(पिछले भाग से आगे)
(4)
उस साल की होली के बाद जब जुवा नाग दुबारा गाँव वापस आया तो अकेला नहीं था, उसके साथ उसकी विवाहिता सोमा भी थी। घर पहुँच कर उसने दुआरे ही माँ बाप से कहा – मुझे जो ठीक लगा, किया और आप लोगों को भी बिना किये ही उसका मौका दे देता हूँ। आज से इस घर से मैं खुद बाहर होता हूँ। आप लोग कई गँवई मुसीबतों से बच जायेंगे।
जिन लोगों ने देखा सुना उनकी मानें तो पंडित पंडिताइन दोनों ऐसे चुप रहे जैसे उनमें पहले से ही सहमति बन गई थी। आशुतोष पांडेय और सोमा नाग ने अपनी पलानी चमटोली में बनाई। खरहरा पंडित ने नागिनबासा नाम दिया और गाँव में वे नाग नागिन नाम से प्रसिद्ध हुये। दोनों ग़ायब होते तो महीनों पता नहीं चलता। उनकी संदिग्ध हरकतों से खरहरा पंडित में दुविधा ने प्रवेश किया – सबजन कि बहुजन? आ कि कमनिस्ट?
अहिरटोली के जुवा वर्ग ने एक बार चँचरा काट कर तसदीक भी कर लिया कि उनके यहाँ सिवा कुछ किताबों और अलमुनिया भँड़सा के कुछ नहीं था। बाकी गाँव के हिसाब से असतोसवा जैसा पतित इतिहास में पैदा नहीं हुआ। इतिहास माने पुरनियों को याद रह गईं गाँव जवार की बिसभोरी बातें!
उस साल एक और ऐतिहासिक घटना हुई – सम्हति न रखी गयी और न जली। सभी जातियों की घरनियों ने अपने अपने सँवागों को जी भर कर कोसा और देह से छूटी बुकुवा झिल्ली को दूसरे गाँव की सम्हति में फेंक आने के लिये अपनी अपनी औलादों को दौड़ा दिया। बीते सालों की आस कि अंत समय अपने गाँव भी जल ही जायेगी, उस साल न फली।
सुबह का उजाला हो ही रहा था कि चमटोली की ओर से धुँआ उठा। हल्ला होने पर जब वहाँ लोग इकट्ठे हुये तो देखा कि नागिनबासा धू धू कर जल रहा था। असतोसवा जाने कौन सी भाषा में चिल्ला रहा था जिससे सिर्फ यह अनुमान लगाया जा सकता था कि होली के दिन गाँव में पुलिस आयेगी और अपनी बेंत को सबके गुह से तृप्त करेगी।
“किसने किया यह?”
यह प्रश्न सबकी जुबान पर तो नहीं लेकिन मन में अवश्य था। निरगुन ने फुसफुसा कर छ्ट्ठू से कहा – खुदे फूँक दिये होंगे सब। नागिन को देखो, कैसे घूर रही है!
“खुदे काहें?”
“असतोसवा सम्हति के बिरोध में तो था ही, क्या पता अब होली को भी बन्द करवाना चाहता हो?”
छ्ट्ठू से रहा नहीं गया, सुनाई पड़ने वाली आवाज़ में बोल पड़ा – तुम्हारे जैसा चूतिया भी इतिहास में कभिये कभार पैदा होता है!
कानाफूसी को नोट करते हुये सीरी ने निर्लिप्त भाव से खरहरा को देखा, दो मित्रों की आँखों ने बातें की और बीच के मौन मुस्कान ने पुष्टि की कि नागिन पेट से थी!
छ्ट्ठू को महातम कोइरी के क़त्ल के बाद आई पुलिस की याद हो आई। जाने क्यों भीतर तक थरथराहट भर गई।
(5)
थानेदार बल्लभ पाल को लेकर गाँव में पहले से ही कंफ्यूजन था - गड़रिया है या बबुआन? चूँकि इस मामले में किसी को भी मुलजिम नहीं कहा जा सकता था और कोई भी मुलजिम हो सकता था और ले दे के एक झोंपड़ा ही फूँका गया था जिसके रहवासी ‘भारत के मूल निवासी वर्ग’ से नहीं आते थे इसलिये पुराने इतिहास को देखते हुये बल्लभ पाल की जात जानने का यह बहुत ही उपयुक्त अवसर था क्यों कि कोई खतरा था ही नहीं! गाँव प्रसन्न था।
महातम हत्याकांड में अपने सीनियर के साथ अब के थानेदार पाल भी आये थे। इतने हरामी गाँव से होली के दिन घटना की सूचना मिलने पर एक दिन भी चुप नहीं रहा जा सकता था – क्या पता उस कांड की कोई कड़ी ही हाथ लग जाय! पाल को अच्छी तरह से वह दिन याद है...
...सीरी के दुआरे पिटे तुड़े बाभन बबुआन इकट्ठा थे। सब चुप थे। थानेदार यादव जी की बातों का जवाब या तो सीरी देता या हरख पाँड़े।
“क्या हुआ था?”
“अइसहीं ...मारपीट”
“उसी जमीन के लिये न जिसके कारण मर्डर हुआ है?”
“साहब, टैम तो वही था लेकिन जमीन का कोई मामला नहीं था।“
“भोंसड़ी के क्या सब ऐसे ही तुड़े तुड़ाये खड़े हैं?”
“देखिये साहब, गाली गुप्ता न दीजिये। जैसा कि कहा है – यह केवल संयोग है कि मारपीट उसी दिन हुई लेकिन मामले दो थे। इधर जो मारपीट हुई वह इसलिये हुई कि किसी के घर में कोई घुसा था। इज्जत आबरू का मामला है, सबने सलट लिया है, इससे अधिक हमलोग कुछ न बता पायेंगे।“
“अभी चार को थाने ले जा कर रगड़ना शुरू करेंगे तो सब बकने लगेंगे। बताते हो या?”
इस प्रश्न के उत्तर में सीरी बाबू ने अपना मोबाइल हाथ में ले लिया – आप जैसा उचित समझें, करें। सम्पर्क और भी हैं और आप की उगलवाई बकचोदी को कोरा बकवास साबित करने के सूत्र भी। हासिल कुछ नहीं होगा, पुलिस प्रशासन की बदनामी जरूर होगी। रही बात पिटाई की तो जैसे उतनी सही वैसे और भी सह लेंगे। कोइटोले से कोई किसी बाभन बबुआन का नाम ले ले तो फिर से आ जाइयेगा। हमलोग यहीं हैं।
धमकाने के बाद यादव जी कोइटोले गये जहाँ पुलिस के जवान पहले से ही फील्ड वर्क में लगे थे। एक स्वर में सबने अहिरटोली के जुवाओं का नाम लिया लेकिन यहाँ भी लेकिन लग गई!
कोई एक या दो नाम न बता कर टोली के सब पर इलजाम लगाया गया। मामला ऐसा समझ में आया कि भीड़ में दो पक्षों के बीच लाठियाँ चलीं और उन्हीं में से कोई एक लाठी प्राणघातक साबित हुई। मजे की बात यह कि जिस छ्ट्ठू यादव के ऊपर कब्जे का इलजाम था, वह उस दिन गाँव में था ही नहीं! इसकी तसदीक हर टोली ने की।
थानेदार यादव जी ने ग़ैर इरादतन हत्या का केस बना कर अहिरों को बचाने का मन बना लिया – थोक में गिरफ्तारी और तुड़ाई। बाद की बाद में। हर टोली पट्टी से कुल मिला कर बाइस जन पकड़े गये जिनमें अधिकतर पहले से ही घायल थे। दुआर पर सीरी और खरहरा के दुस्साहस दिखाने और चालाकी बघारने का दंड बाभन और बबुआन टोली के जुवा बर्ग ने खास बेंतों के रूप में भोगा। तुड़इया तो खैर सबकी हुई। महीनों बाद जमानतें एक एक कर हुईं और मुकदमा शुरू हुआ, सबने राहत की साँस ली – केस का तो अब रामे मालिक। महातम की मुसमात में कितना दम? और यादव जी तो अपनी जात बिगाड़ने से रहे!...
... “साहब! नमस्ते... कहाँ आज होली के दिन?”
खरहरा पंडित के अभिवादन से पाल वर्तमान में गिर पड़ा। उसने बुरा सा मुँह बनाते हुये पूछा – गाँव के बाहर रहते हो क्या बे? साले, हमें शौक चढ़ा है तुम लोगों का दर्शन करने का?
गाली की कोमलता और तड़क में कमी से पंडित ने अनुमान लगाया – गड़रिया ही है। प्रकट में बोल पड़ा – अरे साहब! ऐसी छोटी सी बात पर आप भी अंग्रेजी के चक्कर में आ गये!
“अंग्रेजी?”
“हाँ, नगवा आप के यहाँ जा कर अंग्रेजिये बोला होगा तभी तो आ पहुँचे!”
“नगवा! कौन नगवा?”
“हे, हे, हे ...अरे साहब! नहीं जानते? इस गाँव में असतोसवा को नाग कहा जाता है। दिल्ली से एक ठो नागिन बझा के लाया, महतारी बाप को लात मार कर घर से बाहर हो गया। बाभन की औलाद जाने किस जाति की घरैतिन कर के चमटोली में रहता है। सब तर त्यौहार को ढोंग पोंग कहता है और सभी सबरनों को यूरिया नस्ल। ... गाँव में तो कल सम्हति भी नहीं जली! किसी का घर कोई क्यों फूँकेगा, वह भी बिहाने बिहाने? नागिन पेट से है साहब! रात में रखी दीया ढेबरी गिर सिर गई होगी। फुसऊ घर में कितनी जान?”
“ठीके कहता है। तुम लोग हो ही ऐसे हरामी! ... उसने सम्हति नहीं जलने दिया? उसकी बीवी पेट से है?”
‘मेन पाइंट से बहक गया! सरवा पक्का गड़रिया है’ - पंडित मन ही मन अपने अनुमान की पुष्टि से प्रसन्न हुआ। प्रकट में बोल पड़ा – अरे! वह क्या खा के रोकेगा भला? आप तो जानते ही हैं पुराना कांड! तभी से सब उचाट हो गया। सीरी भाई जैसे तैसे कर के जलवा देते थे लेकिन इस साल तो वह भी फेल हो गये। मेरी बात पर भरोसा न हो तो असतोसवा और उसकी औरत से खुदे प्राइवेट कर लीजिये।
थानेदार पाल को जल्दी थी। उसने नाग नागिन जोड़े से पूछ्ताछ की, अपने तरीके से गर्भ की सूचना की पुष्टि कर उसने उन्हें समझाया कि हो सकता है किसी ने कुछ न किया हो, किसी और कारण आग लग गई हो। सतर्क रहने की हिदायत दे चलने से पहले उसने उन्हें ‘हैप्पी होली’ भी बोला।
छिप कर सुनते सीरी बाबू ने हैप्पी सुना और पक्का समझ गये कि यह पाल तो वो वाला है!
छ्ट्ठू ने पंडित की वह सराहना शुरू की कि कोई सुनता तो उनके अपोजिट पार्टी में होने का विश्वास ही नहीं करता।
(6)
खटिया का ओनचन छोड़ खरहरा पंडित और सीरी बाबू अपने अपने मनधुन में टहलते अब तक थोड़ी दूर निकल आये थे। दिन डूब रहा था। देर का मौन पंडित ने तोड़ा – तो क्या होगा इस साल? सम्हति रखी जायेगी कि नहीं?
सीरी बाबू ने देखा कि वे दोनों उस तिराहे पर खड़े थे जहाँ से अलग अलग टोलों को रास्ते फूटते थे। उन्हों ने बगल की बँसवारी से कइनबाँसा तड़का लिया। कमर से छूरी निकाल उसका टूटा सिरा पैना किया और हुमच के कोने में अपने खेट में गाड़ दिया – गड़ गई सम्हति!
पंडित चौंके,“यह क्या? ... अपने खेत में? हर साल के बिमारी”
“तो तुम्हारे में गाड़ दें? कहीं न कहीं जमीन पर ही गड़ेगी न? पुरनियों को मरने पर अपने खेत में फूँक दिया जाता है और बाद में जगह जोता जाती है। इसमें कैसा भेद?”
बगल में रखे पतहर के दो बोझे दोनों ने उठा कर वहाँ जमा दिये।
लौटते हुये पंडित ने पूछा – लेकिन इससे होगा क्या? लोग तो शामिल होने से रहे!
“क्यों नहीं शामिल होंगे? सब परपंच के बाद भी गाँव के लोग सुख दुख में शामिल होते ही हैं। सम्हति भले न जले, होली में भेंट मुलाकात मनावन होती ही है। सम्हति को टेंशन का एक बहाना बना लिया है लोगों ने। असो जतिगो सम्हति होगी – हर जाति की अपनी अपनी।“
पंडित इस प्रस्ताव पर भौंचक्के थे।
अगले दिन सीरी बाबू के दुआर पर मीटिंग हुई – सब जाति जुटी। कोई निष्कर्ष न निकलता देख सीरी बाबू ने समाधान दिया – हम खुद ही हर टोले की अलग सम्हति का बाँस सुभीता से गड़वा देंगे। बाकी उस टोली पर निर्भर करता है कि उसे बढ़ाये और फूँके या रहने दे। अपने अपने जाति की सबको ऐंठन है। इस जमाने में सब सबरन हैं और सब सूद। कोई नहीं जलेगी तो मेरे खेत वाली तो जलेगी ही। देखी जायेगी कि लोग शामिल होते हैं या नहीं!
सम्हति जैसा छुद्र मामला भी इतना जटिल हो सकता है! केदार कोइरी को समझे में नहीं आ रहा था।
दिन बीतते गये। गड़े बाँस सूखते गये लेकिन सम्हति बढ़ाने को किसी ने एक तृण भी नहीं रखा। दहन की साँझ भी आ पहुँची तो चिंतित खरहरा पंडित सीरी के दुआर पहुँचे। सीरी ने उन्हें आश्वासन दिया – मौका मोकाम देख लिया है। रात में काम हो जायेगा। घर घर साइत का सन्देसा पहुँचवा दो।
दहन के पहले ही सब लोग खा पी कर पटा गये लेकिन पूरे गाँव के पेट में जैसे उत्सुकता की आग लगी हुई थी। बाकी सब जगहों को छोड़ लोग बस उस तिराहे की ओर ध्यान लगाये हुये थे – क्या होगा?
समय होने पर सीरी बाबू ने अपने तीनों बेटों को उठाया। खरहरा पंडित को मिला कर कुल पाँच जन तेलियापट्टी की ओर चुपचाप चल दिये – सम्हति में चोरी का पतहर न पड़े तो कैसी सम्हति? पाँचो ने खामोशी से एक एक बोझा उठा लिया। कुछ पल ही चले होंगे कि पीछे से चोर, चोर और गालियों की आवाजों के साथ अनेक कदमों के दौड़ने की आहटें जुवा हो गईं। पाँचो ठिठके और सीरी कुछ समझ पाते कि उनके बेटों में से दो तो अपने अपने बोझ पटक भाग पड़े। बचे तीनों ने अपने बोझ वहीं पटके और खड़े हो गये।
लानटेन, टार्च की रोशनी में तीनों ने देखा – घेरने वालों के हाथों में लाठियाँ चमक रही थीं।
सीरी बाबू बोल पड़े – सबको पता है कि मैंने सबके लिये सम्हति गड़वाई थी। मैं चाहता तो पतहर भी रखवा कर अपनी सम्हति तो जला ही देता लेकिन चोरी और गाली की रस्म का क्या होता? अब दोनों पूरी हो गईं। हमलोग खड़े हैं, मारना हो तो मारो या चाहे जो करो, भागेंगे नहीं। बस सम्हति जलनी चाहिये।
निरगुन तेली आगे थे लेकिन चुप रहे। जुलमिया निकल कर सामने आया – घर छाने के लिये जुटा कर रखा था लेकिन अब तो यह पतहर मसान की चीज जैसा हो गया। जो करना हो करिये। हम से तो मार पीट नहीं हो पायेगी।
पंडित को हिम्मत बँधी तो बुद्धि ने वाणी पाई – ले जायेगा कौन पाँच बोझा, आदमी बस तीन?
जुलमिया ने अवसर का लाभ उठाया – छिनरो के छौंड़े चोरी करें, मारि डरे भागि परें... सर र र र र....
समवेत स्वर के सर र र र का उत्साह था और अन्धेरा भी – जिस बात पर आँखों में खून उतरना था, उस पर सीरी के होठों पर आ उमगी मुस्कुराहट को किसी ने नहीं देखा। तेलियापट्टी के पाँच जवानों ने बोझे उठा लिये।
लुकारों के प्रकाश में जब सभी तिराहे पहुँचे तो चारो ओर लोग जमा थे। हर आदमी ने अपनी जात से अलग जात वाले को नोटिस में लिया और मनों में सामूहिक स्वीकार हुआ कि पूरा गाँव जमा था। बहोरन बाबू आग लगाने चले कि एक स्त्री स्वर से सब चौंक गये – थामो! होली हम जलायेंगे।
नागिन यानि सोमा? ऐसा कैसे? असतोसवा के मेहरारू? असतोसवा कहाँ है? ....होली जलाने जनानी? यह कैसे हो सकता है? जाने कौन जाति?
सीरी बाबू को लगा कि मौका दुरुस्त है, सबको सम्बोधित हो बोल पड़े – सम्हति में जात पात, छूत छात, मरद मेहरारू सब माफ! लगा लेने दिया जाय।
हाथ में लुकारा ले सोमा ने गोद के बच्चे को खरहरा पंडित को थमाया – आशुतोष दिल्ली गया है, रहता तब भी आज उसे घसीट ले आती लेकिन हमारे यहाँ गाली गलौज नहीं होता है। इस साल आप लोग भी न कीजिये, बस इस साल।
सम्हति की आग धधक उठी। पहली लपट को देखने से बचने को मुँह दूसरी ओर किये लोगों ने जब मुँह वापस फेरा तो जलती होली के प्रकाश में खड़ी बुलन्द आवाज में बोलती सोमा कुछ और ही लगी – पिछले साल अपनी झोपड़ी में आग मैंने खुद लगाई थी। हमारे यहाँ मानते हैं कि जिस गाँव में होली नहीं जलती उसका सत्यानाश हो जाता है। अपने गाँव का ऐसा कैसे होने देती?
रुक कर उसने पंडित की गोद में रोते अपने बच्चे की ओर इशारा किया - उस समय तो यह भी पेट में था!
भीड़ पर जैसे बिजली गिरी थी, सन्नाट हो गई!
कुछ न समझ पाने पर भकुवाये पंडित ने गोद के बच्चे को हल्के से उछाल कर जयकारा लगाया – बोलो होलिका मइया की .... लोगों ने सन्नाटा तोड़ा – जय!
... जाने कितने प्रश्न पीछे छोड़ती रहस्यमयी नागिन अन्धेरे में लुप्त होती चली गयी। लौटती भीड़ के उत्साह के कारण उस साल पहली और आखिरी बार गाँव में तीन होलिकायें और जलीं।
सीरी बाबू की खोंपी पुन: स्वाहा हुई लेकिन अबकी वह उलझे हुये थे और उदास भी – असतोसवा जानेगा तो सोमवा के साथ जाने किस तरह पेश आयेगा?
निरगुन को ऐतिहासिक चूतिया कहने की साल भर पहले की गयी ग़लती की माफी छ्ट्ठू यादव ने यूँ माँगी – झूठ थोड़े है बनिये के दिमाग वाली कहावत!
निरगुन को ऐसी कोई कहावत पता नहीं थी लेकिन प्रकट में गुर्राये – जात मत बिगाड़ो, तैलंग बंस का दिमाग कहो।
छ्ट्ठू चुप्प!
(समाप्त)