सुद्धन ने शुरू किया,
“विष्णु भगवान समान वर की मंगल कामना के साथ ही मैं, सदानन्द, सभाजनों का अभिवादन करता हूँ। एक सम्मोहनकारी प्रस्तुति के लिए वर पक्ष को धन्यवाद।
क्या हम यहाँ प्रस्तुति के लिए इकठ्ठे हुए हैं? यदि हाँ तो फिर नर्तकियों की क्या आवश्यकता?”
महेशानन्द की भृकुटि पर बल पड़ गए। आदमी खतरनाक है। अपने पीछे बैठे जवान से उन्हों ने कुछ कहा। सुद्धन कहते चले गए,
“मरजाद के दिन की यह सभा शिष्टाचार कहलाती है। उद्देश्य होता है दो अजनबी परिवारों और उनके सम्बन्धियों, हितैषियों का आपसी परिचय और वर वधू दोनों पक्षों की मंगल कामना। दो अनजान इलाकों का आपसी नेह नाता बनता है। गाँव का नाम लेने पर लोग कहते हैं , अरे, वहाँ तो फलाने का समधियाना है – अजनबी गाँव विशिष्ट हो जाता है।
रावण कृत स्तोत्र इस आयोजन में कैसे प्रासंगिक है? राधा कृष्ण, शिव पार्वती या अन्य लोक पूजित देवी देवताओं के वर्णन और उनके निहायत ही व्यक्तिगत और पारिवारिक नोंक झोंक के संस्कृत श्लोकों के द्वारा मंगल कामना की परम्परा रही है। क्यों? इसलिए कि ये देवी देवता उच्च होते हुए भी कहीं हमारे अपने से लगते हैं – समर्थ मित्रों से। जिनकी हम खुशामद भी करते हैं और जिनसे ऐसी छूट भी ले लेते हैं कि घर का बेटा बीमार हो तो ठाकुर शालिग्राम पानी में तब तक डुबो दिए जाते हैं जब तक कि रोगी ठीक न हो जाय। यह ग्रामीण आर्य की भाव भूमि है। इसकी तुलना में रक्ष परम्परा!..”
सुद्धन रुके ‘रक्ष परम्परा’ शब्द का प्रभाव देखने के लिए। चोट सही लगी थी।
“रक्षपरम्परा – पशुवत भोग और उनके साधन जुटाने के लिए उपासना । राक्षसों की वन्दन परम्परा चाहे कितनी ही नादयुक्त हो, इस अवसर के उपयुक्त नहीं। यह मंगल जैसा लग सकता है लेकिन भोग साधन जुटाने के लिए की गई चापलूसी ही है – राक्षसों की वृत्ति । यदि आप असहमत हैं तो अनुवाद कर के बताऊँ?”
“ आप बैठ जाइए” वर पक्ष से किसी ने पीछे से आवाज दी। “प्रलाप कर रहा है” – महेशानन्द गरजे। न जाने कितनी आवाजें आने लगीं – बैठ जाइए। “बइठ, बहुत बकधुन क लिहले (बैठो, बहुत बकवास कर लिए)।”
सुद्धन ने बाउ की ओर देखा। बाउ खड़े हुए। आँखें लाल। वही पाताल से आती आवाज,
“तोहनी के हड़हड़ भड़भड़ नगारा हमनी के केतना चुप से सुनली हँई। रउरे पाछ्न त बड़ा छिछोर बानी जाँ। अरे उ कहतने तो कबो खत्मो करिहें। रउरा पाछन के मौका मिली आपन बात कहे के। उनके सून त ली जाँ (आप लोगों के नगाड़े की भड़ भड़ हमलोगों ने कितनी शांति से सुना। आप लोग तो बड़े छिछोरे निकले। अरे, वह कह रहे हैं तो कभी खत्म भी करेंगे। आप लोगों को भी अपनी बात कहने का अवसर मिलेगा। उनको सुन तो लें)।“
पखावज नगाड़ा तो उसका स्वर, हड़हड़ भड़ भड़ और शांतिपूर्ण श्रवण! अष्टभुजा बाबा को हँसी आ गई। सदानन्द की व्याख्या विशुद्ध वितण्डा ही थी लेकिन एक नई दिशा में तथ्य लिए हुए। खड़े हो उन्हों ने वर पक्ष से उठते कोलाहल को शांत किया।
महेशानन्द की भंगिमा देख उन्हों ने चुनौती प्रस्तुत की। “ठीक है आप मंगल पढ़ें – शिव पर ही होना चाहिए। देखें आप की ‘पारिवारिक’ मंगल कामना कैसी है?”
सुद्धन ने हरिहर को इशारा किया।
“रामाद् याञ्चय मेदिनिम् धनपते बीजम् बलालांगलम्।
प्रेतेशान महिष: तवास्ति वृषभम् त्रिशूलेन फालस्तव।
शक्ताहम् तवान्न दान करणे, स्कन्दो गोरक्षणे।
खिन्नाहम् तवान्न हर भिक्ष्योरितिसततं गौरी वचो पातुव:।
पार्वती जी शंकर जी को उनकी दरिद्रता पर उलाहना दे रही हैं। आप का भिक्षाटन ठीक नहीं है इसलिए आप भगवान राम से थोड़ी सी भूमि, कुबेर से बीज और बलभद्र से हल माँग लीजिए। आप के पास एक बैल तो है ही, यमराज से भैंसा माँग लीजिए। त्रिशूल फाल का काम देगा। मैं आप के लिए जलपान पहुँचाऊँगी। कार्तिकेय पशुओं की रक्षा करेंगे। खेती करिए, आप के निरंतर भिक्षाटन से मैं खिन्न हूँ। इस प्रकार कहते सुनते भवम भवानी सबका मंगल करें।"
सुद्धन ने हरिहर का छोड़ा हुआ जारी रखा:
”शंकर हमारा देश है। हिमालय उसकी जटाएँ हैं जिनसे गंगा बहती है। वह बैल की सवारी करता है- घूमता है हमारे साथ हमारे खेत खलिहानों में। खेतों में पाए जाने वाले खर, पतवार, भाँग, धतूरे सबको अपना लेता है। हमारे चूल्हे और चिता दोनों की भस्म को वह अपने शरीर पर रमा लेता है। हमारी लोक गाथाएँ उसके परिवार में पनपती हैं। उसके निर्धन घर में कोई सम्पदा नहीं। लेकिन उस दरिद्र के घर में सबको आश्रय है – चूहे, साँप, मोर, बिच्छू, बाघ, बैल । हमारी सारी विसंगतियों को वह अपने में समाहित किए हुए है। हमारी विविधता को अगर कोई देव अपने पूरे अस्तित्त्व में समेटे है तो वह है – महादेव।
महादेव नवदम्पति को जीने की राह दिखाए और अपनी कृपा दृष्टि ‘नए घर’ पर बनाए रखे।"
सुद्धन ने समाप्त किया तो अष्टभुजा का दिल जीत चुके थे।
महेशानन्द ने इस नितांत नई व्याख्या को अनुभव किया। पाला हल्का हो गया था!
खड़े हो गए। “मंगल श्लोकों की यह प्रथा पुरानी हो चुकी है। अब आवश्यकता है कि नए मंगल पढ़ें जाँय। जैसे –
संगच्छध्वम् संवदध्वम् संवो मनांसि जानताम्
देवाभागम यथा पूर्वे संजानाना उपासते
......
समानीव आकू ति: समाना हृदयानि च
समानमस्तु व मनो यथा व: सुसहासति ।
हम साथ साथ चलें। साथ साथ बोलें। हमारे मन एक से हों। हम साथ साथ ज्ञान प्राप्त करें। जैसे पूर्वकाल में देवता नाना प्रकार की उपासनाओं में साथ साथ अपना भाग ग्रहण करते थे। ..हमारे संकल्प साथ साथ हों। हमारी अनुभूतियाँ एकता और सहमति में बढ़ें। इस प्रार्थना के साथ मैं वर वधू की मंगल कामना करता हूँ”।
यदि पुराने और नए का मुद्दा उठाए बिना महेशानन्द ने केवल मंगल कहा होता तो सम्भवत: सुद्धन कुछ और न कहते। वैसे भी अब संध्या गहराने लगी थी और आयोजन समाप्त ही होना था लेकिन बैठते हुए महेशानन्द की वह वक्र हँसी !
सुद्धन खड़े हुए। काहे का मंगल? अब तो लड़ना था।
“हजारो साल पुराने ऋग्वेद की अंतिम ऋचा को श्लोकों की तुलना में आप कैसे नया कह सकते हैं? वेदों की पवित्र वाणी को कहने के अवसर और काल पूर्वनिर्धारित हैं। इस समय उच्चरित कर आप ने ऋषि परम्परा का उल्लंघन किया है. . ” प्रभाव जानने के लिए सुद्धन थोड़ा रुके।
आरोप! सभा स्तब्ध हो गई। महेशानन्द और नाहर के चेहरे विकृत हो उठे थे। इतना साहस इस पतरेठे का, फूँक दो तो उड़ जाय !
चिल्ला चोट शुरू हो गई “बैठो, बैठो, खत्म करो”। महेशानन्द खड़े हो गए। बाउ ने महेशानन्द को बैठाने के लिए चिल्लाना शुरू किया तो वर पक्ष के लफाड़ी सुद्धन को बैठाने पर अड़े रहे। मारे क्रोध के नाहर अवाक हो गए थे। इन जंगलियों के यहाँ किस अशुभ बेला में बारात लाने की सोची थी? महेशानन्द ने आज तक ऐसा प्रतिरोध नहीं झेला था। विराट व्यक्तित्त्व की गरिमा एक पतरेठे ने तार तार कर दी थी। हर बात पर काट !वह भी बिना किसी मर्म के !!
सभा पूरी तरह से अव्यवस्थित हो ध्वस्त हो चुकी थी। माहौल खराब देख मिसिर और अष्टभुजा ने जल्दी जल्दी समापन और विसर्जन के मंत्र पढ़े। नर्तकियों और बजनियों के प्रदर्शन, प्रशंसा और पुरस्कार ग्रहण करने के अरमान धरे ही रह गए। शिष्टाचार ? . . . जारी
”शंकर हमारा देश है।" एकदम अलग दृष्टि, पहली बार सुना है। अगली कड़ी का इंतज़ार है।
जवाब देंहटाएंजारी रहें, पढ़ रहे हैं.
जवाब देंहटाएंहमें तो उन विवाह अवसरों की याद हो आयी जब शास्त्रार्थ के बाद ही बाकायदा गोजी डंडा शुरू हो गया और हमने मंडप के कनात के पीह्हे छुप कर जान बचायी -yahaan तो फिर भी बहुत अनुशासित मामला चल रहा है !
जवाब देंहटाएंwaah b!
जवाब देंहटाएंwaah !
bahut khoob !
Bahut rochak maamla hai, jaari rakhen.
जवाब देंहटाएं-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }</a
बहुत सुन्दर। रावण विरचित वह स्तोत्र भी अद्भुत है और यह पोस्ट भी!
जवाब देंहटाएंजटाट्टवी गलज्ज्वल!
गिरिजेश जी ..धर्मवीर भारती के यूँ तो बहुत से रचनात्मक कार्य पढ़े सुने ..मगर गुनाहों का देवता ने उन्हें अमर कर दिया..और आपको इस ब्लॉगजगत पर लंठ चर्चा ने ..इससे ज्यादा क्या कहूँ..इस स्तर तक ..आज तो विरले ही पहुँच पाते हैं
जवाब देंहटाएंबढ़िया है, लिखते रहें.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर। हर पोस्ट एक क्लाइमैक्स लग रहा है इस कथा का। अलगे क्लाइमैक्स का इंतजार है।
जवाब देंहटाएंजियो ! का लिखते हो महाराज !
जवाब देंहटाएंहंसी आवे पर
जवाब देंहटाएंभय और अनहोनी के आतंक से
रूक जाए
तब 'बारात' की ये कथा ,
अद्भुत भाव मन पर
घेर कर
देर तक याद रहती है
इतनी बढिया कहानी
ब्लॉग जगत पर
कभी लिखी ही नहीं गयी -
- जारी रखें
सस्नेह,
- लावण्या
Har post ek naye Rang ke saath.
जवाब देंहटाएंRomanch mein koi kami nahi.
Har kirdaar bakhoobi chitrit kiya hua. Blog jagat ka Stambh hai "Ek Alasee Ka Chittha".
पता नहीं कैसे, इस पोस्ट पर हम दो दिन देर से आये। आपको यह सब तभीका याद है कि कहीं नोट करके रखे थे? लिख डालिए, यह सब जबरदस्त इतिहास बन रहा है।
जवाब देंहटाएंसजीव विवरण । बीच-बीच में उद्धृत संस्कृत के श्लोकों ने पूरी प्रविष्टि को एक अनोखे प्रभाव और मूल्य से संयुक्त कर दिया है । आभार ।
जवाब देंहटाएं