शनिवार, 17 नवंबर 2012

कातिक कान्ह गोधन देवउठान

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मृगशिरा विक्रम से लगभग ३०४५ वर्ष पूर्व भारत युद्ध के समय कृष्ण ने स्वयं को महीनों में मार्गशीर्ष और ऋतुओं में वसंत कह कर अपनी 'विभूति' की महिमा मोहग्रस्त अर्जुन से व्यक्त की। यह घटना महाभारत में लिपिबद्ध की गई। वास्तव में कृष्ण स्वयं से 1400 वर्ष पहले देवयान और पितृयान में विभाजित और ऋक्संहिता में वर्णित उस संवत्सर का सन्दर्भ ले रहे थे जब महाविषुव (आज का 23 मार्च) के दिन प्राची में सूर्य का उदय मृगशिरा नक्षत्र में होता था एवं वसन्त ऋतु से प्रारम्भ नये वर्ष का पहला महीना मार्गशीर्ष होता था।
पृथ्वी की अयन गति के कारण (आवृत्ति लगभग 26000 वर्ष) कृष्ण के समय महाविषुव का दिन पीछे खिसक कर रोहिणी नक्षत्र के पास पहुँच चुका था। (दिन के समय नक्षत्र नहीं दिखते, इस कारण उस समय के खगोलीय निर्धारण दिन और रात के दिशा बिन्दुओं के बहुत ही सतर्क और सटीक प्रेक्षण की माँग करते थे किन्‍तु आज के युग में हम दिन में नक्षत्रों को सूर्य के साथ सॉफ्टवेयर की सहायता से देख सकते हैं। नीचे दिया गया चित्र उस कालखण्ड के एक महाविषुव की स्थिति दर्शाता है।)
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महाविषुव की खिसकन पर्याप्त हो चुकी थी और ऋतुचक्र आधारित सत्रों के पुनर्नियोजन की आवश्यकता बढ़ गई थी। वह संक्रमण समय हर क्षेत्र में संघर्षों का काल था। एक ओर कुरुओं, पांचालों और नागों में वर्चस्व का बहुकोणीय संघर्ष चल रहा था तो दूसरी ओर त्रयी नाम से प्रसिद्ध वैदिक वाङ्‍मय के पुनर्सम्पादन/संकलन का आर्ष संघर्ष।  वर्ष भर चलने वाले यज्ञ सत्रों के पुरोहित काल के पहरुवे भी होते थे पर वे कहीं और व्यस्त थे। एक वर्ग ऋषि कृष्ण द्वैपायन  व्यास (यह योद्धा कृष्ण से भिन्न हैं और बाद में वेदव्यास कहलाये) के नेतृत्त्व में अथर्व आंगिरस की वनस्पति औषधि अभिचार  परम्परा को अलग अथर्ववेद में संकलित करने के पक्ष में था तो दूसरा वर्ग कुरुवंश के परम्परा प्रेमी पुरोहितों का था जो स्थिति को यथावत रखने के पक्ष में था। वर्षों तक चले संघर्षों का अन्त व्यास की विजय से हुआ, चार संहितायें संकलित हुईं  और अथर्वण शाखा को यथोचित सम्मान मिला।
किन्‍तु कुरु, पांचाल, नागादि के संघर्ष की परिणति अतिदारुण महाविनाश में हुई जिसकी स्मृति को हम क्षयी कलियुग के प्रारम्भ से जोड़े आज भी सिहरते हैं - महाभारत! सब कुछ छिन्न भिन्न हो गया। जिस धर्म संतुलन के लिये धर्मक्षेत्र योद्धाओं के कुरुक्षेत्र में परिवर्तित हुआ, वह सध नहीं पाया। महाभारत के अंतिम पर्व में व्यास परम्परा सँभालने के प्रयास करती पाई जाती है लेकिन हताशा छलक उठती है: mahaऐसे में काल के पहरुवों ने नवव्यवस्थित संहिताओं के संरक्षण और पोषण की ओर ध्यान दिया, कालसंशोधन पीछे रह गया एवंं यह स्थिति विक्रम से प्राय: १८५० वर्षों पहले तक रही जब महाविषुव रोहिणी के पास से खिसक कृत्तिका नक्षत्र तक पहुँच गया और कृत्तिका युग का प्रारम्भ हुआ। यह वही समय है जब सरस्वती के बचे खुचे स्यमंतपंचक कुंड भी सूख गये, वह लुप्त हो गयी। श्रुति परम्परा का प्रमुख काम पुराने को सहेज कर रखना हो गया। 
आगे की शताब्दियों में एक बड़ी प्रगति यह हुई कि सत्रों का प्रारम्भ शीत अयनांत (आज का 22 दिसम्बर) से होने लगा और पुराने विषुव आधारित सत्रों से नये सत्रों के समायोजन प्रयासों के कारण तमाम जटिलतायें उत्पन्न हुईं। देवयान और पितृयान की अवधारणा लुप्त हो गई, सूर्य के अयनांत सापेक्ष उत्तरायण और दक्षिणायन अंतराल अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हो गये। संवत्सर का प्रारम्भ करने वाला अग्रहायण यानि मृगशिरा नक्षत्र अब स्वनामधारी महीने मार्गशीर्ष का पर्याय हो गया। चन्द्रगति आधारित मास तंत्र में यह एकमात्र महीना है जिसके दो नाम 'लोक प्रचलित' हैं - अगहन और मार्गशीर्ष।
आगे अश्विनी आदि से होते हुये महाविषुव आज उत्तरभाद्रपद नक्षत्र में आ पहुँचा है परन्‍तु प्राचीन स्मृति आधारित पर्व पूर्ववत चल रहे हैं।
कार्तिक अमावस्या के दीप पर्व से एक दिन पहले पितृयान के प्रधान देवता यम की स्मृति में एक दीप आज भी जलाया जाता है। आगे आने वाली कार्तिक की देवोत्थान एकादशी में पितृयान के समाप्त होने और पुराने देवयानी छ: महीनों की स्मृति समायी हुयी है। शीत अयनान्त उस मार्गशीर्ष महीने में ही पड़ता है जिसे अवतारी कृष्ण ने विशेष मान दिया था।
कृष्ण अवतारी क्यों कहलाये? उनका इतना मान क्यों है? इसके कारण आज की गोवर्धनपूजा की लोक परम्परा में सुरक्षित हैं। 
देवयान का प्रधान देवता इन्द्र है। उन छ: महीनों में जो सत्र होते थे वे इन्द्रादि देवों को समर्पित थे।  'रोहिणी युग' के कृष्ण ने जब हजारो वर्षों से चली आ रही इन्द्रयज्ञ  के स्थान पर गिरियज्ञ गोवर्धन पूजा का विकल्प दिया तो वह उस युग की एक क्रांति थी। संघर्षों की बात हम कर ही चुके हैं। पशु और मनुष्य दोनों के लिये कल्याणकारी अथर्वण आंगिरस औषधि परम्परा हेय दृष्टि से देखी जाने लगी थी।
ऐसे में कुरुवंश की जटिल राजनीति से दूर एवं द्वैपायन की वैदिक पुनर्संकलन की चिंताओं से अनभिज्ञ किशोर कृष्ण ने दूर देहात में एक व्यावहारिक एवं जन से जुड़ा विकल्प दिया। उसकी उपासना पद्धति में वैदिक सत्रों का सार तो था लेकिन सरल कर्मकांड सामान्य गोचारण से सीधे जुड़ते थे, पुरोहित और धनिक प्रतिष्ठित यजमानों की आवश्यकता नहीं थी।  मूलत: 'गोकुल' की घुमन्‍तू जीवन  शैली से जुड़ी यह पद्धति आगे किसानों से जुड़ गई। 
उसके व्यक्तित्त्व में वह चमत्कारी आकर्षण था जिसने व्यास से बहुत पहले ही परिवर्तन के बीज बो दिये।
 गीता में यही कृष्ण बिना जाने बूझे वैदिक कर्मकांडों में रत लोगों को 'वेदवादरता:' कह कर हेय दर्शाते हैं। छान्दोग्य उपनिषद में अनासक्ति का ज्ञान मिलता है: 
स यद्शिशिषति यत्पिपासति यन्न रमते ता अस्य दीक्षा:॥(3.17,1)
वहीं छ्ठे मंत्र में घोर आंगिरस ऋषि द्वारा देवकी पुत्र कृष्ण को यह ज्ञान देने की बात कही गयी है जिससे वह अन्य दर्शनों की पिपासा से मुक्त हो जाते हैं:
तद्धैतद्घोर आंगिरस: कृष्णाय देवकीपुत्रा...यहाँ दो बातें ध्यान देने योग्य हैं - घोर का आंगिरस होना जो कि अथर्वण परम्परा है और कृष्ण का पिता के स्थान पर माँ के नाम से पहचाना जाना। स्थापित कर्मकांडी व्यवस्था से भेद स्पष्ट हैं। संभवत: मात्र 8800 श्लोकों वाली जयगाथा में कृष्ण द्वारा वैदिक कर्मकांडों के प्रति विरक्ति और अनासक्ति के प्रति स्वीकार भाव देख परवर्ती विद्वानों ने उसे विस्तृत कर एक पूर्ण शास्त्र के रूप में व्यवस्थित कर दिया।

कालांतर में राम और कृष्ण का आश्रय ले इन्द्र के छोटे भाई विष्णु की अवतारी परम्परा स्थापित हुई जो वैदिक कर्मकांडों से परे जन से जुड़ी थी।
द्वैपायन कृष्ण हों या देवकीपुत्र कृष्ण, दोनों स्त्री के पक्ष में खड़े दिखते हैं। द्रौपदी आदि के जटिल प्रकरण हों या परिवार में ममत्त्वपूर्ण दुहिता का सुश्रुषा पक्ष, अथर्वण समर्थक द्वैपायन व्यास सर्वदा स्त्री हित का साथ देते दिखते हैं। अपहृत कुमारियों, द्रौपदी आदि से जुड़ी कन्हैया कृष्ण की गाथायें तो जगविख्यात हैं ही!       
उस समय पुरोहितों के शास्त्रीय सत्रों से प्रेरणा ले आने वाले अगहन के महीने में उपजने वाले नये धान 'अगहनी' की अच्छी उपज की मंगल कामना और कृषिभूमि पर सँवागों को पुन: प्रवृत्त करने हेतु घरनियों के सूप कातिक के महीने में बज उठते- उठो!
दीपपर्व की भोर में गृहिणियाँ ईश को बुलाने और दरिद्रता को भगाने की बुदबुदाहटों से उषा का स्वागत करतीं थीं। यह नये वर्ष में वैदिक सत्रों के प्रारम्भ होने से पहले की तैयारियों जैसा था।  
अगला दिन प्रतिपदा का था। पशु कृषकों के जीवन आधार थे। वर्ष में उनके विश्राम के लिये वह दिन सुरक्षित कर दिया गया। प्रतिपदा से बना – परुआ, जिस दिन आज भी पशुओं को मनुष्यवत सेवा और आदर सत्कार दिया जाता है।  
पितृयान के देव यम को बिदाई देनी थी, देवताओं को जगाना था। कृष्ण की प्रेरणा(?) से पशुओं के गोमय(गोबर) से ही यम यमी और संतति की भू प्रतिमायें बनीं। गोमय घेरे में गोबर से ही बनाये गये घरनी के सारे गृहसाथी - अन्न कूटने का ढेंका, पीसने का जाँता, कूटने वाली ऊखल आदि। खेती के उपकरण - हल, जुआ, बरही, बैलगाड़ी। खेतों के जीव भी स्थान पाये - साँप, बिच्छू। गृहस्वामी की खड़ाऊँ भी बनी और दुआर का भृत्य भी... अन्न उपजाऊ किसान का पूरा अस्तित्त्व गोवर्द्धन घेरे में समा गया।
यम के सिर में अन्न संग्रहित किये गये और उसके ऊपर मृत्युप्रदर्श कालिख चित्रित घड़ा रख दिया गया। घरनियों ने मूसल से जब मृत्युप्राप्त विगतवर्षरूप यम के सिर को कूटा तो वह घटना दो प्रतीकों की सर्जक हुई - नवजीवन देने वाले देवों के आह्वान की और भूख को मारने वाले अन्न के सम्मान की। गोवर्द्धन पर्व अन्नकूट तो हुआ ही, देवोत्थान दिवस भी हो गया!
गोवर्द्धन पर्वत वस्तुत: गृहस्थी से जुड़े विशाल विविधपक्षी कारकों का समुच्चयी रूपक है। उसे अंगुली पर धारण करने वाले कृष्ण का तात्पर्य उनके द्वारा उस ओर इंगिति से है। उसे धारण करने में सहयोग देने के लिये जो लाठी आदि के टेक हैं वे घरनियों के मूसलों के प्रतीक हैं।
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कुपित इन्द्र द्वारा सात दिनों तक की जाने वाली प्रलयसमान वर्षा लोकगाथा है - इतना बड़ा देवता, इतना बड़ा अपमान! और कुछ करे नहीं, हो ही नहीं सकता!! यह लोक का वही स्वरंजक रूप है जो राधा का सृजन कर उसे कृष्ण से जोड़ देता है और अपने पूर्वग्रहों से मुक्त न हो पाने के कारण सीता निष्कासन और उनके भूमि में समा जाने की कथा गढ़ उसे राम से। लोक में अवतारी जन को ऐसे मूल्य चुकाने पड़ते हैं।  
आज भी गोवर्द्धन पूजा पर्व कुछ क्षेत्रीय परिवर्तनों के साथ मनाया जाता है। हमारी ओर इस दिन के यम प्रतीक गोधन बाबा की देह से जो गोबर मिलता है उसे सुखा कर चिपरी या उपले बना लेते हैं। वैष्णव परम्परा की देवोत्त्थान एकादशी के दिन एक बार फिर से कृषि कर्म का दैवीकरण होता है। इस बार घेरा चावल के अइपन से बनता है जिसके भीतर वही सब चित्रित होते हैं जो गोधन के घेरे में होते हैं। केन्द्र में मिट्टी से बनी चन्द्रपीठ होती है जिस पर उन्हीं उपलों को जलाया जाता है।
उस आग में अन्न नहीं कन्द मूल जैसे सुथनी, शकरकन्द आदि भुने जाते हैं। जलकन्द सिंघाड़ा और नई ईंख के साथ उनका रात में पारण किया जाता है और वर्षा के चातुर्मास में सोये विष्णु जाग जाते हैं - प्रबोधिनी एकादशी। इस शेषशायी विष्णु का बिम्ब वैदिक गाथाओं जैसा ही विराट है।
सूर्यस्वरूप और काल से परे विष्णु अंतरिक्ष सागर में पूर्वी क्षितिज से पश्चिमी क्षितिज तक महासर्प राशि पर लेटे  हुये हैं। उनकी नाभि से प्रजापति यानि वही पुराना मृगशिरा निकलता दिख रहा है और पैरों से स्रोतस्विनी। तमाम ग्रह नक्षत्र जगते देव की वन्दना में लीन हैं।
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आइये आज की गोवर्द्धन पूजा के कुछ चित्र देखते हैं (स्रोत: http://deoria.blogspot.in और 'दैनिक जागरण'):
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और अंत में गोधन पूजा के गीत से एक अंश:
उठहु हे देव उठहु, सुतल भइलें छौ मास
तोहरे बिना ए देव, बारी न बियहल जा, बियहल ससुरा न जाय
कारी जे पहिरे कारी कमरिया, निरसइल पिपरा के पात
झम झम झमकी मानर बाजी, मंगल यहि छौ मास।
इस देवउठान के साथ ही देवयानी छ: महीने प्रारम्भ हो जाते हैं जब विवाहादि मंगल कर्म सम्पन्न किये जाते हैं। यमप्रतीक गोधन को कूटने के एक गीत का अंश निम्नवत है:
ऐरो के कूटीलें, भैरो के कूटीलें, कूटीलें जम के दुआर
कूटीलें  भइया के दुसमन, सातो पहर दिन रात। 
... भइया दूज से प्रारम्भ हो अगहन पूर्णिमा तक चलने वाला भाई बहन का पर्व पिड़िया अगले अंक में।
__________________
अगले अंक में: पिड़िया में यम-यमी, प्रेम, नरबलि और अथर्ववेद की वनस्पति स्त्री परम्परा

32 टिप्‍पणियां:

  1. लाजवाब श्रृंखला है| इतने श्रम से भारतीय इतिहास, परंपरा और संस्कृति के धूमिल होते पृष्ठों की खोज, शोध, पुनर्लेखन और प्रकाशन आसान काम नहीं है| जारी रहे!

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  2. उत्तर
    1. :) थोड़ा ध्यान दीजिये भंते!
      - पृथ्वी अपने अक्ष पर झुकी घूमती है और सूर्य के चारो ओर प्रदक्षिणा भी करती है। इस कारण सूर्य ऊपर आकाश में एक निश्चित पट्टी अयनपट्टी जिसका केन्द्रीय भाग अयनवृत्त कहलाता है, में वर्ष भर स्थान बदलता चलता दिखता है।
      - चूँकि दिन में तारे नहीं दिखते इसलिये सूर्य की गति को समझने और ऋतुओं के सापेक्ष उसकी स्थिति दिखलाने के लिये रात के आकाश में उस पट्टी को स्थिर तारा/तारा समूहों के 27 भागों में बाँट दिया गया जो कि नक्षत्र कहलाये जैसे - अश्वनी, भरनी, कृत्तिका आदि। 27 भाग इसलिये कि चन्द्रमा लगभग 27 दिनों में पृथ्वी की परिक्रमा पूरी करता है और प्रतिदिन रात में एक नक्षत्र से दूसरे नक्षत्र में भ्रमण करता पाया जाता है। ऐसा चन्द्रगति आधारित महीनों के लिये किय गया। पश्चिम में चूँकि महीने सूर्य गति आधारित हैं इसलिये वहाँ अयन वृत्त को 12 भागों में बाँटा गया - 12 राशियाँ।
      - उगते समय सूर्य नभ के जिस भाग में दिखता है उसे रात के आकाश में देख कर यह जाना जाता है कि वहाँ कौन सा नक्षत्र है और यह कहा जाता है कि 'सूर्य अमुक नक्षत्र में है'। ऐसा ही अन्य ग्रहों और चन्द्रमा के लिये भी किया जाता है।
      - पृथ्वी के अक्ष के झुकाव के कारण सूर्य का आभासी पथ पृथ्वी के घूर्णन वृत्त को जिन दो स्थानों पर काटता है वे जब ठीक पूरब और पश्चिम दिशा में पड़ते हैं तो उन्हें विषुव दिन कहा जाता है जब कि दिन रात बराबर होते हैं। प्राचीन लोगों के लिये इसकी पहचान आसान थी और चूँकि ऋतु परिवर्तन उनके कारण फसलों के वार्षिक दौर भी सूर्य से ही जुड़े हैं इसलिये ये दिन महत्त्वपूर्ण हो धार्मिक गतिविधियों को समर्पित हो गये। 21 या 22 या 23 मार्च का महाविषुव ऐसा ही दिन है।
      - स्पष्टत: इस दिन को भी यह देखा जाता रहा कि किस नक्षत्र में है!
      - पृथ्वी की एक और गति के कारण जिसमें कि घूर्णन अक्ष ही लट्टू के शीर्ष जैसा घूमता रहता है (आवृत्ति लगभग 26000 वर्ष), महाविषुव के दिन भी हर 72 वर्ष में एक अंश पीछे होते जाते हैं। पूर्ण वृत्त के 360 अंश को 27 राशियों से विभाजित करने पर एक राशि के जिम्मे आकाश का 13.33 अंश आता है। जब महाविषुव की खिसकन इतनी हो जाती है तो स्पष्टत: महाविषुव के दिन का नक्षत्र भी बदल जाता है। धार्मिक ग्रंथों में इस तरह के प्रेक्षण दर्ज हैं जिनके आधार पर उनका और सम्बन्धित घटनाओं के लगभग समय निकाले जाते हैं।
      - चूँकि खिसकने की यह गति बहुत बहुत धीमी है इसलिये मनुष्य ने इस पर ध्यान बहुत बाद में दिया। वैदिक श्रुतियों को ज्यों का त्यों पीढ़ी दर पीढ़ी मूल रूप में सुरक्षित रखा गया। इसके लिये बहुत ही सुदृढ़ व्यवस्थायें की गयी थीं। ऐसा आज भी जारी है। हजारो वर्षों के काल में लोक की भाषायें तो बदलती रहीं लेकिन वेदों की भाषा इस कारण यथावत रही जिसे linguist पहचानते हैं।
      इन तथ्यों से इसकी सम्भावना निर्मूल हो जाती है कि किसी ने back calculation कर ऐसी बातें लिख दी होंगी।

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  3. बहुत सारे सवाल हैं मन में -

    सरस्वती के बचे खुचे स्यमंतपंचक कुंड सूख गये, मतलब यह भी कह सकते हैं कि कलियुग का निर्धारण भी यहीं से हुआ ?

    पिता के स्थान पर माँ के नाम से पहचाना जाना - यह प्रथा कहाँ से लुप्त हुई, क्योंकि प्राय: पौराणिक ग्रंथों में स्त्री का सम्मान बहुत होता था, पर वह लुप्त कब से होना शुरू हुआ ।

    मात्र 8800 श्लोकों वाली जयगाथा में कृष्ण द्वारा वैदिक कर्मकांडों के प्रति वितृष्णा और अनासक्ति के प्रति स्वीकार भाव देख परवर्ती विद्वानों ने उसे विस्तृत कर एक पूर्ण शास्त्र के रूप में व्यवस्थित कर दिया। क्या यह ऋक्संहिता कहलाई ?

    सवाल और भी हैं हमारे पता नहीं ये ज्ञान का कलस भरने की लालसा कभी खत्म होगी कि नहीं :)

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    उत्तर
    1. - विशाल सरस्वती जिसका पाट कभी 7 किलोमीटर तक था, अंतत: 1900 ई.पू. में लुप्त हुई। इसका कलियुग के प्रारम्भ से सम्बन्ध नहीं है। त्रयी से चार वेदों में व्यवस्थित होने के संक्रमण काल के दौरान यह पाँच विशाल कुंडों में ही बची रह गयी थी जो बहुत पवित्र माने जाते थे।

      - पुराण संहिता-ब्राह्मण-आरण्यक-उपनिषदों से बाद के हैं। पुराणों और स्मृतियों में बहुत घालमेल हैं, कुछ तो 19 वीं सदी तक लिखे जाते रहे! उपनिषद परम्परा को भी दूषित करने का प्रयास अकबर के इस्लामी राज में किया गया - अल्लोपनिषद की रचना द्वारा लेकिन पहचाने गये।
      स्मृतियों और पुराणों में स्त्री विरोधी बहुत सी बातें हैं। पुराने युग में पिता और माँ दोनों से संतान की पहचान की परम्परा थी और दोनों साथ साथ विद्यमान थीं। ऐसा कुछ नहीं कि एक लुप्त हुई और दूसरी सामने आई। यहाँ केवल उस कर्मकांडी व्यवस्था से भेद की बात कही गयी है जो अथर्वणों को हेय मानती थी। रोगी चिकित्सा, पशुओं की देख भाल और स्त्री समस्याओं गर्भादि रक्षण से जुड़ी होने के कारण अथर्वण परम्परा में स्वभावत: स्त्री बराबरी के स्तर पर थी। इस पक्ष को आगे की कड़ी में विस्तार से देखेंगे।

      - पूर्ण शास्त्र माने पंचमवेद से जानी जाने वाली शतसहस्री संहिता यानि एक लाख श्लोकों वाली महाभारत। इसका ऋग्वेद की संहिता से सम्बन्ध नहीं है।
      महाभारत के रचयिताओं का आत्मविश्वास देखते बनता है! स्वयं वेदव्यास यह कहते हुये दर्शाये गये हैं कि जो इसमें नहीं, वह कहीं नहीं है!

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  4. रविकर जी,
    समयाभाव के कारण मैं बहुत से मंचों पर नहीं जा पाता लेकिन इस तरह की सूचना मिलने पर जाता हूँ। वहाँ गया तो लिंक से आप के ब्लॉग बेसुरम पर भी गया और दोनों स्थानों से माजरे का पता चला।
    दोनों के पी डी एफ सुरक्षित कर लिया हूँ।
    ललित कुमार को लेकर जैसी काव्य गन्दगी आप ने फैलाई है वह इस मंच से जुड़े व्यक्ति के लिये उपयुक्त ही लगती है। ऐसा पहले भी हो चुका है और उस समय भी मैंने 'चर्चामंच की चोन्हरई' शीर्षक से यह पोस्ट लिखी थी: http://girijeshrao.blogspot.in/2010/10/blog-post_06.html
    तब से समय बहुत बीत चुका है लेकिन चर्चामंच...
    ललितकुमार को मैं जानता हूँ। बहुत कुछ बता सकता हूँ लेकिन उनसे अनुमति नहीं ली।
    जिस बात को आप ने चर्चामंच के चर्चाकारों पर ले कर इतनी खरी खोटी सुनाई, वह ग़ैर इस्लामी उन लोगों के लिये सामूहिक रूप से कही गयी है जो न तो इस्लाम को पढ़ते हैं और न दूसरों के समझाये समझते हैं। नतीजन ऐसे शुतुर्मुर्ग उसी दुर्भाग्य को झेलते हैं जिसे पाकिस्तान, बंगलादेश, कश्मीर, केरलादि के हिन्दुओं ने झेला और आज भी जिसे कमोबेश उनके साथ समूचा संसार झेल रहा है। हो सके तो 'धिम्मी' शब्द को जानने का प्रयत्न कीजियेगा लेकिन उसके लिये पढ़ना पड़ेगा। ललितकुमार चेतना के जिस स्तर पर हैं, उस स्तर वाले वाकई अल्पसंख्यक हैं, भारतीय इस्लामियों की तरह फर्जी नहीं। बातें जब स्तरभिन्नता के कारण हों तो विवाद ही होते हैं। संवाद के लिये सम-स्तर, खुला मस्तिष्क और सुपात्र आवश्यक होते हैं।
    सेकुलर कंडीशनिंग के मारे जन की नियति का क्या किया जा सकता है। अलबत्ता व्यास की तरह बाँह उठा उठा कर यह कहा जा सकता है कि सुनो! सत्य को सुनो। कोई न सुने तो भी व्यास चिल्लाते रहेंगे। यह उनकी नियति है और अनसुने करने वालों की नियति उनकी।
    मजहब का नाम ले ग़लीज अरबी पिछड़ेपन को स्थापित करने के राजनीतिक आन्दोलन इस्लाम के षड़यंत्रों और कारगुजारियों का पर्दाफाश करने को समूचे संसार में लोग लगे हुये हैं। आप की और रंगे सियारों की हर बात का उत्तर है लेकिन मेरे पास समय की कमी है। हो सके तो एक पूर्व इस्लामी अली सिना की साइट alisina.org को देख लीजियेगा। वहाँ सब कुछ है।
    इस ब्लॉग के पुराने लेखों और कहानियों को पढ़ेंगे तो आप समझ पायेंगे कि जिस तथाकथित सामासिक संस्कृति का नाम ले आज बरगलाया जाता है, मानसिक प्रक्षालन किया जाता है; उसकी शुभ्रता क्या थी। क़ुरबानी मियाँ और बी के चरित्र पर्याप्त हैं।
    मैं कितना बुरा हूँ, कितना साम्प्रदायिक हूँ, यह मैं जानता हूँ। मुझे कोई सफाई नहीं देनी :)
    इस्लाम को आप के मंच के किसी भी व्यक्ति या किसी भी टिप्पणीकार से अधिक और बेहतर मैं जानता हूँ।
    अब मैं आप से अनुरोध करता हूँ कि चर्चा मंच से मेरी पोस्ट का लिंक तत्काल हटायें क्यों कि अपने सिर पर इस्लामी गन्दगी मुझे बर्दाश्त नहीं और आप लोगों ने इस बार भी यही किया है। सोते हुये को जगाया जा सकता है लेकिन जो जान बूझ कर सो रहा हो उसे नहीं।
    देहात में तीन चांस देने की बात की जाती है, वह आप के मंच ने ले लिया। आप के माध्यम से चर्चामंच से यह अनुरोध कर रहा हूँ कि भविष्य में भी कभी मेरे आलेख की तथाकथित लिंकित चर्चा वहाँ न की जाय। आशा है कि मेरा अनुरोध आप के माध्यम से सभी तक पहुँचेगा।
    मेरी शुभेच्छायें आप के साथ हैं। स्वस्ति।
    ...हाँ, कतिपय कारणों से दूसरों के चिट्ठों पर टिप्पणी करना मैं छोड़ चुका हूँ, इसलिये वहाँ टिप्पणी नहीं कर पाऊँगा। जिनके आलेख ऐसे होते हैं कि कुछ कहना बनता है, उन्हें मैं उनके उपलब्ध ई मेल पते पर भेज देता हूँ।

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  5. नक्षत्रों पर आधारित काल स्थिति स्वयं में ही सत्यापन के बीज हैं, उन पर लिख रहा हूँ। इतिहास को अब भी नकारने वाले अपनी मूढ़ता को सत्यापित कर लेंगे।

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  6. कमेंट किया है वहाँ, या तो स्पैम में गया या फ़िर संयत-शालीन वाले क्राईटेरिया में अनुत्तीर्ण हो गया है :(
    बेह्तर होगा कि हम जैसे जो लोग गलत लगते हैं, उनका हुक्का पानी बंद कर दें वो। पाक साफ़ रहेंगे और गाहे बेगाहे दुखी भी नहीं होना पड़ेगा उदारमना मानवों को।

    http://charchamanch.blogspot.in/2012/11/1067.html?showComment=1353227196551#c4475812042168784211

    एक हजार से ज्यादा पोस्ट्स इस मंच पर आई हैं, पहली बार किसी धर्मविशेष के ब्लॉगर की पोस्ट नहीं लगी थी कि उस पर हल्ला हो। कुछ वजह रही होगी जो बात उठी है लेकिन ये सब क्यों सोचा जाये या पाठकों को सोचने दिया जाये? बढ़िया भी है, फ़ैशन भी और पाठकों के लिये सुविधाजनक भी कि दो तीन लोगों को धर्म निरपेक्षता के लिये खतरा सिद्ध करके परोस दिया जाये। यही काम राजनीतिक दल करते आये हैं और सरकारें बनाते हैं।

    दीपावली के अवसर पर दीपावली मनाने के आह्वान करते शीर्षक के साथ एक पोस्ट लगाई जाती है, जिसमें एक दो साल पुरानी पोस्ट का लिंक दिया जाता है जिसका दीपावली मनाने के साथ कोई साम्य नहीं। अपनी सीमित(आप लोगों की भाषा में संकीर्ण) सोच और बुद्धि से पर्व मनाने संबंधी साम्य न खोज पाने पर मैंने अपने कमेंट में उस पोस्ट का औचित्य ही पूछा था।

    गिरिजेश ने सुझाव दिया था कि या उनकी पोस्ट का लिंक हटाया जाये या उस पोस्ट का लिंक जिस पर उन्हें ऐतराज है। अगर अनुरोध अनुचित था तो गिरिजेश वाली पोस्ट का लिंक हटा लेना चाहिये था, यकीन मानिये कहीं से कोई विरोध नहीं होना था। लेकिन वो हटा लेने से यह सिद्ध नहीं होता कि यहाँ कुटिल, आलसी और छद्मरूपधारी छुद्रमना जैसे धर्मांध, सिरफ़िरे, संकीर्ण मानसिकता वाले तथाकथित हिन्दू हैं जिनसे आप लोगों की गंगा-जमुनी तहज़ीब को खतरा है इसलिये इस्लामी दिशानिर्देश वाली पोस्ट हटाकर और फ़िर इस ब्लॉग उस ब्लॉग पर लिंक-लिंक खेलकर हम लोगों की असली सूरत सबके सामने लाकर आप सब चर्चाकारों ने बहुत सबाब का काम किया है, बधाई।

    चलिये इसी बहाने आपके एक और ब्लॉग ’बेसुरम’ पर भी जाना हुआ। ’गाफ़िल’ साहब की मांग का पूरा समर्थन कि ब्लॉगजगत में ऐसे भड़काऊ तथा कट्टरपंथियों की खुलकर भर्त्सना होनी ही चाहिए जो संकीर्ण बुद्धि के बूते ब्लॉग बनाकर चले आये हैं लिखने:)


    और अंत में ईमानदार प्रतिक्रिया भी, फ़िर जाने इधर आना हो कि नहीं -
    बात अजीब सी लग सकती है लेकिन जैसा गाफ़िलजी और आपके चर्चामंच ने सिद्ध करने का प्रयास किया है, उसके उलट मैं शाहनवाज, डाक्टर जमाल जैसे ब्लॉगर्स का बहुत बड़ा प्रशंसक हूँ हालाँकि इन लोगों को ज्यादा पढ़ता नहीं हूँ। ये लोग कम से कम अपने दीन, मिशन, एजेंडे के प्रति वफ़ादार तो हैं। ’गाफ़िल’ साहब ने घृणा के लायक माना, अपन तो इतने में ही खुश हैं। बहुत बहुत आभार। शुभकामनायें आपको, चर्चामंच को और आपकी टीम को’

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  7. :) नवीनतम जानकारी के अनुसार हम लोग कूपमंडूक भी घोषित किये गये हैं!
    धन्य चचा ग़ाफिल!

    जवाब देंहटाएं
  8. तो सही तो कह रहे हैं ’गाफ़िल साहब’
    हमने भी उनका समर्थन करते हुये कहा है कि
    @ कूप मंडूक:
    उचित निर्णय है ’गाफ़िल’ जी। कूप जाने और हम मंडूक जानें। आप काहे अपना दिल दरिया और समंदर नापाक करें? :)

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  9. मैने अपना ये जवाब चर्चामंच और बेसुरम पे दिया है, ध्यान आकर्षित करने के लिए आपका धन्यवाद भैया जी.

    सादर

    ललित

    हाँ, तो बेसुरम पर आने वाले ‘असुर’ लोगों, (यहाँ पर ‘असुर’ शब्द का प्रयोग मैने बिना सुर में गाने पढ़ने और बोलने वालों के लिए किया है और उनके लिए भी किया है जो "हंसुआ के बियाह में खुरपी का गीत गाते हैं". यह साफ करना मुझे इसलिए भी अत्यावश्यक लगा क्योंकि मैं इन सभ्य, सुसंस्कृत, सेक्युलर लोगों की सुरुचिपूर्ण गालियाँ और नही सुनना चाहता हूँ)
    धृष्टता के लिए क्या कहूँ? लेकिन असूरों, मुझे एक बात समझ में नही आई, इतना हंगामा क्यों बरपा है? “धिम्मी” शब्द के प्रयोग पर? या “हल्दी घाटी” का उद्धरण देने पर? और लोगों की तरह 'शर्मनिरपेक्ष' नही होने पर? याकि शक्ति सिंहों और मानसिंहों के बीच 'महाराणा' का नाम लेने पर???
    अब आते हैं मुद्दे की बात पर. शुरू करूँगा 'शाह नवाज़' से और अंत करूँगा 'रविकर' से. बीच में जितने भी कुमार, कुमारी, मिश्रा आदित्यादि है, सबसे निपटते चलेंगे.
    शाह नवाज़ ---- मेरी समझ में नहीं आया कि आखिर मेरी इस पोस्ट पर किसी को आपत्ति कैसे हो सकती है? मैंने तो आज तक कभी भी किसी भी धर्म के खिलाफ कोई पोस्ट नहीं लिखी, यहाँ तक कि कोई टिप्पणी भी नहीं की... क्योंकि यह मेरे स्वाभाव और मेरे माता-पिता के द्वारा दिए गए संस्कार यहाँ तक कि मेरे धर्म के भी खिलाफ है...
    --- जैसे ही मैं अपने धर्म की अच्छाइयों से परदा उठाना शुरू करता हूँ, यह साबित करने की ज़रूरत हीं नही बचती हैकि दूसरे धर्म बुरे हैं.... आपके स्वभाव और संस्कार से मैं अपरिचित हूँ लेकिन यह बात डंके की चोट पे कही जा सकती हैकि यह कम से कम आप के धर्म के खिलाफ नही ही है.
    मुझे आपत्ति इस बात को लेकर भी है कि हम दुनिया को मुस्लिम और गैर मुस्लिम के चश्मे से क्यों देखते हैं? मुझे तो किसी ने भी दुनिया को 'हिंदू' और 'गैर हिंदू' में बाँट कर नही दिखाया... शाह नवाज़, मुद्दा यह नही हैकि आप ने किसी धर्म को बुरा कहा या नही, मुद्दा यह हैकि हम दुनिया को बाँटे क्यों धर्म के आधार पर?
    राजेश कुमारी --- समस्या यही हैकि आप जैसे लोग लेखक है जो सतह के नीचे उतर के नही देख सकते हैं. इससे ज़्यादा अगर मैं कुछ और कहने की कोशिश करूँ शायद व्यक्तिगत आक्षेप की श्रेणी में आ जाएगा अतः ....
    ईश मिश्रा -- और कुछ हो या ना हो, आप जैसे लोगों से हिन्दी का भविष्य उज्ज्वल है. अस्मिता और वो भी दुर्घटना की!!! वाह!!! आज एक नया शब्द प्रयोग सीखा मैने. और मैने ये भी जाना की 'या तो अतीत अमूर्त होता है या हमारा, विशेषतः हिंदुओं का अतीत अमूर्त है, गौरवशाली तो कत्तई नही!!! आप 'धिम्मी' मानसिकता के मूर्त रूप हैं मिश्रा जी
    गाफिल --- आपके बारे में कुछ भी कहना छोटा मुँह बड़ी बात होगी. आपलोग ब्लॉग जगत के चमकते सितारे हैं. बस यही पूछना है आपसे कि यह कहाँ और ब्लॉग्गिंग के किस 'रूल बुक' में लिखा हुआ हैकि टिप्पणी करने वाले को भी अपना प्रोफाइल बनाना हीं होगा, अथवा वही टिप्पणी कर सकता है, जो अपना ब्लॉग लिखता है?
    दिक्कत यह नही हैकि आप बड़े हीं आदर से बूजुर्गवार जुम्मन को जुम्मन चाचा कहते हैं. दिक्कत यह हैकि जब वही जुम्मन अपनी खाला पे अन्याय करते है तो आप जैसे लोग "बिगाड़ के डर से ईमान की बात नही कहते हैं"
    व्यक्तिगत रूप से मुझे इस नाम, 'छद्मरूपधारी छुद्रमना' पर सख़्त आपत्ति है क्योंकि आज तक मैने जो भी किया डंके की चोट पे किया... आरा जिला घर बा ना कहु से डर बा. वो भी स्वीकार्य हो गया मुझे लेकिन ये 'छुद्र' क्या होता है?आप जैसे लोगों से, जिनसे कि पूरा का पूरा हिन्दी ब्लॉग जगत चमचमायमान है, उनसे हिन्दी में ऐसी ग़लती!!!??? आगे से आप मेरे लिए 'क्षुद्र' शब्द का प्रयोग कीजिएगा कृपा कर के. थोड़ा सा शुचितावादी हूँ मैं शब्दों की वर्तनी और उनके प्रयोगों को लेकर... बर्दाश्त कर लीजिए.

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  10. ऱविकर --- ह्म्‍म्म्म, क्रोधग्नि जलाए रखना, क्या पता किस मोड़ पर सामना हो जाय. आज मुझे शर्म आ रही हैकि जिनके उपर हिन्दी का दारोमदार है उन्हें हिन्दी सिखानी पड़ रही है...
    रविकर, जब तुमने इसे व्यक्तिगत बना ही दिया है तो...

    रविकर, तुमने तो कर्ता-अकर्ता का भेद ही मिटा दिया बे. बड़े काव्य लिखते फिरते हो और कविता का 'क' भी नही आता है!!! याद रखना आगे से, मैं 'टिप्पणी' नही 'टिप्पणीकर्ता' हूँ.

    ग़लती तुम्हारी है भी और नही भी. ग़लती इस लिए नही है कि मेरा कोई प्रोफाइल नही है अतः तुम्हे जानकारी मिलेगी कहाँ से. और ग़लती इस लिए हैकि तुमने स्वयं को वहीं रोक कर एक बार फिर से अपने सतही होने का प्रमाण दे दिया. एक बार पूछ लिया होता उसी ब्लॉग पे, जहाँ मैने अपनी टिप्पणी की थी, बहुत जानकारी मिलती और दिलचस्प जानकारी मिलती...

    ह्म्म तो यह स्तर है तुम्हारे सोंच-विचार का? अच्छा हैकि ब्लॉग जगत से मेरा परिचय तुम्हारे द्वारा नही हुआ.


    रविकर.... शब्द तो यही बताता है-- रवि का 'किया' हुआ. खैर बाप का नाम अपने साथ जोड़ने की परंपरा बहुत पुरानी है लेकिन इससे यह नही पता चलता हैकि 'रवि' ने 'कितनी' बार 'किया' तो तुम 'निकले'... नाम में यह भी जोड़ लो और एक नयी प्रथा शुरू करो... बाबा का आशीर्वाद तुम्हारे साथ है.

    तुम्हारी माँ भी 'एक लिंग' पे बैठी थी, तभी तुम आए. आज वो अफ़सोस करती होंगी कि क्यों बैठी उस लिंग पर, हाँ, अगर सही में 'एकलिंग' पे बैठी होती तो उनका, तुम्हारा, सबका जीवन धन्य हो जाता...
    रविकर, बहुत कम लोग ही होंगे जो मेरे 'माँ-बाप' तक पहुँचे होंगे, और जो जानते हैं वो तो कदापि नही करते हैं. तुमने किया... मैने माफ़ नही किया, और इसीलिए मैने कहाकि 'क्रोधाग्नि' जलाए रखना. बाबा का आसन अभी बंगलोर में है और बाबा का नंबर है – 9739008569. बाबा का मेल आइडी है – lalit74@gmail.com.
    और अंततः जब मुझे सूचना मिली रायता फैलने की और इधर आ के मैने देखा तो जो पहली बात दिमाग़ में आई, वह थी:
    उपदेशो हि मूर्खानाम, प्रकोपाय न शांतये.
    पयः पानम भुजनगानां, केवलम विष वर्धनम...
    लेकिन, अगर जवाब नही देना था तो हुंकार तो भरनी थी. यह मेरा जवाब नही केवल हुंकार है.
    अफ़सोस रहेगा तो सिर्फ़ इसी बात का कि मेरे चक्कर मे 'मो सम कौन' भाई जी पिस गये.

    अगर रविकर ने सीमा नही लाँघी होती तो आज मैं अपने एक एक शब्द का भावार्थ बताता और ग़लत नही होने पर भी क्षमाप्रार्थी होता.. लेकिन अब... बस यही कह कर समाप्त करता हूँ:

    “हम जीवन के महाकाव्य हैं, कोई छन्द प्रसंग नही हैं”

    इसके आगे जिसे जो कुछ भी जानना सुनना हो, बाबा से संपर्क कर ले...

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  11. हिंदुस्तान 2000 वर्षों तक ग़ुलाम यूँ ही नहीं रहा ...और आज भी हिन्दू बेवकूफों की कमी नहीं है, जो पहला मौका मिलते ही अपनों की ही छीछालेदर करने में कोई कमी नहीं रखते हैं। ये हिन्दू कौम की बहुत बड़ी खासियत है, जब भी मौका मिले, दूसरों के लिए, अपनों के विरोध में खड़े हो जाना। सेकुलरिज्म आज का फ़ैशन नहीं है, सदियों पुराना फैशन है। आदिकाल से हिन्दुओं की दरियादिली ने हमेशा कुलाचे भरीं हैं। ऐसा एक भी उदाहरण इस ब्लॉग जगत में, दुसरे कौम के लोगों का नहीं देखा है, जब उन्होंने, हमारे लिए अपनों को जगह दिखाई हो। सही मुड़ी-फुटौवल हो रही है।

    त्यौहार के दिन ये पोस्ट लगी, जिसकी कोई ज़रुरत नहीं थी। मुसलमान बताएँगे हमको कि , हिन्दुओं को कैसे रहना चाहिए उनके साथ?? बड़ी मुश्किल से उनको उनकी जगह दिखाई गयी थी, ब्लॉग जगत में, लेकिन कुछ लोगों को तो महान बनना है, तो बनिए महान, किसने रोका है।

    गिरिजेश जी, ललित जी और संजय जी ....आपलोगों के समकक्ष खड़े होने की ताब, यहाँ जितने भी महानुभाव हैं, जिन्होंने ये सब लिखा है, किसी में भी नहीं है। इनको माफ़ कीजिये क्योंकि ये नहीं जानते ये क्या-क्या कर रहे हैं।

    जवाब देंहटाएं
  12. संजय जी,
    'और अंत में ईमानदार प्रतिक्रिया भी'
    आपकी प्रतिक्रिया हमेशा ईमानदार होती है, आपको ये कहने की आवश्यकता ही नहीं है।

    'फिर जाने इधर आना हो कि नहीं' .....
    ऐसा सोचने की भी आप हिम्मत मत कीजियेगा :):)

    'बात अजीब सी लग सकती है लेकिन जैसा गाफ़िलजी और आपके चर्चामंच ने सिद्ध करने का प्रयास किया है, उसके उलट मैं शाहनवाज, डाक्टर जमाल जैसे ब्लॉगर्स का बहुत बड़ा प्रशंसक हूँ हालाँकि इन लोगों को ज्यादा पढ़ता नहीं हूँ। ये लोग कम से कम अपने दीन, मिशन, एजेंडे के प्रति वफ़ादार तो हैं।'
    इस बात को मैं भी मानती हूँ, ये अपने एजेंडे पूरी ईमानदारी से निभाते हैं ... फिर चाहे वो जैसे भी एजेंडे हों ...

    ’गाफ़िल’ साहब ने घृणा के लायक माना,अपन तो इतने में ही खुश हैं।
    मुझे क्वीन एलिजाबेथ से बहुत घृणा है ....उसकी सेहत पर मेरी घृणा से क्या फर्क पड़ता है ...फिर जिसके पास जो होगा वही तो वो देगा....आपके पास ख़ुशी है, आप खुश हैं।
    कुछ लोग सिर्फ दया के लायक होते हैं ...वो भी कीजिये। :)

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  13. @ गिरिजेश जी - अब समझ में आया कि हंगामा क्यों और कहाँ बरपा हुआ है ।

    @ आपने चर्चामंच पर जो कहा था - वह उचित था ।

    @ अदा जी, संजय जी से सहमत हूँ ।

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  14. आखिरी अनुरोध के रूप में अभी यह मेल चर्चामंच के मॉडरेटर श्री रूपचन्द्र शास्त्री जी को भेजा है:

    शास्त्री जी,

    आप के चर्चा मंच http://charchamanch.blogspot.in पर जो चल रहा है उससे तो आप अवगत होंगे ही। चर्चाकार दिनेश च. गुप्त उर्फ रविकर के माध्यम से मैंने यह अनुरोध किया था कि 18 नवम्बर 2012 की चर्चा 1067 से मेरी पोस्ट का लिंक हटाया जाय और भविष्य में भी कभी मेरी पोस्ट की चर्चा वहाँ न की जाय।

    पोस्ट का लिंक अब तक वहाँ से नहीं हटाया गया है। ग़ाफिल और रविकर ने तो आगे की चर्चा में और अन्यत्र भी गन्द मचा रखी है। प्लेटफॉर्म आप का है, आप जैसे उसका उपयोग करें या होने दें लेकिन इतनी सदाशयता तो आप दिखाइये ही कि मेरी पोस्ट का लिंक वहाँ से हटा दीजिये। मैं किसी भी तरह से ऐसे प्लेटफॉर्म से लिंकित नहीं होना चाहता और जहाँ तक समझता हूँ इस माँग में कुछ भी अनुचित नहीं है। उसके बाद आप लोग वहाँ चाहे जो करें। मंच आप का, मंची आप के!

    सादर,
    गिरिजेश

    जवाब देंहटाएं
  15. शास्त्री जी ने चर्चामंच पर इस सन्देश का उत्तर उद्धृत करते हुये दिया है लेकिन ई मेल में उत्तर नहीं दिया। इसलिये उनके उत्तर को उद्धृत करते हुये यहाँ मैं अपना उत्तर दे रहा हूँ:
    ______
    शास्त्री जी चर्चामंच पर:
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक (उच्चारण)November 19, 2012 9:45 AM
    शास्त्री जी,

    आप के चर्चा मंच http://charchamanch.blogspot.in पर जो चल रहा है उससे तो आप अवगत होंगे ही। चर्चाकार दिनेश च. गुप्त उर्फ रविकर के माध्यम से मैंने यह अनुरोध किया था कि 18 नवम्बर 2012 की चर्चा 1067 से मेरी पोस्ट का लिंक हटाया जाय और भविष्य में भी कभी मेरी पोस्ट की चर्चा वहाँ न की जाय।

    पोस्ट का लिंक अब तक वहाँ से नहीं हटाया गया है। ग़ाफिल और रविकर ने तो आगे की चर्चा में और अन्यत्र भी गन्द मचा रखी है। प्लेटफॉर्म आप का है, आप जैसे उसका उपयोग करें या होने दें लेकिन इतनी सदाशयता तो आप दिखाइये ही कि मेरी पोस्ट का लिंक वहाँ से हटा दीजिये। मैं किसी भी तरह से ऐसे प्लेटफॉर्म से लिंकित नहीं होना चाहता और जहाँ तक समझता हूँ इस माँग में कुछ भी अनुचित नहीं है। उसके बाद आप लोग वहाँ चाहे जो करें। मंच आप का, मंची आप के!
    सादर,
    गिरिजेश
    --
    गिरिजेश जी!
    मुझे नहीं पता था कि आपके भीतर धार्मिक उन्माद कूट-कूटकर भरा हुआ है। मैंने विवादों से बचने के लिए उस समय आपकी बात मानकर लिंक 11 की पोस्ट हटा दी थी, जो मेरी बहुत बड़ी भूल थी। क्योंकि मैं विवाद को तूल नहीं देना चाहता था। जबकि उस पोस्ट में कुछ भी ऐसा नहीं था जो कि समाज के लिए हानिकारक हो। मुझे चाहिए था कि आपकी ही पोस्ट तुरन्त हटा देता।
    रही बात आपकी पोस्ट हटाने की तो मैं उसदिन के चर्चाकार आदरणीय चन्द्र भूषण मिश्र "ग़ाफ़िल" जी से निवेदन करता हूँ कि वो आपकी पोस्ट को वहाँ से हटा दें और लिंक 11 पर जो पोस्ट लगी थी उसे आपकी पोस्ट के स्थान पर लगा दें।
    रही बात आपकी किसी पोस्ट की चर्चा चर्चा मंच पर लगाने की। तो इतना जान लीजिए कि चर्चा मंच इतना सस्ता भी नहीं है कि उस पर आप जैसोंं की पोस्ट लगाई जाये।
    हम चर्चाकार निस्वार्थभाव से समय लगाकर चर्चा करते हैं। जिसका कोई भी लाभ न तो हमें और न ही हमारे ब्लॉग को मिलता है। इसलिए धौंस और धमकी का भी यहाँ कोई असर होने वाला नहीं है।
    मुझे नहीं पता था कि आपकी सोच इतनी संकुचित होगी। इसीलिए आपकी बातों में आकर मैंने अपने विशेष अधिकार का प्रयोग करके गाफिल जी की चर्चा से एक पोस्ट हटा दी थी। मैं गाफिल जी से अपनी भूल के लिए क्षमा माँगता हूँ। आपको एक बात और भी बता देना चाहता हूँ कि रविकर जी, ग़ाफ़िल जी और दिलबाग विर्क जी भी इस चर्चा मंच के मॉर्डरेटर हैं। यदि वो चाहें तो मेरी भी कोई पोस्ट हटा सकते हैं।
    समझदार को इशारा ही काफी होता है।
    __________________
    मेरा ई मेल उत्तर:
    शास्त्री जी,
    आप ने चर्चा मंच पर मेरे इस मेल को उद्धृत कर वहाँ उत्तर दिया है। मेल भी भेज दिये होते! :)
    अस्तु।
    उत्तर भी जान लीजिये:
    @ धार्मिक उन्माद कूट-कूटकर भरा: चेतना स्तर की भिन्नता की बात है। जिस ओर मैंने ध्यान दिलाया, यदि वह आप की दृष्टि में धार्मिक उन्माद है तो वही सही। आप कोई राय बनाने के लिये स्वतंत्र हैं।
    @ मुझे चाहिए था कि आपकी ही पोस्ट तुरन्त हटा देता। - अब हटा दीजिये। इसमें विलम्ब न कीजिये :)
    @ चर्चा मंच इतना सस्ता भी नहीं है कि उस पर आप जैसोंं की पोस्ट लगाई जाये। - चर्चामंच :) ;) हम जैसे भी हैं हमें पता है कि क्या हैं। रही बात सस्ती और महँगाई की तो बाज़ार उसका निर्णायक होता है, हम आप नहीं। आप मंच के मॉडरेटर हैं इसलिये अपने मंच के मंचियों से अनुरोध करने के बजाय स्वयं मेरी सारी पोस्टों का लिंक वहाँ से हटा दीजिये। प्लीज!
    @ निस्वार्थभाव से समय लगाकर चर्चा - पता है :) समय तो वैसे पोस्ट लिखने में अधिक ही लगता है लिंकित करने की तुलना में! आप को तो पता ही होगा।
    @ धौंस और धमकी - यह आप की सोच में है। मैंने बस अनुरोध किया है।
    @ समझदार को इशारा ही काफी होता है। - यही बात मैं भी आप से कह रहा हूँ।
    आशा है आप मेरे अनुरोध पर मेरे आलेखों का लिंक अति शीघ्र हटा देंगे और सूचित करेंगे।
    शुभकामनाओं सहित,
    सादर,
    गिरिजेश

    जवाब देंहटाएं
  16. शास्त्री जी में इतना औदार्य नहीं कि ई मेल उत्तर दें लेकिन चर्चामंच पर मेल क़ोट कर उत्तर दे रहे हैं। कोई बात नहीं। यह रही उनकी वहाँ की टिप्पणी। मेरी ऊपर की ई मेल को उद्धृत करने के बाद लिखते हैं:
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक (उच्चारण)November 19, 2012 1:06 PM
    --
    @गिरिजेश जी!
    माना कि आप बुद्धिमान हैं, मगर दो रोटी हम भी खाते हैं तो कुछ तो दिमाग रखते ही होंगें।
    @ आप इंगित करके लोगो को गालियाँ दे अपनी पोस्ट पर और हम अपना चर्चा धर्म न निभाते हुए लोगों को आइना भी न दिखायें।
    बहुत खूब!
    आपके ही लिए उलझे रहें हमरे चर्चाकार और अपनी दिनचर्या को न देखें।
    भविष्य में आपकी कोई पोस्ट मंच पर नहीं ली जायेगी।
    --
    मेरा उत्तर यहीं (मेल भेजने का कोई कारण नहीं दिखता)
    - खाने पीने की बात मैंने की ही नहीं लेकिन बात उठ ही गयी है तो याद आया है:
    आहारशुद्धो सत्त्वशुद्धिः सत्त्व शुद्धो ध्रुवा स्मृतिः. स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः।
    आप के मंच पर जिस तरह का मिथ्या और भ्रामक दुष्प्रचार चल रहा है उससे मंचियों की दो रोटी और दिमाग का पता चलता है। अच्छा किया कि आप ने ध्यान दिलाया। आप के मंच की सस्ती महँगी अब लोग स्वयं मूल्यांकित कर लेंगे

    - सच बहुतों को बर्दाश्त नहीं होता और शब्द गालियाँ लगने लगते हैं। आप का कोई दोष नहीं। रही बात चर्चाधर्म की तो इस पर एक स्माइली।
    आप के पास आईना भी है! ठीक ठाक है न? थोड़ा अपनी ओर घुमा लीजिये दूसरों को दिखाने से पहले। देखने की कोशिश करेंगे तो लाभ ही होगा।
    - आप के चर्चाकार क्या करते हैं, उनकी दिनचर्या क्या है; इससे मुझे कुछ नहीं लेना देना था। आप की बात से लगता है जैसे ऐसी हरकतों द्वारा वे मुझ जैसों पर कृपा बरसाने में इतने व्यस्त हैं कि फुरसत ही नहीं! आप लोगों पर हँसी आती है।
    मैंने अपनी पोस्ट का लिंक हटवाना चाहा था, बस! आशा है कि आप ने हटाना सुनिश्चित कर दिया होगा।
    भविष्य के आश्वासन के लिये बहुत बहुत धन्यवाद। मुझे चर्चित होने के लिये आप के मंच की कत्तई आवश्यकता नहीं। मैं स्वयं पर्याप्त हूँ। आप का कल्याण हो।

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  17. कुछ ऐसा जवाब है मेरा शास्त्री जी को:

    मन में जो भाव आ रहे हैं अगर उन्हे शब्दों में उतार कर यहाँ उजागर कर दूँ तो शायद चर्चा मंच माह भर उनपर सियापा करेगा और फातिहा पढ़ेगा...

    धार्मिक उन्माद... २ रोटी खाना... बुद्धि रखना... संख्या बल ( लगभग एक हज़ार फॉलोवर्स... या यूँ कहें कि 'अंध-भक्त? भाई लोगो अनुवाद की ग़लती को बिना गाली दिए सुधारना) रक्ष संस्कृति का एक प्रमुख स्तंभ रहा है 'बल' और 'संख्या बल', तो इसे क्या समझा जाय???

    मुझे नही पता था कि 'हल्दी-घाटी' और श्रद्धेय स्वर्गीय श्याम नारायण पांडेय जी के शब्दों में आज भी इतना ओज और तेज भरा हैकि कापुरुषों के हृदय इस तरह कम्पायमान हो जायेंगे कि उन्हें संख्या बल का सहारा ले इतना हल्ला-हंगामा मचाना पड़े.

    चर्चा धर्म... हम तो यही जानते थे आज तक कि "धारयति इति धर्मः" धारण कीजिए यदि चर्चा करना ही आपका गुण है... कभी भी विमुख ना होइएगा... क्या पता रौरव नरक का भागी होना पड़ जाय?

    चलिए, इसी बहाने ब्लॉग जगत के उन लोगों से भी परिचय हुआ जो, मेरी समझ में, वास्तविक जगत के 'अमेरिका' की तरह व्यवहार करते हैं...

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  18. भूल सुधार भया और गिरिजेश बाबू महामंच से बैन हुये, एक दावत तो बनती ही है:)

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  19. हा, हा, हा...
    महामंच नहीं 'परम'मंच। पार्टी ड्यू रखिये।

    हम जहाँ खड़े होते हैं वही मंच होता है। उसे किसी उपसर्ग की आवश्यकता नहीं।

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  20. @ 'मो सम कौन' भाई जी पिस गये -

    ललित,
    इस बात का अफ़सोस न करें। वैसे भी इस घटनाक्रम से मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ।

    जवाब देंहटाएं
  21. @ निस्वार्थभाव से समय लगाकर चर्चा - पता है :) समय तो वैसे पोस्ट लिखने में अधिक ही लगता है लिंकित करने की तुलना में! आप को तो पता ही होगा:


    निस्वार्थभाव से समय लगाकर चर्चा करने की कीमत तुम क्या जानो रमेश सॉरी गिरिजेश बाबू?

    एक उदाहरण हम पेश करते हैं-
    वरिष्ठ ब्लॉगर अजय झा की बीमारी की सूचना देती एक पोस्ट पर टिप्पणी देखी,

    "वाह...
    बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल .......के .... पर भी की गई है!
    सूचनार्थ!"

    देखा? :)

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  22. वैसे - जो हुआ शायद अच्छा ही हुआ । उससे इन "आदरणीय" चर्चाकारों की असलियत तो पता चली । ... जो लोग गिरिजेश जी और आप जैसे लोगों को उन्मादी / घृणित / कुवाचाल / सिरफिरा / धर्मांध ... आदि कह सकते हैं, वह भी एक सार्वजनिक मंच पर - उनको क्या कहूं ?

    एक नम्र निवेदन को धौंस धमकी कहना और गिरिजेश जी जैसे व्यक्ति को संकीर्ण / संकुचित सोच वाला / असंस्कारी मजनू आदि कहना - क्या कहने :( ।

    यह भी नयी जानकारी मिली की, जो व्यक्ति "ब्लॉग" नहीं लिखते (सिर्फ पढ़ते हैं) , वे "छद्मरूपधारी - छुद्र्मना" होते हैं । तो यह एक नयी जाती व्यवस्था का निर्माण हो रहा है तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा ? कि जो बड़े बड़े "चर्चामंच" - चलायें वे तो महान ग्यानी और जो ब्लॉग लिखते न हों किन्तु सिर्फ पढ़ते हों , वे "क्षुद्र" ?? शर्मनाक है यह सब स्वयं को "ज्ञानी" कहने वाले लोगों द्वारा किया जाना ।

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  23. एक और बात, चर्चा मंच पर गाफ़िल जी का कमेंट देखा जिसमें उन्होंने अंदेशा जताया कि मैं उनसे अनायास ही नाराज हूँ। चर्चा मंच पर अब कमेंट नहीं करना चाहता, संदेश यहाँ से पहुँच ही जायेगा।
    "अनायास न सायास, कोई नाराजगी नहीं। और भी गम हैं जमाने में नाराजगी के सिवा :)"

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  24. itta kuch hone par ek 'jawani' me sune 'juban' yaad aaya........


    hathi baitha bhi ho to kutte se bara hota hai...........

    so, gaj'..girjesh ke samaksh roop'wan swano ki kya bisat........


    pranam.

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  25. यह चर्चामंच ही गैरमुसलमानो को इस्लामी दिशानिर्देश थोपने के उद्देश्य से प्रचार प्रसार के लिए है. उस दिशानिर्देश वाली पोस्ट को हटाने का अनुरोध ही बेमानी था, उन प्रचारको से यह अपेक्षा की भी नही जानी चाहिए. हाँ उन्हेँ आपकी पोस्ट का लिँक तत्काल हटा देना चाहिए था, नानुकर कर हटाना फिर लगाना फिर दूसरी इस पोस्ट को भी लिंकित करना, विवाद बनाना और पुनः अपनी प्रचारक पोस्ट को लगाना यही सिद्ध करता है यह लोग उन्ही दिशानिर्देशो के प्रचारक मात्र है.

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  26. सही कहे। अनुरोध सार्थक हुआ ;)
    इति सिद्धम्।

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  27. नवम्बर २०१३ ..... समय की गति ....तीव्र ...और सब वहीं ......

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  28. लेख बहुत सुंदर है। पांडित्यपूर्ण । औचित्यस्थापन का प्रयास और यथालिखित पाठ से बचते और पुरातत्व पर ध्यान देते हुए एकांगिता कम की जा सकती है । कुरु अचल का पुरातात्विक छह हजार ई.पू. से हड़प्पा काल तक का उपलब्ध है - क्रमिक विकास दिखाई देता है, संहार या विघटन नही. युद्ध और विनाश उत्तर हड़प्पा में दिखाई देते हैं, जिसे जोशी ने चिन्हित किया था. कृष्ण देवकीपुत्र कहें जाते है तो वासुदेव कौन कहा जाता है. बृहदारण्यक मे अध्याय 6 के पंचम ब्राह्मण में ऋषियों की नामावली मातृनाम से है। यह परम्परा बाद तक चलती रही, पर क्षीण पड़ती गई. अश्वघोष का नाम सुवार्नाक्षीपुत्र भी था. अन्धातामस मामतेय थे. लोक से जो निकला है वह वेद तक पहुंचा है और वेद से हम पुनः लोक को समझते है. कृष्ण की महिमा कुषाणों के काल में भागवत धर्म अपनाने के बाद बढ़ा और इसने भक्ति को वेदविरोधी रूप में रखा क्योंकि वैदिक आचार वाले पंडित उन्हें वर्ण व्यवस्था में स्थान देने के पक्ष में संभवतः न थे. अथर्ववेद को भी लगता है ग्रीक पंडितों द्वारा हिन्दू धर्म अपनाने के बाद वेद की मान्यता मिली और तबतक के त्रयी के अधिकारीयों से अपने को इसका ज्ञाता बताते हुए चतुर्वेदी होने का दावा उन्होंने किया. कुछ दूसरी बातें भी हैं. आपके लेख का सबसे सशक्त पक्ष उन गीतों की प्रस्तुति है जिनका मुझे भी ज्ञान नही. पिंडिया आदि के बारे में भी बहुत क्षीण सूचनाएं हैं जिसे मैं अपनी स्मृति रेखा के रूप में ही रख सकता हूँ जो मेरी चेतना की निर्मिती से जुडा है. आपका इस विषय में लेख मेरे लिए भी ज्ञानवर्धक होगा. ज्योतिर्वैज्ञानिक पक्ष भी उपेक्षणीय नहीं पर विचारणीय है अर्थात छानबीन के साथ स्वीकार्य.



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  29. प्रणाम् ,
    आपका एक लेख कातिक कान्ह गोधन देवउठानप
    शनिवार, 17 नवंबर 2012
    की यह पास्ट काफी रुचिकर रही , अगला पोस्ट पीङिया में यम यमी , पराम् ,नरबलि, और अथर्वेद की वनस्पति स्त्री परंपरा का कृपया लिंक भेजने की कृपा करे |
    मै समय समय पर आपके लेख पढ़ता रहता हूँ ,
    रविशंकर मिश्रा |

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