बुधवार, 26 अगस्त 2009

इस मोड़ से जाते हैं...


67 साल के वृद्ध मनोहर नाथ रैना के चेहरे पर विस्थापन की प्रगाढ़ पीड़ा पसर जाती है। दो दशकों की स्मृतियाँ भागती सी वापस आती हैं। आँखें नम हो जाती हैं और स्वर भावना ज्वार में घुट सा जाता है। उफान को नियंत्रित करने के साथ ही वह खुलते हैं,”मेरी शरीर यहाँ है लेकिन मैंने अपनी आत्मा अपने कश्मीरी गाँव के चिनार के वृक्षों पर छोड़ रखी है।“
सेवानिवृत्त प्रधानाध्यापक श्री रैना कश्मीर लौटना चाहते हैं लेकिन उनके इस गृह राज्य में स्थिति अभी भी बहुत अनिश्चित और जोखिम भरी है। श्रीनगर से 19 किलोमीटर दूर गाँव कनिहामा में उनके खेत और हवेली है। लेकिन आज वह दिल्ली के उपनगरी इलाके द्वारका के मलिन से एक कमरे के फ्लैट में रहते हैं। रैना कहते हैं,“मैं अपनी मृत्यु से पहले एक बार अपने गाँव को देखना चाहता हूँ।“
रैना की तरह ही दूसरे शरणार्थी कश्मीरियों, जिन्हों ने भय के कारण अपनी धरती हड़बड़ी में छोड़ दी, की भी यही इच्छा है। 1980 के उत्तरार्ध में यह पलायन प्रारम्भ हुआ जब सीमा पार से प्रशिक्षित हो कर आए स्थानीय आतंकवादियों ने कश्मीरी पंडितों को अपना निशाना बनाया। बहुतेरे पंडित मारे गए। जो बच गए उन्हों ने पलायन किया। जम्मू की झोपड़पट्टियाँ और जर्जर ढाँचे ही उनके नए घर हो गए।
सुरक्षित होते हुए भी जम्मू में कोई आश नहीं थी। कुछ वर्षों के भीतर ही दूसरा बहिर्गमन करना पड़ा। बहुतों ने उत्तर भारत के दूसरे नगरों की ओर रुख किया। रैना ने भी यही किया। उनके दो बेटे अपने परिवारों के साथ दिल्ली आए और बलबीर नगर के शरणार्थी शिविर में पनाह लिए। चार साल पहले दिल्ली सरकार ने रैना को द्वारका में एक कमरे का फ्लैट अलॉट किया।
विस्थापित कश्मीरियों के एक संघटन कश्मीरी सभा के प्रमुख भारत भूषण बताते हैं,” हम पंडित बहुत पढ़े लिखे हैं। लेकिन हमारे पास काम नहीं है। बहुत पहले हमारे घर छीन लिए गए और अब बिना काम के हमारे युवा निराशा में हैं। यदि सरकार हमारी मदद करना चाहती है तो उसे आर्थिक रूप से पिछड़े हमारे युवाओं को काम देना चाहिए।“
आज के बेकार भूषण कभी घाटी में एक फलते फूलते व्यवसाय के मालिक हुआ करते थे। विस्थापन के प्रारम्भिक दिनों में दिल्ली की जिस कम्पनी में वह काम करते थे वह बन्द हो गई। एक लम्बे संघर्ष के बाद उन्हों ने दूसरी जगह काम पकड़ा। लेकिन मन्दी के प्रकोप के कारण छँटनी किए जाने वालों में वह पहले थे। कश्मीर लौटना उनकी तात्कालिक प्राथमिकता नहीं है। बेटे के स्कूल की फीस अब उनकी पहली चिन्ता है।
हर शरणार्थी कैम्प की यही रामकहानी है। उच्च शैक्षिक स्तर और कुशाग्र बुद्धि के कारण कभी कश्मीर की सरकारी नौकरियों में पंडितों की धाक थी लेकिन आज नहीं रही। पलायन के प्रारम्भ में वहाँ सरकारी नौकरियों में 15000 से अधिक पंडित थे। दो दशकों के बाद यह संख्या घट कर मात्र 3000 रह गई है। पंडितों के पुनर्वास हेतु काम करते संघटन पुनुन कश्मीर की मानें तो केवल 400 पंडितों के पास सरकारी नौकरियों के लिए प्रस्ताव हैं।


कश्मीर से विस्थापित चार लाख पंडितों में से ढाई लाख जम्मू के शरणार्थी शिविरों और किराए के घरों में रहते हैं। एक लाख दिल्ली और उत्तर भारत के बाकी नगरों में रहते हैं। बहुतेरे अपनी भूमि पर लौटना चाहते हैं और पनुन कश्मीर के पास इसके लिए उपाय है। इस संघटन ने इसके लिए सरकार को एक विस्तृत योजना सौंपी है। इसके अनुसार कश्मीर के एक भाग को संघ शासित क्षेत्र घोषित कर वहाँ पंडितों को बसाया जा सकता है। पुनुन कश्मीर के उपाध्यक्ष उत्पल कौल बताते हैं कि कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास की अधिकतर योजनाएँ सरकारी कार्यालयों में धूल खा रही हैं। सरकार हमेशा वादाखिलाफी करती है। यह हमारे घर और जमीन लौटाने की बात करते हुए भी आतंकवादियों को संरक्षण देती है।
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(विशेष रिपोर्ट : अनिल पाण्डेय, ‘संडे इंडियन मैगज़ीन’, मूल अंग्रेजी लेख)
दित्य राज कौल के लेख से ब्लॉग लेखक द्वारा अनुवादित
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आभार: 'संडे इंडियन मैगज़ीन, अनिल पाण्डेय और आदित्य राज कौल'

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15 टिप्‍पणियां:

  1. अभी तक इनके लिए न जाने कहां है ईश्वर का न्याय।

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  2. दुखद! हम असहाय से केवल संवेदना जता पा रहे हैं!

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  3. यह है स्वतंत्र भारत की सच्ची तस्वीर !

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  4. महत्वाकाँक्षी राजनीतिक फ़ैसले लेने वाले यह क्यों नहीं सोचा करते कि,
    इससे कितने परिवार, गाँव और शहर प्रभावित होंगे, और इन फ़ैसलों की धधक
    कितनी पीढ़ीयों को परेशान करती रहेगी ?

    सकल विश्व में विस्थापन का इतिहास देखें, उसके पीछे एक व्यक्ति ही उत्तरदायी होता है ।

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  5. गिरिजेश जी, अरविंद जी आपके बारे में अक्सर चर्चा होती रहती है। वैसे मैं आपके ब्लॉग पर भी आता रहा हूं। आप अपने ही शहर में यह सोच कर अच्छा लगता है। कभी समय मिला, तो मुलाकात होगी।
    -Zakir Ali ‘Rajnish’
    { Secretary-TSALIIM & SBAI }

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  6. और यह उस देश का हाल है जहां प्रधानमन्त्री नेहरू खानदान के या उसकी बदौलत होते रहे हैं।
    दुखद।

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  7. हम लोग तो दुखद ही कह सकते हैं बहुत बडिया आलेख है अभार्

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  8. अपने ही देश में विस्थापितों का जीवन व्यतित करना हमारे नेताओं की तुष्टिकरण की पराकाष्ठा ही कही जाएगी।

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  9. धर्म से हिन्दु, जाति से पंडित, प्रांतीयता कश्मीरी - संवैधानिक प्रोटैक्शन की किसी भी श्रेणी में तो नहीं आते।

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