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मंगलवार, 27 अक्टूबर 2009

इलाहाबाद से 'इ' गायब - अंतिम भाग

... ब्लॉगर संगोष्ठी में जाने के तमाम कारणों में एक था अपने प्रिय ब्लॉगरों से मिलना।
भारी भरकम बड़के भैया आइ मीन अरविन्द मिश्र - गम्भीरता और हँसोड़पन का यिंग यांग टाइप संतुलन। ऑंखों में नाचती बच्चों सी शरारत। बच्चों को शायद मच्छर अधिक सताते हैं। जिस मनोयोग से प्रस्तुतियों को नोट करते रहे उससे मैं हैरान था।
अरुण प्रकाश - ग़जब का हास्य बोध! मैं तो दंग रह गया। पोस्ट लिखने में सुस्त हैं लेकिन इनके ब्लॉग पर जो मिलता है वह शायद ही कहीं मिले।
हिमांशु - रसिक कवि ऐसा ही होना चाहिए। हेमंत को मिलाने के बाद हम पाँच जितनी हा हा ही ही किए - शायद ही किसी ग्रुप (गुट नहीं) ने किया हो! भैया को मच्छर और जाली वगैरह तो याद रहे लेकिन सुबह कपड़ों पर लगे रक्त धब्बों के बहाने जो हंसी ठठ्ठा हुआ, भूल गए। अरे काहे इतना. . ?
अजित वडनेरकर से मिलना एक सपना पूरा होने जैसा था। एक अनूठा शब्द साधक जो मेरे मन द्वारा बनाई आभासी इमेज से एकदम अलग निकला - अपने बीच का - बिना सींग पूँछ का आदमी, सुना है मिर्ची और नीबू का शौकीन पाया गया। अपन से अधिक घुलान नहीं किए लेकिन हमारी तो एक साध पूरी ही हो गई।
ज्ञान चचा ;) ने जब गले लगाया तो आत्मीयता ही साक्षात थी। 
कृष्ण मोहन मिश्र - व्यंग्य का मास्टर ब्लॉगर- एकदम उलट ! इतना सौम्य और गम्भीर! मेरी इतनी तारीफ कर दी कि मैं मारे डर के दूसरे दिन उनसे भागता फिरा।
साथ गए थे ज़ाकिर अली 'रजनीश', ओम और मीनू खरे। ज़ाकिर भाई ऊर्जा से लवरेज ग़जब के जवान  - जाने कितने सपने सँजोए हुए। भैंसासुर मर्दन के आह्लाद से अभी तक उबर नहीं पाए हैं। मीनू जी ने जब _तियापा बार बार कहने पर हड़काया तो संभल गए - जरूरी था। ऐसे ऊर्जावान आदमी को बगल की खुदकी का पता ही नहीं चलता। ओम यात्रा भर बीच बीच में आइ टी ज्ञान देते रहे, ये बात अलग है कि मोबाइल पर नागरी दिखे - ऐसा जावा स्क्रिप्ट देने का वादा कर भूल गए (मैं ही कौन फॉलोअप किया?)
प्राइमरी के मास्टर प्रवीण त्रिवेदी से मिलना वैसा ही रहा जैसा वडनेरकर के साथ। एक कामना पूरी हुई। वह गम्भीर बने रहे और वाचाल लंठ को कोई खास भाव नहीं दिए। हमको अपने आचार्य जी याद आ गए। सो बाद में हम सहमे ही बैठे रहे, जाने कब मास्साब कान उमेठना शुरू कर दें (वैसे ऐसा कुछ नहीं हुआ।)
अनूप शुक्ल और रवि रतलामी
फ्रंट पर डटे हुए सिपाही।
धड़ाधड़ रपट। बड़े रपटी हैं !
वह लोग भी मिले जिनसे मिलने की तमन्ना नहीं थी लेकिन जब मिल गए तो बस हम फैन हो गए - अभिषेक त्रिपाठी, प्रियंकर, .  .
वे जिनसे बात तक नहीं हुई लेकिन उनकी बातों ने मन को बेंत सा पीट दिया - देख इसे कहते हैं मेधा! अब तो अकड़ना छोड़ दे -  मसिजीवी, विनीत, भूपेन, हर्षवर्धन, अफलातून।   
अभय तिवारी . . . - अबे, वह तो आए ही नहीं थे! पता है।... हमरे ऊ पी के वासी सरपत काटने की मेहनत में बेराम हो गए थे सो खुद न आकर फिलिम ही भेज दिए। सौन्दर्य और अनुपात के भक्त हैं - उनके फिल्मी कैमरे से यह एक नई बात पता चली। बाकी ब्लॉगरी की भाषा पर एक नई राह की सम्भावना दिखी। क्या कहा?. . .  देखो, हम जुमला उछाल दिए हैं, बाकी उनसे पूछ लो। फिलम बढ़िया लगी सो कह दिया। वैसे देहातन शुरू में सहज नहीं दिखी..
... करीब आधे उपस्थित ब्लॉगरों को समेट दिया है। भूल चूक लेनी देनी। जो छूट गए वे या तो ऐसे ही छूट गए होंगे या उन्हें हम घूरते ही रह गए या खौफ खाते रहे। एक सज्जन तो घोषित कर ही चुके हैं कि वे बेनामी गए थे। बता दिए रहते तो तिरछे अक्षरों में लिखी जाती टिप्पणियों के रहस्यों से भी परदा उठ जाता. .

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... अस्सी साल के कलमघुसेडू द्वारा हिन्दी चिट्ठाकारी की अस्मिता के साथ बलात्कार, मंच खरीदे जाने, ब्लॉगरों के बिक जाने, हिन्दुत्त्व वाले ब्लॉगरों की उपेक्षा करने (किराना घराना शिकायतहीन है), एक वृद्ध का पिछवाड़ा धो उसके जल से आचमन करने .. और जाने कैसी कैसी बातें कही जा रही हैं। इस संगोष्ठी की यह एक उपलब्धि ही रही जो इसने ब्लॉगरों की अद्भुत कल्पनाशीलता, दूरदृष्टि, सूक्ष्म दृष्टि, अन्धदृष्टि, मूकदृष्टि, हूकदृष्टि, चूकदृष्टि, कदृष्टि, खदृष्टि....ज्ञदृष्टि...अल्ल, बल्ल... हाँ हाँ हाँ ... से परिचय करा दिया। अब तो ब्लॉगरों की जुटान करने की सोच को भी पहले दस बार (कम कहा क्या?) सोचना होगा। अच्छा ही है पता चल गया कि रस्ते में और रस्ते के किनारे पट्टी (वहीं जहाँ लोग निपटते हैं !) पर माइनें कहाँ कहाँ बिछी हो सकती है !यह भी पता चल गया कि ये माइनें फुस्स पटाखा हैं, डरने की कौनो जरूरत नाहीं।     
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सुना जा रहा है कि बस चुनिन्दा ब्लॉगरों को बुलाया गया था। तो का सबको नेवत देते? अबे तुम लोग हजार तो हो ही! तीस चालिस आए तो यह हाल है अधिक आ जाते तो गंगा यमुना भी प्रयाग छोड़ भाग लेतीं। ग़िरेबान में झाँको भइए और बहिनी माई सब। इतना टंटा इसलिए कर पा रहे हो कि सैकड़ा हजार में हो। लाख में होते तो क्या ...? कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम लोगों की ही वजह से हजार लाख नहीं हो पा रहा?
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...गोबर पट्टी के अलावा इनको भी नेवता गया था – शास्त्री जी (कोच्चि), दिनेश राय द्विवेदी (कोटा), शिव कुमार मिश्र (कलकता), रंजू भाटिया-व्यक्तिगत नेवता (झारखण्ड, दिल्ली), प्रमोद सिंह, अभय तिवारी (मुम्बई), मनीषा, अजित वडनेरकर (भोपाल), संजय बेंगाणी (अहमदाबाद) आदि आदि  – कुछ आए और बहुतेरे नहीं आए। क्यों नहीं आए? व्यक्तिगत कारण, कम समय, मानदेय नहीं, यात्रा के क्लास का खुलासा नहीं.... लम्बी लिस्ट है। कुछ सच्ची कुछ झूठी। कौन क्या है क्या पता? लेकिन आयोजकों का इसमें क्या दोष? ... जाने भी दो यारों ! पाखंड की भी एक हद होती है। सही सही कहो न !
... महिला ब्लॉगर तीन ही आ पाई थीं । व्यक्तिगत अनुरोध भी किए गए लेकिन वही गृहिणी की व्यावहारिक सीमाएँ ! पुरुष प्रधान समाज ने न्यौतने का पाखण्ड तो दिखाया लेकिन घरनी को घर से मुक्त नहीं कर पाया। बड़ी नाइंसाफी है। नारी मुक्ति के झण्डा बरदारों !एक महिला ब्लॉगर सम्मेलन कर दिखाओ। मार तमाचे पुरुषवादी नारी शोषकों पर !...    
... नमूना बद-इंतजामी। चार जगहों पर प्रवास की व्यवस्था। सरकारी गेस्ट हाउस, एल आइ सी गेस्ट हाउस, विश्राम होटल और प्रयाग विश्वविद्यालय गेस्ट हाउस। अनाहूत ब्लॉगर भी (हाँ गए थे) ठहरा दिए गए। कमरे खाली भी रह गए। खाना आदमी के खाने लायक था - ब्लॉगर के नहीं (एक अलग जीव होता है शायद)।
सबने मौज ली मुझे तो कोई दु:खी नहीं दिखा। ...धन्यवाद हिन्दी एकेडमी, धन्यवाद अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, धन्यवाद नामवर, धन्यवाद ब्लॉगर जानवर, धन्यवाद ज्ञान, धन्यवाद विज्ञान, धन्यवाद फलाने, धन्यवाद ढेमाके... हम तो धनाधन धन्न हैं। .....
... गरिया रहे हो सरकारी टैक्स पेयर के पैसे फिजूल में उड़ाए गए। इस देश में और कहाँ कहाँ ऐसे कुकर्म होते हैं? जरा बताइए तो! नहीं होते न !बस ब्लॉगरी ही भ्रष्ट है।... क्या कहा? ऐसी बात नहीं लेकिन ब्लॉगरी को इन दोषों से बचना/बचाना चाहिए। अच्छा, पवित्र गैया की बड़ी चिंता है आप को ! बड़ा आत्मविश्वास है अपने उपर! जमाने को अपनी मुठ्ठी में बन्द रखेंगे! दुर्भाग्य(या सौभाग्य) से बहुत लोग ऐसे नहीं हैं। भ्रष्ट हैं न ! सुविधाजीवी प्रलापी। ...
... आप क्यों नहीं आए इसे गम्भीर दिशा देने? नेवता अगोर रहे थे - हजाम से भिजवाना था शायद। अव्वल तो कुछ करोगे नहीं और कोई करेगा तो दूर से नंगे होकर ढेला फेंकोगे। कर के दिखाओ न ! पता चलेगा कि मास्टर, वैज्ञानिक, अधिकारी, विद्यार्थी, मीडियाकर्मी, पत्रकार, प्रोफेसर, बेकार, प्रबन्धक और जाने क्या क्या टाइप के लोगों की जमात कैसे इकठ्ठी करनी होती है! इकठ्ठी हो भी जाय तो संभाला कैसे जाता है।...  
.. हम तो कहेंगे फले फूले अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय और हिन्दी एकेडमी जो ऐसी हिम्मत की। बस हिम्मत ही की नजर नहीं दी। छोटी छोटी बातें ऐसी विविध जुटान में महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं – क्यों नहीं समझ पाए? बारात स्वागत में भारतीय सजगता ही याद रखते! थोड़ा और प्रोफेसनलिज्म दिखाते जैसा कि यात्रा व्यय का रिफंड करने की त्वरित कार्यवाही में दिखाए! सोने में सुहागा हो जाता. . .परफेक्सनिस्ट टाइप बड़के भैया तो खुश हो जाते (रास्ते में मीनू जी ने बताया था कि कैसे साइंस ब्लॉगर्स की बनारस मीट में उन्हों ने छोटी छोटी बातों तक का ख्याल रखा था और कितनी सफाई से समय का प्रबन्धन हुआ था।) भैया, आप का गुस्सा जायज ही सही अब थूक दीजिए।...   
....  सिद्धर्थवा तो बड़ा अवसरवादी है किताब भी छपवाया और नामवर से विमोचन भी कराया। आप को कहाँ कष्ट है? कोषाध्यक्ष हो कर पद का दुरुपयोग किया। आप नहीं करते क्या? क्यों नहीं करते? आदर्श महिला/पुरुष हैं आप। पढ़ा है आप ने उसके ब्लॉग को? छपने लायक नहीं लगा क्या? अपना संकलन कभी कहीं भेजे क्या छपने को? नहीं। क्यों? आप को छपास नहीं है। दूसरों को भी नहीं होनी चाहिए क्यों कि आप को नहीं है - यह ब्लॉगरी की  लोकतांत्रिक सोच है।...
आप से भी तो लेख माँगे गए थे – दूसरे संकलन के लिए। क्यों नहीं भेजे? भेजे भी तो इतनी हुज्जत के बाद – क्यों? अच्छा वह अपनी कुकरनी पर परदा डालने के लिए ऐसा कर रहा है और आप पर्दा प्रथा के खिलाफ हैं ! ... कब तक अपने अन्ध मानदण्डों से सबको नाप कर जात बाहर करते रहेंगे? ... देखिए एक दिन आप अकेले बचेंगे और खुद जाति बाहर हो जाएंगे। नहीं, आप बचेंगे ही नहीं क्यों कि आप को चाहे जो भ्रम हो यह समय बड़ा छिनार है, हरजाई है – किसी का नहीं हुआ और बहुत कम हुए जो इसके प्रवाह को मोड़ या तोड़ पाए। लेकिन वह लोग हरगिज आप जैसे न थे. . .
... मैं यह सब क्यों कह रहा हूँ? बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना! एकेडमी, विश्वविद्यालय और सिद्धर्थवा का चमचा हूँ। बड़ा फायदा मिलता है मुझे इनसे। सुना है कि ब्लॉग रत्न के लिए हमरा नाम प्रस्तावित किया है। प्राइवेट बात है – किसी को बताइएगा मत ! ....
... टुटपुँजिया हूँ जो लखनऊ से प्रयाग अपने खर्च पर नहीं जा सकता था और ठहर नहीं सकता था। चार पैसों के लिए जमीर  बेंच दिया मैंने! हिन्दी के लिक्खाड़ों का तमाशा देखने के लिए अपने को बेंच दिया मैंने! हिन्दी के शलाकापुरुषों के हृदयपरिवर्तन या मजबूर स्वीकार को देखने को अपने को बेंच दिया मैंने! साहित्य की गन्दगी का ब्लॉगरी गंगा यमुना से संगम देखने को अपने को बेंच दिया मैंने! ब्लॉगरी को ही दलाल हिन्दी साहित्यकारों के हाथ बेंच दिया मैने! इतने गुनाह एक साथ !. . कुंठासुर नहीं मैं शक्तिशाली गुनाहासुर हूँ। हा ! हा!! हा!!! ...
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किसी ब्लॉगर ने संगोष्ठी में कहा था कि वह दिन दूर नहीं जब हिन्दी हिन्दी वालों से आजाद होगी। उसकी बागडोर गैर हिन्दियों और सारे संसार के हाथ होगी। मुझे प्रतीक्षा है उस दिन की।
आओ बालसुब्रमण्यमों! आओ शास्त्री फिलिपों !! गोबर पट्टी से एक अदना आह्वान कर रहा है।

अंग्रेजी के e का कमाल तो देख लिया – धड़ाधड़ लाइव सी रिपोर्टिंग में लेकिन हिन्दी की छोटी ‘इ’ का कमाल देखना बाकी है। उस मात्रा का कमाल देखना बाकी है जिसने e कोड वालों को बहुत दु:ख दिए, इतनी विनम्र कि पहले लगती है, फिर उच्चरित होती है- मतलब कि काम पहले बात बाद में। ...
.... हाँ इलाहाबाद से ‘इ’ गायब थी।   

रविवार, 25 अक्टूबर 2009

इलाहाबाद से 'इ' गायब, भाग -1


प्रयाग ब्लॉगर संगोष्ठी (जी हाँ ब्लॉगरी में इलाहाबाद को प्रयाग कहने वालों के लिए भी जगह है।) के बारे में सोचा था कि नहीं लिखूँगा लेकिन बहुत बार अपना सोचा नहीं होता।
(पहला दिन)  
हिन्दुस्तानी एकेडमी के सभागार में प्रेमचन्द, निराला, राजर्षि टंडन और हिन्दी के कितने ही आदि पुरुषों के साए तले हिन्दी आलोचना के एक पुरनिया स्तम्भद्वारा उद्घाटन - देख सोच कर ही रोंगटे खड़े हो गए। (वक्त ने खम्भे पर बहुत दाग निशान लगाए हैं - बहुत बार खम्भा भी इसके लिए जिम्मेदार रहा है)। लेकिन अभी तो बहुत कुछ बाकी था।...
ब्लॉगरी अभिव्यक्ति, संप्रेषण, सम्वाद और जाने क्या क्या (इसलिए लिख रहा हूँ कि आगम का नहीं पता) की एक नई और अपारम्परिक विधा है। लिहाजा इससे जुड़े सम्मेलन का प्रारम्भ और उद्घाटन ही पारम्परिकों को चिकोट गया। उद्घाटन के पहले वरिष्ठ ब्लॉगर ज्ञानदत्त पाण्डेय द्वारा विषय प्रवर्तन और फिर रवि रतलामी द्वारा पॉवर प्वाइण्ट प्रस्तुति! पुरनिया नामवर जी भन्ना गए। वे इतना भी नहीं सोच पाए कि इस निहायत ही नई विधा से सबका चीन्हा परिचय कराने के लिए यह आवश्यक था। चिढ़ को उन्हों ने पहले से ही उद्घाटित विषय का उद्घाटन करने की बात कह कर व्यक्त किया। बाद में नामवर जी ने तमाम अच्छी बातें भी  कहीं। ब्लॉगिंग की सम्भावना को स्वीकारा। चौथे पाँचवें स्तम्भ वगैरह जैसी बातें भी शायद हुईं। फिर खतरों की बात उठाई गई। राज्य सत्ता के भय, दमन वगैरह बातों के साथ सावधान किया गया - पुरनिए कर ही क्या सकते हैं? ब्लॉगिंग क्या है- इसका कख उन्हें कहाँ पता है? जो चीज न पता हो उससे खतरा तो लाजमी है। 
ये वही पुरनिए हैं जो मुक्तिबोध की अभिव्यक्ति के खतरे उठाने और गढ़ मठ तोड़ने वाली कविता की दिन में चार बार जरूर सराहना करते हैं। ऐसा करने से उनकी मेधा शायद तीखी बनी रहती है।  
सम्प्रेषण,संवाद,खतरा,भय। ब्लॉग पर लिखने के लिए यह चतुष्ट्य मुझे बड़ा सम्भावनाशील लगता है। 
आप पैदा होने के बाद जब पहली बार रोते हैं तो खतरा मोलना शुरू करते हैं और जारी रहते हैं मृत्यु के पहले की अंतिम हिचकी तक। खतरा कहाँ नहीं है? जीना छोड़ दें इसके कारण? 
ब्लॉगिंग में ऐसा अभी तक नहीं आया है जिस पर मुक्तिबोध की आत्मा खुश हो रही हो। वैसे भी ब्लॉगरी को मुक्तिबोधी मानकों की नहीं, अपनी परम्परा से विकसित मानकों की आवश्यकता है। लेकिन जब तक परम्परा न विकसे तब तक तो पुरनियों की अच्छी बातों का ही सहारा रहेगा। है कि नहीं?
अब आइए सिखावन पक्ष पर। हमारे बहुत से ब्लॉगर यह समझते हैं कि कुछ भी लिखो, कोई कुछ कर नहीं सकता। इस गलतफहमी को दूर करने के लिए पुरनियों की सिखावन पर ध्यान देना चाहिए। राज्य सत्ता वाकई शक्तिशाली है और आप का गला पकड़ कर पुलिस वैन में बैठाने में उसे देर नहीं लगती। इस लिहाज से ब्लॉगरों को स्व-अनुशासित रहना चाहिए। बस उतना अनुशासन कि अपराध न हो। अपराध क्या हो सकते हैं इसके लिए थोड़ी समझ का प्रयोग और थोड़ा अध्ययन आवश्यक है। कानूनी बैकग्राउण्ड वाले ब्लॉगर इस पर प्रकाश डाल सकते हैं।     
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सभा का स्थल उद्घाटन के बाद बदल कर महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का प्रयाग केन्द्र कर दिया गया। निहायत ही अनुपयुक्त स्थान - किसी भी तरह से इस स्तर के जमावड़े के लायक नहीं। ब्लॉगरों के इकठ्ठे होने लायक तो हरगिज नहीं। सभागार जो कि एक पुराने घरनुमा भवन में बनाया (?) गया है कहीं से भी सभागार नहीं लगा। बन्दिशें न मानने के आदी ब्लॉगरों के अराजक व्यवहार का मार्ग इसने सुगम कर दिया। पहला दिन जुमलों का दिन रहा। इस तरह के जुमले उछाले गए:
- ब्लॉगर खाए,पिए और अघाए लोग हैं।
- ब्लॉग बहस का प्लेटफार्म नहीं है।
- अनामी दस कदम आकर जाकर लड़खड़ा जाएगा।
- पिछड़े हिन्दी समाज के हाथ आकर ब्लॉग माध्यम भी वैसा ही कुछ कर रहा है।
- एक भी मर्द नहीं है जो स्वीकार करे कि हम अपनी पत्नी को पीटते हैं।
- इंटरनेट पर जाकर हमारी पोस्ट प्रोडक्ट बन जाती है।
- एक अंश में हम आत्म-मुग्धता के शिकार हैं। 
- औरत बिना दुपट्टे के चलना चाहती है जैसे जुमले। . . .(बन्द करो कोई पीछे से कुंठासुर जैसा कुछ कह रहा है।)  


जुमले बड़े लुभावने होते हैं। ये आप को विशिष्ट बनाते हैं। आप जब इन्हें उछालते हैं तो असल में आप अपने आम जन होने के इम्प्रेशन को फेंक रहे होते हैं। कई बार आमजन की वकालत के बहाने अपने को विशिष्ट बना रहे होते हैं। . . . 
ब्लॉगर खाया, पिया और अघाया टाइप का आदमी है। बिल्कुल है। प्राइमरी का मास्टर जब 250 रुपए प्रति माह के बी एस एन एल कनेक्शन की धीमी स्पीड और आती जाती लाइट को कोसता पोस्ट लिख रहा होता है तो वह अघाया ही रहता है। चन्दौली जिले के हेमंत जब मोबाइल की रोशनी में अगले दिन की पोस्ट लिख रहे होते हैं तो अपनी आर्थिक स्थिति पर एकदम निश्चिंत होते हैं। 10/-रुपए प्रति आधे घंटे की दर से जब कोई आर्जव अपने ब्लॉग पर लेख लिख रहा होता है तो अपने बाप की कमाई को एकदम कोस नहीं रहा होता है। वैसे अखबार पढ़ने वालों, टी वी देखने वालों, रेडियो सुनने वालों के बारे में क्या खयाल है? खाए पिए अघाए लोग हैं?...  एलीट क्लास के जुमलाबाजों! दरवाजा खोल कर हमने अपने गोड़ अड़ा दिए हैं। (मैं भी जुमला तो नहीं उछाल रहा? नहीं भाई एक अभिनेता का डायलॉग अपनी भाषा बोली में दुहरा रहा हूँ।) अब हमसे सहानुभूति जताती बकवासें बन्द कमरे में जब होंगी तो हम सुनेंगे और उन्हें नकारेंगे। हम जोर से अपनी बात खुद कहेंगे। तुम्हारा एसी कमरों में बैठ कर बदहाली का रोमानीकरण करना हमें हरगिज बर्दास्त नहीं है। उपर चहारदीवारी को तोड़ता पेंड़ का फोटो देख रहे हो? (सभास्थल के पास ही था - तुम्हें नहीं दिखा होगा, सामने गोबर पट्टी का जानवर जो है। अरे!उस पर तो इंग्लिश स्पीकिंग कोचिंग का प्रचार टँगा है।) जब वह कर सकता है तो हम तो आदमी हैं।  काट सकते हो क्या? 


ब्लॉग बहस का प्लेटफॉर्म नहीं है। तो क्या है भाई? अगर नहीं भी है तो उससे क्या होता है? किस लिए यह कह रहे हो? मैं जब किसी बालसुब्रमण्यम या 'मैं समय हूँ'जैसे छ्द्मनामी के साथ बतकही करता हूँ तो क्या वह बहस नहीं होती? सही है तुम हर ब्लॉग तो देख नहीं सकते लेकिन ऐसे शक्तिशाली से दिखते खोखले जुमले क्यों उछालते हो भाई? 


अनामी दस कदम आकर जाकर लड़खड़ा जाएगा। ये अनामी दूसरे ग्रह से आता है क्या जो इसे आदमियों जैसे चलने की तमीज नहीं है? भैया, सारे अनामी/बेनामी/छ्द्मनामी ब्लॉग जगत से ही आते हैं। उन्हें चलना बखूबी पता है। आप इसकी फिकर करें कि कैसे गैर ब्लॉगर आप के ब्लॉग पर आए, पढ़े और आप की बात पर टिप्पणी करने को या आप से संवाद करने के लिए बाध्य हो ! वह बेनामी भी कर जाय तो उसे सीसे में मढ़ा कर रखिए। अगर आप उसे नहीं ला सकते तो अपने ब्लॉग को आलमारी में रखी डायरी की तरह बन्द कर दीजिए। खुद लिखिए और खुद पढ़िए। (यह बात सबके उपर लागू होती है।)


पिछड़े हिन्दी समाज के हाथ आकर ब्लॉग माध्यम भी वैसा ही कुछ कर रहा है। वह कुछ क्या है, थोड़ा समझाएंगे? आप का पिछड़ेपन का पैमाना क्या है? अगड़े समाज (अंग्रेजी ब्लॉगिंग) की बात बताइए। वहाँ लैंगिक पूर्वग्रह नहीं हैं? वहाँ जूतम पैजार नहीं होती? रेप नहीं होता? छेड़खानी नहीं होती? यौन शोषण नहीं होता? वहाँ साइबर अपराध नहीं होते? जरा बताइए तो हम पिछ्ड़ों में (आप तो अगड़ी जमात से हैं, मजबूरी में हिन्दी में ब्लॉगिंग कर हम पिछड़ों को तार रहे हैं।)ऐसी क्या बात है जो हमें उनकी तुलना में (जी हाँ मानक तो होना ही चाहिए)पिछड़ा बनाती है। एके लउरी सबको हाँकना बन्द कीजिए। हाँकना आप को शोभा नहीं देता क्यों कि वह कला आप को नहीं हम देहातियों को आती है।


एक भी मर्द नहीं है जो स्वीकार करे कि हम अपनी पत्नी को पीटते हैं। कोई मर्द यह भी नहीं स्वीकारता कि रोज रोज मानसिक घुटन और सौम्य (नहीं फेयर?)अत्याचार झेलते उसका जीना मुहाल हो गया है। उसको इस बात की आदत सी हो गई है - वैसे ही जैसे उस सौम्य अत्याचार और षड़यंत्रकारी की जननी को पीटने की हो गई है। परिवार नाम की किसी संस्था का पता है आप को? अगर हाँ तो वह कैसे चलाई जाती है? आप के साधारणीकरण द्वारा? ..क्या कहा? मैं मर्दवादी हूँ जो सन्दर्भ से बात को अलग कर के कह रहा है। जी नहीं महाशय मुझे आप के बात कहने के इस 'व्याकरण (गलत प्रयोग! मेरी मर्जी)' पर आपत्ति है। आप इसे किसी और तरीके से कह सकते थे। लेकिन क्या करिएगा आप भी मजबूर हैं - कहने में पंच नहीं आता। कुछ पूर्वग्रह और पुख्ता हो जाँय तो आप को क्या फर्क पड़ता है?    
                                  
इंटरनेट पर जाकर हमारी पोस्ट प्रोडक्ट बन जाती है। बाजार....वाद..... यह इस सभ्यता का सबसे बड़ा जुमला है लेकिन घिस चुका है। कहीं भी चल जाता है, पोस्ट की जगह भले सचाई ही क्यों न कह दो! क्या बुराई है भाई प्रोडक्ट होने में? अगर हम फोकट में उड़ा रहे हैं और बाजार उसे इकट्ठा कर रहा है तो शिकायत क्यों भाई? और अगर हम उड़ा नहीं रहे, पगहा पकड़ कर तमाशा दिखा रहे हैं तो पगहा की मजबूती को हम, चोर और दारोगा जी समझ लेंगे। आप क्यों चेता रहे हैं? मलाई आप चाभें और हमें बताएँ कि बड़ी खुन्नुस लगती है - बड़ी गन्दी बात है। आप के प्रयाग तक आने, ठहरने, खाने पीने, प्रलाप करने और फिर वापस जाने में बाजार के जितने प्रोडक्ट काम आए उनकी लिस्ट लगा दीजिए। क्या कहा? नहीं लगा सकते? अच्छा सिर में दरद है। ठीक है हम ठीक होने तक इंतजार कर लेंगे। 


एक अंश में हम आत्म-मुग्धता के शिकार हैं।  हम जब यहाँ आए तो अपने सबसे अच्छे कपड़े पहन कर दाढ़ी वगैरह बना कर आए थे। आइने में जब जब अपने को देखे मुग्ध हो गए। यह भी आत्ममुग्धता है क्या? हम कुछ ऐसा करते हैं जो हमें संतुष्टि देता है और दूसरों को नुकसान भी नहीं पहुँचाता। हम प्रसन्न हो जाते हैं। आप दु:खी क्यों हो जाते हैं? बुद्ध के खानदान से हैं क्या? हम बड़े बेहूदे नासमझ हैं - अज्ञानी। लेकिन क्या करें? मन मानता ही नहीं। बहुत दिनों तक अगोरने के बाद तो कुछ हाथ लगा है। उत्सव मना लेने दीजिए न। उसके बाद तो आप जैसा कहेंगे वैसा होगा। हम मुँह गाड़े कोने में बैठे कभी खुद को कभी दूसरों को गरियाते रहेंगे। आप के उपदेश सुनेंगे और पालन भी करेंगे। अब देखिए न कोई पीछे से आप का परिचय पूछ रहा है। बता दूँ?


औरत बिना दुपट्टे के चलना चाहती है जैसे जुमले। दुपट्टा औरत का सबसे बड़ा दुश्मन है। (आज कल कपड़ा ही दुश्मन हो गया है। सुना है कि पूरे संसार में कपास का उत्पादन कम हो गया है। इस प्रोडक्ट की कमी से बाजार खुश है। अजीब स्थिति है।... ससुरी ये तो कविता हो गई। कोई इसका बहर शहर बताइए।) हाँ, दुपट्टा न रहने से हमरे बापू की आँखों को बहुत तकलीफ होती है। अम्माँ तो गरियाने लगती हैं । पता नहीं दोनों को दुपट्टे से इतना प्रेम क्यों है? बड़े पिछड़े हैं बेचारे। हमको भी कुछ कुछ ...। कल सल्लू मियाँ कह रहे थे कि हम तो बिना बुशट पहने सड़क पर चलना चाहते हैं। हमने उनको कह दिया - बिन्दाश चलो।आजाद जमाना है। वैसे दुपट्टा और नारी की स्वतंत्रता पर एक मल्टीनेशनल कम्पनी ने लेख प्रतियोगिता आयोजित की है। आप जरूर भाग लीजिएगा। . . .पुरुषवादी,बैकवर्ड, मेल सुविनिस्ट ... खुसफुसाते चिल्लाते रहिए, हम सुन रहे हैं। अब कुछ दिनों में आँख पर पट्टी बाँध चलेंगे तो उसके लिए कानों को तेज होना ही चाहिए। एक्सरसाइज हो रही है उनकी... 


... जुमले बहुत खतरनाक होते हैं। ओरेटरों की जुबान पर चढ़े हथियार होते हैं। आप घायल नहीं होते बल्कि अपना दिमाग टुकड़ा टुकड़ा काट रहे होते हैं। सुना है दिमाग काटने पर दर्द भी नहीं होता।


(दूसरा दिन )             


हिमांशु जी को बोलने के लिए 'हिन्दी ब्लॉगिंग और कविता'विषय दिया गया था। एक कवि हृदय ब्लॉगर जिसका कविता/काव्य ब्लॉग सर्वप्रिय हो, उसे इस विषय पर कहने के लिए चुनना स्वाभाविक ही था।(मुझे पता है कि कीड़ा कुलबुलाया होगा,अरे ब्लॉगिंग करते ही कितने हैं जो सर्व की बात कर रहे हो - भाई अल्पसंख्यकों को ही गिन लो। वैसे भी कविता पर ब्लॉगिंग सम्भवत: सबसे अधिक होती है।) हिमांशु जी इस विषय पर दूसरे वक्ता थे। उनके पहले हेमंत जी ब्लॉगरी की कविताओं के नमूने सुना चुके थे। उसके बाद समय था विवेचन और बहस का और हिमांशु जी से बेहतर विकल्प उपस्थित ब्लॉगरों में नहीं था। अपनी भावभूमि में मग्न हिमांशु जब कहना प्रारम्भ किया तो ब्लॉगर श्रोताओं  (जी हाँ, गैर ब्लॉगर श्रोता बहुत कम थे) के मीडियाबाज और इसी टाइप के वर्ग के सिर के उपर से बात जाती दिखी। एक दिन पहले जिन लोगों ने इस प्लेटफॉर्म का उपयोग निर्लज्ज होकर अपनी कुंठाओं और ब्लॉगरी से इतर झगड़ों को परोक्ष भाव से जबरिया अभिव्यक्त करने के लिए किया था और सबने उन्हें सहा सुना था, उनमें इतनी भी तमीज नहीं थी कि चुपचाप सुनें। बेचारे हिमांशु जी तो पूरी भूमिका देने के मूड में थे, सो दिए। समस्या गहन होती गई। 
गलती उनसे यह हुई कि इस युग की जटिल परिस्थितियों से जूझते आम आदमी की जटिल सी झुंझलाहट  को व्यक्त करती इस नाचीज की कविता को ही उन्हों ने पहले उठाया। मैं चौंका - इतना भोलापन कि बवालियों के चेहरों पर नाचते असहजता के भावों को पढ़ ही नहीं पाए! इतना भी नहीं समझ पाए कि यह वर्ग अपनी बात सुनाने को व्यग्र तो रहता है और अवसर न मिलें तो छीन भी लेता है लेकिन दूसरों की बात सुनने की परवाह ही नहीं करता, गम्भीर विमर्श तो दूर की बात है। ...
मेरे मन में अब दूसरे भाव उमड़ने लगे। वक्ताओं के लिए निर्धारित मंच (पता नहीं सही शब्द है कि नहीं?) पर मैं हिमांशु की बगल में बैठा था और पहली बार मिले होने के कारण बीच बीच में अंतरंग सी दिखती खुसुर पुसुर में व्यस्त हो जाता था। गोबर पट्टी के इस देहाती के दिमाग में आशंका उठी - तमाम कविताओं में से मेरी ही कविता क्यों? वह भी इतनी अपारम्परिक? लोग क्या सोचेंगे? ... मेरी छठी इन्द्रिय सही चल रही थी।
एक तरफ से ऑबजेक्शन उठा। उन्हें बी.ए. प्रथम वर्ष में पढ़ाते रामचन्द्र शुक्ल याद आ गए थे। बड़ा ऑबजेक्सन था उन्हें? (ब्लॉगरी में क्या सचमुच रामचन्द्र शुक्ल का स्थान नहीं? अरुन्धती रॉय के बारे में क्या ख्याल है?) ये वही थीं जो पहले भी और बाद में भी तमाम असम्बद्ध सी अनर्गल बातें धड़ल्ले से कहती रहीं और पब्लिक सुनती रही थी। हिमांशु जी ने विषय की प्रकृति को बताते हुए उन्हें समझाया लेकिन उन्हें समझ में शायद ही आया हो। भोला चन्दौलीवासी अभी भी समझ नहीं पाया। उसके उपरांत फिर मेरी ही एक अत्यंत ही दूसरे मिजाज की कविता की बात उठाई ही थी कि बगल से आवाज आई ,"आप कहना क्या चाहते हैं?" जो कथ्य को विषय से जोड़ सुनने की कोशिश भी नहीं कर रहे थे उन्हें कथ्य के बारे में तफसील चाहिए थी। [अरे हिमांशु भैया! मुझे बाद में लगा कि एक ही कवि (गुस्ताखी कर रहा हूँ, ब्लॉगर कहना अधिक उपयुक्त होता। नहीं?) की दो आम जीवन से जुड़ी और एकदम विपरीत भावभूमियों की कविताओं द्वारा आप यह दर्शाना चाहते थे कि ब्लॉगरी की कविता की भावभूमि कितनी विविध है और ब्लॉगर कवि कितने विविध तरीकों से अपनी बात कहते हैं. . .लेकिन देखनहार देखना चाहें तब न !]
मंचासीन ब्लॉगर की ही कविताएँ सुनाई जा रही हैं! स्वप्रचार?
शायद हिमांशु जी को सामने वालों की मन: स्थिति और उथली सोच का अहसास अब हो चला था। 
तुरंत उन्हों ने संभालने की कोशिश की और दूसरी कविता पर बहस शिफ्ट करने की बात की कि संचालक महोदय को 13 मिनट नजर आने लगे। टोक बैठे। यह 13 का अंक ससुरा बहुत अपशकुनी होता है। मुझे पूरा विश्वास हो आया है। 
भावुक कवि अब समझ गया। दिल वाले जब दिमाग पर आ जाते हैं तो फिर उन्हें सँभालना कठिन होता है। हिमांशु जी ने मंच छोड़ दिया। जिन संचालक महोदय को 13 मिनट भारी लगे वे इंटर्लूड के बहाने हर वक्ता के बदलाव पर जाने कितने मिनटों तक अपनी बातें कहते रहे। तब उन्हें घड़ी के मिनट नहीं दिखे - नजर सामने हो तो कहाँ और कैसे जा रहे हैं,नहीं दिखते क्या? बाद में उन्हों ने (उन्हीं का शब्द है) अपने इस  कमीनेपन को स्वीकारा भी। मैं उनकी निर्लज्जता की निर्लज्ज स्व-स्वीकृति पर निहाल हो गया। लेकिन हिमांशु जैसों की बात तो रह ही गई न । .... बात अभी बाकी है।             

शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2009

पुरानी डायरी से - 3 : घिर गई काली उदासी




23 अप्रैल 1993, समय: अपराह्न 03:00                                                     
'घिर गई काली उदासी'


नींद से स्वप्न तोड़े, घिर गई काली उदासी
ठूँठा वन, सूना मन, बह गई पछुवा हवा सी। 


तुम किसी लायक न थी, हाय मेरी चाहना 
छोटी छड़ी हाथों लगी, था समुद्र थाहना
चन्द्रिका की वासना, चन्द्र को आँखें पियासी
घिर गई काली उदासी।


रंग रूप रस गन्ध माधुरी, क्यों न भोगे ? 
संग अंग छवि बन्ध नागरी, क्यों न भोगे ?
पतझड़ फिरता नहीं, क्यों नहीं समझा विनाशी?
घिर गई काली उदासी। 

बुधवार, 7 अक्टूबर 2009

बाउ, क़ुरबानी मियाँ और दशहरा - प्रसंगांत

पिछले भाग बाउ, क़ुरबानी मियाँ और दशहरा -1 से जारी ..
(उ)
सबेर के बेरा भैंस खोलने में देर हो गई थी, लहा लह धान के खेत किनारे बाउ भैंस चरा रहे थे। ये साल बाढ़ अच्छी थी। सरेह में फैले शीशो के पेंड़ों को दुलरा रही बयार धीमे बह रही थी। भैंस चरती चरती एक फतिंगे से जैसे खिलवाड़ कर रही थी – कभी वो मुँह मारे तो कभी फतिंगा उसकी नाक पर बैठ जाय। छोटी छोटी पीली पीली तितलियाँ घसियारू फूलों पर मँडरा रही थीं। पास के पीपल पर कठफोरवा किटिर किट्ट कर रहा था। अचानक झींसा पड़ना शुरू हो गया।
ए बेरा झींसा? - धन्न महादेव । बयार, झींसा और कठफोरवा ने कुछ ऐसा मन पुलकाया कि बारहमासा गाने लगे:
. . .भादो गगन गंभीर पीर अति हृदय मंझारी,
करि के क्वार करार सौत संग फंसे मुरारी,
तजो बनवारी।
कातिक रास रचे मनमोहन, दुई पाव में पायल भारी,
तजो बनवारी।
अगहन अपित अनेक विकल वृषभानु दुलारी,
पूस लगे तन जाड़ देत कुबजा को गारी।
आवत माघ बसंत जनावत, झूमर चौतार झमारी,
तजो बनवारी। ...
दूर से गड़वा गाँव का हजाम अनरूद आता दिखाई दिया - "ई का करे आवता ?" (ये क्या करने आ रहा है?)
. . .
पास आकर सलाम करने के बाद बोला," सनेसा बा।" (सन्देश है।)
"कहु"
"मालिक कहलें हे कि अब सतवरिया जोड़ बन्न होई अउर दसहरा के खुली।" (मालिक ने कहा है कि अब हर सातवें दिन होने वाली कुश्ती बन्द होगी और दशहरा को मुक़ाबला होगा)
"कौन मालिक ?"
" सबरन सिंघ।"
" काहें.. शौक खत्तम हो गइल ?" (क्यों? शौक खत्म हो गया ?)
"...."
"बोलत काहे नइखे?” (बोल क्यों नहीं रहे?)
"कहत के बड़ा डर लागता।" (कहते हुए बहुत डर लग रहा है।)
" सरऊ बड़ी मारब। बोलु.." (साले, बहुत मारूँगा। बोल..)
अनरूद हाथ जोड़ जमीन पर बैठ गया। बोला,
"माफ करिह बाबू। सनेसिया के कार ऐसने होला। कहनाम बा कि असल बाप के बेटा हउअ त दसहरा के दुपहरिया में नवका दंगल में गड़वा खरिहाने लड़े अइह। तमाशा देखे के मुसमतियो के लेहले अइह।"
(माफ करिए बाबू। सन्देशवाहक का काम ऐसा ही होता है। कहलवाया है कि असल बाप के बेटे हो तो दशहरे के दिन दुपहर मे नएअ दंगल में लड़ने गड़वा गाँव के खलिहान पर आ जाना। उस विधवा को भी तमाशा देखने के लिए ले आना।)
" !!"
बाउ इस अभद्र चुनौती पर काठ हो गए। मृत बापू और माँ के वैधव्य को चुनौती में समेटने की यह कैसी नीचता? पैना उठाया और अनरूद के चूतड़ पर जड़ दिया। वह ऐसा भागा कि फिर नहीं रुका . .
भागते हुए भी उसके कानों में स्वीकार नाद घुसता रहा," कहि दिए सबरना के हम त अक्केले आइब, ऊ आपन पूरा खनदान लेहले आई।" (सबरना से कह देना मैं तो अकेले आऊँगा। वह अपना पूरा खानदान जुटा लेगा।)
भैंस को वापस ले आते मन में घुन्नाते रहे, गजकरना, सबरना, .. का जाने केतना बाड़ें सो ! (जाने कितने हैं?) झींसा, कठफोरवा और बारहमासी बयार तीनों रुक गए थे।
(ऊ)
दशहरे से आठ दिन पहले अबरन सिंघ को नाती हुआ था। छटिहार बीत जाने पर इमिरती बी को बोलावा था - काजर टीका करने का। जवार में उनके जैसा सुरमा कोई नहीं बनाता था । काजर और सुरमा मिला कर बच्चे की आँख में नियमित लगाने से फुल्ली नहीं होती थी और आँख की रोशनी भी बढ़ती थी। पहला काजल सन्ध्या के समय लगता था। क्या परख थी !
हाथ में कजरौटा लिए संझा की बेल बँगले के नजदीक पहुँची ही थीं कि साँय फुस फुस सुन रुक गईं कान लगा सुनने लगीं - तीन मरदों की आवाज थी, दो पहचानी - सबरन और कमानी की, तीसरी अनजानी थी।
सबरन - “.. पाँच नेटुआ चाहीं।" (पाँच नेटुए चाहिए।)
कमानी - " सोहेला आई कि नाहीं।" (सोहेल आएगा कि नहीं?)
तीसरी आवाज - " आई काहे नाहीं? वोहि से त बउआ ठेकाने लागी।" (आएगा क्यों नहीं? बाउ को वही तो ठिकाने लगाएगा।)
कमानी - " दंगल में खलीफा तोहि के रहे के बा कल्लन वस्ताद। फेंकू वस्ताद त बड़ा कयदा कनून बतियावेलें। " (दंगल में आप को ही खलीफा रहना है, कल्लन उस्ताद ! फेंकू उस्ताद कायदे कानून की बातें कुछ अधिक ही करते हैं।)
कल्लन ! नेटुए, सोहेल - इमिरती बी ने सुना, जोड़ा और जो आगम दिखा उस पर सन्न रह गईं। छठिहार के बाद का पहला दिन! उल्टे पाँव कैसे वापस जाएँ? जल्दी जल्दी शिशु को काजल किया, दुआ पढ़ी और नजराना घर भेजवाने को बोल पीर को गोहराती भाग चली। बच्चे की माँ और बाकी औरतें देखती ही रह गईं।
(ए)
अकरम को गोद में लिए क़ुरबानी मियाँ उसे हिज्जे सिखा रहे थे। इमिरती की घबराहट देखी तो पूछ बैठे। जो सुना तो यकीन नहीं हुआ लेकिन कमानी के आखाड़े में कल्लन के वस्ताद बनने पर मन में उपजी शंका ?
नेटुए। हिन्दू और मुसलमानी दोनों धरम के मानने वाले। दुनिया का कोई ऐसा जरायम पेशा नहीं जो न करते हों। चोरी, डकैती, हत्या, ढोर भगा ले जाना, धरकोशवा बन बच्चों को उठा लेना, चन्द आनों के लिए खड़ी फसल को आग लगा देना, रातो रात धान गेहूँ काट इस गाँव से उस गाँव पहुँचा देना . . .
इनकी औरतें तो पक्की कुटनी - सुरूपा बालाओं को कोठे पर पहुँचाते देर न लगे। मर्द जानवरों की ताकत और लामर सा काइयाँपन लिए हुए। ईमान धरम सब जर ।
दशहरे के मेले और वह भी आखाड़े में उनका क्या काम? सोच क़ुरबान अली सोच !
सोहेल ! नेटुए सरदार का बड़ा बेटा। जालिम। पहाड़ सी शरीर और बैलों की ताकत। खूँखार हत्यारा।
हत्या !
और अचानक कुहासा फटा। बउटा की जान खतरे में है। उनका लंगोटिया इयार इनके हाथों ...? क्या इसी दिन के लिए उसे बसकौटी के मेले में बचाया था? नहीं.. आगे क़ुरबानी सोच नहीं सके।
तुरंत घरौठा की ओर अन्धेरे में ही जाने को निकले कि दरवाजे पर कमानी सिंघ को खड़ा पाया। विकृत मुस्कान।
"मियाँइन बिना नजराना लेहले भागि अइली ह। ऊहे देवे आइल रहली हें। " (मियाँइन बिना नजराना लिए ही भाग आई थीं।)
इतने नौकर चाकर और कमानी खुद नजराना देने आएँ ! क़ुरबानी की बुद्धि इस दूसरे झटके से चौन्हा गई।
"बड़ी मेहरबानी बाबू। ललना जुग जुग जिएँ। अल्ला के करम हो।"(बाबू, बहुत मेहरबानी। बच्चा युग युग जिए। अल्लाह का करम हो।)
" अरे देख त ss का ले आइल बानी?" (अरे देखो तो क्या लाया हूँ?)कहते हुए कमानी ने गमछा उठा दिया।
चाँदी की हँसुली ढेबरी की रोशनी में लपर लपर चमक रही थी।
क़ुरबानी ने हाथ जोड़ लिए,
"बाबू बड़ी मेहरबानी। राति के सबके नज़र चोरा के काहें ले अइल ह? ले जा। बिहाने आ के खुदे ले लेब। लछमी के राति के घर में से नाहीं निकालेके।" (बाबू, बड़ी मेहरबानी। रात को सबकी नजर च्रा कर क्यों लाए हो? ले जाओ। सुबह मैं आकर खुद ले लूँगा। लक्ष्मी को रात में घर से बाहर नहीं निकाला जाता।)
कमानी ऐंठता हुआ चला गया।
जाने क्यों क़ुरबानी को लगा कि उनके बदन में चीटियाँ घुस गई हैं। हजारो चीटियाँ। दोहर उतार फेंका। धोती खोल सिर्फ लंगोट में खटिया पर चर्र से भहरा गए। सारे बदन में चुनचुनाहट! हजारों सूइयाँ पेशानी में पेवस्त हो रही थीं। इमिरती बी जल्दी जल्दी ठंढई घोंटने लगीं ... कल दशहरा था।
(ऐ)
आखाड़े को जाने को तैयार बाउ जब फेंटा बाँध रहे थे तो माता झलकारी के नयन उनकी गठीली देह को पखार रहे थे। नजर न लगे ! माँ ने हाथ पर थुकथुकाया और आँखों पर लगा लिया।
बाउ गड़वा की ओर चल पड़े । ठीक उसी जगह जहाँ अनरुद मिला था, क़ुरबानी मियाँ दो लाठियों को लिए खड़े मिले। बाउ को हैरानी सी हुई। दुआ बन्दगी के बाद क़ुरबानी एकदम से बात पर आ गए:
"बउटा ! हमार बाति मान s। आज जनि जा। नेटुआ आइल बाड़ें सो। जान लेवे देवे के जोगाड़ बा।" (बउटा, मेरी बात मान लो। आज मत जाओ। नेटुए आए हैं। जान को खतरा है।)
" जान लेहल देहल सबरना कबसे सीखि लेहलसि क़ुरबानी मियाँ ? धोखइत खनदान-नीची जात।" (क़ुरबानी मियाँ, सबरन ने जान लेने देने के खेल कब से सीख लिए? धोखेबाज खानदान – नीची जाति।)
"एहि से त कहतनी। वो कुल्हिन के कवन ईमान !" (इसी से तो कह रहा हूँ। उन सबका कोई ईमान तो है नहीं।)
" इयार, रुकि जइतिं। तू गलत थोड़े कहब S। लेकिन किरिया खइले बानी।" (यार, रुक जाता। तुम गलत थोड़े कह रहे होगे ! लेकिन मैंने शपथ ले ली है।)
बाउ ने हजाम वाली घटना सुना दी। क़ुरबानी का शक पक्का हो गया। सरेआम गुनाह !
" नइख मानत त हमहूँ चलब।" (नहीं मान रहे हो तो मैं भी चल रहा हूँ।) 
" सोचि लीह क़ुरबानी वोहि गाँवे में रहे के बा। गगरा कूआँ से कइसे बची?"(सोच लेना क़ुरबानी। उसी गाँव में तुम्हें रहना है। गागर कुएँ से कैसे बच सकती है?)
" धुर बउटा, तेहूँ कब्बो कब्बो तिरछोल बतियावेले।" (धुत्त बउटा, तुम भी कभी कभी तिर्यक बातें करते हो!)
बाउ चुप हो गए। दोनों चल पड़े लेकिन क़ुरबानी ने लाठियाँ अपने पास ही रखीं . .
(ओ)
नए नवेले आखाड़े की शोभा का वर्णन सिर्फ पहलवान ही कर सकते हैं। दाँव दिखाने को बनाई गई नई जमीन बहुत आदर और गुरुता की पात्र हो जाती है।
आखाड़ा आम के पेड़ों की छाया में बना था। अबरन, सबरन और कमानी संग भाई पट्टिदार चौकियों पर विराजमान थे तो बुलाए गए नेटुए जमीन पर। बीसियों लठैत आखाड़े को घेरे खड़े थे और जनता पेड़ों और धरती पर अपनी अपनी गोल जमाए थी। कुत्ते तक आस पास डंट गए थे गो कि भतवानि का पत्तल चाटना हो। आखाड़े पर खलीफा के रूप में फेंकू और कल्लन पैंतरा दे दे छुटभैये पहलवानों को हाथ मिलाने का न्यौता दे रहे थे।
धन की महिमा, केवल कुटी चितामन के पहलवान नहीं आए थे। जनता कयास लगा रही थी- कुटी की कुश्ती फीकी हो गई कि बाउ और खेलाड़ी वस्ताद उर्फ क़ुरबानी मियाँ की जोड़ी ने आखाड़े पर पैर रखा। हर्ष की कहकही और चिल्लाहट के चटकारों से वहाँ जन जन जीवन पसर गया।
किसी अति उत्साही ने जैसे भीड़ को ललकारा," बोल कुटी चितामन की ssS"
"जय" – भीड़ ने ललकार का जवाब दिया। आखाड़े की मिट्टी को माथे और सीने पर लगा दोनों वहीं किनारे बैठ गए।
कमानी ने बुरा मुँह बनाया। बुदबुदाया, "आज चितामन के हिरामन चिता चढ़िहें।"(आज चितामन की शोभा चिता पर चढ़ेगी।)
पहली जोड़ बराबरी पर छूटी - घर परिवार का मामला था। सगुन अच्छा होना चाहिए।
क़ुरबानी ने नज़र सोहेल नेटुए पर जमा दी। चौड़ा गबरू जवान साढ़े पाँच हाथ के करीब ऊँचा होगा। उजड्ड बैल जैसा सबसे अलग नजर आता था। गोरा चिट्टा, कंजी आँखों से मक्कारी टपकती हुई।
कमानी सिंघ जाने क्यों बीच बीच में खड़े हो दायें पैर की ओर झुकता और फिर बैठ जाता।
जिस बैल के पैर में चोट हो वह हल नहीं जोता जाता !
उपर आम की डाल में एक लाठी फँसाई जा चुकी थी। सूरज दिखा रहा था कि नमाज में अभी कुछ वक्त बाकी था।
कुछ जोड़ और हो जाने के बाद भीड़ की तरफ से फरमाइश हुई - खेलाड़ी वस्ताद, खेलि देखाव।
क़ुरबानी ने लंगोट कसी और आखाड़े में चुपचाप आ गए। भीड़ मायूस हो गई!
आ SSSSली sssss क्या सिर्फ कुटी चितामन के लिए था ?
एक चक्कर लेने के बाद ही एक नेटुए ने हाथ मिला लिया। उसके बाद किसी को निराशा नहीं हुई। दस दफे भी आँखें नहीं झपकी होंगी कि कैंचा और कालाजंग दाँवों के समन्वय से हारा नेटुआ आसमान ताक रहा था।..
.. ऊ पटकलस ... (वो मारा !)
इतना शोर उठा कि कुत्ते डर के मारे खलिहान छोड़ भाग चले !
खेलाड़ी वस्ताद ने सबरन सिंघ को सलाम किया, साफा इनाम पाया, साथ ही धीरे से और न लड़ने की छूट भी ले ली। सबरन तो यही चाहता था। घड़ी नजदीक आ गई थी।
कमानी पहलवान ! आखाड़े पर। बाउ को खुली चुनौती – आर पार की लड़ाई का।
"युद्धम् देहि"
"ले सारे !" (लो साले!)
बाउ जा s s S बजरंगी चिल्लाते कूद पड़े थे। दोनों गुत्थम गुत्था हुए कि बीच में ही फेंकू वस्ताद को हटा दिया गया। कल्लन अब अकेला खलीफा था।
 . . सोहेल खड़ा हुआ। बाउ आदतन थोड़ी कला दिखाने के बाद चित्त करने को सोच रहे थे कि सोहेल का वार पीछे से हुआ। एक से दो दो - वह भी धोखे से ! एक पल को सन्नाटा पसर गया। लठैतों ने घेरा सा बना लिया था आखाड़े के चारो ओर और अचानक भींड़ पागल हो उठी।
"खलीफा ! ई का।" (खलीफा ! ये क्या?)
कल्लन वस्ताद कहाँ का खलीफा? उसके मन में 'खिलाफत' की क्या इज्जत? चुप रहा। सोहेल ने भरपूर घूँसा बाउ के सिर पर मारा था और उनकी आँखों के आगे अन्धेरा छा गया। बनमानुख वहीं भहरा गया। सोहेल बाउ का गला घोंटने लगा तो कमानी उनकी पूरी शरीर पर वजन दे बैठ गया।
भीड़ को समझते देर न लगी लेकिन बीसियों लठैत! और आतंक !!
फिर भी लोग आखाड़े में आने को गुथ्थम गुथ्था हो गए।. . .
माई रे ! बाउ के मन में जैसे गोहार सी मच रही थी। पहली बार गुरु गोनई नट्ट भूल गए थे। मस्तिष्क में रक्त प्रवाह कम हो चला था। आँखें निकलने को आ रही थीं।
बस एक दफा क़ुरबानी ने खलीफा को धिक्कारा था, फिर चिल्लाए:
"उठु बउटा, कुटी के नाव हँसइएबे का? उठु बउटा ss!" (बउटा उठो ! कुटी का नाम हँसावोगे क्या? उठो बउटा !!)
कोई हरकत न होता देख शिकायत भरी नजर से आसमान की ओर देखा- ई कइसन अनरथ मौला? (ये कैसा अनर्थ मौला ?)..
…सूरज ! नमाज का वक्त हो चला था।
पेंड़ में बंधी लाठी पर जोर दे दूसरी लाठी को टेक छलांग मारी...किलकारी निकली, मियाँ ने बजरंगी को जगाने को हाँक लगाई
" . . जा s s S बजरंगी ssss......
...ज़िबह होते जानवर की अंतिम पुकार, करुणा, अविश्वास, आह्वान, सन्धान, चुनौती...जाने क्या क्या समा गए थे इस एक पुकार में !
"... आ SSSSली sssss”
बाउ के मन में जैसे प्रतिध्वनि सी गूँजी। पहली बार कुटी चितामन के आखाड़े में सुना स्वर याद आया।
ईयार अबहिन बाड़ें ! (यार अभी यहीं है !)
सारी चेतनाओं को संजीवनी सी मिल गई। शरीर की सारी शक्तियों ने एक साथ उफान मारा।
माई रे !...
सोहेलवा का एक कान बाउ के हाथ में आया और फिर खून का फव्वारा !
बाउ ने उसका कान उखाड़ लिया था। छटपटाता सोहेल वहीं बेहोश हो गया।
ठीक उसी समय जैसे बाँस तड़का हो ... तड़ाक ! क़ुरबानी ने कमानी का पैर उस पर कूद कर तोड़ दिया।
..आ... जा...
खाजा। ...
भीड़ लठैतों को धून रही थी और दो दो हाथ कर रही थी। अबरन और सबरन परिवार बेहोश पड़े कमानी को संभालने में लगे थे।
बाउ ने क़ुरबानी का हाथ पकड़ा और दोनों इयार लाठियाँ संभाले भाग चले जैसे मदरसे से छुट्टी होने पर बच्चे चट्टी और पटरी संभालते भाग रहे हों। एकाध लठैतों ने रोकने की कोशिश की लेकिन शनि और गुरु साथ हों तो उनके सामने कवन ससुरा गर्रह टिकता है !
सीवान पर आ दोनों रुके और प्रगाढ़ आलिंगन में बँध गए। दुपहरी के बाद का सूरज चकाचक चमक रहा था।
"क़ुरबानी आज घरे मति जा।" (क़ुरबानी आज घर मत जाओ।)
"अरे नाहीं, अक़रम अउर मियाँइन अक्केले कइसे रही लोग? लइका के गोड़ टूटल बा- जाने सबरन सिंघ का करिहें?" (अरे नहीं, अकरम और उसकी माँ अकेले कैसे रहेंगे? लड़के का पैर टूटा है-जाने सबरन सिंघ क्या करेंगे?)
"एहि से त कहतनि।"(इसी से तो कह रहा हूँ)
"मौला रखवार बाने।" (मौला रखवाला है।)
... सारा किस्सा माँ को सुनाने के बाद जाने क्यों बाउ उदास हो गए। माँ के लाख समझाने के बाद भी कदम दशहरे के दिन होने वाली पारम्परिक नमस्ते बन्दगी के लिए नहीं उठ सके।
(औ)
अरुणोदय की बेला में जब बाउ भैंस खोलने दुआरे निकले तो किसी को सिसकता सुन ठिठक गए। पास गए तो इमिरती बी अक़रम को साथ लिए जमीन पर ही बैठी सिसक रही थी।
बाउ को देखा और धीरज का बाँध टूट गया।
गढ्ढे में अचानक गिरी गाय की पुकार जैसा विलाप !
" आरे ss ए बउटा ! मारि देहले सों... अ हाँ ssss " ...(अरे ये बउटा ! उन सबों ने जान ले ली !) 
इतना तेज रूदन!
झलकारी देई भागती बाहर निकलीं तो इमिरती बी उनसे लिपट गईं। अकरम धाड़े मार रोने लगा।
पहली बार इमिरती बी बाउ से बोली थीं, इस शोक में भी नाम दुलार वाला ही पुकारा था।
सुबह की शीतल बेला में भी बाउ पसीने पसीने हो गए !
फिर याद आया गजकरना। जाने कितने हैं उस जैसे? अब की जीत गया क्या? पास में घूमते मैनवा को एक धौल दे गरियाते बोले, "भाग बहानचो. मुनरा अउर मुनेसरा के बोलाइ ले आउ। कहि दीहे गड़वा जाए के बा। अब्बे।"(भाग बहनचो_, मुन्नर अये मुनेसर को बुला लाओ। कह देना गड़वा जाना है। अभी।“)
अकरम को झलकारी देई गोद में उठाए भीतर चली गईं। चेहरा आँसुओं से तर था।
बैलों को जोत मुन्नर, मुनेसर और मैना को इमिरती के साथ चढ़ा बाउ गाड़ा दौड़ा चले। मूहाँ मूहीं बात फैलती गई और घरौठा के सारे मर्द पीछे पीछे एक एक कर गड़वा की ओर चल दिए।
(अं)
क़ुरबान अली की देह बाहर लिटा दी गई थी। लाश उठाने के लिए दो बँसफोर टिकठी बना रहे थे। सारे जोलहे दुआर पर इकठ्ठा थे। चेहरे जैसे भादो का आसमान - गुमुन्द अब बरसा कि तब ! बाउ एक क्षण में ही सौ मूठ से एक मूठ हो गए -चादर हटाई तो पूरी देह पर लाठियों की चोट के निशान थे। छुआ तो ऐसी लगी कि जैसे मरी चिड़िया की देह हो !
गोनई गुरू की सीख मन में खुसफुस करने लगी, " कइ बेरा मारि से अदमी मुएला नाहीं लेकिन बुझाला कि मरि गइल बा। परान बरमंड में समा गइल रहेला . . "। (कई बार मार पड़ने के बाद आदमी मरता नहीं है। बस ऐसा प्रतीत होता है क्यों कि प्राण ब्रह्मरन्ध्र में समा गया रहता है।)
आश की रेख पतली आई और फिर अचानक जैसे मन के अँधियारे में चहाचह अंजोरिया फैल गई - दोहाई गुरु! बाउ ने देह को पैर की तरफ से टटोलना शुरू किया तो कुछ लोगों ने रोका। बाउ ने सिर उठाया। उस नजर में जाने क्या था ! सब चुप्प हो गए। ... धुकधुकी और साँस का कोई चिह्न नहीं नज़र आ रहा था। सीने पर बाउ ने कान लगाया
तो!.
..बहुत धीमी धुकधुकी, रुक रुक कर !!
तो !!!
जिन्दगी अभी बाकी थी। इमिरती बी से पहली बार बाउ बोले थे, " भउजी हो, कल राखss। तेल गरमाव।" (भाभी, धीरज रखो। तेल गरम करो।) मन ही मन गुरु गोनई को प्रणाम कर बाउ ने हुक्म फरमाया, " ए मुनेसर, ए मुन्नर। इनारे से पानी भर ss जा। कपारे पर तब ले पानी गिराव जा जब ले होश न आ जा। "(मुनेसर और मुन्नर! कुएँ से पानी ले आ सिर पर तब तक गिराते रहो जब तक होश न आ जाय)
सरसो का गरम तेल पैरों के तलवों पर बाउ ने रगड़ना शुरू किया, उधर मुन्नर मुनेसर क्या दो तीन लोग और सिर पर पानी उड़ेलने में लग गए। प्राण को वापस देह में उतारना था ... आध घड़ी बीत गई। कोई हरकत नहीं हुई।
भीड़ से एक बूढ़े ने हिम्मत कर कहा, " अब रहे द बबुना। माटी के काहें ..?" (बबुना, अब रहने दो। मिट्टी को क्यों...?)
"हमरे इयार के देहिं हे ई। माटी कहब s त अब्बे तोहके माटी बना देइब।" (यह मेरे यार की देह हैं। मिट्टी कहोगे तो अभी तुमको मिट्टी बना दूँगा।)
बूढ़ा सहम कर चुप हो गया। सूरज के चढ़ने के साथ साथ ही काम में तेजी आई। .. दो घड़ी के बाद क़ुरबानी ने आँखें खोलीं। धीमी कराह सी निकली ।
"पा ss नी ss!” पानी गिराना बन्द करा हर्ष से बाउ चिल्ला उठे,"भउजी हो! दूध गरमाव।"(भौजी, दूध गरम करो।)
क़ुरबानी ने इयार को देखा, चेहरे पर जीवन की आब फैल गई।
बाउ के हाथों थोड़ा सा दूध पिया और फिर प्रगाढ़ निद्रा में सो गए। साँसे नियमित हो चली थीं।... …
बिना कुछ पूछे ही बाउ समझ चुके थे, कि सब करनी सबरन और कमानी सिंघ की थी। रात के अंधेरे में ,वह भी भिनसारे जब सब गहरी नींद में रहते हैं, धोखे से हमला कराया गया था। नहीं तो लठैत खेलाड़ी वस्ताद का क्या बिगाड़ पाते। 
बाउ चुपचाप सबरन सिंघ के घर की ओर चल पड़े। हाथ में लाठी थी। पीछे पीछे लोग - घरौठा के, जोलहे - कई तमाशबीन, कई कौतुक और कौतुहल में, तो कई वास्तव में क्रोध के अधीन।
(अ:)
सबरन सिंघ के दरवाजे पर मजमा लगा था। लठैत, नेटुए और उधारी वाले। नौकर चाकर जानवरों को सँभाल रहे थे। टूटे पाँव पर कैंचा बंधवा कर कमानी ओसारे में आराम कर रहा था। बगल में शराब और गिलास रखी थी। टूटने पर शराब की मालिश और पान बहुत लाभदायक होते हैं। सब कुछ सामान्य था जैसे कुछ हुआ ही न हो।अचानक भींड़ घिर आई। आगे, बीच में बाउ, दोनों किनारे मनसुख और मुन्नर। अगली पाँत में घरौठा गाँव, पीछे जोलहे।
सबरन सिंघ ने लठैतों को तैयार रहने का इशारा कर भींड़ को जैसे सम्बोधित किया - उपेक्षा का तेवर।
“का हे sss?” (क्या है?)| 
बाउ ने प्रथम और अंतिम उत्तर दिया, ”सबरन कक्का! पता नाहीं बा कि के क़ुरबानी के ई हाल कइल हे ए से अँइठतनी लेकिन कुछ क नइखीं पावत। लेकिन तब्बो सुबहा तोहनिए पर बा। कान खोल के सुन ल ! (सबरन चाचा! पता नहीं है कि क़ुरबानी का यह हाल किसने किया है, इसीलिए ऐंठ कर रह जा रहा हूँ, कुछ कर नहीं पा रहा। लेकिन तब भी तुम्ही लोगों पर शक है। कान खोल के सुन लो)
... उपस्थित जनसमूह को भी संबोधित करते हुए बाउ ने बात जारी रखी, क्रोध नियंत्रण से जैसे बाहर हो चला
.. सब पंचे रउरहूँ सुनि लीं जा। जबले हम जीयतनि सबरनवा तोरे खानदान से केहू अखाड़ा में उतरल त निरबंस कइले के बदिए मानब। ... ए कमानी! सुनि लिहल ss? बाउ ई कहि के जातने। अबहिन ये खनदान में तूही न कहे सुने के पहलवान बाड़ ss । अखाड़ा में गइल ss त ग़ोड़ नाहीं जान ले लेब !” ...(सभी लोग ! आप भी सुनें। जब तक मैं जीवित हूँ सबरन के खानदान से कोई आखाड़े में उतरा तो सबको मारने के बाद ही मानूँगा। ... कमानी सुन लिए न ! मैं कह कर जा रहा हूँ। अभी तो इस खानदान में तुम्हीं कहने सुननए के पहलवान हो । आखाड़े में गए तो मैं पैर नहीं जान ले लूँगा।)  दुआरे की नीम की पैकरमा कर बाउ बुदबुदाते हुए चल दिए। 
सबरन सिंघ क्या उनके परिवार के किसी ने आज तक ऐसी कुभख्खा नहीं सुनी थी। उन्हों ने लठैतों को ललकारा,” मारि द सो !” । लेकिन उतारू लठैतों को अबरन सिंघ ने रोक दिया। पहले नाती की बरही भी अभी नहीं हुई थी और इतने काण्ड ! मन किसी अशुभ संकेत से डोल गया था। भाई का हाथ थाम बोले,” भैया ! ई सारे अदमी नाहीं परेत हे। एसे डोल डाल छोड़ि द । देखत नइख कइसे नीबिया के घुमरियवलसि हे ? कवन जरूरत बा पहलवानी के ? ... अरे अपने नतियो के त कुछ सोच ss। राति खेलड़िया के मारि के का मीलल ss?” (भैया ! यह साला इंसान नहीं प्रेत है। इससे खतरा मोलना छोड़ दो। देखे नहीं कैसे नीम की परिक्रमा कर के गया है? पहलवानी की क्या जरूरत है? .. अरे अपने पोते के बारे में भी कुछ सोचो। रात खेलाड़ी पहलवान को पिटवा कर क्या मिला ?)बाउ के साथ ही भीड़ भी चल दी थी। 
टिटिहरी बोली थी टिर किट टिर टिर्र ... टिटिहरी के बोल सुन सबरन ब का करेजा काँप उठा। नौकरों को आँगन में पानी डालने को कह गरियाने लगीं .. मुँहझौंसा, एगो जोलहा खातिर तमाशा देखावे आइल रहल हे।“ (मुआ, एक मुसलमान के लिए तमाशा दिखाने आया था।)
(क)


बाउ ने अपनी भैंस खोली और मुन्नर के दरवाजे बँधी काली गाय से बदली कर दी। कुछ तो रोज डेढ़ सेर दूध की जगह चार सेर दूध का मिलना और कुछ बाउ का डर, मुनरा चुप रहा।
घूमना ... पोखरा, सरेह, जवार, खेत, खलिहान सब सर्वग्रासी अवसाद की भॆंट से चढ़ गए। चुप्प बाउ रोज डेढ़ सेर कच्चा दूध और कच्ची सुखाई हल्दी ले गड़वा जाने लगे। क़ुरबानी जब तक हल्दी वाला दूध न पी लें, बाउ न टकसें। इमिरती बी को ठण्ढई घोंटने से मना कर दिया था। खामोशी ने जैसे सब कुछ अपनी गोद में ले लिया था। एक घर घरौठा में – मुसमात और बाउ और एक घर गड़वा में – क़ुरबानी, बी और अकरम। केवल खामोशी रह गई थी।...
डेढ़ महीने के बाद क़ुरबानी खटिया छोड़ पाए। अपने इयार का हाथ थाम चलने लगे थे।... .. समय उड़ता रहा। .. घनघोर जाड़े के अंत का सन्देश ले माघ का महीना आ पहुँचा। माघ महीना बड़ा मजबूत। शरीर में रस पुष्ट होते हैं। कहते हैं माघ के लइका बाघ।
लेकिन कुछ दिनों से क़ुरबानी के चेहरे का रंग उतरने लगा था। एक दिन सबेरे बाउ बोल पड़े, ”क़ुरबानी हो। अब तss ठीक हो गइल। बिहने से दण्ड सरो शुरू होखे। एकाध दाँव अउर जोड़ो हो जा !”(क़ुरबानी ! अब तो ठीक हो गए हो। कल से दण्ड बैठक शुरू की जाय। कुश्ती की एकाध जोड़ भी हो जाय !) सुनना था कि क़ुरबानी पुक्का फाड़ रोने लगे। इमिरती बी भी मुँह में कपड़ा ठूँस घर में भाग गईं। जैसे हतियारी लग गई हो बाउ अवाक रह गए थे।
बहुत निहोरा के बाद पता चला कि पिछले करीब एक महीने से क़ुरबानी चुपचाप अपने को साधने की और आखाडा में उतारने लायक बनाने की कोशिश कर रहे थे लेकिन देंह जवाब दे रही थी। बाउ ने पहले तो समझा कि इतने दिन छूटने से और मन में कहीं डर समाने से ऐसा हो रहा होगा लेकिन क़ुरबानी की बोलती आँखों का क्या करें?
याद आया अपने से दूने पहलवानों को पलक झपकते धूल चटाता क़ुरबानी.. बसकौटा के मेले में चलती तलवारों के बीच अकेले लाठी के बल कूदने वाला क़ुरबानी ...मना करने पर भी अपने ही गाँव के जमींदार के खिलाफ खड़ा क़ुरबानी, दशहरे के दिन की किलकारी जा s s S बजरंगी ssss.. निर्भय भाव कमानी का पैर तोड़ता क़ुरबानी !. . .
नहीं! इसे कोई डरा नहीं सकता। जरूर कहीं ऐसा भीतरघाव लगा है जो ... बाउ आगे सोच न सके। नैनों से आँसू बह चले।.. दोनों इयार लिपट कर चुपचाप रोते रहे। थोड़ी देर के बाद बाउ चल दिए। इमिरती बी दूर तक उन्हें जाता देखती रहीं।
(ख)
बाउ पागल हो गए। लाल लाल चढ़ी आँखें, बिखरे बाल। केवल गाँव, सरेह का चक्कर लगाते और किसी के मिलने पर कहते,” तिसि के तेल नाहिं पादे मँगरुआ पुर्र पाँय . . .” फिर अट्टाहस – हा हा हा। झलकारी किसी तरह बेटे को पकड़ कर मँगवातीं, खिलातीं लेकिन पानी पीते ही बाउ शुरू हो जाते ...तिसि ... हा हा हा ...।
पोखर, चँवर, गँड़ुका .. यहीं ठाँव पाते। घण्टों बैठते और फिर गाँव का फेरा ..तिसि ..। मुनेसर चुप चाप परछाईं की भाँति पहरा देता लगा रहता। बाद में मुन्नर भी साथ चलने लगा।
...
और एक दिन ! कमानी सिंघ घर से गायब हो गया। एक स्वस्थ सुखी इंसान ऐसे कैसे गायब हो सकता था? सबरन अबरन बहुत खोजवाए लेकिन कमानी नहीं मिला तो नहीं मिला। बाउ पर शक हुआ लेकिन पता चला कि पागल हो गया है सो हताश हो कर बैठ गए।
..
 उस घटना के तेरहवें दिन बाउ अचानक ठीक हो गए। हजाम को बुला बाल, दाढ़ी, मोछ सब मुड़वा दिए और गाय को खोल कर भगा दिए .. बाकी जिन्दगी गाय का दूध पीना तो दूर कभी गाय के दूध की बनी चीज तक नहीं खाई।...
बरसभीतरे क़ुरबानी मियाँ चल बसे। उस दिन बाउ तनिक नहीं रोए थे ...
इमिरती बी अकरम को ले उसके फूफी के गाँव जा बसीं। बाउ फिर कभी चितामन कुटी और गड़वा गाँव नहीं गए। आखाड़े पर भी बाकी जिन्दगी उनके पैर नहीं उतरे।....
बाउ और खेलाड़ी वस्ताद के कारनामे किम्वदंती बन फैलते रहे। घरौठा में तो उनके बाद भी दूसरी पीढ़ी तक पहलवान होते रहे लेकिन गड़वा गाँव में फिर कोई मल्ल नहीं हुआ। जमींदार के घर आज भी आँखों में अन्जन लगाना गुनाह के बराबर है।
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बहुत वर्षों के बाद !
चँवर दरेसी में दो भाइयों के अलग्यौझा के झगड़े में बंटवारे के बाद जब मेड़ मरम्मत के लिए खोदी गई तो एक सिर विहीन कंकाल मिला। ... लोग आज भी उस घटना का नाम ले जाने क्या क्या कहते हैं ! .. प्रसंगांत
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शब्द संपदा:
(1) झींसा- बहुत महीन बूँदों वाली वर्षा, (2)बाढ़ – फसल की उठान, (3) पुलकाया – प्रसन्न किया, (4) नाती – पोता, (5)छटिहार, छठिहार – बच्चे के जन्म के 6 दिन बाद होने वाला उत्सव, (6) काजर – काजल, (7) जवार – इलाका, (8) सुरमा – अंजन, (9) फुल्ली – आँख की एक बिमारी जिसमें रोशनी जाती रहती है।, (10) कजरौटा – काजल रखने का छोटा सा ढक्कनदार पात्र, (11) धरकोसवा – पुराने जमाने के बच्चे चुराने वाले। कहते हैं कि अकेले पा बच्चों को बेहोश कर बोरे में भर फरार हो जाते थे।, (12) आना – पुराने जमाने का पैसा, सोलह आने = एक रुपया, (13) जर – धन, (14) इयार – यार, मित्र (15) मियाँइन – मुसलमान औरत। आदरसूचक। है न ताज्जुब वाली बात! (16) चौन्हा – चौंधियाना (17) हँसुली - गले में पहना जाने वाला पुराने जमाने का भारी आभूषण, (18) फेंटा – साफा, (19) थुकथुकाया – हाथ पर थूकने की भंगिमा बनाना, एक तरह का टोटका, (20) भतवानि – विवाह समय कच्चा खाना (भात, दाल, सब्जी ) खिलाने से सम्बन्धित एक उत्सव, (21) गोहार – पुकार, (22) चट्टी और पटरी – जमीन पर बिछने को टाट और लकड़ी का चिकना किया छोटा आयताकार टुकड़ा जिस पर बच्चे लिखते थे। (23) गर्रह – ग्रह, (24) सीवान – सीमा, (25) मूहाँ मूहीं – बात का लोगों द्वारा एक दूसरे से कह कर फैलाना, (26) बंसफोर – बांस का काम करने वाली अंत्यज जाति, डोम, (27) जोलहा – मुसलमानों को बताती एक सामूहिक संज्ञा, (28) गुमुन्द – उपद्रव के पहले की तनावपूर्ण कष्टदायी शांति, (29) सौ मूठ से एक मूठ – मुहावरा। अरमानों या उम्मीदों का एक झटके में क्षीण हो जाना, (30) अँजोरिया – चाँदनी, (31) दोहाई – दुहाई, (32) आब – आभा, (33) मालिश – अंग भंग होने पर उसे सहारा देने के बाद उस पर शराब चुआई जाती थी। मान्यता थी कि इससे हड्डियाँ जुड़ जाती थीं।, (34) पैकरमा – परिक्रमा, (35) कुभख्खा – कुभाषा, बुरी बात, (36) बरही – शिशु जन्म के बारहवें दिन वाला उत्सव, (37) सबरन ब – सबरन की पत्नी, ब अक्षर बहू के अर्थ में प्रयुक्त, (38) करेजा- कलेजा, (39) माघ के लइका बाघ – माघ के महीने में पैदा हुए लड़के बाघ की तरह शक्तिशाली होते हैं, एक मान्यता, (40) पुक्का फाड़ रोना – फूट फूट कर रोना, (41) हतियारी – हत्या का आरोप (42) भीतरघाव – अन्दरूनी चोट, (43) बरसभीतरे – एक साल के भीतर ही।