आतंकवाद लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
आतंकवाद लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सोमवार, 17 दिसंबर 2012

आक्रोश नहीं...


आक्रोश नहीं, ध्यान से देखना, सोचना, समझना और कार्य अपेक्षित हैं। रेत से सिर निकाल आँखें खोल कर देखिये कि कैसे कैसे सपने इस धरती को लेकर देखे जा रहे हैं!
आप ऐसा मानचित्र वास्तव में घटित होते देखना चाहेंगे?  

सोमवार, 26 नवंबर 2012

26/11/2008 के हुतात्माओं को श्रद्धांजलि

2611_5
2611_2 2611_8
2611_4 2611_7

2611_6

  • इन चित्रों को कभी न भूलिये!
  • सतर्क रहिये।
  • आसपास किसी भी सन्दिग्ध गतिविधि की सूचना तुरंत पुलिस प्रशासन को दीजिये।
  • संगठित रहिये!
  • आतंकवाद की कोई भौगोलिक सीमा नहीं होती। 
मध्य पूर्व से जुड़ी एक बर्बर क्षयी प्रवृत्ति को स्थापित करने के लिये पूरे संसार में चल रहे राजनैतिक-मज़हबी आन्दोलन की व्यापकता को समझिये। आठवीं सदी में सिन्ध पर हुये आक्रमण के बाद से यह निरंतर जारी है। इसके नुमाइन्दे हर जगह हैं - गाँवों में, नगरों में, झुग्गियों में, सामाजिक अंतर्जाल स्थानों पर, ब्लॉग जगत आदि में सर्वत्र ये भेंड़िये स्थापित हैं। कुछ खुल कर सामने हैं तो कुछ बौद्धिकता और प्रगतिवाद का लबादा ओढ़े बकवास करने और अवैध धन का घी पीने में व्यस्त हैं!
खुलेआम गद्दारी की बातें करने वाले भी हैं तो प्रेम, शांति, सद्भाव, गंगा जमुनी तहजीब आदि की बातें कर मस्तिष्क प्रक्षालन करने वाले भी।
 बर्बरता के जो पाठ सभ्यता बहुत पहले भूल चुकी है उसे आज भी रटते हुये फैलाने में वे लगे हैं। उन्हें पहचानिये। इस मानवविरोधी आन्दोलन के प्रचार तंत्र को असफल कीजिये।
 दैनिक गुंडागर्दी का प्रतिरोध करें। व्रण नासूर होने से पहले ही ठीक हो, इसके लिये जागरूकता आवश्यक है।
जहाँ भी यह आन्दोलन सफल हुआ वहाँ जीवन की गुणवत्ता गर्त में गयी। वहाँ स्त्रियों, बच्चों और निर्बलों पर हो रहे बर्बर अत्याचार आज भी जारी हैं।
past
________________
नोट: मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना और इसी प्रकार की अन्य खोखली बातों और टिप्पणियों के लिये अपना समय यहाँ व्यर्थ मत कीजिये।
मैं यहाँ मजहब नहीं, अरबी हीनता को स्थापित करने के उद्देश्य से जारी उस राजनैतिक-मजहबी आन्दोलन की बात कर रहा हूँ जिसने कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, गुजरात से लेकर असम तक हमें घाव दिये हैं और दिये जा रहा है।
इस आन्दोलन ने कश्मीरियों को अपने देश में शरणार्थी बनने को बाध्य किया। इस आन्दोलन ने बंगलादेश और पाकिस्तान में अन्य मतावलम्बियों का समूल नाश करने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी, अब वे वहाँ लुप्तप्राय हैं। संसार में चल रहे हर बड़े संघर्ष में दूसरा पक्ष चाहे जो हो, एक पक्ष या तो यह बेहूदा आन्दोलन है या उससे बहुत गहराई से जुड़ा हुआ है।

बुधवार, 26 अगस्त 2009

इस मोड़ से जाते हैं...


67 साल के वृद्ध मनोहर नाथ रैना के चेहरे पर विस्थापन की प्रगाढ़ पीड़ा पसर जाती है। दो दशकों की स्मृतियाँ भागती सी वापस आती हैं। आँखें नम हो जाती हैं और स्वर भावना ज्वार में घुट सा जाता है। उफान को नियंत्रित करने के साथ ही वह खुलते हैं,”मेरी शरीर यहाँ है लेकिन मैंने अपनी आत्मा अपने कश्मीरी गाँव के चिनार के वृक्षों पर छोड़ रखी है।“
सेवानिवृत्त प्रधानाध्यापक श्री रैना कश्मीर लौटना चाहते हैं लेकिन उनके इस गृह राज्य में स्थिति अभी भी बहुत अनिश्चित और जोखिम भरी है। श्रीनगर से 19 किलोमीटर दूर गाँव कनिहामा में उनके खेत और हवेली है। लेकिन आज वह दिल्ली के उपनगरी इलाके द्वारका के मलिन से एक कमरे के फ्लैट में रहते हैं। रैना कहते हैं,“मैं अपनी मृत्यु से पहले एक बार अपने गाँव को देखना चाहता हूँ।“
रैना की तरह ही दूसरे शरणार्थी कश्मीरियों, जिन्हों ने भय के कारण अपनी धरती हड़बड़ी में छोड़ दी, की भी यही इच्छा है। 1980 के उत्तरार्ध में यह पलायन प्रारम्भ हुआ जब सीमा पार से प्रशिक्षित हो कर आए स्थानीय आतंकवादियों ने कश्मीरी पंडितों को अपना निशाना बनाया। बहुतेरे पंडित मारे गए। जो बच गए उन्हों ने पलायन किया। जम्मू की झोपड़पट्टियाँ और जर्जर ढाँचे ही उनके नए घर हो गए।
सुरक्षित होते हुए भी जम्मू में कोई आश नहीं थी। कुछ वर्षों के भीतर ही दूसरा बहिर्गमन करना पड़ा। बहुतों ने उत्तर भारत के दूसरे नगरों की ओर रुख किया। रैना ने भी यही किया। उनके दो बेटे अपने परिवारों के साथ दिल्ली आए और बलबीर नगर के शरणार्थी शिविर में पनाह लिए। चार साल पहले दिल्ली सरकार ने रैना को द्वारका में एक कमरे का फ्लैट अलॉट किया।
विस्थापित कश्मीरियों के एक संघटन कश्मीरी सभा के प्रमुख भारत भूषण बताते हैं,” हम पंडित बहुत पढ़े लिखे हैं। लेकिन हमारे पास काम नहीं है। बहुत पहले हमारे घर छीन लिए गए और अब बिना काम के हमारे युवा निराशा में हैं। यदि सरकार हमारी मदद करना चाहती है तो उसे आर्थिक रूप से पिछड़े हमारे युवाओं को काम देना चाहिए।“
आज के बेकार भूषण कभी घाटी में एक फलते फूलते व्यवसाय के मालिक हुआ करते थे। विस्थापन के प्रारम्भिक दिनों में दिल्ली की जिस कम्पनी में वह काम करते थे वह बन्द हो गई। एक लम्बे संघर्ष के बाद उन्हों ने दूसरी जगह काम पकड़ा। लेकिन मन्दी के प्रकोप के कारण छँटनी किए जाने वालों में वह पहले थे। कश्मीर लौटना उनकी तात्कालिक प्राथमिकता नहीं है। बेटे के स्कूल की फीस अब उनकी पहली चिन्ता है।
हर शरणार्थी कैम्प की यही रामकहानी है। उच्च शैक्षिक स्तर और कुशाग्र बुद्धि के कारण कभी कश्मीर की सरकारी नौकरियों में पंडितों की धाक थी लेकिन आज नहीं रही। पलायन के प्रारम्भ में वहाँ सरकारी नौकरियों में 15000 से अधिक पंडित थे। दो दशकों के बाद यह संख्या घट कर मात्र 3000 रह गई है। पंडितों के पुनर्वास हेतु काम करते संघटन पुनुन कश्मीर की मानें तो केवल 400 पंडितों के पास सरकारी नौकरियों के लिए प्रस्ताव हैं।


कश्मीर से विस्थापित चार लाख पंडितों में से ढाई लाख जम्मू के शरणार्थी शिविरों और किराए के घरों में रहते हैं। एक लाख दिल्ली और उत्तर भारत के बाकी नगरों में रहते हैं। बहुतेरे अपनी भूमि पर लौटना चाहते हैं और पनुन कश्मीर के पास इसके लिए उपाय है। इस संघटन ने इसके लिए सरकार को एक विस्तृत योजना सौंपी है। इसके अनुसार कश्मीर के एक भाग को संघ शासित क्षेत्र घोषित कर वहाँ पंडितों को बसाया जा सकता है। पुनुन कश्मीर के उपाध्यक्ष उत्पल कौल बताते हैं कि कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास की अधिकतर योजनाएँ सरकारी कार्यालयों में धूल खा रही हैं। सरकार हमेशा वादाखिलाफी करती है। यह हमारे घर और जमीन लौटाने की बात करते हुए भी आतंकवादियों को संरक्षण देती है।
_________________________________________

(विशेष रिपोर्ट : अनिल पाण्डेय, ‘संडे इंडियन मैगज़ीन’, मूल अंग्रेजी लेख)
दित्य राज कौल के लेख से ब्लॉग लेखक द्वारा अनुवादित
______________________________________
आभार: 'संडे इंडियन मैगज़ीन, अनिल पाण्डेय और आदित्य राज कौल'

______________________________________


सम्भवत: आप इसे भी पढ़ना चाहें: इन्हें घर नहीं मिलते