त
अम्माँ कौन महीना
बेटा माघ माघ के लइका बाघ ।
बबुआ कौन महीना
बेटा सावन सावन हे पावन ।

जनवरी है या अगस्त?
माघ है या सावन ?
क्या फर्क पड़ता है
जो जनवरी माघ की शीत न काट पाई 
जो संतति मजबूत न होने पाई  
क्या फर्क पड़ता है
जो अगस्त सावन की फुहार सा सुखदाई न हुआ
अगस्त में कोई तो मस्त है
वर्दी मस्त है जय हिन्द।

जनवरी या अगस्त?
प्रलाप बन्द करो 
कमाण्ड !  - थम्म 
नाखूनों से दाने खँरोचना बन्द 
थम गया ..
पूरी चादर खून से भीग गई है...

हवा में तैरते हरे हरे डालर नोट 
इकोनॉमी ओपन है 
डालर से यूरिया आएगा 
यूरिये से गन्ना बढ़ेगा। 
गन्ने से रूपया आएगा
रुक ! बेवकूफ ।
समस्या है
डालर निवेश किया
रिटर्न रूपया आएगा ।
बन्द करो बकवास थम्म।
जनवरी या अगस्त?
  
ये लाल किले की प्राचीर पर 
कौन चढ़ गया है ?
सफेद सफेद झक्क खादी। 
लाल लाल डॉलर नोट
लाल किला सुन्दर बना है
कितने डॉलर में बना होगा ..
खामोश 
देख सामने
कितने सुन्दर बच्चे ! 
बाप की कार के कंटेसियाए बच्चे
साफ सुथरी बस से सफाए बच्चे 
रंग बिरंगी वर्दी में अजदियाए बच्चे 
प्राचीर से गूँजता है: 
मर्यादित गम्भीर 
सॉफिस्टिकेटेड खदियाया स्वर 
ग़जब गरिमा !
बोलें मेरे साथ जय हिन्द !
जय हिन्द!
समवेत सफेद खादी प्रत्युत्तर 
जय हिन्द!
इस कोने से आवाज धीमी आई
एक बार फिर बोलिए जय हिन्द” 
जय हिन्द , जय हिन्द, जय हिन्द
हिन्द, हिन्द, हिन् ...द, हिन् ..
..हिन हिन भिन भिन 
मक्खियों को उड़ाते 
नाक से पोंटा चुआते 
भेभन पोते चन्नुल के चार बच्चे
बीमार सुखण्डी से।
कल एक मर गया।

अशोक की लाट से 
शेर दरक रहे हैं 
दरार पड़ रही है उनमें ।
दिल्ली के चिड़ियाघर में 
जींस और खादी पहने 
एक लड़की 
अपने ब्वायफ्रेंड को बता रही है,
शेर इंडेंजर्ड स्पीशीज हैं 
यू सिली

शेर मर रहे हैं बाहर सरेह में 
खेत में 
झुग्गियों में 
झोपड़ियों में 
सड़क पर..हर जगह 
सारनाथ में पत्थर हम सहेज रहे हैं 
जय हिन्द। 
मैं देखता हूँ 
छ्त के छेद से 
लाल किले के पत्थर दरक रहे हैं। 
राजपथ पर कीचड़ है 
बाहर बारिश हो रही है 
मेरी चादर भीग रही है। 
धूप भी खिली हुई है - 
सियारे के बियाह होता sss 
सियारों की शादी में 
शेर जिबह हो रहे हैं 
भोज होगा 
काम आएगा इनका हर अंग, खाल, हड्डी। 
खाल लपेटेगी सियारन सियार को रिझाने को 
हड्डी का चूरन खाएगा सियार मर्दानगी जगाने को .. 
पंडी जी कह रहे हैं - जय हिन्द। 
अम्माँ ssss 
कपरा बत्थता 
बहुत तेज घम्म घम्म 
थम्म! 
मैं परेड का हिस्सा हूँ 
मुझे दिखलाया जा रहा है - 
भारत की प्रगति का नायाब नमूना मैं 
मेरी बकवास अमरीका सुनता है, गुनता है 
मैं क्रीम हूँ भारतीय मेधा का 
मैं जहीन 
मेरा जुर्म संगीन 
मैं शांत प्रशांत आत्मा 
ॐ शांति शांति 
घम्म घम्म, थम्म ! 
परेड में बारिश हो रही है 
छपर छपर छ्म्म 
धम्म। 
क्रॉयोजनिक इंजन दिखाया जा रहा है 
ऑक्सीजन और हाइड्रोजन पानी बनाते हैं 
पानी से नए जमाने का इंजन चलता है 
छपर छपर छम्म। 
कालाहांडी, बुन्देलखण्ड, कच्छ ... जाने कितनी जगहें 
पानी कैसे पहुँचे - कोई इसकी बात नहीं करता है 
ये कैसा क्रॉयोजेनिक्स है! 
चन्नुल की मेंड़ और नहर का पानी 
सबसे बाद में क्यों मिलते हैं
ये इतने सारे प्रश्न मुझे क्यों मथते हैं
घमर घमर घम्म। 
रात घिर आई है। 
दिन को अभी देख भी नहीं पाया 
कि रात हो गई 
गोया आज़ाद भारत की बात हो गई। 
शाम की बात 
है उदास बुखार में खुद को लपेटे हुए। 
खामोश हैं जंगी, गोड़न, बेटियाँ, गुड्डू 
सो रहे हैं कि सोना ढो रहे हैं 
जिन्हें नहीं खोना बस पाना ! 
फिर खोना और खोते जाना.. 
सोना पाना खोना सोना .... 
जिन्दगी के जनाजे में पढ़ी जाती तुकबन्दी।   
इस रात चन्नुल के बेटे डर रहे हैं 
रोज डरते हैं लेकिन आज पढ़ रहे हैं 
मौत का चालीसा - चालीस साल 
लगते हैं आदमी को बूढ़े होने में 
यह देश बहुत जवान है। 
जवान हैं तो परेड है 
अगस्त है, जनवरी है 
जवान हैं परेड हैं 
अन्धेरों में रेड है। 
मेरी करवटों के नीचे सलवटें दब रही हैं 
जिन्दगी चीखती है - उसे क्षय बुखार है। 
ये सब कुछ और ये आजादी 
अन्धेरे के किरदार हैं। 
मेरी बड़बड़ाहट 
ये चाहत कि अन्धेरों से मुक्ति हो 
ये तडपन कि मुक्ति हो। 
मुक्ति पानी ही है 
चाहे गुजरना पड़े 
हजारो कुम्भीपाकों से । 
कैसे हो कि जब सब ऐसे हो। 
ये रातें 
सिर में सरसो के तेल की मालिश करते 
अम्माँ की बातें 
सब खौलने लगती हैं 
सिर का बुखार जब दहकता है। 
और
.. और खौलने लगता है 
बालों में लगा तेल 
अम्माँ का स्नेह ऐसे बनता है कुम्भीपाक। 
(हाय ! अब ममता भी असफल होने लगी है।) 
माताएँ क्या जानें कि उनकी औलादें 
किन नरकों से गुजर रही हैं ! 
अब जिन्दगी उतनी सीधी नहीं रही 
जिन्दगी माताओं का स्नेह नहीं है।  
भीना स्नेह खामोश होता है... 
सब चुप हो जाओ। 
अम्माँ, मुझे नींद आ रही है..जाओ सो जाओ। 
..एक नवेली चौखट पर रो रही है 
मुझे नींद आ रही है...
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- गिरिजेश राव
सन् ~ 1995

पटेल चेस्ट इंस्टीट्यूट, दिल्ली