मजहब और जाति के नाम पर एकजुट होकर भेंड़ियाधसान मानसिकता से मतदान लोकतंत्र के लिये खतरनाक है। चित्राभार: टाइम्स ऑफ इंडिया |
चुनाव प्रक्रिया में नियम 49-O के तहत आप को मतदान न करने के अपने मंतव्य को आधिकारिक रूप से दर्ज करने का प्रावधान है:
49-O. Elector deciding not to vote.-If an elector, after his electoral roll number has been duly entered in the register of voters in Form-17A and has put his signature or thumb impression thereon as required under sub-rule (1) of rule 49L, decided not to record his vote, a remark to this effect shall be made against the said entry in Form 17A by the presiding officer and the signature or thumb impression of the elector shall be obtained against such remark. (स्रोत: विकिपीडिया)
फॉर्म 17 अ में नाम दर्ज होने और हस्ताक्षर के पश्चात आप को पीठासीन अधिकारी से बताना है कि आप अपना मत 'नहीं देना' चाहते हैं। अधिकारी महोदय यह टिप्पणी आप के नाम के आगे दर्ज करेंगे और आप से हस्ताक्षर लेंगे। ऐसा कर आप अपने संवैधानिक कर्तव्य की पूर्ति भी करेंगे और परोक्ष रूप से 'सत्ता के दलालों' के प्रति अपना विरोध भी दर्ज करा पायेंगे। सूचना के अधिकार के तहत बाद में आप ऐसे कुल मतदाताओं की संख्या भी जान सकेंगे।
आप अगर सभी प्रत्याशियों को नालायक पाते हैं तो प्रकट रूप से आप अल्पसंख्यक हैं लेकिन यदि वोट न देने वालों की संख्या एक समूह के रूप में देखी जाय तो? यदि सभी वोट न देने वाले इस तरह अपना मत व्यक्त करें तो? आप बहुसंख्यक होंगे जिनका मत मायने रखेगा। आज ऐसे मतों के आधार पर भले परिणाम प्रभावित न हों लेकिन कल को शासक वर्ग नियमों में यह संशोधन करने को बाध्य हो सकता है कि यदि किसी क्षेत्र में 'मतदान न करने' वालों की संख्या एक निश्चित प्रतिशत तक पहुँच जाती है तो वहाँ प्रक्रिया निरस्त कर दुबारा से पूरी कार्यवाही हो और प्रत्याशियों की स्क्रीनिंग हो। सम्भव है कि ऐसी स्थिति में 'बहुसंख्यकों' के मध्य से ही कोई लायक प्रत्याशी सामने आ जाय!
हल्के तौर से सोचने पर यह बहुत पिद्दी सा प्रावधान लगता है लेकिन यह दलाल उठाइगीरों के लिये एक चुनौती भी है। सोचिये कि अगर यह स्थापित हो जाय कि अमुक क्षेत्र के मतदाता परोक्ष रूप से सभी प्रत्याशियों को नकार सकते हैं तो पार्टियों और जनता दोनों की सोच में परिवर्तन होगा कि नहीं? जाति, मजहब जैसे सारहीन मुद्दों के स्थान पर वास्तविक मुद्दे निर्वाचन को प्रभावित करेंगे कि नहीं? जनकल्याण सबसे पहले आयेगा कि नहीं?
सोचिये! यह समय अंगुली पर स्याही का निशान लगाने के साथ साथ भ्रष्ट सुविधाभोगी देश के गद्दारों को ठेंगा दिखाने का भी है।
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लोकतंत्र के इस मॉडल से आप अगर दुखी हैं तो आप अकेले नहीं हैं। इस मॉडल में जो दोष हैं उनकी ओर इशारा करते ये तीन आलेख कभी मैंने लिखे थे। आप इन्हें देख सकते हैं:
हाल में चैतन्य आलोक (संवेदना के स्वर) ने फेसबुक पर यह आलेख शेयर किया जो स्याह पक्ष को उजागर करता है। आप के लाभ के लिये उसे यहाँ दे रहा हूँ। [ उनके ब्लॉग आलेख का लिंक यह है - भारत में (अ) व्यवस्था किस तरह काम करती है? ]:
रईसों और ताकतवर लोगों का यह “सिंडीकेट !!
“भारत के सभी संसाधनों" पर चन्द रईसों और ताकतवर लोगों का कब्जा है। रईसों और ताकतवर लोगों के बीच बनें इस “सशक्त गठबन्धन” को “सिंडीकेट या माफिया” कह सकते हैं। देश में फैली (अ) व्यवस्था इस “सिंडीकेट” द्वारा किस तरह से निर्देशित होती है ? रईसों और ताकतवर लोगों का यह “सिंडीकेट” कुछ “नियम-कायदे” बनाता है ताकि जो लोग रईस और ताकतवर नहीं हैं वह इस (अ) व्यवस्था से हमेशा बाहर रहें। यह “सिंडीकेट”, सभी महत्त्वपूर्ण जानकारियों और ज्ञान को अपने नियन्त्रण में रखता है। जानकारियों से यहाँ मतलब "धन बनाने", व्यापार और रोजगार की उन सम्भावनाओं से है जिनका पूर्व ज्ञान मात्र कुछ लोगों को ही रहता है। मतलब कौन सी जगह हाई-वे बनाना है, किस प्रकार की टेक्नोलोजी या उत्पाद को बढावा देना है। सरकारी और निजी व्यापार और रोजगार की बयार किस तरफ बहेगी और उससे होने वाले लाभ की गंगा किस तरह और किस किस को तरेगी, वही सब। फिर इन जानकारियों को सीमित पहुंच तक रखने के लिये रईसों और ताकतवरों का यह “सिंडीकेट” बहुत से नियम-कायदों का मकड़जाल बुनता है। नियम-कायदों के इस मकड़जाल का पहला मकसद यही होता है कि “आम आदमी”, रईसों और ताकतवरों के इस वैभवशाली साम्राज्य से दूर रहे और उसे किसी भी तरह से चैलेंज करने की स्थिति में न पहुचें। नियम-कायदों के इस मकड़जाल में बहुत सी सीढ़ियां होती हैं और हर सीढ़ी पर एक गेट कीपर तैनात होता है।
यह (अ) व्यवस्था हर गेटकीपर को कुछ ताकत देती है जिनके द्वारा वह अपनी सीमा में नियत नियम-कायदों को नियंत्रित करता है।......
यह बात महत्वपूर्ण है कि गेटकीपर का अहम काम अपने उपर वाली सीढ़ी तक पहुंच को मुश्किल बनाना है, इसके परिणाम स्वरुप प्रत्येक उपर वाले गेटकीपर की ताकत कई गुना बढ़ती जाती है। और अंत में सिंडीकेट महा-शक्तिशाली हो जाता है। रईसों और ताकतवरों का यह सशक्त गठबन्धन या “सिंडीकेट”, अन्य सहयोगी लोगों के “शातिर नेटवर्क” के द्वारा नियम-कायदों के इस मकड़जाल को नियंत्रित करता है, और यह सुनिश्चित करता है (अ) व्यवस्था की सभी संस्थायें इस “शातिर नेटवर्क” के द्वारा नियंत्रित की जायें। इन संस्थायों के मुखिया के पद पर जब शातिर नेटवर्क के व्यक्ति को बैठाया जाता है तो उसकी ताकत बेहद उंचे दर्जे की हो जाती है क्योकिं उसके कार्य अब विधि और संविधान सम्मत हो जाते हैं और उन्हें चैलेंज करना मुश्किल ही नहीं लगभग नामुमकिन को जाता है। “सशक्त गठबन्धन या सिंडीकेट” इस बात के पूरे इंतजाम करता है कि “शातिर नेटवर्क” के एक- एक व्यक्ति को ताउम्र पूर्ण सरंक्षण दिया जाये।
पर देश का “वाच डाग” मीडिया और इस “शातिर नेटवर्क” से बाहर हुये लोग क्या इतनी आसानी से इसे काम करने दे सकते हैं?
“मीडिया” जो जनमानस को निरंतर प्रभावित करता है उसे भी इसी “शातिर नेटवर्क” द्वारा येन केन प्रकारेण नियंत्रण में रख कर “वाच डाग” से “लैप डाग” बना दिया जाता है। “शातिर नेटवर्क” में उन लोगों को सहर्ष स्वीकार कर लिया जाता जो या तो येन केन प्रकारेण, “सशक्त गठबन्धन या सिंडीकेट” को फायदा पहुंचाते हैं या फिर उनका बहुत विरोध करने की स्थिति में पहुंच जाते हैं। बहुत से गेटकीपर जो अपने रसूख और धनबल को बढ़ाने में कामयाब हो जाते हैं उन्हें भी शातिर नेटवर्क में शामिल कर लिया जाता है।
पर फिर भी इसे त्वरित रूप से चलाये कैसे रखा जाता है?
(अ) व्यवस्था के पूरे तन्त्र को लालच रुपी इंजन से चलाया जाता है और इसके सभी कल पुर्जों में काले धन रुपी लुब्रीकैंट को डाला जाता है।
समस्या यह है कि लोकतंत्र का कोई बेहतर विकल्प नहीं सूझता। ऐसे में जो उपलब्ध है उसी में सुधार की लड़ाई लड़ी जाय।
क्या पता 49-O ही वह चिनगारी हो जो रावणों की लंका भस्म करने का सामान बन जाय?
राष्ट्रों के भाग्य बदलने में सदियाँ लगती हैं। जो पीढ़ी लड़ती है वह फल नहीं चखती। क्या पता हमारे लिये यही तय हो?
भोली है यह आशा लेकिन बिना इसके जिया भी तो नहीं जाता!
एक सार्थक कदम गिरिजेश जी.. आपके ऐसे आलेख हमें भी सोचने पर विवश करते रहे हैं और चैतन्य ने तो इस विषय पर बड़े ही ज़बरदस्त और आँख खोलने वाले आंकड़े और तथ्य एकत्र कर रखे हैं..
जवाब देंहटाएंचैतन्य आलोक को स्थान देने के लिए उनकी ओर से मैं भी गर्व का अनुभव कर रहा हूँ. एक पहल, जो लोकतंत्र का चेहरा बदल सकती है!! धन्यवाद और आभार!!
49-O का यथासम्भव प्रयोग होना ही चाहिये। साथ ही राजनीतिक दलों के भीतर भी लोकतंत्र लाने की प्रक्रिया आरम्भ होनी चाहिये।
जवाब देंहटाएंराजनीतिक दलों के भीतर भी लोकतंत्र => अमेरिकी ढंग जैसा कुछ। एकदम होना चाहिये। यह तब और प्रभावी होगा जब मान्यता प्राप्त पार्टियों की संख्या तीन चार तक सीमित कर दिया जाय।
हटाएंयह एक ऐसा प्रावधान है जो राजनैतिक पार्टियों को यह सोचने पर विवश करेगा कि किस तरह अधिक योग्य उम्मीदवार उतार कर इस तरह पड़े वोटों को अपने पक्ष में किया जाये।
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही कहा आप ने! वे बाध्य होंगे।
हटाएंगिरिजेश जी!
जवाब देंहटाएंयह रहा हमारी पोस्ट का लिंक और इसके साथ ही कई और लिंक्स (पोस्ट के साथ नत्थी किये) जो हमने इस विषय पर लिखे..!!
http://samvedanakeswar.blogspot.in/2011/03/blog-post_11.html
इसमे एक छोटी समस्या यह है कि हमारा गुप्त मतदान का अधिकार तार तार हो जाता है, क्योकि 49-0 से यह जाहिर हो जाता है कि हम किसी को भी मतदान नहीं दे रहे।
जवाब देंहटाएंचुनाव आयोग यह बात जानता है और गोपालास्वामी के समय यह बात उठायी भी गयी थी,
परंतु फिर नवीन चावला
और अब कुरैशी बाबा के जमाने में आम आदमी से पवन सेन बनने की उम्मीद करना :(
@ छोटी समस्या
हटाएंतार तार हुये हम,क्या करें लाज की बात अब?
कफन ओढ़ निकलेंगे, उनको शरम आये न आये।
बहुत खूब!
हटाएंचुनाव प्रक्रिया नियम 49-O बाबूगिरी का नमूना है। अगर वोट न देने का प्रावधान है तो वह भी वोटिंग मशीन का हिस्सा हो।
जवाब देंहटाएंमुझे वोट नहीं देना तो पीठासीन बन्दे को जाहिर क्यों करूं?
इसलिये कि लोकतंत्र में समूह में शक्ति होती है। जब ऐसा रिकॉर्ड करने वालों की संख्या हजारो लाखों में होगी तो जो होगा वह लोकतंत्र के हित में होगा।
हटाएंवोट न देने का अधिकार भी वोटिंग मशीन का हिस्सा हो।
जवाब देंहटाएंमशीन में या मतपत्र पर इस विकल्प का न होना एवं सत्ता द्वारा ,ऐसा कोई प्रावधान भी है, जनता को न बताना या उतने जोर शोर से प्रचारित न करना जितना कि मतदान के लिये किया जाता है - एक गहरे षड़यंत्र की ओर इशारा करते हैं।
हटाएंयह भी बताते हैं कि सत्ताधारी वर्ग चरित्र इस प्रावधान से भयभीत है। जनता को यह समझना है और इस प्रावधान का उपयोग करना है।
इस हथियार का प्रयोग करने की चाह रखने वाले निश्चित ही बहुमत में होंगे। भले ही अभी सबलोग इसका ज्ञान न रखते हों।
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