शनिवार, 21 मई 2011

तिब्बत : चीखते अक्षर (3)

yatana
पूर्ववर्ती:
तिब्बत - चीखते अक्षर : अपनी बात 
तिब्बत - चीखते अक्षर : प्राक्कथन 
तिब्बत – क्षेपक 
तिब्बत - चीखते अक्षर (1)

तिब्बत - चीखते अक्षर (2)
अब आगे ... 



चीनियों ने यह भी दावा किया कि चीन पर आक्रमण हेतु विदेशी शक्तियाँ तिब्बत को शस्त्रास्त्र सज्जित कर रही थीं। वस्तुत: तिब्बत में पश्चिमी जगत के बहुत कम नागरिक थे और तिब्बतियों को प्रधानमंत्री नेहरू वाली नवगठित  स्वतंत्र (भारत) सरकार द्वारा अत्यल्प शस्त्रास्त्र मुहैया कराये गये थे। नेहरू तब तक शांत और प्राय: असुरक्षित रही उत्तरी सीमा को लेकर पहले से ही सशंकित थे। इसके अलावा, तिब्बती सेना छोटी और साधन विपन्न थी जिसका सुप्रशिक्षित और साधन सम्पन्न चीनी सेना के सेनानायकों से कोई मेल नहीं था। पुरानी ब्रिटिश सरकार की ही तरह भारत सरकार तिब्बत के ऊपर चीन की कुछ सामान्य सी दावेदारियों को मान्यता देने को तैयार थी लेकिन उसने यह स्पष्ट कर दिया था कि तिब्बत की स्वायत्तता एक सत्य है। चीनियों ने निरंतर बढ़ते तनाव को कम करने के लिये भारत द्वारा दिये गये सारे सुझावों को तत्परतापूर्वक नकार दिया और उनकी विजयी सेना आगे बढ़ती रही।
  
7 अक्टूबर 1950 को तब तक बहुत बढ़ चुकी चीनी सेना ने तिब्बती बलों के विरुद्ध द्राइ-चू (यांग्ट्सी नदी) के पार दुतरफा मोर्चा खोल दिया। बारह दिनों के भयानक युद्ध के पश्चात 19 अक्टूबर 1950 को तिब्बती बल पूर्वी तिब्बत के राज्य मुख्यालय चाम्दो को छोड़ने को बाध्य कर दिये गये। 23 मई 1951 को 17 सूत्री समझौता सम्पन्न हुआ।
तिब्बती प्रतिनिधियों से यह कहा गया कि या तो उस पर हस्ताक्षर करें या आक्रमण का सामना करने के लिये तैयार रहें। सामान्यत: किसी भी तिब्बती प्रतिनिधिमंडल द्वारा कोई राजनीतिक समझौता बिना दलाई लामा की आधिकारिक मुहर के बिना नहीं किया जा सकता था लेकिन चीनियों ने मुहर लगे फर्जी कागजात प्रस्तुत कर दिये जिन्हें पीकिंग में गढ़ा गया था। समझौते के लिये उनका ही उपयोग किया गया।

और बातों के अलावा 17 सूत्री समझौते में इन बातों को मानने और सम्मान देने की प्रतिज्ञा की गई थी – धार्मिक विश्वास और तिब्बतियों के रीति रिवाज, उनकी उस समय जारी राजनीतिक व्यवस्था, बौद्ध मठ, मौखिक और लिखित तिब्बती भाषा और तिब्बती राष्ट्रीयता के विकास के लिये स्कूली शिक्षा तंत्र। आगे के वर्षों में चीन द्वारा इन सारी प्रतिज्ञाओं और वादों को भुला दिया गया, तोड़ दिया गया।

निश्चित रूप से यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि एक समय जब समस्त भूमंडल का एक बड़ा भाग औपनिवेशिक सत्ता की दासता में था, तिब्बत उन पहले देशों में था जिन्हों ने अपनी स्वतंत्रता घोषित की और एक मृत साम्राज्यवादी शक्ति के प्रसारवादी छ्ल छ्द्म का प्रतिकार किया। यह दुखद भी है कि उस समय जब कि बहुतेरे देश अपने को विदेशी दासता से मुक्त कर रहे थे, तिब्बत को बलपूर्वक कथित रूप से ‘एक बड़ी मातृभूमि’ कहे जाने वाले चीनी राज्य के द्वारा निगला जा रहा था। चीनी एक ओर तो संसार के विभिन्न भागों में जारी मुक्ति संघर्षों की प्रशंसा करते रहे तो दूसरी ओर संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में जनमतसंग्रह द्वारा अपनी नियति का निर्णय स्वयं करने की तिब्बत के भीतर और बाहर दोनों ओर से उठी तिब्बती माँगों को नकारते रहे।

तिब्बती बौद्ध संस्कृति
          
सातवीं सदी में तिब्बत में सर्व महत्त्वपूर्ण बौद्ध धर्म की स्थापना का श्रेय राजा सोंग-त्सेन गाम्पो को जाता है। तिब्बत में बौद्ध धर्म भारत की स्वात घाटी से पहुँचा और उन लोगों ने उसी समय अपनी भाषा के लिये लिपि को भी भारत से प्राप्त किया। प्राय: चीनी इस तथ्य को बताते हुये कि राजा गाम्पो की चीनी रानी अपने साथ बुद्ध की एक प्रतिमा लेकर आई थी जिसे आज भी तिब्बत में पूजा जाता है, यह स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं कि तिब्बत में बौद्ध धर्म चीन से पहुँचा। वे सामान्यत: यह नहीं बताते कि चीनी राजकुमारी को चीन पर तिब्बती विजयों के दौरान एक भेंट के रूप में दिया गया था (सोंग-त्सेन गाम्पो की चार और रानियाँ थीं जिनमें एक नेपाली थी और तीन तिब्बती)। इसके अलावा, सन् 792 के वृहद शास्त्रार्थ में भारतीय बौद्ध विद्वानों ने यह स्थापित करते हुये कि तिब्बत का बौद्ध धर्म मूलत: भारतीय था, चीनी विद्वानों को हरा दिया था।

 तिब्बत के देसी धर्म बोन के अनुयायियों द्वारा कई बार विनाश के बाद दसवीं सदी के दौरान 1042 में भारत से तिब्बत पहुँचे महान आचार्य अतिशा के नेतृत्त्व में वहाँ बौद्ध धर्म की दूसरी लहर पहुँची। (हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान और इस्लामी आक्रमणों के कारण बौद्ध धर्म अपनी मूल धरती से बहुत तेजी से विलुप्त हो रहा था) अपनी अलग पहचान को कायम रखते हुये तिब्बती बौद्ध धर्म ने बोन धर्म के कुछ प्रतीकों और ध्यान पद्धतियों को अपने में समाहित कर लिया जिनमें से कुछ आत्मनिरीक्षण पद्धतियाँ तो हजारो वर्ष पुरानी थीं। बोन धर्म की क्रूर बलि प्रथायें समाप्त हो गईं।  शनै: शनै: बौद्ध धर्म समस्त तिब्बतियों के जीवन में यूँ भीन गया कि आज उसके प्रभाव को अपेक्षाकृत सेकुलर संस्कृतियाँ समझने में कठिनाई का अनुभव करती हैं। तिब्बती तंत्रमार्गी बौद्ध धर्म ने असाधारण शक्ति और गहनता वाली एक धार्मिक कला का विकास किया जिसके कुछ तत्त्व इस तरह अभिकल्पित थे कि उन्हें आधार मान कर ध्यानस्थ होने पर चेतना की निश्चित अवस्थाओं की सर्जना की जा सकती थी। काष्ठ-कार्विंग और धातुकर्म में महान दक्षता प्राप्त कर ली गई जिसका अधिकांश धार्मिक विधि विधानों से सम्बन्धित था।
          
धीरे धीरे बौद्ध मठों और मन्दिरों के निर्माण बढ़ते गये और वे हर गाँव कस्बे में रहवासी भिक्षुओं के साथ पाये जाने लगे। साधारण तिब्बती घरों में भी उनकी स्वयं की वेदियाँ और बुद्ध प्रतिमायें होती थीं। पन्दहवीं शताब्दी में मठ नगर की तरह प्रतीत होते वृहदाकार मठ जैसे शिगात्से के पास ताशिलुन्पो, द्रेपुंग, सेरा, गादेन आदि ल्हासा में बनवाये गये। तिब्बती बौद्ध धर्म चार मुख्य परम्पराओं में विभक्त हो गया, हर एक के अपने अनूठे जटिल ‘कुल’ थे जो पीढ़ियों के बीच लिखित और मौखिक दोनों शिक्षाओं की प्रवाह निरंतरता को सुनिश्चित रखते थे। हर परम्परा के अपने मठ थे जिनका मुखिया एक अवतारी लामा होता था जो वर्षों के कठिन मानसिक प्रशिक्षण और अध्ययन के पश्चात बोधि प्राप्त कर चुका होता था। सोलहवीं शताब्दी में तिब्बती सरकार के आधिभौतिक और आध्यात्मिक दोनों पहलू राज्य और धर्म दोनों की अभिन्नता को रूपायित करती दलाई लामा नामक संस्था में अधिस्थापित हो गये।  वर्तमान दलाई लामा, तेन्ज़िन ग्यात्सो, इस परम्परा के चौदहवें लामा हैं। शताब्दियों के दौरान तिब्बती राष्ट्रीय पहचान उनकी धार्मिक पहचान से अभिन्न हो गई और ऊपर से लेकर नीचे तक तिब्बती समाज का हर भाग बौद्ध लोककथाओं और शिक्षाओं से संतृप्त होता गया। बौद्ध धर्म उनके जीवन, उनके पर्व और छुट्टियों, उनके काम और उनकी पारिवारिक गतिविधियों आदि सबको संचालित करता था। सन् 1950 में बड़े छोटे मिला कर लगभग 8000 बौद्ध मठ और मन्दिर पूरे तिब्बत में फैले थे जिनमें 600,000 भिक्षु रहते थे।
(अगले अंक में तिब्बती संस्कृति का नियोजित विनाश)
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अब सुनिये तिब्बती बौद्ध संस्कृति पर भारतीय प्रभाव का एक उदाहरण:

मी ऊइ (Imee Ooi) द्वारा बौद्ध प्रज्ञा पारमिता हृदय सूत्र का संस्कृत उच्चार 

(उल्लेखनीय है कि चीनी प्रचार तंत्र इतना प्रबल है कि स्वयं इमी ऊइ एक अलबम Jewel of Tibet पर काम कर रही हैं जिसकी थीम तांग वंश की चीनी राजकुमारी द्वारा तिब्बती राजा से विवाह कर के कथित रूप से बौद्ध धर्म को तिब्बत लाने पर आधारित है। यह दर्शाता है कि ऊपर से निर्दोष दिखने वाले सांस्कृतिक प्रयासों में कितनी कूटनीति छिपी हुई है और किस तरह से असत्य को प्रतिष्ठित किया जाता है।)
    



गाये गये हृदय सूत्र का मूल नीचे दे रहा हूँ। उत्सुकता हुई तो ढूँढ़ कर इसे यहाँ लगाया।  संगीत में व्यवस्थित करने के लिये अनावश्यक सम्वाद सम्बोधन कारक छोड़ दिये गये हैं। तिब्बती संगीत की ताल पर संस्कृत सुनना रोचक है।


सम्पूर्ण पाठ यहाँ देखा जा सकता है - http://www.dmes.org/pdfs/Sanskrit04-HeartSutra-deva-trans.pdf

8 टिप्‍पणियां:

  1. प्रचार सदा ही उस दिशा में होगा जिस दिशा में स्वार्थ सिद्ध होंगे।

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  2. apke is srinkhla ko padhte hue......ye jana ke
    chiniyon ko 'dragon' kyon kaha jata hai.......

    .............
    .............

    pranam.

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  3. बहुत बढिया आलेख, एक सन्दर्भ-ग्रंथ की तरह। अगली कडी की प्रतीक्षा है।

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  4. यथार्थ रचना..आप की अगली कड़ी का इंतजार रहेगा.....

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  5. जानकारियों का गज़्ज़ब सँकलन गिरिजेश जी,
    यह आलेख ऋँखला भुलाये न भूलेगी..
    इस बेला तिमिर के गहन शून्य में यह सँगीतमय हृदय-सूत्र सुनने में देह के सारे रोंये तक सजग हो उठते हैं ।
    बहुत बहुत धन्यवाद ।

    पुनःश्च; क्या यह अच्छा न रहता कि इस ऋँखला की अँतिम कड़ी में आप इन जानकारियों के मूल स्रोत का उल्लेख भी करते, ताकि इसमें और भी डूबने के इच्छुक जिज्ञासु प्रवृत्ति पुरुष उन तक पहुँच बना पाते । यह एक सुझाव मात्र है ।

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  6. एक अकथ कथा ..तिब्बती संगीत ध्यानावस्था में सहज ही ला देता है!शून्यवाद गहन रूप में प्रस्तुत है !

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  7. http://www.dmes.org/pdfs/Sanskrit04-HeartSutra-deva-trans.pdf

    यह लिंक 404 एरर दिखा रहा है।

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