मंगलवार, 18 अगस्त 2009

बाउ मण्डली और बारात एक हजार - प्रसंगांत

पिछ्ले भाग से जारी . . .
दिन की घनी छाई अन्हरिया जैसे खत्म हो गई हो - बजनिओं के मेठ नोखे ने चैती छेड़ी। फिर कहरवा, फगुआ और कजरी की धुनों ने खलिहान पर बारहमासी बयार बहा दिया। समधी भात खाने चले थे।
दुल्हन के घर की ओर समधी के साथ प्रस्थान करते नोखे ने सोहर धुन शुरू की। अष्टभुजा नहा धो वस्त्र बदल कर साथ हो लिए।
कृषक बाला के आँगन में खेलते नन्हें नन्हें छौनों की सम्भावना से नाहरसिंह गुलगुल हो गए। गाछे कटहर ओठे तेल - भीतर की सारी कटुता और अभिमान भूल मन ही मन नोखे की धुन पर सोहर गाने लगे।
कहवाँ से आवेला पियरिया ललना ss पियरी पियरिया लागा झालर हो s
कहवाँ से आवेला सिन्होरवा सिन्होरवा भरल सेनुर हो ललना ss
नैहर से आवेला पियरिया ललना ss पियरी पियरिया मोती झालर हो s
ललना ससुरा से आवेला सिन्होरवा सिन्होरवा भरल सेनुर हो ललना ss
कहवाँ धरबे पियरी पियरिया लागा झालर हो ललना ss
कहवाँ धरबे सिन्होरवा सिन्होरवा भरल सेनुर हो s
पेटिया में धरबे पियरिया ललना पियरी पियरिया लागा झालर हो ss
कोहबर धरबे सिन्होरवा सिन्होरवा भरल सेनुर हो ललना ss
फाटि चुटि जैहें पियरिया ललनाss पियरी पियरिया लागा झालर होs
जुगे जुगे बाढ़ो सिन्होरवा सिन्होरवा भरल सेनुर हो s, ललना ss।“
धुन सुनते मिसिर जैसे बाउ को सोहर का भाष्य सुना रहे थे – “देख ss , सोहर में नइहर के पियरी के फटहा बना देहल बा लेकिन ससुरा के सेनुर त सोहाग ह । वोके जुग जुग बढ़ावल बा। गुलरि के फूल परि गइल बा का? अरे, सोहाग हे।(1)“
बाउ,” हूँ ss। सारे ए बेरा बजाई कबो सोचलो नाहीं रहलीं हे। नीक लागता।(2)“ मिसिर गमछा सँभालते और बाउ को पीछे छोड़ते विवाह के घर की ओर झड़क चले।
झलकारी ने बाजा की आवाज सुनी तो भाग दौड़ शुरू करा दीं। खलिहान काण्ड की खबर उन्हें लग चुकी थी। लेकिन बनमानुख बेटे पर भरोसा था. .
“समधी आवतने। जल्दी कर सो।(3)” उनकी जल्दी को कोसती बालाएँ काम में लग गईं।
(व)
झिनिया चावल का महर महर सुगन्धित भात, घी से बघारी अरहर की दाल, दहिबाड़ा, रिंकवच, सजाव दही, बरी कढ़ी, अँचार, चटनी, करैली, पाकल कोंहड़ा, केला और परवल की सब्जियाँ – यह थे मिसिर के बारह व्यञ्जन।
सब्जियों का चयन मिसिर की पाककला के ज्ञान का परिचायक था – करैली (तीत), पाकल कोंहड़ा (मीठ), केला (कसैला) और परवल (सुन्न) जैसे जीवन के चार रसों के परिचायक थे। समधी को सूक्ष्म सन्देश , हमारी बेटी तुम्हारे परिवार में सभी रस भर देगी, इस भात की शपथ उसकी बेकदरी न करना।
नाहरसिंह ने मंडप की गाँठ खोली और हिला कर स्थिर कर दिया। सम्बन्ध पक्का हो गया। सगोतियों के साथ खाने बैठे तो बगल में अष्टभुजा बाबा भी आकर बैठ गए। ब्राह्मण राजपूत के साथ पंक्ति में! सभी संकोच में आ गए। बाबा बहके,” रजा बाभन अगिनमुख होलें। अरे, हमार तोहार गोत्र त एके ह। साथे नाहिं बइठब त गारी कइसे सुनSब?(4)”। मिसिर ने सहमति में सिर हिलाया। आँखों में शरारत नाच रही थी। उधर परोसना शुरू किए और इधर भीतर से अंचरा से मुँह ढाँप झलकारी देवी ने आलाप लिया:
कंचन मड़वा बिसकरमा बनवलें भात रचली अनपुरना हे
बइठीं समधी दशरथ जी पिढ़इया जनि करिं मन काठ हे........
स्वर्ण मंडप विश्वकर्मा से बनवाया है। अन्नपूर्णा से भोजन रचाया, हे राजा दशरथ भोजन करने के लिए पीढ़े पर बैंठें लेकिन काठ के आसन पर बैठ मन को काठ न करें।“ ओरहन को समझ और खलिहान की घटना याद कर नाहरसिंह लजा कर रह गए।
बेटी की माँ। आँखों से गंगा जमुना बह रही लेकिन रीत तो निभानी है। सुरसतिया की माई ने बोल उठाए:
ओरियन ओरियन बइठे बरियतिया
मुहवाँ झुरइले ए बेटी नयना बहे लोरिया
केकरा के सौंपी ए समधी अपनी पुतरिया
हँसेलें समधी दशरथ जी
हमरा के सौंपि ए समधिन अपनी पुतरिया
रहिया खियइबे समधिन पाकल पनवा
घरवा पिअइबे सुरहिया गाइ के दुधवा
रउरा पुतरिया ए समधिन हमरे घर के लछमिनिया
हमरा के सौंपि ए समधिन अपनी पुतरिया।
युगों युगों से चले आ रहे उलाहने के स्वर। राजा दशरथ तुमने तो बहुत वादे किए थे। राह चलती पतोहू पान खाएगी इसका तक खयाल रखा था, लेकिन निकाल दिया न चौदह साल के लिए ! मेरी बेटी सीता को याद कर रो रही है समधी। कैसे तुम्हें सौंप दूँ अमानत? तुम भी तो उसी दगाबाज दशरथ की श्रेणी के हो।
बाउ का गला भर आया। नाहर मन्डली चुपचाप मिसिर का बनाया स्वादिष्ट भोजन भकोस रही थी।
मिसिर ने भारीपन महसूसा तो लकार लगाई,” अरे, गरियो शुरू होखे।(5)“
झलकारी देवी ने उत्तर सा दिया।
जेवन बइठेलें समधी राजा दशरथ बोलेलें सकुचि लजाइ जी
भितरा से समधिन हमरा के देखीं हम रउरा मेहमान जी
अँगना से बोलेलें राजा जनक जी अदला के बदला न लजाइँ जी
दशरथ - अरे समधिन हम तुम्हारे मेहमान हैं। थोड़ा हमरी ओर भी नजरिया हो। आँगन से जनक जी उत्तर दिए ,लजाना मत । अदला बदली होगी।“
राजा दशरथ उर्फ नाहर सिंह और राजा जनक उर्फ पँड़ोही सिंह घरैतिनों की अदला बदली करेंगे ! बाउ को इस सम्भावना से ही गुदगुदी हो चली – अच्छे भइल बियाह नाँइ कइनी(6)। उसी रौ में मिसिर को इशारा किए । दही परोसते मिसिर ने अचानक तउला पटका और कछाड़ बाँध दुसह गारी गायन कढ़ा दिए। बेटे हरिहर ने बाप का यह रूप देखा तो हतप्रभ सा लजाते हुए दुआरे भाग गया।
सब सखियाँ मिलि जेवना परोसें हो
समधी बिगड़ल बैला हाय सीताराम से बनी।
अरे समधी तो बिगड़ा बैल है, उसे सुन्दरी सखियाँ मिल व्यञ्जन क्यों परोस रही हैं?
वृद्ध गरिमामय मिसिर का यह रूप ! न तो नाहर ने सोचा था और न अष्टभुजा ने। बिचारे खिसियाए से मजे लेने लगे। मिसिर तो झगड़ालू फूआ की भूमिका पूरी करने पर आमादा थे। एक के बाद एक गालियाँ निकलती चली गईं:
समधी के बहिना के तीनि गो भतरवा
भरवा, कोंहरा, सोनरा हाय सीताराम से बनी
समधी ने अपनी बहन ऐसे दरिद्र घर ब्याही है कि उसका भरण पोषण करने के लिए तीन तीन भतार लगे हैं – वो भी कौन? भर, कुम्हार और सोनार। अब तो सीताराम ही बिगड़ी बना पाएँगे“
कटाक्ष गजब का था ! उपर से एक पुरुष को यह सब गाता कभी देखा ही नहीं था। नरसिंघवा मगन हो गया।
मिसिर बउरा गए थे। हाथ चमकाते अगली फुलझड़ी छोड़ी,
समधी के भगिना दबले बा जोबना
सुतल रहली खरिहाने, रचना राम से बनी।
समधी की बहन यौवन भार से दबी इतनी बौरा गई है कि खलिहान में सोती पाई गई है। ऐसी रचना भी विधाता ने इसके घर ही रचाया ।“ राजा दशरथ तुम्हारी कोई बहन भी थी क्या?
मार मुधइ के, बाबा त मउगा बानें(7) - बुढ़ऊ के इस अन्दाज पर नारियाँ भी मुँह दबाए भीतर भाग चलीं। बाउ ने हाथ पकड़ चेताया तो मिसिर चुपाए। अष्टभुजा की गारी सुनने की पिपाशा तृप्त हो चुकी थी। डकार लेते उठ गए।
विदाई के रूप में बाउ ने नाहरसिंह के हाथ में अपनी भुअरी भैंस का पगहा पकड़ा दिया। नरसिंघवा नाम जेहन से गायब हो चुका था। नाहर से इनकार करते न बना। हाथ जोड़ कर बाउ बोले,” कहल सुनल माफ कइ दीं। रउरे बहिन के खयाल राखब । गाँव के दुलारी रहलि हे . . .”(8)। आगे मारे भावुकता के कुछ बोल न पाए।
(श)
लोचना फिर बोलने लगा था। लेकिन नाहरसिंह के पास उसकी सफाई सुनने वाला मन ही नहीं रहा . . आने वाले छोटे छोटे छौनों की किलकारी को मन के आँगन में बसा रहे थे। . . .बरस भितरे पहले की आस थी। नाती ! .. हाथी गए हाथीशाला की ओर। घोड़े दौड़े घुड़साल। बारात विदा हो गई।
(ष)
परछावन और खोंइछा की रस्म पूरी हुई । उस समय आम तौर पर पाया जाने वाला अनासक्त वातावरण गायब था।
बुढिया काली माई के स्थान पर गमगीन भींड़। गाँव जवार से उखड़ती बेल दु:ख के सहारे लिपट विलाप कर रही थी ! बिदाई के समय का रूदन, सुरसतिया ने किसी को नहीं छोड़ा। रुला दिया सबको। रूदन ने कारुणिक लय ले ली थी:
अरे ए हमार बहिना ....अरे ए हमार भइया...
काका, केकरा खातिर टिकोरवा तू तूरब . .
काकी तोहार बरवा के झारी
के तोहार ढेंका चलाई...(9) हो अ ह ह हँ....
रोते हुए पँडोही ने बेटी को दुल्हे के साथ पिनिस में बिठाया। कहाँरों ने पिनिस उठाया कि अचानक दहाड़ मारती भइया भइया करती सुरसतिया कूद कर बाउ से लिपट पड़ी। औरतों ने सँभाल कर वापस चढ़ाया। फूट फूट कर रोते बाउ ने मुँह में गमछा ठूँसा और पोखरे की ओर भाग चले।
निबिया के पेंड़ जनि कटिह हो बाबा चिरइया खोतवना झोंझ हे ss,
भइया के जनि कुछ बोलिह हो बाबा, भइया बड़ी बरजोर हे ss
नीम के पेंड़ पर रहने वाली चिड़िया, उसके घोंसले और भइया के जिद्दी स्वभाव के बारे में बाबा को चेताती बेटी विदा हो गई। लगे हाथ दुआरे की नीम को न काटने का अनुरोध भी करती गई। सावन में आने पर झूला जो झूलना था ! हर घर का एक सदस्य कम हो गया। घरघुमनी जो चली गई थी।. . .
(ह)
सोहर मंत्र पढ़ते मानव प्रेत ने कट चुके ‘पोखरा पर के बाबा’ की जगह आँसुओं से सींच एक शीशम रोप दिया। मन्नत सी माँगी, बाबा गाँव की सब बेटी बहिनों को सुखी रखना !
पोखरे का तिलस्म टूट गया। जलप्रेत खत्म हो गए। अब बेटियाँ वहाँ पिंड़िया दहवाने जाती हैं। (प्रसंगांत)
अगला अंक – बित्तन बाबा
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लण्ठ महानिष्कर्ष: संकट से निपटने में सफलता त्वरित गति से सही दिशा में उठाए गए सही कदम पर निर्भर करती है। 'सही' का निर्धारण व्यक्ति के भीतर विद्यमान सनातन लण्ठई की मात्रा और उसकी बेवकूफी के अनुपात से होता है।
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अनुवाद:
(1) देखो, सोहर में नैहर की पियरी को फटा हुआ बताया गया है। लेकिन ससुराल का सिन्दूर तो सुहाग है सो उसे युगों युगों तक बढ़ता बताया गया है। जैसे सिन्होरा में गूलर का फूल पड़ गया हो – कभी खत्म नहीं होने की नियति लिए।
(2) साला इस समय बजाएगा सोचा ही नहीं था। अच्छा लग रहा है।
(3) समधी आ रहे हैं। तुम लोग जल्दी करो।
(4) राजा, ब्राह्मण अग्निमुख होते हैं। हमारा तुम्हारा गोत्र तो एक है। साथ नहीं बैठूँगा तो भोजन करते गाली गायन का आनन्द कैसे उठाऊँगा।
(5) अरे, कोई गाली भी शुरू करो।
(6) अच्छा हुआ जो मैंने विवाह नहीं किया।
(7) मुँह पकड़ कर मारो (औरतों का निजी गालीनुमा तकियाकलाम)। बाबा तो मउगा हैं।
(8) कहा सुना माफ करिए। आप बहन का खयाल रखिएगा। सारे गाँव की दुलारी है।
(9) काका किसके लिए तुम अमिया तोड़ोगे? काकी कौन तुम्हारे केश सँवारेगा और कौन तुम्हारा ढेंका (अनाज से छिलका निकालने और साफ करने का एक देहाती घरेलू यंत्र ) चलाएगा?
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शब्द सम्पदा:
मेठ – नायक; झड़क चलना – तेजी से चलना; झिनिया चावल – महीन चावल जिसे हमारी ओर काला नमक के नाम से जाना जाता है – धान काला होता है। वैसा सुगन्ध, स्वाद और रूप बासमती में क्या मिलेगा?; चैती – चैत के महीने में गाया जाने वाला ग्राम गीत;
गुलगुल – परमानन्द की स्थिति; गाछे कटहर ओठे तेल – एक भोजपुरी कहावत, पेंड़ में तो कटहल अभी लगा ही है। फल खाने के लिए अभी से होठों पर तेल लगाए बैठे हो ?; पियरिया – शुभ पीला वस्त्र; सिन्होरवा – सिन्दूर रखने का लकड़ी का बना पात्र; भात – पका हुआ चावल; रिंकवच - गहरी हरी अरबी के पत्ते को बेसन लपेट बनाई गई पकौड़ी; सजाव दही – उपले की आँच पर जला कर गाढ़े किए दूध से जमाई गई दही; पाकल कोंहड़ा – पका हुआ मीठा कद्दू; मीठ – मीठा; तीत – कड़वा; सुन्न – उदासीन स्वाद वाला; अँचरा – आँचल; ओरहन – उलाहना; तउला – दही जमाने का बड़ा मिट्टी का पात्र; कछाड़ – धोती को उपर उठा कस कर बाँधना; परछावन – दुल्हे की लोढ़ा (सिलबट्टा का बट्टा)से विदाई के समय की जाने वाली परीक्षा जिसमें नारियों द्वारा मंगल कामना और विदाई की जाती है; खोंइछा – दुल्हन की ओढ़नी में बाँधा जाने वाला मंगल अक्षत और धन; पिनिस – एक प्रकार की बड़ी पालकी जिसमें लम्बी यात्रा को काटने के सारे सुख साधन होते थे। सोलह कहाँर उठाते थे; पिंड़िया दहवाने – गोवर्धन पूजा के गोबर से बनी पिण्डिओं से लड़कियाँ महीने भर पूजा करती हैं। मन्नते माँगती हैं। बाद में जल में प्रवाहित कर देती हैं।


13 टिप्‍पणियां:

  1. अब आप रचनाकर्म में पूरी निष्ठुरता से प्रवृत्त हो गए हैं -रुला दिया न सुबह सुबह !
    आँखों में बरबस आँसू या तो रामचरित मानस पढ़ते हुए आये है या अब आपका यह बाऊ चरित रुलाने लगा !

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  2. मन कर रहा है, बाउ की कथा का अंत ही न हो ।

    विदाई -प्रसंग का जीवंत चित्र । कारुणिक । आभार ।

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  3. "निबिया के पेंड़ जनि कटिह हो बाबा चिरइया खोतवना झोंझ हे ss,
    भइया के जनि कुछ बोलिह हो बाबा, भइया बड़ी बरजोर हे ss
    "
    विदा होती बेटी की पुकार कानों में ऐसे गूँज रही है जैसे हम वहीं कहीं मौजूद हों। मिसिर की पाक कला की तरह जैसे यह कहानी भी जीवन के सभी रसों से भरपूर है। यह सुखान्त सुनाकर आप तो छा गए महाराज! तारीफ़ करने को शब्द नहीं हैं।

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  4. अनेक भव्यताओं से परिपूर्ण समापन पोस्ट। विदाई के भावनात्मक प्रसंग को आपने बहुत खूबी से निभाया। यह रचना आपकी एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है, बधाई।

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  5. मुझसे यह प्रसँगकथा अनदेखी क्योंकर रह गयी,
    यह देख ग्लानि हो रही है, आँचलिक साहित्य का अनमोल ख़ज़ाना है यहाँ !
    भई वाह.. भई वाह !

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  6. ब्राह्मन को तो यह पसन्द आया - झिनिया चावल का महर महर सुगन्धित भात, घी से बघारी अरहर की दाल, दहिबाड़ा, रिंकवच, सजाव दही, बरी कढ़ी, अँचार, चटनी, करैली, पाकल कोंहड़ा, केला और परवल की सब्जियाँ – यह थे मिसिर के बारह व्यञ्जन।

    इतना सब खाने का जोर शायद न हो, पर सब बना देखना चाहता हूं।

    ओह, न्योता की पूड़ी खाये भी युग बीत गया। अब सुना है पांत नहीं बैठती। बफे होता है!

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  7. शायद बाकियों की तरह वैसे कथा-रस की मुझे उपलब्धि नहीं हुई क्योंकि मैं इन शब्दों के सौन्दर्य से इतना हतप्रभ था जैसे कोई लगभग अपरिचित सी फूलों की घाटी में अपने को पाकर विस्मित सा खडा रहे.
    भाई इस रेगिस्तानी मन में नखलिस्तान उगा गए!

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  8. बहुत ही अच्छा लगा, खास तौर पर उन पुराने बिसराये विवाह गीतों से युं लगा जैसे किसी विवाह से ही होकर आया हूं. लगता है कि माँ के गाये गीतों को बडे ध्यान से सुना है. काश इन सभी गीतों की आडियो रिकार्डिंग बन पाती............
    अपने गाँव और परिवेश को पुनर्जीवन देने के लिये साधुवाद!

    उम्मीद है कि आलस्य हाबी नहीं हो सकेगा...........

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  9. सुरसतिया तो बिदा हो गई हम सबको रूला कर । लेकिन बाऊ की विदाई हम सह नहीं पायेंगे । कृपा करके महालंठ की चर्चा जारी रखियेगा ।
    इसी बहाने कुछ लंठई हम भी सीख रहे हैं ।

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  10. आपने तो अपने क्षेत्र की तीन दिन वाली बारात के डाक्यूमेन्टेशन का कार्य पूरा कर दिया। गजब का चित्र खींचा है आपने। साधुवाद।

    अबसे पचास साल बाद की पीढ़ी इसे पढ़कर और जानकर दाँतों तले अंगुली दबा लेगी। महानगरीय बच्चे तो अभी ही हैरत में होंगे।

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  11. क्या क्या याद दिलाते हैं आप भी. और क्या लय में... निशब्द हो गया हूँ मैं तो.

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  12. निशब्द हो गए साहेब..... कुछ कहने को नहीं बचा. याद नहीं आ रहा कब इतना आंचलिक उपन्यास पढ़े थे..... कुछ याद नहीं आ रहे........

    मुझे नहीं मालूम .... आप का profile क्या है और इस रहस्यमई जीवन को जीने के लिए क्या तरीका अपनाया है......
    पर आपमें बहुत कुछ है जो सामने आ रहा है.... मैं नहीं समझता की 'ब्याह प्रसंग' के बहाने और इससे अच्छा कोई आंचलिक उपन्यास हो सकता है.......


    ईश्वर की आप पर बहुत कृपा है....... विधाता आपको और शक्ति दे बस इसी कामना के साथ - दीपक डुडेजा

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