बसंत लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
बसंत लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

बसंत की ऐसी तैसी ...


बसंत माने जिसमें संत भी बौरा जायँ। बसंतपंचमी आई और गई। अधेड़ और बूढ़ों ने गुजरे जमाने याद कर आह भरे। पीले कपड़ों में उन गालों की ललाई याद की जिन पर अब वक्त की झुर्रियाँ हैं और शाम को ब्लड प्रेशर की दवा खा खाँसते सो गये। जवानों को पता ही नहीं चला हालाँकि फेसबुक पर आहें भरते अंकल टाइप के जवान बसंत बसंत चिल्लाये भी। उधार खाते का वैलेंटाइन डे आने वाला है, जवानों को और मार्केटिंग कम्पनियों को उसका इंतज़ार है। धुँआधार तैयारियाँ चालू हैं। वैलेंटाइन बाबा भी संत थे। बौराने का भरपूर मसाला दे गये। दूरदर्शी थे। उन्हें पता था कि सुदूर इंडिया में जब जवान लाइफ के टेंशन में बसंत काल की फसंत विद्या भूलने लगेंगे तो उनका डे ही काम आयेगा। जमाना गवाह है, बड़े बौरान टाइप के संत थे।

जवानों को बसंत या किसी संत से कोई फर्क नहीं पड़ता। उन्हें तो बस फँसने फँसाने का बहाना चाहिये। सारी फसंत विद्या लिये मोबाइल जो साथ में है! भाँति भाँति के एस एम एस और टाक स्कीम – अगर आप फँसानू जोड़े हैं तो आपसी बातचीत मुफ्त और छ्त्तीस घंटे बतिया लिये तो उसे तिरसठ करने के लिये पास के कॉफी हाउस में कॉफी मुफ्त।

दाँत चियारने, आँख मारने, ताली बजाने, लजाने, रूठने, मनाने, चुम्मा लेने आदि आदि सबके तो इमोटिकॉन चैट बॉक्स में बने ही हुये हैं। कितनी सहूलियत रहती है! गॉड नोज पुराने जमाने में इनकी ऐक्टिंग करने के लिये कितनी मेहनत करनी पड़ती होगी! ओल्ड फैशन्ड यू नो! फूल तक चैट बॉक्स में बन जाते हैं, असली फूलों के फूलने का मौसम जानने, निहारने, चुनने में बड़ी ट्रबल है। शियर नॉनसेंस! आइ ऐम एलर्जिक टू पॉलेन, यू नो! वैसे भी फूल एक्जीविशन में ही अच्छे लगते हैं। देखो दूर से, छुओ मत। छूने के लिये तो ... ही ही ही।

माइ डैड इज सुपर्ब! ये देखो मस्त बाइक गिफ्ट किया, अभी तो ड्राइविंग लाइसेंस भी नहीं पास में।
यू आर ग्रेट डैड!
चिपक कर पीछे बिठा के घूमने घुमाने का मज़ा आप लोग क्या जानो? पता है इससे गल्स को गिफ्ट करने का ग्रेट तरीका भी आ जाता है। वो ढली चाँदनी आंटियाँ हैं न! चेन पहन कर शाम को सब्जी लेने जाती हैं। बस एक झटका और गिफ्ट मनी हाथ में। हाउ कूल!

हम तो हरदम बसंत के स्प्रिंग मोड में रहते हैं। उसके आने जाने को जानने से क्या होगा? घंटा!
ये देखो ये आर्टिकल भी किसी अंकल टाइप ने ही लिखा है। बोर! महाबोर!! थम्स डाउन किधर है? 

गुरुवार, 17 मार्च 2011

आचारज जी - दुबारा :)

पूर्वी उत्तरप्रदेश में गाई जाने वाली फाग धुन पर आधारित यह भोजपुरी रचना एक पुनर्प्रस्तुति है। पछाहीं खड़ी बोली का प्रभाव भी है। यह रचना किसी दूजे के ऊपर तंज न होकर, स्वयं पर है। ब्लॉग जगत के कुछ लंठ मुझे 'आचार्य' कहने लगे हैं। 'आचार्य' ही लोक में 'आचारज' या 'अचारज' हो जाता है। 
... हाँ, पिछली बार जिन 'आचार्यों' को लक्ष्य कर यह रचना लिखी गई थी, वे स्वयं 'सारे सरदार मर गये क्या जो दूसरों पर चुटकुले सुना रहे हो' की तर्ज पर आपत्ति जतायें तो और बात है   
... टिप्पणी विकल्प खोल रहा हूँ। होली है sssss 
      



फागुन आइल आचारज जी
लागे पहेली सोझ बतियाँ आचारज जी
अरे, आचारज जी।

नेहिया ले फन्दा मदन बौराया
मदन बौराया मदन बौराया
तेल पोतलें देहियाँ आचारज जी
न खाएँ गुलगुल्ला आचारज जी
आइल फागुन लखेरा आचारज जी।

बिछली दुअरवा लगन लग घूमे
लगन लग घूमे लगन लग घूमे
ताकें हमरी रसोइया आचारज जी
न खाएँ गुलगुल्ला आचारज जी।

मकुनी औ मेवा रोटी पकवलीं
चटनी पोत बिजना परोसलीं
बरजोरी से आए आचारज जी
अरे, आचारज जी।
चटकारा ले खाएँ आचारज जी
जो देखे कोई थूकें आचारज जी।


लागल करेजा फागुन के बतियाँ
अरे भइलें अकारन चारज
हमरे अचारज जी ।
नजर बौराया नजर बौराया
अरे कहें अखियाँ अकारज
चारज भइलें अचारज जी।

 
न खाएँ गुलगुल्ला आचारज जी।

अरे आचारज जी।