रविवार, 2 अक्टूबर 2011

बी - 5

123 और 4 से आगे ...


मेरे घर परिवार के बारे में कोई कुछ कहता तो मुझे बुरा लगता था। भले बात बी के मुँह से निकली थी, बुरा तो लगा ही। लेकिन पतोहू की उचार का अचरज उस पर भारी था। मैं पूछ पड़ा – भितऊ घर आप को असलम ने बताया क्या? पतोहू माने?
बी बोलीं – चलो, कुआटर देख आयें। रास्ते में बताती चलूँगी। क़्वार्टर ताल से लगी साइड की गली में पास ही था। साथ चलती बी कहती रहीं – बेटा, किसी ने बताया हो, उससे क्या? हक़ीक़त तो यही है। तुम अंतिम औलाद हो जिसकी शादी करनी है। तुम्हारे पढ़े लिखे से क्या फायदा जो ढंग का घर भी न हो और पतोहू को रोसनी बयार तक न नसीब हो। कह इसलिये रही हूँ कि लड़की मेरी देखी सुनी हुई है। मेरे नैहर गाँव से है।

किसी ने जैसे आँखों के सामने से पर्दा खींच दिया था। मन में सिर्फ हेडमास्टर बनना और भर पेट खाना ही भरा था। तन्नी की तमाम छेड़खानियाँ भी मन में ब्याह के लिये कोई उछाह नहीं उठा पाई थीं लेकिन बी की औलाद की शादी की चिंता और राजरानी की बहू को ढंग से रख पाने की फिकर का क्या करता? लगा कि साक्षात माई ही उलाहना दे रही थी। मैं सोच में पड़ गया।
क़्वार्टर बी के क़्वार्टर जितना ही बड़ा था लेकिन दलान थोड़ी छोटी थी। उदास मुस्कान से मैंने कहा – बी, इतने बड़े क़्वार्टर में मैं अकेला कैसे रहूँगा और यह तो महँगा भी होगा। अभी तो पहली तनख्वाह भी नहीं मिली!
बी ने कहा – तुम्हें अकेले कहाँ रहना है? मैं हूँ, असलम है, तुम्हारे घर वाले हैं – शादी होने तक भी जगह चुहुलबुल रहेगी। मलकिन ने इंतजाम किया है। तुम्हें किराया भी नहीं देना है। चाहे तुम रहो या असलम। इतना तय है कि दोनों एक जगह नहीं रहेंगे। आपस में तुम तय कर लो और हाँ! आज के बाद से मुझसे कभी रुपये पैसे की बात न करना।
 छिपा कर बी ने आँखें पोंछ ली थीं। जाने क्यों मुझे तन्नी की याद आ आई! अगर वह होती तो बी को उदास नहीं होने देती।
मैंने बस इतना कहा – बी, मेरी शादी में जल्दी न करो। उनकी बढ़ियाई आँखों में आश्वस्ति का भाव उभर आया।

कोठरी उजड़ गई लेकिन मेरे थाली गिलास वहीं रहे। अपने क़्वार्टर में मैं बस सोने ही जाता। पहली तनख्वाह देर से मिली। स्कूल से लगभग भागता हुआ मैं निकला। थोड़ी जलेबियाँ खरीदीं और बी के लिये पान बँधवा कर क़्वार्टर जा पहुँचा। सुल्तान मियाँ के पैर छुये तो उनका मुँह खुला ही रह गया। बिना उनकी परवाह किये मैंने बी के पैरों के पास पचास रुपये रख दिये और वहीं बैठ गया।                 
बी घूम कर पश्चिम की तरफ हो गईं और मेरे सिर पर हाथ फेरते हुये बोलीं  – ये रुपये अपने पास रखो। अपनी बड़की माई और काका को कल बीस रुपये दे आना। बता देना कि पहली तनखाह है और आगे भी इतना ही मिलता रहेगा। अपना खर्च काट बाकी पैसे मेरे पास जमा करते रहना।
यह वही बी थीं जिन्हों ने कुछ दिनों पहले रुपये पैसे की बात न करने की हिदायत दी थी। उन्हों ने झोला उठा लिया।
रात को खाने में मछली और बिना दूध की मीठी सिवई मिली। रोहू की पेटी परोसते बी ने कहा था – बेटा, तुम कभी ईद में नहीं रहे। मेरे कहे आज के दिन को ही मान लो। ईद में मछली नहीं खाई जाती लेकिन बबुआन तो इसे शुभ मानते हैं, सो बना दिया।

दो साल बीत गये। प्राइवेट पढ़ाई करते हुये मैंने इंटर भी पास कर लिया। बी के नाती पोतों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई और असलम मियाँ गाने के साथ साथ शेरो शायरी भी करने लगे। मेरे घर की हालत पटरी पर आ चुकी थी। एक बहन की शादी भी कर दी गई। छोटके बाबा के खानदान से बँटवारा हो गया जिसके ग़म में बड़की माई गुजर गईं। मर्दाना सँवाग के हिसाब से देखें तो चूल्हे का अइला अब केवल चार भाइयों और काका के लिये जलना था। दो भाई पहलवान ब्रह्मचारी, तीसरा मैं और अंतिम मुझसे साल भर छोटा। तीन स्त्रियों के चले जाने के बाद घर में स्त्री के नाम पर सिर्फ सबसे छोटी बेटी रह गई जो थोड़ी बम्मड़ थी। ब्याहता बहनें आतीं, चली जातीं। बमड़ी जब रूठती तो सब कुछ रहते हुये भी उपास होते। छुट्टियों में जाता तो टिबोली सुनने को मिलती - मैं मियाँ के घर सुख काट रहा था जब कि घर के लोग कष्ट में थे। हर महीने बीस रुपिल्ली भेज देने से क्या होता है?

 बी ने मेरा मान रखा था। शादी में जल्दी न करने के मेरे अनुरोध को मान कर वह जाने किस इंतज़ार में थीं। उन्हें काका ने मौका दिया। एक इतवार को जब खेती में मेरे योगदान को लेकर कहासुनी हुई तो बात घूम फिर कर घर में घरनी की कमी पर आ गई और वहाँ से मेरी शादी पर। मैंने साफ मना कर दिया। काका तड़प उठे – मस्टरवा मियाँइन की धौंस में है। कल देखता हूँ उसे भी।
शाम को लौट कर मैंने बी से बात बताई तो बजाय चिंतित होने के वह खिलखिला उठीं – बेटा, अल्ला का फजल है। उस दानी का जवाब नहीं। उन्हों ने पान थूका, कुल्ला किया और तसबीह लेकर बैठ गईं। मैं हैरान था। 
बी ने सुबह मुझे स्कूल भेज दिया और कहा कि मुझे चिंता करने की जरूरत नहीं थी। काका अगर आये तो वह सँभाल लेंगी। काका आये, सुल्तान मियाँ के साथ बी से बतियाये और बिना मुझसे मिले चले भी गये। रात में खाना खिलाते हुये बी ने इतना ही कहा – रंगीबाबू! आप के काका को सवा सौ रुपया दे दी हूँ।
मैं चौंका। फिर से रंगीबाबू! रुपये?
बी ने कौतुक भरी आवाज में कहा – बेटा, पतोहा ले आने की तैयारी है। मैं और हैरान हो गया – लेकिन आप तो कहती थीं कि...
मेरी बात को अधूरी ही काट कर बी बोलीं – पिजावा लगेगा, उसी का बयाना दिया है। रंगीबाबू की ही कमाई है। बेटा, पथानों का इंतज़ाम मियाँ जी के जिम्मे है। ईंटें निकलेंगी तो पहली खेप में बंगला बनेगा जिसमें बहुरिया उतरेगी। उसके बाद घर का पिंडा पड़ेगा।
बी, उतने पैसे कहाँ से आयेंगे?
बी ने जवाब दिया – रंगीबाबू के घर में चार चार जवान मरद हैं। किस दिन जवानी काम आयेगी? रुक कर बोलीं – मैंने तुमसे रुपये पैसे की बात न करने को चेताया था न? नहीं करते, अल्ला सब ठीक करेगा। अब तुम्हें हर छुट्टी गाँव जाना पड़ेगा और छुट्टियाँ भी लेनी पड़ेंगी।     
 हाथ जूठे नहीं होते तो मैंने बी के पाँव पकड़ लिये होते। उस रात अकेले अपने क़्वार्टर में मैं खूब रोया। सवाल उठते रहे - मैं ही क्यों? हमारा किस जन्म का नाता है? माई की याद आई और जाने कब नींद आ गई। 

सब ठीक हुआ। पिजावा के लिये बारी काट दी गई। हम चारो भाइयों ने उन कटे पुराने आमों की जगह कलमी आम रोप दिये। ईंटें इतनी मजबूत निकलीं कि छत के लिये भी चिमनी से नहीं मँगानी पड़ीं। बहनों ने बारी बारी आ कर चूल्हा सँभाला और बँगला यानि कि दुपलिया बैठका तैयार हो गया। मेरी शादी उसी लड़की से हुई जिसे बी ने पसन्द किया था। शादी में बी गाँव नहीं आईं। मुझे नासमझ बताते हुये बोलीं कि अभी तो शुरुआत है। तुम्हारे घर आऊँगी लेकिन जब मुझे मन होगा तब। बारात में सुल्तान मियाँ और असलम  दोनों गये थे। जनवासे में असलम ने सेहरा गाया था। 
               
घर बनना शुरू हुआ तो मुझे पता चला कि बी ने मेरे लिये कैसी बहुरिया चुनी थी! न सास न ससुर। मदद के नाम पर एक बम्मड़ ननद और जलन के नाम पर कान भरती सारी पट्टीदारी – बहुरिया के पैरों से अलता भी नहीं छूटा और भँड़सा चलाने लगी। नवेली ने सब सँभाल लिया। रुपये पैसे से लेकर मजदूरों के भोजन तक बरना गाँव की विमला बेटी खटती रही। रोटियों के पहाड़ के पीछे उसे देखता तो बस मुस्कुरा देती। ऊँख के दो सीजन लगे और घर चमाचम तैयार हो गया। हमारे घर और बैठके में गाँव की पहली छड़ वाली छतें पड़ी थी । जमींदार घराने में खपड़े का घर था और बैठके पर पटिया वाली छ्त थी। कर्जा चढ़ गया था लेकिन चिंता की कोई बात नहीं थी। ससुर की बोली कहूँ तो घर बोल उठा था, अब उसे कोई रोक नहीं सकता था।  ताल किनारे रहती राजरानी कोई जादूगरनी भी थी शायद!

और फिर एक दिन कसैली काटते हुये बी ने पूछा – बेटा, कुआटर में कब तक अकेले रहोगे? आखिर सास का भी कोई हक़ होता है। पतोहा के हाथ का खाना कब खिलाओगे। मेरे नैहर गाँव की बेटी है, मेरा हक़ तो और ज्यादा बनता है। एक ओर इस प्रस्ताव पर घर में मचने वाली महाभारत की सोच और दूसरी ओर यह देख कि उस समय तक बी को चौखट पर बैठे देर हो चुकी थी, मेरा दिमाग घूमने लगा। नैहर आई तन्नी ने गोद के बच्चे को बी के हाथों में सौंपा और मेरे हाथ पकड़ शोखी भरे अन्दाज में पूछ बैठी – बाबूजान! मैं भी तो देखूँ कि भाभीजान कैसी हैं जो अम्मी और बाबूजान दोनों उन पर इस कदर फिदा हैं! मैंने हाथ छुड़ाये, जर्दा लिया और फाँक कर वहाँ से भाग चला।
पीछे से तन्नी की खिलखिलाती आवाज़ आई – बाबूजान, अम्मीजान इस बार चौखट तोड़ कर ही मानेंगी। (अगला भाग)           

4 टिप्‍पणियां:

  1. सारा आलस्य धों पोछ के सुखाने के लिए रख दिया है :) ताबड़तोड़ चल रहा है बी प्रसंग! एक युग एक परिवेश एक संस्कृति साकार हो उठी है

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  2. पूरा प्रसंग रोचक लग रहा है। पहले तो धर्म भी सहन थे, अब जातियों को भी असहनीय बना लिया है।

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  3. रोचकता चरम पर है..! माँ की कृपा यूँ ही बनी रहे आप पर।

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