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शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

लंठ महाचर्चा: ओझवा के ठेंगे से


परबतिया
के माई और बाउ
प्रसंग का अंत होगा इसके बाद वाली पोस्ट में। हालात कुछ ऐसे हो गए कि यह पोस्ट ठेलनी पड़ी। मूढ़ इतना मूरख नहीं कि समय के अनुसार बदले। वैसे भी कथा और व्यथा वाचन में तारतम्य रहे तो लंठ आम ब्लॉगरों से अलग कैसे कहाएगा? अतएव इस कथा का आनन्द लें और परबतिया के माई और बाउ प्रसंग के अंत की प्रतीक्षा करें। चूँकि यह पोस्ट बिन बुलाए मेहमान की तरह टपकी है, इसलिए इसे अनम्बरी ही रखा है।
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(अनम्बरी) समय: आधुनिक काल, परम्परा: खुद की भोगी
पुलिस वालों से मेरी हड्डियाँ तक काँपती हैं तो मीडिया वालों को देखते ही दिल बैठ जाता है। एक डर बचपन में मन में समाया तो एक पहले पब्लिक आयोजन में। शिशु में पढ़ता था तो साथ में पढ़ती थी थानेदार की सुन्दर कन्या। मैं उसकी स्लेट थूक लगा कर चमका दिया करता और वह सिर्फ़ मुस्करा दिया करती। मैं धन्य हो जाता। एक दिन स्लेट मेरे हाथ से गिर कर टूट गई और साथ ही हमारा प्रथम रोमांस भी। अब वह हमें हर्जाने के लिए डेली हड़काती। क्लास से सड़क दिखती थी और वह हर गुजरते पुलिस वाले को दिखा पिटवाने की धमकी देती। चंडिका दिनों दिन उग्र होती गई। धीरे धीरे मेरे मन में उसके बाप की क़ौम का डर इतना बैठ गया कि मैं पिताजी के डर से स्कूल तो जाता लेकिन चुप चाप रोता रहता। मेरे साथ मुझसे पच्चीस दिन बड़ा चचेरा भाई पढ़ता था। उसे मेरी कायरता पर बहुत क़ोफ्त होती। लिहाजा एक दिन उसने यह सब पिताजी को बता दिया और मामला रफा दफा हुआ चवन्नी हर्जाने से। जब पुलिस वाले की एक पिद्दी सी छोकरी ऐसा कारनामा कर सकती है तो जरा सोचिए असली पुलिस वाला क्या नहीं कर सकता?



बात है हमारे द्वारा बनाए गए पहले प्लॉण्ट के उद्घाटन की। चूँकि टैक्स एक्जेम्प्सन का मामला था इसलिए जिले का सरकारी अमला और मीडिया दोनों शामिल किए गए। उसके पहले मैं इन मीडिया वालों को बस अखबारी छाप संवाददाता समझता था जिनका काम था बलात्कार, बकरी चोरी, लोकल पॉलिटिक्स, झगड़े वगैरह छापना। उस शाम जब मैंने बड़े बड़े सरकारी अफसरों को इन अखबारियों के सामने नतमस्तक देखा तो दंग रह गया। दो तीन खद्दरधारी भी इन फटीचरों को मस्का लगाने और जाम सर्व करने में लगे हुए थे। वो रिपोर्टर्स तो बस मौन आनन्द की महामुद्रा धारण किए हुए थे। मेरे बॉस ने समझाया, बेटा इनका खास खयाल रखो नहीं तो कल कुछ ऐसी छोटी सी भूल छाप देंगे कि अनर्थ हो जाएगा। उसके बाद वाली सुबह सबसे पिछले पेज पर ठंडे तेल, किसी बुड्ढे के उठाले और गरम गरम बात करती हसीनाओं वाले विज्ञापनों के बीच 'एरियल नैरो' फॉंन्ट में पाँच मिलीमीटर स्थान लेते हुए 'भूल सुधार' भी छाप देंगे। मुझे ज्ञान प्राप्त हो गया। जो बॉस मुझे तब तक कभी आतंकित नहीं कर पाया था, मेरे चेहरे के एक्सप्रेशन को देख धन्य धन्य हो गया होगा।



तब से आज तक इन दोनों बिरादरियों से मैं डरता रहा हूँ। इनके सिवा मुझे किसी से डर नहीं लगता, यह आप मेरे ब्लॉग के लेख और दूसरों के ब्लॉगों पर की गई टिप्पणियों से समझ ही गए होंगे।



दुर्दैव देखिए लखनऊ आया तो इन क़ौमों में से एक एक मेरे दोस्त बन गए। इसमें मुए इंटर्नेट का दोष है। पुलिस वाला तो मेरा लँगोटिया यार निकला जिससे सोलह सालों के बाद मुलाकात हुई। इंजीनियरिंग कर इंस्पेक्टरी करता आदमी मिला है कभी आप को? वीकीमैपिया पर कभी ऐसे ही अपने स्कूल का टैग लगा वहाँ नाम दे दिया था। दो महीने बाद देखा तो महाशय बाकायदा नाम, मोबाइल नम्बर और जगह के साथ मेरे नाम अपील भी डाले हुए थे जैसे मैं खोया हुआ बालक होऊँ। अगर पता होता कि पुलिस विभाग में हैं तो हम देख कर भी नहीं देखते। अज्ञान हमेशा आनन्ददायी नहीं होता। अब मैं इस यार को झेल रहा हूँ।



एक भूतपूर्व मीडिया वाला सिद्धर्थवा भी मुझे सर्च के दौरान ही मिल गया। लेकिन वह तो छोटा भाई है जिसने मुझ सोये को जगा कर दौड़ा दिया ।एक और बड़ी बात घटित हुई - दूसरे मीडिया वाले राजीव ओझा से मुलाकात। एक दिन ऐसे ही नेट पर सर्फिया रहा था कि इन महाशय का ब्लॉग मिल गया। पढ़ना शुरू किया तो सम्मोहित सा बस एक के बाद एक पोस्ट पढ़ता और टिपियाता चला गया। बहुत दिनों के बाद एक 'इंटेलेक्चुअल लंठ' मिला था। अब ओझा जी कमेंटों की बाढ़ देख हैरान हुए कि ये कौन? जी मेल के सहारे बात चीत शुरू हुई तो पता चला कि जनाब लखनऊ में ही पाए जाते हैं। मीडिया से हैं ये बहुत दिन बाद पता चला (आलसी होने के कारण मैं प्रोफाइल वगैरह कम देखता हूँ, आदमी का काम देखो जन्मकुण्डली देख क्या शादी करनी करानी है?)



प्रशंसा और दहशत का बेजोड़ मिश्रण कैसा हो सकता है, यह मुझसे अब कोई भी जान सकता है। लेकिन यह सज्जन मेरे इश्क से परेशान बड़े उदार टाइप के हैं(अब तक) सो मैं अक्सर छूट ले लेता हूँ। इश्क से याद आया एक बार तो यह मेरे उपर 'दोस्ताना भाव' रखने का शक कर बैठे थे, सफाई दे कर हम निकले किसी तरह्। छूट इतनी दे रखे हैं कि घास फूस और कलुवा के बहाने से हम नर्म दूब भरी मेंड़ पर घिसनी काटने (नहीं जानते! किसी यूपोरियन देहाती ब्लॉगर से पूछ लें) तक की चर्चा कर चुके हैं।



एक दिन इन्हों ने inext के लिए लिखने को कहा। मैंने यह नाम पहले नहीं सुना था, इसलिए पूछ बैठा ये क्या है? अब इन्हों ने जो झुँझलाहट दिखाई, उस से मैं मस्त हो गया - लंठोली (वह ठिठोली जो लंठ लोग आपस में करते हैं) का बहाना जो मिल गया था। मैंने खूब कोंचा और इनके बारे में बहुत कुछ पता चला।



जब मैंने इनको रचनाएं भेजनी चालू कीं तो इन्हों ने अदाएं शुरू कीं। झेलने की बारी अब मेरी थी। मैं लेख मेल करूँ और ओझवा अदा से ठेंगा दिखा दे। "लेख उत्तम है लेकिन गिरिजेश जी, inext के पाठक वर्ग की अभिरुचि का नहीं है। आशा है आप सहयोग बनाए रखेंगे" जैसे सुसंस्कृत से लेकर "मेल भेज रहा हूँ, हमें ऐसे लेख चाहिए" तक के ब्लंट टाइप ठेंगे हमें झेलने पड़े।

वर्षों पुराना डर फिर सिर उठाने लगा था और मैं इस मनोगत निष्कर्ष 'ये सब ऐसे ही होते हैं' पर पहुँचने वाला ही था कि एक दिन इन्हों ने मुझे मेरे प्रोफाइल में फोटो की जगह घास फूस लगा होने के कारण छेड़ा। आतंकित था लेकिन कलुवा के बहाने मैंने खूब सुनाया। इन्हों ने पूछा, NBRI (National Botanical Research Institute) में काम करते हो? मैंने कहा नहीं, मैं रहस्य पुरुष हूँ। आप खोजी पत्रकारिता से मालूम करिए। मुझे अगर ये मालूम होता कि ओझा जी inext में इस ब्लॉग के बारे में छापने वाले हैं और उसके लिए सामग्री जुटाने की कोशिश में हैं, तो मैं अपना पूरा बॉयोडाटा भेज देता। लेकिन लंठ कैसा जो अपनी पोल दे? लिहाजा ओझा जी ने उद्देश्य का बोझा मेरे सिर पटका और मैंने अपना हालिया हुलिया बताया।


लंठोली के दौरान ही ओझा जी ने बताया कि अगले दिन का inext खरीद लेना और फलाँ पृष्ठ देख लेना। मुझे टेंसन के कारण रात भर नींद नहीं आई। इस क़ौम का क्या भरोसा। सुबह सुबह श्रीमती जी को जगाया और साथ चलने को कहा-अगर हार्ट अटैक हो जाय तो तुरंत अस्पताल पहुँचाने के लिए कोई तो साथ हो।



जो छपा था वह देख के एकदम हैरान नहीं हुआलंठ का लक्षण यही है न। साइड में लगा है, आप भी क्लिक कर देखें।
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ओझवा के ठेंगे जारी हैंअभी भी मेरे दो लेख उसके मेल बॉक्स की शोभा बढा रहे हैं।