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एक हजार की बारात के बहाने बाउ और सुद्धन की संघर्ष गाथा जारी रहेगी - अगली पोस्ट में।
कुछ तो अपने ही रचे तिलस्म से बाहर आने की प्रबलेच्छा और कुछ प्रस्तुत कथा की प्रबलता - 'केंकड़ा' कथा लिखनी पड़ी । कई सुधी प्रशंसक बाउ से इतने प्रभावित हो चुके हैं कि वे उसके अलावा कुछ पढ़ना ही नहीं चाहते। मुझे तो अपने उपर ही खतरा नज़र आने लगा है। वैसे भी लंठ मनुष्य को बनी बनाई व्यवस्थाओं को तोड़ते रहना चाहिए और बनती हुई व्यवस्थाओं पर प्रश्नचिह्न लगाते रहना चाहिए। इसलिए केंकड़े को समय से पहले ही बाहर लाना पड़ा - यह बताने के लिए कि बाउ के अलावा भी दुनिया में लंठ हैं। बारात प्रकरण में बाउ मंडली का परिचय भी इसी प्रयास की एक कड़ी है।
चूँकि रचना प्रक्रिया में केंकड़ा बाद में आया है, इसलिए उसे अपनी औकात में रहना होगा। मतलब कि जब तक बाउ रहेंगें, इसे छोटे भाई की तरह कभी कभी ही अपना कौशल दिखाने का अवसर मिलेगा।
इस पोस्ट के माध्यम से मैं दूसरा प्रयोग करने जा रहा हूँ। आप लोगों में छिपी हुई लंठई को बाहर आ अभिव्यक्ति देने का अवसर दे रहा हूँ। इस कथा को आप पूरा करें। अगर पहले प्रयोग 'गड्ढा चर्चा' की तरह फ्लॉप शो हुआ तो मैं तो हूँ ही पूरा करने के लिए !
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(6) काल:वह समय जब सारे प्राणियों में मनुष्य के समान सोचने और समझने की शक्ति हुआ करती थी।
परम्परा: खुराफाती अवचेतन मन की
एक् लण्ठ केंकड़ा था। रातों में जब सारे साथी सो रहे होते, बिचारा बहुत मेहनत करता खुले मुँह बर्तन से बाहर आने के लिए। रोज चढ़ता और फिसल कर गिर जाता। कुछ अनिद्रा के शिकार साथी उसकी हरकतों को देख रहे होते और सुबह होते ही बात सरेआम हो जाती। सुतक्कड़ केंकड़ों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। उन्हें तभी बेचैनी होती जब कोई दैव का मारा केंकड़ा दिन में बर्तन के बाहर जाने का प्रयास करता। सभी मिल कर उसकी टाँग खींचने में लग जाते। तब तक लगे रहते जब तक कि चढ़ता हुआ केंकड़ा वापस गिर नहीं जाता।
बहुत दिनों तक ऐसा होता रहा। लंठ केंकड़े ने एक बात नोटिस की। बर्तन की दीवारें दिनों दिन और चिकनी होती जा रही थीं। चढ़ना और कठिन होता जा रहा था। लेकिन बाहर निकलने की लगन इतनी प्रबल थी कि वह लगा रहा - रातों में ही।
अचानक एक दिन सुबह बाकी सभी केंकड़ों ने देखा कि लण्ठ केंकड़ा बर्तन के मुहाने पर चलता चिल्ला रहा था . . .जारी
अभी कुछ नहीं कहूंगा, जल्दबाजी होगा। पहले देख लूं यह केंकड़ा क्या करामात दिखाता है!
जवाब देंहटाएंयूरेका ! यूरेका ! यूरेका ! लिख दूं तो कहानी यहीं ख़तम नहीं हो जायेगी :)
जवाब देंहटाएं@अभिषेक ओझा
जवाब देंहटाएंपहली पूर्ति के लिए धन्यवाद । कहानी का अंश तो वाकई खत्म हो गया। ब्रिलियांतो (brilliant)|
लेकिन यह तो कथा है - किस्सागोई शैली में। अभी बहुत कुछ शेष है। लगे हाथ कथा पूर्ति पर भी लेखनी चलाएँ।
पहले पूर्तिकार बनें बन्धु।
राम राम!!!!!!
जवाब देंहटाएंपहली बार आपके ब्लाग पर आया हूं....यहां आकर बहुत अच्छा लगा...अब आता रहूंगा.आभार.
केंकड़े के जन्म की कथा नहीं बताएंगे। अपनी माँ का शरीर ही इनका प्रथम आहार होता है। ये वहीं से अपनी चाल चिन्हाते हैं। इसलिए हे कथाकुलदीपक, आप अपनी मखमली कथा में हमारी टिप्पणियों रूपी टाट के पेबन्द की अपेक्षा न करते हुए अपनी किस्सागोई को अबाध गति से आगे बढ़ाएं।
जवाब देंहटाएंकेकडा के बहाने कई निहितार्थ सधेंगे.
जवाब देंहटाएंकेकडा कौन ?
जवाब देंहटाएंकेंकड़ा के बहाने क्या बहुत कुछ कहने जा रहे हैं आप !
जवाब देंहटाएंअभी तो केंकड़ा की समझ बना रहा हूँ इस छोटी-सी प्रविष्टि से ।
सुबह होते ही केकडा चिल्लाया देखो मैं तो ऊपर आ ही गया...यानि टांग खींचने वाले भी कभी न कभी ता चूक करबे करते हैं...बस चढ़ने वाले को अपना प्रयास जारी रखना चाहिए और ऐसी रातों का इन्तजार करना चाहिए ..
जवाब देंहटाएंकेकडा अपने सगोतियों पर चिल्लाया, अगर तुमने मुझे रोक लिया होता तो मैं इस गंग-चिल्ली का आहार न बनता. तभी चार-पांच चिदियें घडे पर टूट पड़ीं और सबसे आलसी केकड़े को छोड़ बाकी सब को खा गयीं.
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