शनिवार, 22 अगस्त 2009

बित्तन बाबा : लंठ महाचर्चा

(7) समय: जब हमरे बापू हमरी वर्तमान उमर के आधे पादान पर थे। परम्परा : श्रौत
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बित्तन भरे पूरे परिवार वाले यजमानी बाबा थे। बित्ता कहते हैं पूरी तरह से ज़बरदस्ती टाइप से फैलाए गए पंजे में अंगूठे की नोक से कानी उँगली की नोक तक की दूरी को। बिचारे ठिगने कद के थे। बाप को सामान्य शरीर की ऊँचाई की तुलना में यही नाम उपयुक्त लगा सो रख दिया।
इलाके में उनके परिवार की बहुत धाक थी। सात टोले में बस उनके घर की औरतें सात रूपये वाली पंजी (एक प्रकार की साड़ी) पहनती थीं वो भी साया के साथ। घर में माँ, एक अदद पत्नी और तीन लाल। पूरा अमन चैन। सास कोशिला तो बहू सीता। बाल गोपाल तो बस छुटके कन्हैया जैसे। दुवारे धौरी गैया, भूरी भैंस, दो जोड़ी पँछाही बैल, पाँच बखरियाँ और भोले भण्डारी का छोटा सा मन्दिर। नीम के पेंड़ तले सुबह शाम पंचइति बैठती और बाबा साइत से लेकर घर आंगन मेड़ सेड़ सबका फासला करते और उनका फैसला ‘इति’ होता था आगे कुच्छ नहीं, इसीलिए पंच-इति।
सब कुछ ठीक चल रहा था कि एक दिन अचानक बित्तन बाबा की माँ भीख माँगनें लगीं। बित्तन की हालत का आप अन्दाजा लगा सकते हैं। पहले तो उन्हों ने इसे टोटका बताया। चूँकि उन्हें पूरा यकीन था कि एक महीने में बात कंट्रोल में आ जाएगी इसलिए लोगों को बिना पूछे यही टाइम बताते रहे। लोगों ने भरोसा किया और इस मोहलत में सपत्नीक उन्हों ने माँ को खूब समझाया। नात रिश्तेदार सभी समझा समझा हार गए। साष्टांग दण्डवत और रोहा रोहट सब हुआ। माँ में समझ समझ इतना सुधार हुआ कि पहले ठीक ठाक कपड़े पहन नीम के पेंड़ तले भीख माँगती थीं, अब फटे पुराने कपड़े पहन गली गली टोला टोली घूम घूम भीख मांगनें लगीं। मतलब पूरे प्रोफेशनल तरीके से।
अब बित्तन की मुसीबत शुरू हुई। पहले तो नीम तले पंचइति कम होते होते खत्म हुई और उसके बाद लोगों ने मजे लेने शुरू किए। इज्जत का पलीदा तो हो ही चुका था। सब कुछ जानते हुए भी लोग पूछते, “ का हो बित्तन, सुनाइल हे कि तोहार माई भीख माँगेली (बित्तन, सुना है कि तुम्हारी माँ भीख माँगती है)?”। बित्तन गरजते, बरसते और इस गरज बरस से लोग उत्साह में आ कर भिन्न भिन्न प्रकार की कजरी उन्हें सुनाने लगते।
दूसरा महीना पूरते पूरते पूरे गाँव के हास्य के बिषै हो गए बित्तन। घर से निकलना मुहाल हो गया। माँ तो माँ ठहरी क्या करते? संस्कारी बेचारे न मार सकते थे और न जहर दे सकते थे ! माँ जोर शोर से भीख माँगती और हफ्ते की हाट में बेंच भी आती। लोग भी इतने हरामी कि चाहे गाँठ में एको अधन्नी न हो, उधार ले उनसे खरीदते और जोर जोर से बतियाते, “हई त मतवा से लेहनी हँ, सस्ते मिलि गइल हे (ये तो मतवा से खरीदा है, सस्ता मिल गया है)”।
एक दिन गाँव के एक पँघियाए (पाँघि कहते हैं किशोर के चेहरे पर नई नई उगती मूँछ की रेख को) लौण्डे मुनेसर ने बित्तन पर तरस खा हल बताया। बित्तन अब कहने लगे “मतवा खुदे माँगेली खुदे खाली”( माँ माँगती है और खुद खाती है)। मतलब ये कि हमें उससे कोई मतलब नहीं। कुछ दिनों तक तरकीब तो काम आई लेकिन अभी बित्तन चैन की साँस लेने ही वाले थे कि नई मुसीबत खड़ी हो गई। बित्तन जिधर निकलते बच्चे और लौण्डे पीछे पीछे गोल बना गाने लगते “बित्तन के माई माँगें भीख, बित्तन कहें बड़ी बेठीक”। बित्तन कुछ दिनों तक तो लोगों को जवाब देने की परम्परा निबाहते रहे और बच्चों को इग्नोर करते रहे लेकिन एक दिन गुस्सा चढ़ा तो एक को मार बैठे। फिर क्या था, गाँव के चिढ़ना मशहूर हो गए। जिधर जाएँ बाल टोली पीछे पीछे , “ बित्तन के माई....”।
और एक दिन ! गोधूलि बेला से कुछ पहले सभी लोगों को घर वापस आया जान बित्तन टोले के एकमात्र कुएँ में कूद पड़े। जोर जोर से चिल्लाने लगे । पूरा गाँव इकठ्ठा हो गया। लोग पूछते,” काहें कूआँ में कूदि गइल हो? (कुएँ में क्यों कूद गए?)”, बित्तन पूछते, “ सब केहू आ गईल कि नाहिँ (सभी लोग आ गए कि नहीं?)”। केवल प्रश्न ही प्रश्न, उत्तर की चिन्ता किसी को नहीं ! एक बार फिर मुनेसरा सामने आया, “ हँ बाबा सब केहू आ गईल बा ( हाँ बाबा, सभी लोग इकठ्ठे हो गए हैं)”। बित्तन ने तब समाधान सी बोली निकाली, “अरे पहिले हमके निकालअ सो (पहले मुझे निकालो तो सही)”।
लोगों ने बित्तन बाबा को मिल जुल कर निकाला। बित्तन कुएँ की जगत पर ऊँचे खड़े हो गए । “सुनअ ए पंचे, साँझि के दीया बाती के बेरा बा। हम सौंह खा के कहतानि कि हमार माई भीख माँगेली आ खुदे खाली। हम्म्न के वोसे कौनो मतलब नाहीं। तोहरा सब से आ लइकन से हाथ जोड़ि के कहतानि, बिहने से हमसे ई बात फेर से न पुछिह जा, न चिढ़हइ जा (सभी लोग सुनें, शाम की दिया बत्ती की बेला है। मैं कसम खा कर कहता हूँ कि मेरी माँ भीख माँगती है और खुद ही खाती है। बाकी परिवार से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। आप सभी लोगों से और बच्चों से हाथ जोड़ कर निवेदन है कि कल से इस बारे में मुझसे न पूछा जाय और न ही चिढ़ाया जाय)”।
भीड़ में से किसी ने कुछ नहीं कहा और लोग धीरे धीरे अपने अपने घरों को चल दिए। बाल टोली भी चुपचाप खिसक ली।
फिर किसी ने बित्तन से इस बावत नहीं पूछा । बच्चों ने भी चिढ़ाना छोड़ दिया। मतवा वैसे ही भीख माँगती रहीं। लेकिन नीम के पेंड़ के नीचे पंचइति दुबारा नहीं बैठी।
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लंठ महानिष्कर्ष: जीवन में कई बार ऐसा कुछ घटित हो जाता है जिसका कोई तुक या तर्क नहीं होता। उसे जैसे का तैसा स्वीकारने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं होता। लेकिन इस विकल्पहीनता की स्थिति को भी संतुलन देना होता है और उसके लिए अप्रत्याशित कदम भी उठाने पड़ते हैं।
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17 टिप्‍पणियां:

  1. हे भैया केहुऔ क माई भिखिया मांगे लागे ,केऊ कयिन का लेई !

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  2. एक ओर सुंदर कहानी, मानव व्यवहार की गहराइयों और उलझनों को उजागर करती हुई। बधाई। ग्रामीण महक से सराबोर आपकी भाषा भी खूब पसंद आई।

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  3. असाधारण !
    उप्देशीय कथाओं से हट कर किन्तु गहन उपचार करती हुई सी है. लोक का सुर परिभाषित होता है मजा आया !

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  4. चिढाने पे तो हंसी आई... लगा ऐसा चिढ़ते-चिढाते देखा है खूब. लेकिन गंभीर हो गए आप.

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  5. रोचक।

    आँचलिक साहित्य की अनूठी झलक।


    एक शिकायत है आपसे!

    आपके ब्लॉग पर चीजें बेतरतीब बिखरी हैं। उन्हें करीने से सजाईये। बाउ मंडली और अन्य लेख खोजने लगा तो काफी समय लग गया।


    Archive तो ब्लॉगर की फेसिलिटी Inbuilt है। उसका उपयोग किजिये और पोस्टों को महीने या दिन जैसा चाहें उस क्रम में साईड बार में रखें तो पढने और ढूँढने मे सुविधा रहेगी।

    माना कि आपके पोस्ट की थीम ही आलसी शब्द को लेकर है लेकिन इतना तो आलस न करें :)

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  6. बेहतरीन कथा।
    नीतिकथाओं की कड़ी में नवाचार सा कुछ लगा।
    सतीश पंचम स सहमत। हमें भी लंठ महाकथा की सभी कड़ियां तलाशने में वक्त लगा। अभी भी आपने इसके टैग सही नहीं लगाए हैं। अर्थात यह श्रंखला किसी एक खास कैचवर्ड से पकड़ में आ जाए, ऐसा प्रबंध करें।

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  7. हम जानिए रहे थे की ..ई आलस में बहुत ऊर्जा और अथाह संपदा छूपी हुई है ..लंठ के बाउजी के बाद ई बीत्तन बाबा के चर्चा ..अद्भुत के बाद अद्भुत

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  8. माई काहे पगलाई गयीं ?
    ये रहस्य भी बतालायेइयेगा --
    कथा मन को छू गयी ...
    - लावण्या

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  9. लोक की छौंक आपकी हर प्रविष्टि को सौंधी-सौंधी खुशबू देती है ।
    प्रविष्टि का आभार ।

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  10. आपके बित्तन तो प्रेमचंद की किसी कहानी के पात्र लगते हैं. मुझे तो अपने मोहल्ले के वृद्ध 'भूतबंगला' याद आ गए. 'भूतबंगला' कहते ही ढेला लेकर दौड़ा लेते थे. 'भूतबंगला' नाम क्यों पड़ा पता नही और वो चिढ़ते क्यों थे ये भी पता नहीं कुछ चीजें बस होती हैं. जैसे आप लंठ हैं क्यों, पता नहीं

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  11. अच्छा लग रहा है...
    आपकी यह लंठ महाचर्चा अनूठी है...
    कई लोकछवियों को अपने में समेटे हुए..

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  12. गिरिजेश भाई
    आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आया और बहुत अफ़सोस हुआ ये सोच कर की पहले क्यूँ नहीं आया? इतनी मीठी जबान में आप लिखते हैं की इच्छा होती है चीँटा बन चिपटा रहूँ...और लिखने का अंदाज़...वाह...प्रशंशा के लिए शब्द नहीं मेरे पास...कमाल...शिष्ट हास्य का अद्भुत प्रदर्शन है आपकी लेखनी में...एक एक करके पिछली पोस्ट भी पढ़ रहा हूँ और खुश हो कर तालियाँ बजा रहा हूँ...इश्वर आपकी लेखनी को हमेशा ऐसी ही अद्भुत रक्खे...
    नीरज

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  13. सुंदर !! गुरु ग्रंथ साहिब में एक सबद है, “चिंता ताकी कीजिये जो अनहोनी होये, इह मारग संसार को, नानक थिर नहीं कोइ ”. अर्थात चिंता केवल उस बात की करें जो होने योग्य न हो, असंभव हो. और इस नश्वर संसार में कुछ ऐसा है क्या जो अनहोनी हो? सब कुछ जो हमारे समाज में होता है वह असामान्य नहीं होता, हमें लगता है कि बित्तन के साथ ऐसा हुआ पर हमारे साथ नहीं होगा. उसके साथ जो हुआ सो होनी, हमारे लिये अनहोनी.

    पर मित्र जिस आंचलिक परिवेश में अपनी कथा केंद्रित की है, उसी अंचल का एक लोक श्वर कहता है कि ( शायद सही शब्द तुम्हें याद हों ), तुम्हारी कथा की कोशिला को पहले पुत्र की कामना (चिंता) थी, फिर राम के विवाह की और जब सीता जैसी बहु आई तो वह उसकी कोख की ओर देखने लगीं. अर्थात चिंता साथ साथ चलती है. जैसे का तैसा स्वीकारना होता नहीं, खासकर अपने लिये। हाँ! उपदेश दे सकते हैं. लेकिन ये भी लगता है कि, यही तो जीवन भी है, जैसे का तैसा स्वीकारना कहीं जीवन को नीरस नहीं कर देगा. चिढना चिढाना अगर न होता तो हमारा बचपन कैसे बीतता. टीवी सीरियल तो थे नहीं, बित्तन बाबा या मेरी स्मृति का कल्लू करेला ही तो लोक जीवन का मनोरंजन है.
    एक बात और, कथा यकायक समाप्त हुयी, उसे विस्तार दो.

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  14. बीत्तन से जरूर कुछ गलती हो गई होगी । ऐसे ही कोई मां अपने पूत को नहीं प्रताड़ित करती । खैर जो भी बात रही हो । एक और बढ़िया कहानी पढ़ने को मिली ।

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  15. परिस्थिति को जस का तस स्वीकारना भी समस्या का हल हो सकता है।

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