शनिवार, 1 अक्टूबर 2011

बी - 4

1, 2 और 3 से आगे ...

वक्त ने तन्नी को वो नियामतें बख्शनी शुरू कर दीं जो शवाब होती हैं। वह निखरती गई। एक निराली सी शान ने उसे आ घेरा और उसकी चुटकियाँ वैसी हो चलीं जैसे कान में पाँख से गुदगुदी की जा रही हो। शाम को जब ताल पर सुनहरी चादर फैलती और बत्तखें आखिरी छ्पर छ्पर में लगी होतीं तो ओढ़नी सिर से गिराये वह उसे निहारती रहती। मुझे लगता कि मेरी दोनों बहनें ससुराल से वापस आ कर एक में समा गई हैं।

 ऐसी ही एक शाम को मैंने पाया कि बी भी मेरी मुसलमानी को लेकर तन्नी का साथ देने लगीं थीं। बात जाने कैसे थाली पर आई और तब मैंने बारह ढेरों की बात उन दोनों को बताई। मुझे अच्छी तरह याद है कि दोनों बेनूर हो गई थीं। उन्हें मेरी ग़रीबी का ऐसा अन्दाजा नहीं था। उस रात बी ने खाना नहीं खाया।

दिन भाग चले और मैं दसवीं में आ गया। वही दसवीं जिसे पास करने के बाद अली प्राइमरी की मास्टरी में लग गये थे और सिराज बर्तन के धन्धे में। असलम के वे दोनों भाई निज परिवारों के साथ दूसरे कस्बों में रहते थे और कभी कभार आते जाते रहते। छुट्टी के एक दिन बी गेट के चौखट पर देर तक बैठी रहीं तो सुल्तान मियाँ भुनभुनाये – फिर चौखट से रही है, कोई नई बात होगी। मुझे उनकी भुनभुनाहट से पूरा इत्तेफाक हुआ। उनके जाने के बाद बी ने मुझे पास बैठा लिया और पास ही चहलकदमी करती तन्नी को सिलाई पूरी करने के लिये भीतर भेज दिया। उन्हों ने बड़े प्यार से कहा – बेटा, छाँह तले दूब जैसा थेथर तिरिन भी सत्त खो देता है। अब तुम दसवीं में आ गये हो, कुछ करो धरो। कोठी की मलकिन से मैंने बात कर ली है। मारवाड़ी लोग हैं। उनके बेटे को शाम को पढ़ा दिया करो। बड़े घरों में आना जाना रहेगा तो बहुत कुछ सीख लोगे। ग़रीबी पुरानी हो जाय तो खाज हो जाती है, जिसे होती है उसे मजा आने लगता है जब कि लोग नफरत करने लगते हैं। तुम्हारी कमाई मेरे पास अमानत रहेगी।

मैंने न तो कमाई की रकम पूछी और न ही कोई और तफसील, बस हामी भर दी। बी ने खुद हजाम के यहाँ ले जाकर मेरे केश ठीक करवाये, कपड़ों को इस्तरी किया और मुँह में पान दबाये साथ लेकर कोठी जा पहुँची। ड्राइवर, नौकर चाकर, बिलैती पिल्ला वगैरह तो बाद में देखे, कोठी की विशालता से ही मैं सहम गया। यह तीसरा संसार था। पहला अपना घर, दूसरा बी का घर और तीसरा यह। अजब दुनिया थी।

 बी ने मलकिन से बस इतना कहा – रंगीबाबू रजपूत हैं। पढ़ाई में अव्वल। घर की हालत ठीक नहीं है। कोई शिकायत होगी तो मुझसे कहियेगा, इनसे नहीं। उस समय मैंने ध्यान दिया कि बी जब मुझसे बात करतीं तो बेटा और तू कहतीं लेकिन दूसरों से बात करते मेरे लिये आप का प्रयोग करतीं और नाम के आगे बाबू लगाना नहीं भूलतीं।

ट्यूशन चल पड़ी और मुझे तरह तरह की चीजें खाने को मिलने लगीं। शुरू में अपने घर की हालत सोच खाया नहीं जाता था लेकिन बाद में जब मलकिनसाहेब मुझे गठरियाँ भी थमाने लगीं तो मामला आसान हो गया। छुट्टियों में फिर गाँव जाने लगा - सिर्फ यह देखने कि चीजों का बटवारा करती बड़की माई कितनी खुश होतीं और चचेरी बहनें खाते हुये कितनी चहकतीं! मेरी देह बी का अन्न खा कर निखर गई थी। खेतों में यदा कदा पैंती कोड़ता तो सबसे आगे रहता।

मैंने और असलम दोनों ने दसवीं पास किया और असलम कारखाने में ही सुपरवाइजरी में लग गया। तन्नी के निकाह की बातें चलने लगीं। जब सुल्तान मियाँ घर में नहीं होते तो वह तूफान खड़ा कर देती – अम्मी, मुझे अभी से घर से निकाल दोगी। बी को रुलाती, खुद रोती धोती और अपने से मान भी जाती। बी को भी मनाती। उसका कारगर हथियार होता – मेरा निकाह बाबूजान के साथ पढ़ा दो। मुसलमानी में वक़्त ही कितना लगता है? गँड़ासा चला और कलमा पढ़ा, हो गया। बी अपना ग़म भूल उसे गालियाँ देंने लगतीं और असलम हँसता हुआ बाहर निकल जाता।

बारात का सारा इंतज़ाम बी ने खुद सँभाला। सुल्तान मियाँ सुरमा, मेंहदी और पान में ही व्यस्त रहे। कोठी के बगल वाली बगीची में बारात ठहरी। स्वागत से  गँवारू जन मस्त हो गये। उस दिन मैं भी एक भाई था। बी का सिलाया हुआ नया कुर्ता, बैसलेट की मरदानी और माथे पर उन्हीं का लगाया रोली तिलक। रिश्तेदार लोग कयास लगाते रहे कि यह कौन पंडत है जो भीतर बाहर सब ओर ऐसे घुसा पड़ा है। विदाई के वक़्त पर्दे की सोच मैं जान बूझ कर तन्नी से मिलने नहीं गया जिसका पछतावा मुझे आज भी है। न तो बी ने कुछ कहा और न असलम ने।

हफ्ता भर भी न बीता था कि बी फिर से चौखट सेने लगीं। मामला फिर मेरा ही निकला। उन्हों ने प्राइमरी मास्टर अली से सब मालूमात कर ली थी और मुझे भी एच टी सी यानि हिन्दुस्तान टीचिंग सर्टिफिकेट के कोर्स के लिये भेजने वाली थीं जिसे पूरी करने के बाद प्राइमरी की मास्टरी पक्की हो जाती। मैंने जब रुपये पैसे की बात उठायी तो उन्हों ने कहा – तुम्हारी कमाई है न! बेटा, पचीस पचास कमाने लगोगे तो आगे की पढ़ाई भी सुभीते से हो जायेगी, घर बैठी सही।

कत्ल का मुकदमा खत्म हो गया था। निचली अदालत से सब बरी हो गये थे और पट्टीदारों ने मामले में आगे की अपील  न करने का फैसला लिया था। घर की हालत में सुधार की गुंजाइश थी फिर भी मैंने खेतों में लगने के बजाय ट्रेनिंग में जाना तय किया जिसका घर में भारी विरोध हुआ। जमींदार घराने से प्रस्ताव आया कि उनके यहाँ बही खाता सँभाल लूँ, गाँव में रहना रहेगा और कमाई भी होती रहेगी। काका एकदम से सहमत हो गये।  भीतर बड़की माई भी यही चाहती थीं। गाँव आ कर मैं फँस गया। वहाँ रहते पन्हरइया बीत गया तो असलम गाँव आया। इस बहाने से कि तन्नी आई थी और मुझसे मिलना चाहती थी, मुझे बी के पास ले आया।

बी की आँखों में हिकारत का भाव था। तन्नी गुड़ का शरबत ले आई। आँख और हाथ चमका कर उसने इशारा कर दिया कि बी खफा थीं। शादी के बाद वह एक तरह से आज़ाद हो गई थी और सुल्तान मियाँ अब असहाय थे। वह पास ही बैठ गई।

बात उसने ही शुरू की – बाबूजान, भौजी को कब ला रहे हैं? मैं अचकचा गया और बी बिफर उठीं – चुप्प रह कलमुँही! तुम्हारे बाबूजान किसी काम के नहीं हैं। जो इंसान अपना मुनाफा घाटा न समझे, अपना भला बुरा न समझे, उसका घर न बसे तो ही ठीक।
मैंने कहा – बी, आप जो कहें, करूँगा।
बी फुफकार उठीं कि अब और क्या कहूँ तुमसे? अब तो तारीख भी निकल गई होगी! मैं बैठा असलम को घूरता रहा – क्या इसे फिर मेरे साथ जाना होगा? लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

मुझे साथ लेकर बी कोठी गईं और साहब से चिठ्ठी लिखा लाईं। चिठ्ठी लेकर अगले दिन मैं शहर गया। वह आखिरी तारीख थी लेकिन चिठ्ठी के प्रताप से मेरा सारा काम फटाफट हो गया। लौट कर आया और सारा सामान ले हॉस्टल पहुँच गया, गाँव झाँकने तक की जरूरत मैंने नहीं समझी। हफ्ते भर बाद बी सुल्तान मियाँ के साथ आ धमकीं। दो चादरें, तकिया, धोतियाँ, साबुन, कंघी, आइना वगैरह ...सब कुछ साथ ले आई थीं। जाते हुये एक और सीख दे गईं – सगों की छाँव न हो तो भी अल्ला मियाँ का आसमान रहता है लेकिन काका नहीं चूके। कुछ ही दिन बाद वे घी की गगरी और दस रुपये ले कर आये। मैंने समझा कि सब बी का किया धरा होगा। काका ने अपनों को न भूलने की हिदायत दी और चले गये।

ट्रेनिंग के दौरान कभी कभार आता जाता रहा। पूरी कर वापस आया तो बावन रुपये महीने पर कस्बे के प्राइमरी स्कूल में मास्टर हो गया। मैं फिर से बी के आँचल तले था लेकिन बी तो बी। बीते साल में उन्हों ने असलम का निकाह करा दिया था जिसमें मुझे बुलाने तक की ज़रूरत उन्हों ने नहीं समझी थी। मैंने शिकायत की तो उनका जवाब था – बेटा! तुम आकर क्या करते? टरेनिंग से तुम्हें बुलाना मैंने ठीक नहीं समझा। भौजाई से तो मिल ही लोगे। असलम शर्माता सा पास आया तो बी ने कहा – या तो रंगीबाबू के लिये कुआटर खोजो या खुद ले लो। तन्नी थी तो बात और थी। बहुरिया पराये घर से आई है, उसके घर वाले ठीक नहीं मानेंगे।

बी की इस बात पर मैं सन्न रह गया। उन्हों ने आगे कहा - बुरा न मानना बेटा! वही सिकुड़ने वाली बात है। ज़िन्दगी के कायदे हमेशा हमारी चाह से नहीं चलते। मैंने शादी करने के बाद किसी बेटे को अपने पास नहीं रखा। अल्ला का करम कि वे दूसरी जगहों पर हैं, यहाँ रहते तो भी साथ नहीं रहने देती। आदमी अपनी जमीन पर और अपनी छत तले रहता है तो ठीक रहता है। बी के इशारे साफ थे।

मैं अभी सोच में ही था कि अगले दिन उसी कॉलोनी में क़्वार्टर का प्रस्ताव मेरे सामने बी ने रख दिया। मैंने रूखेपन से जवाब दिया – बी, सोच रहा हूँ कि गाँव से ही आया जाया करूँ। थोड़ी बचत हो जायेगी तो साइकिल ले लूँगा।
राजरानी की आँखें फैल गईं – तुम्हारा घर रहने लायक भी है? उसे घर कहते हो? भितऊ घर में मेरी पतोहू रहेगी, जिसमें दिन में ही अन्धेरा रहता है! ...शरम कीजिये रंगीबाबू!

भितऊ घर! पतोहू!! बेटा के बजाय रंगीबाबू!!!  ...मैं जैसे आसमान से गिरा था। 
(अगला भाग)                                                          

8 टिप्‍पणियां:

  1. कहानी में मोड आते रहेंगे... जिंदगी है न.. चलती रहेगी..

    एक बात ओर आज नोटिस में आयी है... आचार्य की ड्राइंग अच्छी है.. लगता है पैंटब्रुश सॉफ्टवेर का इस्तेमाल कहे है...

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  2. बी का तो जवाब नहीं-पूरी छत्र छाया हैं...

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  3. वक्त ने तन्नी को वो नियामतें बख्शनी शुरू कर दीं जो शवाब होती हैं। वह निखरती गई। एक निराली सी शान ने उसे आ घेरा और उसकी चुटकियाँ वैसी हो चलीं जैसे कान में पाँख से गुदगुदी की जा रही हो। शाम को जब ताल पर सुनहरी चादर फैलती और बत्तखें आखिरी छ्पर छ्पर में लगी होतीं तो ओढ़नी सिर से गिराये वह उसे निहारती रहती। मुझे लगता कि मेरी दोनों बहनें ससुराल से वापस आ कर एक में समा गई हैं।
    ...गज़ब का वर्णन!

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  4. @ग़रीबी पुरानी हो जाय तो खाज हो जाती है, जिसे होती है उसे मजा आने लगता है जब कि लोग नफरत करने लगते हैं।
    @मुसलमानी में वक़्त ही कितना लगता है?
    @उसका घर न बसे तो ही ठीक।
    @आदमी अपनी जमीन पर और अपनी छत तले रहता है तो ठीक रहता है।
    -<>-

    दिल छू लेने वाली गाथा। बी जैसे लोग जिसका जीवन छू लें, उसकी पीढियाँ तर जायें। धन्य हैं बी और धन्य हैं कथानायक। और धन्य है वह लेखक जो ऐसी कथा को इस रोचक रूप में पाठकों तक पहुँचा सके। कुछ शब्दों के अर्थ दे दिये जायें तो सुभीता हो जाये।
    - थेथर तिरिन?
    - भितऊ घर?

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  5. अब क्या होगा , उत्सुकता हो गयी है ...
    रोचक कथा !

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  6. - थेथर - एक देसज शब्द जो ऐसे व्यक्ति या प्रवृत्ति के लिये प्रयुक्त होता है जो बार बार असफल होने पर भी वही काम करता है। नकारात्मक अर्थ या व्यंजना/लक्षणा में भी प्रयुक्त। दूब के बारे में प्रसिद्ध है कि बारह साल चील के पंख में फँसी रहने के बाद भी अगर गिरे तो थोड़ी से मिट्टी मिलते ही फिर से पसरने लगती है।
    - तिरिन - 'तृण' से बना है। खर पतवार के लिये भी प्रयुक्त होता है।
    - भितऊ 'भीति' से बना है। पुराने जमाने का ऐसा घर जिसकी मोटी दीवारें मिट्टी की होती थीं और छत छप्पर की।

    -

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