[१]
इतिहासः प्रधानार्थः श्रेष्ठः सर्वागमेष्वयम्
इतिहासोत्तमे ह्यस्मिन्नर्पिता बुद्धिरुत्तमा
स्वरव्यञ्जनयोः कृत्स्ना लोकवेदाश्रयेव वाक्
अस्य प्रज्ञाभिपन्नस्य विचित्रपदपर्वणः
भारतस्येतिहासस्य श्रूयतां पर्वसंग्रहः
...
रामायण के पश्चात शतसहस्रीसंहिता नाम से प्रसिद्ध महाभारत भारत का प्राचीनतम उपलब्ध इतिहास है। प्रधानत: कुरु-पाञ्चाल क्षेत्र के इस इतिहास की परास पूरा भारत है।
~ लोमहर्षणपुत्र उग्रश्रवाः सूतः पौराणिको नैमिषारण्ये शौनकस्य कुलपतेर्द्वादशवार्षिके सत्रे ~
इस पंक्ति से स्पष्ट है कि महाभारत का वर्तमान उपलब्ध रूप भार्गव कुलपति शौनक के बारह वर्षीय सत्र में सूत पौराणिकों द्वारा उग्रश्रवा की अध्यक्षता में सुनाया गया। किंतु ग्रंथ में ही उपलब्ध साक्ष्य उद्घाटित करते हैं कि उससे आगे भी इसमें परिवर्द्धन किया जाता रहा तथा २४००० से एक लाख से भी अधिक मात्रा का बनाया गया।
भार्गवों ने इसे सुरक्षित किया तो वर्गगत व जातीय श्रेष्ठताबोध के चलते विकृत एवं विरूपित भी किया जिसे आगे बढ़ाने का काम उन पौराणिकों ने किया जिनकी थाती वे पुराण थे जिनका प्रणयन महाभारत के पश्चात हुआ किंतु जिन्हें वे सनातन ब्रह्मा के मुख से निस्सृत बताते रहे हैं। वासुदेव कृष्ण की भक्तिधारा ने भी महिमामण्डन हेतु ऐसे प्रसंग जोड़े जो मूल नायकों के स्वरूपों की हानि करते हैं।
सौभाग्य से इसके विशाल आकार के कारण भीतर ही ऐसे अंत:साक्ष्य उपलब्ध हैं जो पौराणिक अतिशयोक्तियों एवं स्वार्थी विरूपणों के अभिज्ञान हेतु सामग्री उपलब्ध करा देते हैं।
इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत्
बिभेत्यल्पश्रुताद्वेदो मामयं प्रतरिष्यति
इस श्लोक का अर्थ पौराणिकों द्वारा यह बताया जाता रहा है कि वेदों का निर्वचन इतिहास व पुराण के माध्यम से किया जाना चाहिये। जो अल्पश्रुत बिना उनके करता है, उससे वेद भी भय खाते हैं कि यह हमारा नाश कर देगा।
वास्तव में ऐसा नहीं है।
इस श्लोक के आगे वाली पंक्ति है - कार्ष्णं वेदमिमं विद्वाञ्श्रावयित्वार्थमश्नुते, जो यह स्पष्ट करती है कि यहाँ वेद का अर्थ ऋक्, यजु व सामादि से नहीं है वरन द्वैपायन कृष्ण के रचे इस महाभारत से है जिसे पञ्चम वेद भी कहा जाता है।
बृंह् मूल हो या समुपबृंहयेत्, अर्थ निर्वचन नहीं, विस्तार कर सामर्थ्य बढ़ाना होता है। इस शब्द में ही इसका रहस्य छिपा है कि क्यों महाभारत को बढ़ा कर एक लाख से भी अधिक छंद संख्या का कर दियागया। श्लोक का अर्थ यह है कि इस वेद को इतिहास व पुराण से अंश ले कर बढ़ाते रहना चाहिये और जो विद्वान है, सरलता से ऐसा कर सकता है। जो अल्पज्ञ है, उससे यह वेद भय खाता है कि वह इसे सरलता से पार कर लेगा अर्थात अपने अल्पज्ञान के कारण इसमें बिना कोई बढ़ोत्तरी किये ही इसे पूरा कर लेगा।
यह श्लोक पर्वसङ्ग्रहकार द्वारा रचा गया है जो पौराणिक सामग्री की महाभारत में प्रक्षेपण को वैधता प्रदान करता है। आगे चल कर पुराणों को वैधता प्रदान करने हेतु इसका विकृत अर्थ प्रयुक्त किया जाने लगा। चक्रयुक्ति का यह अच्छा उदाहरण है, हेत्ववधारणदोष।
इस भूमिका के पश्चात अगले अंकों में हम विकृतियों, दूषण व चमत्कारों से इतर, साक्ष्यों के साथ उन मानवीय पक्षों को उद्घाटित करते हुये वास्तविक इतिहास तक पहुँचने का प्रयास करेंगे जिनके कारण महाभारत अद्भुत हुआ तथा जिनकी उपेक्षा ने लोकमानस को मृषा से भर दिया।
[२]
भार्गवों के वर्गगत अहंमन्यता, द्वेष और जातीय श्रेष्ठताभाव के दर्शन महाभारत के कथित आरम्भ में ही हो जाते हैं। शौनक अपने सत्र में कुरुवंश से पूर्व भृगुवंश की कथा सुनाने को कहते हैं जबकि महाभारत कुरुवंश की गाथा है। बहुत विस्तार से भृगुओं की कथा चलती है। जनमेजय के सर्पसत्र के ब्याज से यह दर्शाया गया है कि कैसे अंतत: भार्गवों ने अपने सम्बंधी नागों को बचा लिया। स्पष्टत: पूरा वर्णन विशुद्ध पौराणिक शैली में अनेक दाँव पेंच वाला है व बेतुका है जिसमें इस ऐतिहासिक वीरगाथा के अपहरण का उपोद्घात है। ५८ अध्याय इसी में बीत गये हैं।
५९वें अध्याय में वास्तविक महाभारत का आरम्भ संक्षिप्त वर्णन से होता ही है कि पुन: बासठवें में ग्रंथ की महिमा आ टपकती है। तिरसठवें में सत्यवती व व्यास के जन्मों का संक्षिप्त वर्णन होता है कि चौसठवें में पुन: जनमेजय के प्रश्न का आधार ले भार्गव जन अपने प्रिय विषय पर आ जाते हैं - जमदग्निपुत्र (अब के कथित परशुराम) द्वारा क्षत्रियों का २१ बार सम्पूर्ण संहार!
आगे जो वर्णित है, उससे यह ज्ञात होता है कि जातिवादी श्रेष्ठता के आवेश में कितनी अनर्गल कल्पनायें की जा सकती हैं। यह ध्यान रहे कि इस समस्त भार्गव पुराण के बारम्बार हस्तक्षेप का मूल कथानक से कोई सम्बंध ही नहीं है!
त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां पुरा
जामदग्न्यस्तपस्तेपे महेन्द्रे पर्वतोत्तमे
तदा निःक्षत्रिये लोके भार्गवेण कृते सति
ब्राह्मणान्क्षत्रिया राजन्गर्भार्थिन्योऽभिचक्रमुः
ताभिः सह समापेतुर्ब्राह्मणाः संशितव्रताः
ऋतावृतौ नरव्याघ्र न कामान्नानृतौ तथा
तेभ्यस्तु लेभिरे गर्भान्क्षत्रियास्ताः सहस्रशः
ततः सुषुविरे राजन्क्षत्रियान्वीर्यसंमतान्
कुमारांश्च कुमारीश्च पुनः क्षत्राभिवृद्धये
२१ बार समूल नाश की असम्भव बात लिखने के पश्चात भार्गव जन समस्त क्षत्राणियों को ब्राह्मणों के पास गमन हेतु गया बताते हैं जिससे कि उन्हें संतानें हों। इस प्रकार ब्राह्मणोंं द्वारा धरा पर पुन: क्षत्रिय कुमार व कुमारियों का विस्तार किया गया!
यह अंश परवर्ती है, यह इससे सिद्ध होता है कि आगे ब्राह्मणों द्वारा जाये क्षत्रियों के धर्मराज्य के लक्षणों में ये भी गिनाये गये हैं - ब्राह्मण वेद नहीं बेंचते थे व शूद्रों के समक्ष वेदों का उच्चारण नहीं करते थे -
न च विक्रीणते ब्रह्म ब्राह्मणाः स्म तदा नृप
न च शूद्रसमाभ्याशे वेदानुच्चारयन्त्युत
स्पष्टत: इन अंशों के जोडे जाने में उस काल की स्मृति है, जब शूद्र नंदों ने क्षत्रिय राजाओं का नाश कर राज्यश्री प्राप्त की तथा उनके अमात्य, मंत्री आदि ब्राह्मण ही हुये जिन्हें उनके समक्ष वेदघोष भी करना होता था। यह अंश नंदोंं के नाश के शताब्दियों पश्चात तब का रचा प्रतीत होता है जब केंद्रीय राजसत्ता के न होने से राज्यश्री छोटे छोटे राजाओं में बँट गयी तथा ब्राह्मण शूद्र को वेदोच्चार सुनाने के अपराधबोध से मुक्त हो उसे निषिद्ध कर्म बताते हुये लिख सकते थे।
भार्गवों को इतने से ही संतोष नहीं होता, आगे अवतार की भूमिका में यह बताया गया है कि असुर गण राजरानियों गर्भ से जन्म ले समस्त धरा को संतप्त करने लगे - असुरा यज्ञिरे क्षेत्रे राज्ञां तु!
आगे पौराणिक शैली में कश्यप वंश का वर्णन है जिसका महाभारत से कुछ नहीं लेना देना। रामायणकालीन राक्षसों के दुर्योधन के भाइयों के रूप में जन्म लेने के साथ साथ यह भी बताया गया है कि दुर्योधन साक्षात कलि का ही अंश था। कथित द्वापरयुग में कलि का यह जन्म रोचक है।
नारायण के कृष्ण व पाण्डवों व उनके वंशजों के विविध देवों के अंश से जन्म लेने के दिव्य, पौराणिक व प्रक्षिप्त इन अध्यायों के पश्चात आदि-पर्व के ६८वें अध्याय (सम्भवपर्व) से महाभारत की वास्तविक कथा आरम्भ होती है अर्थात लगभग तीन हजार छंदों के पश्चात! अंशावतार प्रकरण लिखने की पौराणिक शैली बहुत आगे तक चलती रही। भविष्यपुराण में चंदेल योद्धाओं को कृष्ण परिवार के अंशावतारों के रूप में वर्णित किया गया। अंशावतरण सुनने की फलश्रुति भी अंत में बताई गई है।
महाभारत आरम्भ - दु:षन्त, वैश्वामित्री व भरत
पृथिव्याश्चतुरन्ताया गोप्ता भरतसत्तम
चतुर्भागं भुवः कृत्स्नं स भुङ्क्ते मनुजेश्वरः
समुद्रावरणांश्चापि देशान्स समितिंजयः
आम्लेच्छाटविकान्सर्वान्स भुङ्क्ते रिपुमर्दनः
रत्नाकरसमुद्रान्तांश्चातुर्वर्ण्यजनावृतान्
हे भरतश्रेष्ठ! पुरुवंश का विस्तार करने वाले एक राजा हो गये हैं जिनका नाम था - दु:षन्त (दुष्यंत)। वे महान पराक्रमी तथा चार समुद्रों से घिरी पृथ्वी के पालक थे। वे पृथ्वी के चारो भागों का तथा समुद्रपर्यंत समस्त देशों का भी पूर्णरूप से पालन करते थे। उन्होंने अनेक युद्धों में विजय पायी थी। चारो वर्णों के लोगों से भरे पुरे तथा समुद्र तक पसरे हुये म्लेच्छ आटविकों की सीमा से लगते सम्पूर्ण भूभाग का वे अकेले ही शासन व संरक्षण करते थे।
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(क्रमश:)
[बालक भरत का चित्र आभार, गीताप्रेस]