रविवार, 30 अक्टूबर 2011

भूमि से नीचे बहुत


भूमि से नीचे बहुत, कहीं बहुत गहरे है एक आसमान
कोर से उछलती दमकती बिजलियाँ हैं मेरुप्रभा का आसमान
उसके छाये में पलते घने दरख्त, मनुष्य, पशु, हैवान, फरिश्ते
बहती हैं नदियाँ जिनमें पानी नहीं काला शोणित अश्यान अप्राण।
दिन और रात नहीं होते वहाँ, घड़ी घड़ी हैं पुकारें दहाड़ सी
समय की बीत जताती ज्वालामुख जिह्वा करती रह रह फुफकार
कानों में घुसती है चुम्बकीय हवा के संग – बिन सूरज प्रकाशमान
करती स्तवन – तुम सब, तुममें सब रूप, तुम सर्वशक्तिमान।

मैं आ गया हूँ, पहुँच गया हूँ। चौथा या पाँचवाँ जाने कौन सा?
हाथ पाँव सही सलामत, कोई दर्द कहीं नहीं, न देह का पता
मैं स्वस्थ हूँ, सुरक्षित हूँ, बस मस्तिष्क की जगह कोई जड़ पिंड है
याद आता नहीं कि किसी उभरे शिलाखंड से टकराया सिर गिरते हुये
याद है भी, होती भी है? जड़ है फिर भी प्रश्न उठते हैं पिंड में
कहते हैं दिमाग को काटो तो दर्द नहीं होता, चोट लगी तो कहाँ लगी?

एक साथ ज्यों पीठ ठोंकी है हजार हाथों ने – सब ठीक है, ऐसिच है
पहली दफा ऐसा ही होता है, अब आ गये हो, सब ठीक होगा
इब क्या होगा, अब जीवन कैसा होगा? पहला सवाल है जो मैंने पूछा है
अट्टहास हैं समवेत – उन्नत आत्मा! यहाँ जीवन और मृत्यु नहीं होते
इस लोक में वैसी हवायें हैं ही नहीं जो उन्हें अलग अलग करें।

हवायें? मैंने दीठ फेरी है उन अनाम वृक्षों की पुतलियों पर
झँकोरे नहीं, किसी चित्रकार के ब्रश से निकले भगोड़े छागल हैं
इधर उधर कुँलाचते सब धुँधला करते उभारते नये नये लैंडस्केप
लहरा उठती हैं बहुरंगी साड़ियाँ मेरुप्रभा मुग्ध इठलाती है
बरस रहे हैं पत्ते गिरते चमक चन चन नदी के पानी में।  
अश्यान फलक में तैर नहीं, उछलते हैं बार बार सरकते
अदृश्य में फिसलते चमकते रह रह खिलखिल झिलमिल।

अचानक पाता हूँ यहाँ कोई विसरित प्रकाश नहीं, अन्धकार नहीं
बस है जो कि होता है तब जब कोई होता है ढूँढ़ता उसे जो होता है
पुकार आई है सब ओर से (यहाँ दिशायें नहीं और न उनका बोध है)
आगंतुक! अपना प्रश्न पूछो! प्रश्न? कैसा प्रश्न? वह क्या था जो पूछा
पहला, जिसे उलझा दिया तुमने हवाओं के पल्लू में बाँध कर?
फिर से हैं अट्टहास समवेत – सिद्ध हुआ कि तुम पर्यटक नहीं
आगंतुक! तुम हम हो, अब नहीं जाना तुम्हें उस दिवालोक में
जहाँ अस्तित्त्व बस होते नहीं, नागरिक होते हैं और कुछ रह नहीं जाते।

माथे से द्रव रिस उठा है, आँखों से रिस उठा है, जाना अब नहीं हो पायेगा?
घेर लिया है मुझे अनेक रोशन श्यान जिह्वाओं ने, द्रव सूख गया है
साफ बेलार बिनटपकी चाट – मिलन की अभावी सहसा प्रथम छुअन सी।
कौन हो तुम लोग मुझे रोकने वाले? सामने क्यों नहीं आते, क्यों यूँ लजाते?
हाथ घुमाओ यूँ जैसे कि किसी पास खड़े को लग न जाय, हम दिखेंगे
हुई है हाथों में जुम्बिश और मुझे घेरे खड़े हैं हजारों दमकते स्याह से –
यहाँ कोई काल नहीं सब वर्तमान है, फिकर करोगे तो सब दिखेंगे
जिन्हें तुम कहोगे भूत से, ऊपर वहाँ कोई भविष्य नहीं, तुम्हारा नहीं।

मैं चल पड़ा हूँ उनके साथ साथ, चन्द कदम जोर साँस, पानी पी, चल
यह है हमारा आहार विहार। हम हवाखोर बस होते हैं, जीते मरते नहीं।
यहाँ आओ, हमें दिखलाओ, मुंड में क्या है? घिर गये हैं प्रभाओं के वलय
मैं मुग्ध हूँ। नाच रही है नायिका। मेरुप्रभा। आयत नेत्र अक्षितिज अबूझ
लघुत्तम केन्द्रक परिक्रमा इलेक्ट्रॉन, महत्तम निहारिकायें, कितने प्रकाशवर्ष!
तुम अद्भुत हो, जगा दी याद हमें हमारी विस्मृति की, पहले हम ऐसे ही थे
तुम क्यों आये? मैं आया नहीं खुद से, गिरा हूँ मृत्युलोक से, जहाँ जीवन है।
-झूठ है सब - तुम भी क्या खूब गिरे! हममें से कोई नहीं पतित यहाँ, हम हैं
शाश्वत, बदलते नित नवीन। इस लोक बार्धक्य का क्षरण नहीं, खुश रहो।
यहाँ विस्मृति है, तुममें दोष है कि तुम्हारे म्ंड में स्मृतियाँ हैं, शेष हैं और
यहाँ की भी हो रही रिकॉर्डिंग। एक प्रश्न, एक वृत्त, एक केन्द्र, एक प्रमेय
फिर मुझे क्यों कहा गया – पहली दफा, पहली दफा ऐसा ही होता है?

ज्यों पूछ दिया हो कोई सनातन अनसुलझा प्रश्न – सब ओर सन्नाटा
फुफकार, दहाड़ चुप। रुक गई हैं मेरुप्रभायें। साटिका साटिन बिजलियाँ
थम! आहट। हाँ, इस लोक में आहट भी है! किसी बवंडर की अकस्मात
अट्टहास – वह तुम्हें बहलाने को था। हम भुलक्कड़ों की मज्जा में है यह!
बहलाना, फुसलाना, दुलराना, समझाना – पतन की चोट गहरी है होती
उन्नत! नहीं बहलोगे, नहीं फुसलोगे, नहीं दुलरोगे तो कैसे समझोगे? कैसे?
कैसे होगे हममें से एक, तब जब कि तुममें हैं हजार दोष! पतित!! (जारी)   

गुरुवार, 20 अक्टूबर 2011

... सब समाप्त हो चुका है।


आज मद्धिम प्रकाश में तुम्हारी स्मृति क्षुब्ध कर रही है। आँखों में किचमिच है, कक्ष की सीमायें किसी चित्रकार की तूलिका रेखाओं सी होने लगी हैं – धुँधली। छत में लगे प्रकाशदीपों को घेरे उड़ते कीट अक्षरों से हैं - निरर्थक। उनमें अर्थ भरने वाला रहा ही नहीं!  उन अन्हार भरे प्रकाशी क्षणों में कैसे तुम वाक्यों से शब्द, शब्दों से अक्षर और अक्षरों से उनके रूप छीन कर नभ की ओर उछाल दिया करते थे! नभ और हमारे बीच की छत का अस्तित्त्व ही नहीं रह जाता था और मैं आँखें फाड़े शून्य में देखा करता था – तुम्हारे स्वर में शक्ति है कि उसके पीछे के आत्मविश्वास में कि उस अज्ञान में जो मौन को व्यर्थ समझता है? तुमसे जाना कि वाणी में शक्ति होती है और मौन बहुत बार स्वयं को अवगुंठन में घेरने का उपक्रम कि कहीं अबुद्धि नग्न न हो जाय!  

तुम्हारे कारण ही जान पाया कि मुझमें भी शक्ति है। वे तीन दिन, जब अस्तित्त्व ही डगमगा उठा था और चौराहे की प्रतिमा बहुत पास जाने पर दिखती थी और जब वक्ष में निर्वात भर उठा था; तुम निराशा की उस गहराई तक जा पहुँचे थे जिससे नीचे बस मृत्यु होती है। कितना समय हुआ था चौथे दिन? रात थी। महानगर निद्रा में था, जिसके सपनों का अनुमान मैं ट्रैफिक ध्वनियों की यादृच्छ भटकन से लगा रहा था – ऐसे नगर सोते भी हैं? और तुम आये।

“सब समाप्त हो गया बन्धु! सब समाप्त हो गया।“

श्मशान के ऊपर बने भवन में दिन प्रतिदिन हो रही मृत्यु की धीमी, सुनिश्चित, प्रक्रियावादी घटनाओं की सोच मैं दहल उठा और अपनी डगमगाहट, अपनी धुँधलाती दीठ और अपना निर्वात सब भूल गया। ट्यूब को खट से जला दिया था।

“हाँ, मुझे प्रकाश चाहिये।“

प्रकाश! पहली बार तुमने प्रकाश की चाहना की थी वरना कक्ष में आते ही तुम्हारा पहला काम ट्यूब बुझा कर टेबल लैम्प जलाना होता था - इतने प्रकाश में राह भटक जाओगे बन्धु! सोच समझ ठीक रहे इसके लिये अन्धेरे का स्पर्श आवश्यक होता है।

मेरे भीतर की बुझन में एक लौ सी उठी थी – तुम्हें मेरे शब्दों की आवश्यकता थी। अभी सब समाप्त नहीं हुआ था। तुम अभी भी मुझे बन्धु कह रहे थे, न भाई और न यार! तुममें तुम्हारा तुम शेष था।

हाँ, यही कहा था मैंने। कह कर ट्यूब बुझा दिया था – बाहर का विसरित प्रकाश बहुत है...और शब्द बह चले। मुझे स्मृति नहीं कि मैं क्या क्या बोलता चला गया। अंत किया तो भीतर से निर्वात भी समाप्त हो चला था। एक सुख की अनुभूति थी – मृत्यु ऐसी होनी चाहिये न कि भवन के कक्षों में भटकती सी। मृत्यु भीतर पैठती जानी चाहिये, तब जीवनशक्ति पर छाया गँदलापन साफ होता जाता है।

“कुछ समाप्त नहीं हुआ मित्र! यह नया प्रारम्भ है। जाओ सो जाओ।“  

पता नहीं तुम पहले ही जा चुके थे या मैं स्वयं सो चुका था लेकिन रात भर केशों में रेंगती अंगुलियों से जैसे शुभ्र तरंगे मस्तिष्क में प्रवेश करती रहीं। मैं जागते हुये भी सोया था और सोते हुये भी जागता।

प्रात: मैंने पूछा  – इतनी लाल आँखें! सो नहीं पाये क्या?

तुमने उत्तर दिया – मेरे जीवन का पहला जागरण था बन्धु! अब किसी भी रण में मैं समाप्त नहीं होने वाला। मेरी आँखों में धुँधलापन नहीं था। नई किरणें चुभ रही थीं। तुमने हाथ दबा दिया था – बीती रात जीवन भर याद रहेगी।

“हाँ केशव! मेरे केश अभी भी आवेशित हैं।“

तुम मुस्कुराये – भूलोगे तो नहीं?

“अवश्य भूल जाऊँगा मित्र! वह अपने आप होगा। जो अपने आप हो उसे सायास मोड़ना ठीक नहीं।“  

“तुममें बहुत उलझन है।“

“नहीं, आज तो नया जीवन है। चलो, आँखें दिखा आऊँ। सम्भवत: चश्मा लगेगा।“

चश्मे की बात पर तुम मुस्कुराये थे – अर्थपूर्ण।

“मैं समझ रहा हूँ जो तुम सोच रहे हो! सब समाप्त हो चुका है।“

उस दिन डस्टबिन में कागज के टुकड़े थे – किसी बहुत लम्बे पत्र से वाक्य, शब्द, अक्षर टुकड़े टुकड़े हो कूड़े के ढेर में बढ़ोत्तरी कर गये थे। मैं अवाक था।

“सचमुच सब समाप्त हो गया। अब नया प्रारम्भ है। सब कुछ मिल जाय तो भाग्य की बात ही न हो... हाँ तुम भूल नहीं पाओगे और मैं भी।“

... आज स्मृति है लेकिन वह आलोड़न नहीं है। मैं भूला नहीं पर सादी सी तटस्थता है। तुम्हारी स्मृति में आर्द्रता भी नहीं है लेकिन यह तटस्थता को भेदती स्वर देती क्षुब्ध स्थिति?

बस इसलिये कि तुम भूल गये। जानते हो? दीपावली आने वाली है। अक्षर अक्षर कीट रात भर टुकड़े टुकड़े प्रकाशों के चहुँओर नाचेंगे और प्रात: मृत्यु के ढेर बन जायेंगे। मैं नहीं जागूँगा। सनातनी श्मशान में दिया नहीं जलाते। राख के चिह्न बचते ही कहाँ हैं?

वही अक्षर हैं, वही शब्द और अपना वही एक वाक्य - मैं समझ रहा हूँ जो तुम सोच रहे हो! सब समाप्त हो चुका है। 

  

  

रविवार, 16 अक्टूबर 2011

मोलई माट्साब - अंत

पिछले भाग से जारी ...
क्षेपक:
(मोलई माट्साब की जिन्दगी जाने कितने क्षेपकों से भरी थी। एक नमूना यह है)।

बैसाख के महीने में स्थानीय चुनाव आ पहुँचे। कस्बे के लिये न तो चुनाव कोई नई बात थे और न उनमें खानदानी पार्टी का हमेशा जीतना लेकिन इस बार खास बात यह हुई कि लाल पार्टी ने सेंध लगाना तय किया। इस दिशा में जमीनी स्तर पर काम और श्रीमार्क्साय नम: करने के लिये बोधी कामरेड चुने गये और स्थानीय चुनाव में पार्टी प्रत्याशी बना दिये गये। पब्लिक ने इसे मजाक की तरह लिया – ऐसे चुनावों में दलगत बातें! बोधी कामरेड खुद विधानसभा से नीचे उतरने के पक्ष में नहीं थे लेकिन पलट बूरो को ज़मीनी समझ नहीं थी, किताबी हिसाब से कदम एकदम सही था और बोधी कामरेड अनुशासनबद्ध थे, लाल बिगुल बज उठा। पहली बार कस्बा पोस्टरों से लाल लहा हो उठा।

बोधी कामरेड किसी उपयुक्त अवसर की तलाश में थे जब कि लोहा लाल हो और हँसिया हथौड़ा बनाने को वार किये जायँ। दिन कम रह जाने पर उन्हों ने खुद कुछ करने का निर्णय लिया और जट्टा नट्टिन के सौजन्य से नट्टिन टोले में आग लग गई – बैसाखी आग में सब स्वाहा हो गया। बोधी कामरेड को सहायता कर वोट बटोरने की ललक नहीं थी। वे इतने मूर्ख नहीं थे। उन्हें तो नटों से बच रही पब्लिक को कुछ दिखाना था लेकिन इस चक्कर में वह एक महामूर्खता कर चुके थे। ऐसा सोचते और करते वे मोलई माट्साब को भूल गये थे।

आग दुपहर के पहले लगी थी। रस्मी सहानुभूतियों के समाप्त हो जाने के बाद अगले दिन नट्टिन टोले में बोधी कामरेड की सभा होनी थी लेकिन किसी भी हाल में वह साढ़े सात बजे से पहले नहीं हो सकती थी और साढ़े सात माने मोलई माट्साब का टोले में आगमन!
माट्साब को अपना अर्थ साम्राज्य ढहता नजर आया। बंजारा किस्म के नट जाने क्यों इतने वर्षों से यहाँ टिके हुए थे लेकिन अब? शिवस्थान के पीपल तले चबूतरे पर वह खड़े हो गये और नटों को बुलाने लगे – ए मकोदर! लछमिनिया रे! ए ढैंचिया! विपत्ति थी लेकिन माट्साब तो रोज की चीज थे! पब्लिक जमा हो गई। माट्साब ने सामने के जनसमूह को देखा और उन्हें ज्ञान की उपलब्धि हुई।

पीपल मूलधन की तरह था और चबूतरा सूद। पीपल की सरपरस्त छाँव में और चबूतरे के ठोस मजबूत आधार पर उनका वजूद खड़ा हुआ था, जिन्हें चारो ओर से गरीबी, भूख, रोग और दुख की बाढ़ घेरे हुये थी। लहरें भयानक हुईं तो पहले चबूतरा बहेगा, फिर पीपल ढहेगा। बेसिक नियम याद आया – खूँटा न हो तो भैंसिया के हेराते देर नहीं लगती। उन्हें किसी उपन्यास का वाक्य याद आया – राम करुणा वरुणालय हैं। भीतर करुणा लहरा उठी। सामने संतप्त जनों की वरुणा थी। बस आलय की कमी थी। खूँटा मास्टर! खूँटा!! और मोलई माट्साब राम और बुद्ध की करुणा परम्परा से जुड़ गये – साल भर का सूद माफ। हर घर को झोंपड़ी के लिये चार बाँस और चार बोझा फूस मिलेगा (उनकी भरपाई के बारे में भविष्य देखते हुये वह चुप रहे)।
रही सही कसर परम चेले सुरेसवा उर्फ सेठ सुरेशराम ने पूरी कर दी। हर घर को एक एक बोरी चावल पहुँच गया। उस समय बोधी कामरेड कस्बे की दीवारों पर लिखने के लिये क्रांतिपाठ फाइनल कर रहे थे। दल बल के साथ लेट लटाव होते जब बोधी कामरेड नट्टिन टोले पहुँचे तो सभी वयस्क छान छाने में लगे हुये थे और बच्चे अपनी अपनी थरिया में भात चटनी का प्रसाद पा रहे थे। जैसे सब कुछ सामान्य था। स्थितप्रज्ञ मोलई माट्साब क्रांति के बीजगणित को पहले ही हल कर गये थे।

अगले दिन अखबार में बीच के पन्ने पर आग की घटना पर सिर्फ शोक जताया गया। अंतिम वाक्य में खानदानी पार्टी की ओर इशारा था। कहना न होगा कि जिसे जीतना था वही जीता। बैसाख महीने की इस घटना ने मोलई माट्साब और उनके चेले दामाद की साख बढ़ा दी।

चटनवा और भैंसिया:
चटनवा और भैंसिया में संतान और माता जैसा सम्बन्ध था। बस इस दृष्टि से उसे 'पाड़ा' कहा जा सकता था, वरना वह दिमाग से तेज था। यह सम्बन्ध इस तथ्य से और प्रगाढ़ हो जाता था कि एक विशेष जैविक सम्बन्ध के अलावा हर तरह से मोलई माट्साब भैंसिया को वैसे ही समझते और रखते थे जैसे कोई सद्गृहस्थ अपनी घरैतिन को। भैंसिया भी राँधने और घर सँभालने के अलावा घरैतिन की तरह ही रहती थी। जब दोनों बाप बेटे स्कूल चले जाते तो लम्बे पगहे से बँधी भैंसिया घर की रखवाली भी करती थी।

जगविदित है कि भैंसे बदलती रहती हैं जब कि गृहस्थ वही रहता है लेकिन माट्साब ने इस बावत इस नियम का पालन किया था कि नई भैंस में पुरानी वाली के जीन हमेशा रहें। इस तरह से किसी भी क्षण उनके दुआरे पाई जाने वाली भैंसिया मातृपक्ष की जीवंत परम्परा का सशक्त उदाहरण होती थी।
चटनवा भैंस का दूध दूहता था। अपने लिये कुछ बचा कर भी रखता था जिसे मुँह से सीधे धारोष्ण पी लिया करता, भले उस चक्कर में कभी कभार माता की लत्ती सहनी पड़ती थी।
एक दिन उससे किसी ने कह दिया कि दिमाग गाय के दूध से बली होता है, भैंस के दूध से तो...। होश सँभालने से ही डाक्टर बनने का सपना पाले चटनवा की चटक गई। सुनने में आया कि शाम को उसने गाय लाने की ज़िद की तो मोलई माट्साब ने गाय को गुहखइनी बताते हुये उसके दूध में भी खून का अंश और बदबू पाये जाने की बात बतला उसे विरत कर दिया।

उसके बाद जो घटित हुआ उससे चटनवा की अन्वेषी प्रतिभा का पता चलता है। चटनवा और भैंसिया दोनों हेरा गये। जैसा कि बचिया के मामले से सिद्ध ही है, माट्साब को कोई चिंता नहीं हुई। उन्हें अपने खूँटे और आश्रय पर पूरा भरोसा था सो अपनी दिनचर्या में लगे रहे। दूसरे ही दिन मुहल्ले में किसी ने माट्साब से पूछा तो उन्हों ने जवाब दिया कि चटनवा अपने ममहर गया है और भैंसिया को साथ ले गया है, आ जायेगा। जाने पूछने वाला इस अजीब भगिनाप्रस्थान से आतंकित हुआ था कि माट्साब के प्रशांत उत्तर से, वह आगे कुछ पूछ नहीं सका।

चौथे दिन हीन मलिन अवस्था में दोनों वापस आ गये। पता चला कि चटनवा सिर्फ इसलिये भैंसिया को ले फरार हुआ था कि भैंस के गुहखइनी यानि विष्ठा खाने वाली न होने को स्वयं प्रमाणित कर सके। वह खुश था कि वाकई वह गुहखइनी नहीं थी, भैंसिया घर वापस आ कर प्रसन्न थी जब कि माट्साब यथावत रहे।
एक घर में तीन प्राणी कैसे सुकून, स्वतंत्रता और साहचर्य की दिव्य भावना के साथ रह सकते हैं, माट्साब का घर उसका उदाहरण था।

चटनवा ने इंटर पास किया और साल भर रगड़घस्स करने के बाद मेडिकल की पढ़ाई करने बाहर चला गया। घर में सिर्फ भैंसिया और माट्साब बच गये...
...डा. सी सी प्रसाद की क्लिनिक कस्बे में खुली तो सबने स्वागत किया। बोधी कामरेड तक ने अपने अखबार में खबर छापी। रोगियों की भींड़ जुटने लगी और करुणा वरुणालय बना डगचटनवा मालदार होने लगा। उसके जीवन में दो दुख थे – एक परिचित लोगों द्वारा तब भी चटनवा पुकारा जाना और दूसरा खुद के और लभ मैरेज कर आई बहू के समझाने के बावजूद मोलई माट्साब का पुराना घर, भैंसिया और नट्टिन टोले के सूद व्यापार को छोड़ने को तैयार नहीं होना। एक दिन जब चैम्बर में ही एक परिचित से चटनवा ने यह सुना कि हम भी सोचे रहे कि ये कौन डा. सी सी प्रसाद हैं, ये तो अपना चटनवा है!, तो उसने कस्बे से क्लिनिक को उठा देने का निर्णय ले लिया।

जिस दिन डा. सी सी प्रसाद की क्लिनिक कस्बे से रुखसत हुई, उसके अगले दिन अखबार के इतवारी अंक में बोधी कामरेड की एक कालजयी कविता छपी – ‘माटी से गद्दारी’। उकसाने पर आज भी लोग उस कविता का सस्वर पाठ करते हैं। बोधी कामरेड के जीवन की यह पहली उपलब्धि थी।
उपसंहार:
बोधी कामरेड दुबारा चुनाव लड़ने का साहस नहीं कर सके लेकिन उन्हों ने नट्टिन टोले से सर्वहारा पर प्रयोगात्मक सीखें लेनी शुरू कर दीं। जट्टा उनकी सहायिका थी जिसे वह साहिकाय कहा करते थे। असल में सहायिका शब्द से नायिका की बुर्जुवा अवधारणा की गन्ध आती थी जब कि साहिकाय शब्द से कायाधारित आदिम सह-भावना का पता चलता था। इसलिये वह सहायिका को साहिकाय कहते थे और आम जन शायिका कह कर चुटकी लिया करते थे। कम से कम इस मामले में बोधी कामरेड भावना को अपसांस्कृतिक सोच का अंग नहीं मानते थे।

कहते हैं कि बारह वर्ष तक रस्सियों के घिसने से कुयें की जगत जैसी जड़ वस्तु पर भी निशान पड़ जाते हैं, नट तो चेतन जीव थे। उन्हें सूद की चक्रवृद्धि का चक्कर समझ में आने लगा लेकिन तमाम प्रकार के मूलों की तरह ही मूलधन बहुत जबर होता है। बोधी कामरेड के पास मूलधन नहीं था मतलब कि मूल ही ग़ायब था जिसके अभाव में शोषण की ठोस बातें भी हवा हवाई हो जातीं।

हताश होकर बोधी कामरेड ने सशस्त्र क्रांति को आजमाने का निर्णय लिया। अपनी स्थितप्रज्ञता के कारण अनजाने ही वर्षों पहले जो घाव मोलई माट्साब बोधी कामरेड को दे चुके थे, वह अभी भी टभकता था। सशस्त्र क्रांति के आगे आभासी सम्बन्धों को दर्शाती हवाई गालियाँ नहीं रुक सकती थीं। नटों और नट्टिनों ने माट्साब से हिसाब माँगना और रुपये वापस करने से मना करना शुरू कर दिया। माट्साब की गालियाँ कमजोर पड़ने लगीं लेकिन रिटायरमेंट के बाद भी वह डटे रहे।

एक दिन ऐसी ही किसी झँवझोर में सशस्त्र क्रांति हुई। एक नट ने माट्साब को छूरा भोंक दिया। उस दिन संयोग से डगचटनवा उर्फ डा. सी सी प्रसाद घर आये हुये थे। आँगन में मोलई माट्साब को लिटाया गया तो माट्साब ने सबको बाहर जाने का इशारा किया – बचिया और चेले सुरेसवा को भी। उनके बाहर जाने के बाद उन्हों ने पुत्र से दरवाजा बन्द करने को कहा और बोल पड़े (इस बात का आज तक पता नहीं चल पाया कि किस तीसरे ने सुना और इसे पब्लिक कर दिया! ):
“बेटे! अस्पताल जाने का कोई लाभ नहीं। धन की हानि होगी। आत्मा तो जानी ही है ...
मूल और सूद धनी बनाते हैं लेकिन आदमी को चूस कर खोखला करते जाते हैं। जिन्दगी में खूब कमाना और खूब मौज मनाना। संग्रह में दुख होता है...
नट्टिन टोले से कभी कोई सम्पर्क न रखना। वहाँ तुम्हारे कई भाई बहन हो सकते हैं। तुम बहुत छोटे थे जब तुम्हारी माँ गुजर गई, तुम्हीं बताओ क्या करता? तुम दो संतानों के सिर न तो मैभा महतारी बैठाना था और न क्षणजीवी जीवन को प्यासे रह कर जीना था...
पुलिस के चक्कर में न पड़ना। आगे भी पुलिस और पत्रकार से बच कर रहना। जीवन सुख से कटेगा...
हमलावर को मैंने क्षमा कर दिया है, तुम भी उस हत्यारे को क्षमा कर देना...
खिंचड़ी और दूध के आहार का पुण्य रसोईघर से लगी जो कोठरी है, उसमें रखी बड़ी सन्दूक के नीचे दफन है। उसका उपयोग और उपभोग करना। बाढ़ै पूत पिता के धरमे तो मैंने सिद्ध किया ही सम्पति बाढ़े अपने करमे को झुठलाते हुये जा रहा हूँ। उस पुण्य को अगर ठीक से सँभाले रहे तो तुम्हें और कुछ करने की जरूरत नहीं।...
बैदिक गणित की पुस्तक अनामी छपवा देना। गोलघर में जो पन्ना प्रकाशन है, उसका मालिक मेरा शिष्य है। वह बिक्री सँभाल लेगा।
भैंसिया तुम्हारे लिये मातावत है। आजन्म उसकी सही देखभाल करना। उसकी नस्ल सुरक्षित रहनी चाहिये। बटाई से काम चला लेना, तुमसे नहीं निभ पायेगा। “...
...और माट्साब ने आँखें मूँद लीं। बोधी कामरेड के जीवन की यह दूसरी उपलब्धि थी जिसके सुखमय शोक को उन्हों ने अखबार के उसी भीतरी पन्ने के उसी चौथाई भाग को अगले दिन काला कोरा छाप कर मनाया।
चटनवा ने भैंसिया को बटाई पर उठा दिया। शर्त केवल यह थी कि उसका या उसकी बेटी, पोती .. का ताजा दूध उसके यहाँ पहुँचता रहे। पिता के पुण्य से डा. सी सी प्रसाद की क्लिनिक सीसीएनएच यानि कि सी सी नर्सिंग होम में तब्दील हो गई जिसकी एक शाखा श्रीमोलईप्रसाद स्मृति धर्मार्थ अस्पताल के रूप में कस्बे में खुली। उसकी ओ पी डी का शुल्क आज भी सिर्फ पाँच रुपये है और अधिकतर दवायें मुफ्त हैं।

सेठ सुरेशराम की सद् इच्छा से नट्टिन टोले में एक बार और आग लगी। पहली लुत्ती लगाने वाले का कभी पता नहीं चल पाया और रहस्यमय परिस्थितियों में नट बस्ती छोड़ कहीं और चले गये। अगले महीने थाने में बैठा सेठ सुरेशराम ताजे लगवाये सोने के अपने दो दाँतों के बारे में पुलिस वालों के साथ हँसी ठठ्ठा करते पाया गया। उसने चेलाधर्म का निर्वाह पूर्ण कर दिया था। आगे चल कर धर्मार्थ चिकित्सालय का सारा प्रबन्धन बचिया ने अपने हाथों में ले लिया। बोधी कामरेड की आगे की कथा फिर कभी।

आज भी अगर फूलपुर रेलवे स्टेशन के सामने उस पार चमकते सीसीएनएच की जलपा हो चली बूढ़ी आया से कोई मोलई माट्साब के बारे में पूछ देता है तो वह सारी कथा बिना रुके सुनाती है। आखिर में अपना नाम बताना नहीं भूलती – लछमिनिया। (समाप्त)
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डिस्क्लेमर: इस कहानी में वर्णित किसी पात्र, घटना, स्थानादि का वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं है। अगर ऐसा कुछ लगता है तो वह पूर्णत: सांयोगिक है। 

शनिवार, 15 अक्टूबर 2011

मोलई माट्साब

प्रस्तावना:

दुनिया में कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं जिनके बारे में लिख कर बताना बहुत कठिन होता है। अनिवार्य रूप से उनके चर्चे उनसे पहले आप तक पहुँचते हैं और जब उनके आधार पर आप एक व्यक्तित्त्व गढ़ चुके होते हैं तो किसी दिन अचानक वे साक्षात होते हैं और आप की सारी गढ़न एक क्षण में ध्वस्त हो जाती है। बात वहीं समाप्त नहीं होती, आप के लिये वे ज्यों ज्यों पुराने परिचित होते जाते हैं त्यों त्यों नये भी होते जाते हैं। अर्थ यह कि आप उनके बारे में कभी कुछ अंतिम सा नहीं सोच समझ पाते और एक दिन पता चलता है कि उन्हों ने अंतिम साँसें भी ले लीं। आप बाकी जीवन और परिचितों के साथ बैठ कर यह समझने की नासमझ कोशिश करते रहते हैं कि आदमी कैसा था!

मोलई माट्साब ऐसे ही थे। उनके बारे में सोचते ही लोगों को उनकी मूँछें सबसे पहले ध्यान में आती हैं। मूँछ भी कोई चीज होती है भला? लेकिन जब बाईं ओर की मूँछ म्यूनिसिपलिटी के झाड़ू सी हो और दाईं ओर की घर के फूल झाड़ू जैसी तो समग्र का चीज कहलाना स्वत: हो जाता है। माट्साब जब तब मूँछों को हाथ फेर सँवार दिया करते थे जिसके लिये वे चारो अँगुलियों का प्रयोग सहलाते हुये करते। उस समय वह यह ध्यान रखते कि एक तरफ के बाल सीधे रहें और दूसरी ओर के घुँघराले से। टेरीकाट का पीलापन लिये कुर्ता, खादी की धोती और पाँव में प्लास्टिक के जूते। यह उनका पहनावा था। कुर्ते का एक ही तरह का कपड़ा और रंग देख कर लोगों को यह भ्रम हमेशा बना रहता कि उनके पास एक ही था या एक ही सूरते रंग के कई थे? इस बात की पूरी सम्भावना है कि एक समय में उनके पास एक ही रहता। सिर के केशों पर कभी कंघा नहीं फिरा। उनके लिये पाँचों अंगुलियाँ पर्याप्त थीं। मझोले कद के थे और शरीर का वर्ण गेहुँआ था।

वे गणित के अध्यापक थे। बेजोड़ अध्यापक। उनके नैष्ठिक विद्यार्थियों में कोई ऐसा नहीं होगा जिसे कनिष्ठका, अनामिका, मध्यमा और तर्जनी अंगुलियों के अनुपात 1:1.25:1.5:1.15 अभी तक याद न हों। जिस किसी ने इस अनुपात पर प्रश्न उठाने का साहस किया, नैष्ठिक विद्यार्थी नहीं रह पाया। उसे माट्साब व्यक्तिगत बातों के चौथे सूत्र से अभिषिक्त कर देते थे – पाड़ा!

बाकी तीन सूत्र यह थे – हमार बचिया, हमार चटनवा और हमार भैंसिया। ये तीन सूत्र उन्हें 3:1 के अनुपातांतर से विकराल श्रेणी के परिवारकेन्द्रित व्यक्ति के रूप में स्थापित कर देते थे। किसी को यह नहीं पता कि अपने घर के भीतर उनका अपने परिवारियों – बचिया यानि बेटी, चटनवा यानि बेटा और भैंसिया यानि भैंस से संवाद किस तरीके का होता था। हाँ, भैंस की संतान का पद अनुपात प्रश्नकारी शिष्य के लिये आरक्षित रहता।

वे अपने माँ बाप के दसवें और एकमात्र जीवित संतान थे। नौ की अकाल मृत्यु होने के बाद दसवें की बेरी उनकी माता से बगल के गाँव की एक नट्टिन ने उन्हें बिन पैदा हुये ही मोल लिया था। उनकी माँ ने यह टोटका इसलिये किया कि बच्चा जीवित रहे। इस दृष्टि से उनका नाम ‘बिकाऊ’ होना चाहिये था लेकिन नट्टिन की मर्जी से नाम ‘मोलई’ रखा गया। नाम बिगाड़न की परम्परा को जारी रखते हुये उन्हों ने अपने बेटे का नाम सिर्फ इसलिये चटनवा रख दिया कि उसे बचपन में अपनी जीभ निकाल होठ और अगल बगल जहाँ तक हो सकता था, चाटने की लत थी। माजरा खासा कौतुहलपूर्ण होता था। बाप का बिगाड़ा नाम हाईस्कूल में चतुर चन्द प्रसाद और बाद में डा. सी सी प्रसाद हो जाने के बावजूद प्रबल रहा। उनका बेटा कस्बे के जान पहचान वालों के लिये चटनवा ही रहा। डाक्टरी पास कर लेने के बाद मामूली से संशोधन के साथ डगचटनवा हो गया।

मजबूरी में बेचारे को क्लिनिक दूसरे कस्बे में खोलना पड़ा।

मोलई माट्साब सूद का धन्धा करते थे। खुद पर खर्च कुछ खास था नहीं और भैंस के साथ बच्चों को भी बहुत मितव्ययिता से रखते थे। जिस समय बन्दगोभी पन्द्रह रूपये मन होती और भूसा बीस रूपये, उस समय बिना मात्रा या पोषण मूल्य या किसी और बात की परवाह किये वे भैंस को भूसे का मात्रास्पर्श दे बन्दगोभी की छाँटी खिलाते और घर में भी उसी की सब्जी बनवाते। भैंस पर इतना आतंक रहता कि वह चुप चाप इस राशनिंग को स्वीकार करती और दूध देती रहती। भैंसे आती जाती रहीं लेकिन माट्साब का दिब्य प्रभाव जमा रहा। बचत होनी ही थी और बैंकिंग तंत्र पर भरोसा न रखने के कारण वह नट्टिनटोले को अपना बैंक बना लिये। उनकी सुबह नहा धो कर नट्टिनटोले की लछमिनिया के दर्शन से शुरू होती – ठीक साढ़े सात बजे। लोग कहते कि चाहे तो घड़ी मिला लो, एक मिंट का भी फर्क नहीं मिलेगा। उस समय उनके कन्धे से झोला टँगा होता जिसमें कॉपी और दो रंगों की स्याही वाले पेन होते। माट्साब तगादा करते, वसूली करते और नई उधारी करते। उस दौरान उनके मुँह से धाराप्रवाह गालियाँ निकलती रहतीं। सच कहा जाय तो कस्बे में नट्टिनों से गाली जंग में विजयी रहने वाले वह अकेले शख्स थे। सवा नौ बजे बेटी के हाथ की बनी रोटी दूध के साथ खाकर वह स्कूल की ओर चल देते। उस समय वह एकदम मास्टर होते। बेटी के खाना बनाने के लायक होने से पहले वह खुद राँधा करते थे – बारहो महीने खिंचड़ी दूध। जय गुरु गोरख! जय महिमा!!

बचिया:

सुरेसवा उनका खास चेला था और आजन्म चेलवाई निभाता रहा। हुआ यूँ कि हाईस्कूल में सात दिनों तक कक्षा से फरार रहने के बाद जब एक दिन अचानक गली में वह उनसे मुखातिब हुआ तो मारे डर के उसे पसीने छूट गये लेकिन माट्साब ने उससे उस बावत कुछ नहीं कहा। उन्हों ने कहा,”हमार बचिया, राति राति भर पढ़ती है। जब भी रात में पेशाब करने के लिये उठता हूँ, खड़ाऊँ की पहली खट से ही उठ जाती है और पढ़ने लग जाती है”।

इस अप्रत्याशित सी बात से सुरेसवा स्तब्ध रह गया। अगले दिन से उसने पढ़ाई छोड़ बाप की दुकान पर बैठना शुरू कर दिया और शाम को उनके घर आ कर उनसे व्यावहारिक गणित पढ़ने लगा जिसे वे बैदिक गणित कहा करते थे। यावदूनम, आनुरूप्येण सूत्रादि रटते, सीखते हुये वह प्रेम पूर्वक हमार बचिया की पढ़ाई के बारे में सुनता उसके प्रेम में गिरफ्तार होता गया और माट्साब का मानसिक गणित मन में मन की ही रफ्तार से भागता रहा। यह एक ऐसा मामला था जिसमें किसी को जल्दी नहीं थी। माट्साब को ट्यूशन की बढ़िया कमाई हो रही थी जिसका निवेश नट्टिन टोले में हो रहा था। सुरेसवा के पिता लालाराम को जल्दी नहीं थी – आवारा बेटा अनुशासित हो चला था, दुकान सँभालने लगा था और कुछ सीख रहा था। जब उन्हें नहीं थी तो सुरेसवा और बचिया को किस बात की होती?

दो वर्ष बीत गये और लगातार दस दिनों से माट्साब का गुणकसमुच्चय: समझ पाने में असफल रहे सुरेसवा ने तय किया कि अब विलोकनम् से आगे की क्रिया होनी चाहिये। उसने माट्साब से विदा माँगी जो मिल गई। अगले ही दिन गुरुदक्षिणा रूप दुहिता अपहरण कांड सुरेसवा के द्वारा सम्पन्न हुआ। कस्बे में हाहाकार मच गया पर माट्साब अगले दिन भी साढ़े सात बजे नट्टिन टोले में माँ बहन कर आये और उसके बाद थाने में रपट लिखा कर निश्चिंत हो गये।

आजकल अखबार के लोकल वरिष्ठ सम्वाददाता बोधी बाबू कामरेड ने इस प्रकरण में खास रुचि ली। उनके सद्प्रयासों से बचिया निकट के शहर से मय सुरेसवा बरामद हो गई। उसे तो कुछ नहीं हुआ लेकिन पूछ्ताछ के दौरान हुई बातचीत में सुरेसवा ने इतनी तेजी से उत्तर दिये कि उसके आगे के दो दाँत टूट गये। आतंकित दारोगा जी ने आगे पूछ्ताछ न करने का निर्णय ले मामला रफा दफा कर दिया। दोनों के घर वालों को कुछ खास नहीं पड़ी थी।

माट्साब ने इसके बाद अपनी महानता दिखाई। शहर के आर्यसमाज मन्दिर में साथ जा कर बचिया और सुरेसवा की शादी करा दिये। लालाराम को जीवन का सबसे बड़ा घाटा झेलना पड़ा लेकिन वह कर ही क्या सकते थे? बोधी बाबू इस घटना से इतने प्रभावित हुये कि अखबार के भीतरी भाग में चौथाई पृष्ठ घेरते हुये मोलई कामरेड के जातितोड़ू क्रांतिकारी काम की क्लिष्टतम शब्दों में प्रशंसा छप गई। वे सर्वहारा मसीहा हो गये जिन्हों ने एक खामोश क्रांति का सूत्रपात किया था। अंतिम पंक्तियों में नट्टिन टोले में उनके द्वारा किये जा रहे आर्थिक सुधारों का लेखा जोखा था। सम्भवत: सूद तक आते आते स्थान चुक गया था सो वह नहीं छपा था लेकिन समाचार लेख को पढ़ने से अधूरेपन का अहसास होता था।

माट्साब को कामरेडी से अच्छा नट्टिन टोले में अपना काम सुहाता था। लिहाजा वे स्थितप्रज्ञ बने रहे। अगले हफ्ते ही बचिया के दहेज के बच गये रुपयों का निवेश भी नट्टिन टोले में करने का उन्हों ने निर्णय लिया। उनसे यह ग़लती हो गई कि बोधी बाबू कामरेड के आँगन अक्सर पाई जाने वाली जट्टा नट्टिन को उसमें से हिस्सा नहीं मिला। अगले दिन आजकल अखबार में ठीक उसी पन्ने में उतनी ही जगह में रंगे सियार मोलई मास्टर की सूदखोरी की चर्चा थी। विद्वान किस्म के जिन लोगों ने भी पढ़ा, यह कहते हुये प्रशंसित किया कि अब लेख पूरा लग रहा है, पहले वाला तो लेखन से ही अधूरा लगता था। बोधी कामरेड वाकई काबिल आदमी है।

माट्साब फिर भी स्थितप्रज्ञ बने रहे। बचिया के विदा हो जाने के बाद वापस खिंचड़ी और दूध का आहार शुरू कर दिये। उन्हों ने चटनवा को दलाल जिह्वा पर ध्यान न देकर विद्यावातायन नेत्रों से पढ़ाई पर ध्यान देने की हिदायत दी और जीवन फिर यथावत हो चला।

अनुपातांतर 2:1 रह गया क्यों कि उसके बाद उन्हों ने अपने श्रीमुख से कभी हमार बचिया नहीं उचारा। उनकी दुनिया हमार चटनवा, हमार भैंसिया, पाड़ा और अदृश्य सूद पर केन्द्रित हो गई। बचिया तो किसी अज्ञात प्रमेय की ‘इति सिद्धम्’ होकर सेठाइन बनी सुख काट रही थी। फिक्र किस बात की?

सब प्रकरण समाप्त होने के बाद एक दिन सुरेसवा उनके यहाँ आया और यह कह कर चरण स्पर्श करने के बाद चलता बना कि माट्साब मैं आप का दामाद नहीं, हमेशा चेला ही रहूँगा। इस पर माट्साब ने अपनी दुर्लभ मुस्कान की छ्टा बिखेर दी थी।

 (अगले अंक में चटनवा और भैंसिया)

शुक्रवार, 14 अक्टूबर 2011

कुछ गँवार चित्र


hirnakassap
उल्टा लटका 'हिरणाकस्सप'
hath_ka_dam
देखु हमरे हाथ के दम!
guruwon_ki_nazar

गुरुजी अउर उस्तादजी दुन्नू देखें  

कौन दाँव लगी?
ab_kya_karoon
दाँव त अटक गइल! अब का करीं?
amma_ki_bagiya_boda
अम्मा के कोला - बोड़ा
amma_ki_bagiya_karaili
अम्मा के कोला - करैली 
kanail
इनरा पर के कनइल - फुलै फूल  
mehdi

फुलाइल मेंहदी बाबा के दुआरे! 

 असो क गो बेटी बिदा होइहें रे?  
nabh_men_sona

सासू अम्मा का आसमान 
सोना छिटका बादल सँवार,  विदाई में क्या मिलेगा?
asaman_ki_or

पपीते पर फैली घेंवड़े की बेल 
            देखें कौन पहले नभ छूता है?
दशहरे की छुट्टियों में इस बार गाँव अकेला गया। मोबाइल से खींचे गये कुछ चित्र पोस्ट कर रहा हूँ। बड़ा देखने के लिये चित्रों पर क्लिक कीजिये।

सोमवार, 10 अक्टूबर 2011

जगजीत गीत अमर

नामवर नागार्जुन

नामवर के प्रश्न                                     नागार्जुन के उत्तर 

वांछित गुण                                           निराडंबरता 
वांछित गुण (पुरुष)                               श्रमशीलता
वांछित गुण (स्त्री)                                  संवेदना 
चारित्रिक विशेषता                               भदेसपन
सुख की  परिकल्पना                            समझदारी
दुख की  परिकल्पना                             नासमझी 
सबसे क्षम्य दुष्कर्म                               हत्या
सबसे अक्षम्य                                        झूठ 
नापसंद                                                  दार्शनिकता 
मनपसंद पेशा                                       लेखन
प्रिय कवि                                              कालिदास,रबीन्द्र नाथ , निराला 
प्रिय लेखक                                            बाणभट्ट, बाल मुकुंद गुप्त 
प्रिय महानायक                                    कर्ण 
प्रिय महानायिका                                 द्रौपदी
प्रिय फूल                                               नीलकमल 
प्रिय रंग                                                 हरा 
प्रिय नाम                                              सरला और अमल 
प्रिय भोजन                                           मछली 
प्रिय सूक्ति                                             सत्य श्रमाभ्या सकलार्थ सिद्धि:
प्रिय आदर्श वाक्य                                क्रिया केवलमुत्तरम

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इसे किसी ने मुझे मेल में भेजा। सोचा कि साझा कर दूँ। इस प्रश्नोत्तर के इतिहास या इसमें किसी शोधन के बारे में कोई जानकारी हो तो बताइये। 

मंगलवार, 4 अक्टूबर 2011

बी - अंतिम भाग

12345 और 6 से आगे ...
ज़िन्दगी के सबसे अच्छे और सुहाने दिन शुरू हुये थे। वह रात सुहाग की अलहदा सी रात थी। कमरे का द्वार खुला था – हम दोनों के अलावा था ही कौन? कारखाने की अपनी बिजली थी। आसमान खुली दलान के रास्ते ताल से आती ठंडी हवायें पंखे से घुमरी पा रही थीं। दो देहें चन्दन शीतल। बरनावाली विमला पहली बार बिजली के पंखे की हवा के अनुभव में थी और मैं क़यामत पर अटका। विमला ने पूछ ही लिया – तन्नी ने आखिर में वैसा क्यों कहा?
उठ कर मैंने बल्ब जला दिया और तन्नी का फोटो ला कर थमा दिया। जिस तन्नी को यदा कदा चर्चा से ही विमला जानती थी, उसके बारे में सब सुनने के बाद उसने गहरी साँस ली – आप नसीब वाले हैं ...लगता है कि तन्नी के साथ सब ठीक नहीं है। मैंने हँस दिया – अरे! उसके दो दो फूल से बेटे हैं। कल खुद देख लेना। बल्ब फिर से बुझ गया और शांति छा गई – ताल की गहराई जितनी।
सुबह हुई और तन्नी प्रकट हुई – जैसे कुछ हुआ ही न हो! हाथ पकड़ कर विमला को खींच ले गई। सखियारो की शुरुआत जान मैं मुस्कुराया। दूर से तन्नी की खिलखिलाहटें और बत्तखों की चें चें सुन मैंने प्रार्थना में हाथ जोड़ लिये - हे ईश्वर!... 
  
कुछ ही दिनों बाद तन्नी वापस चली गई लेकिन बी के आँगन में विमला के आने के बाद हो रही मेरी उपेक्षा बरकरार रही। शायद न तो बी को वैसी शिष्या मिली थी और न विमला को वैसी गुरु! सिंघाड़े की रोटी से लेकर चावल के पापड़ तक, मुर्गमसल्ल्म से लेकर दमपोख्त तक, डलिया बिनाई, सिलाई पुराई...और भी बहुत कुछ। जो कुछ विमला जानती वह भी दुबारा बताया जाता और वह सीखती भी। शाम को हँस हँस कर बताती।
 दिन उड़ चले। ताल पर सुनहरी चादरें बिछती रहीं, सिकुड़ती रहीं। राजरानी के केशों में कहीं कहीं मेंहदी से ढकी चाँदी दिखने लगी थी लेकिन उनका स्नेह दिन ब दिन युवा होता रहा...
उस दिन बी बहुत खुश हुईं जिस दिन अखबार में मेरे नाम के साथ रिजल्ट निकला – प्राइवेट पढ़ाई कर बी एच यू से अंग्रेजी विषय से एम ए करने वाला कस्बे का मैं पहला शख्स था। बी अंग्रेजी नहीं जानती थीं लेकिन असलम के लाये अखबार को लेकर कोठी तक दिखाने गईं जैसे मैंने आठवीं पास की हो। मैंने असलम को छेड़ा – बता दूँ उस दिन वाली बात जब तुम डिप्टी साहब के यहाँ मुझे पास कराने को पैरवी करने गये थे? असलम घबरा गया और मौके का फायदा उठाते हुये मैंने छुट्टी के दिन उसके खर्च पर मैटिनी शो देखने का प्लान पक्का कर लिया।

घर परिवार भूल हम दोनों दोस्त सिनेमा देखे। छूटने के बाद राजाराम हलवाई की दुकान पर बैठ कर सोहन हलवा खाये और यूँ ही एक दूसरे का हाथ पकड़ दूर तक रेल पटरियों के सहारे घूम आये। तिजहर के करीब साढ़े चार बजे हम लोग वापस आये। विमला खार खाये बैठी थी – बी के यहाँ हाल बेहाल है और आप को मटरगस्ती से फुरसत नहीं? मैंने भौंचक्का हो कर पूछा – क्या हुआ? असलम भी तो मेरे साथ ही था!
उसने जल्दी से बताया – तन्नीबहिना के पति को कुछ हुआ है, जल्दी जाइये। मैं बी के घर की ओर भागा। बहिना, बहिना, बहिना ... दिल अनहोनी की सोच तड़प रहा था।

बी चौखट पर पल्ले की आड़ लेकर बैठी थीं। गली में सुल्तान मियाँ, असलम और एक बीमारसूरत अनचीन्हे बुजुर्ग बैठे थे जिन्हें पहचानते मैं भटक रहा था। मैंने यूँ ही हाथ जोड़ लिये। अजनबी की बातें बन्द हो गईं। बी ने अन्दाजा लगा लिया। जैसे अजनबी को सम्बोधित कर बोलीं – घर का बच्चा है, आप मिले तो हैं। हम सभी दलान में आ गये लेकिन बी यह कह कर चौखट पर ही बैठी रहीं कि उन्हें भीतर जाते घबराहट हो रही थी।    
जब तक मुझे पता चला कि अनजान बुजुर्ग तन्नी के ससुर थे, उनकी इकलौती औलाद और तन्नी का शौहर जमाल साल भर से घर नहीं आया था और तन्नी की सास मरणसेज पर थी; तब तक ताल का पानी सुनहला हो चला था। असलम ने बताया कि उस दुष्ट ने अपनी अम्मी को याद करते हुये खत लिखा था। लिखा था कि याद आती है, मिलना है, आ जाओ, मैं नहीं आ सकता। खत में न तो तन्नी का जिक्र था और न बच्चों का।
साल भर से उसके ग़ायब होने की बात तन्नी के नैहर वालों से छिपाई गई थी, गाँव वालों से छिपाई गई थी कि बम्बई से अरब कमाने चला गया है लेकिन जब खत आया तो उसके ससुर ने तन्नी के भाइयों से मदद लेने की सोची। गाँव वाले तो रुपये उड़ा पड़ा कर खाली हाथ वापस आ जाते!  

साँझ के झुटपुटे में सब खामोश थे। चौखट पर छाया बैठी थी। मुझे तन्नी का अकेले ताल को निहारना याद आ गया- जाने उस पर क्या बीत रही थी! यहाँ भी सब उसकी सास को लेकर ही परेशाँ थे। लगा की इस बार बी का चौखट सेना अकारथ ही जायेगा और मैं सहम गया। ताल की लहरों में कारखाने की रोशनी के बल्ब जलने बुझने लगे। सिर में पटाखों की लड़ियाँ चटचटाने लगीं। जब सहा नहीं गया तो मैं असलम का हाथ थाम चिल्ला पड़ा – मुझे वह खत दो। चौखट छोड़ कर भागती हुई बी आईं और मेरे हाथ में खत पकड़ा दिया, जैसे उसी क्षण के इंतज़ार में थीं! बल्ब की रोशनी में पलट कर मैंने उस तुड़े मुड़े पसीज गये कागज पर बस भेजने वाले का पता पढ़ा – जमाल अली केयर ऑफ मदन सेठ, गणेश वुड मिल, इम्फाल। कमबख्त ने पता भी पूरा नहीं लिखा था। बम्बई से वहाँ कैसे पहुँच गया?

निर्णय की झोंक में मैं उठ खड़ा हुआ – असलम, कल... कल हमलोग इम्फाल जा रहे हैं। मैं लड़खड़ाता हुआ अपने क़्वार्टर की ओर चल पड़ा। अधिक दूर तक नहीं जा पाया था कि ठोकर लगी और गिर पड़ा। उठ कर वहीं जमीन पर बैठ गया और फिर ...जैसे आँखों के आगे रोशनी ही रोशनी थी। दिमाग से अन्धेरा गायब हो गया। आम मोजरों की गन्ध वाली एकांत दुपहर...तन्नी उस समय दुखी थी रंगीबाबू! तुमसे अपना दुख बाँटना चाहती थी और तुम समझ नहीं पाये! ... कुछ बातें छिपाये नहीं छिपतीं, सामने वाला अन्धा हो तो क्या कीजे?... आन्हर मनई क्या देखे? ...बात देखने की नहीं मन की होती है बाबूजान!... छोड़िये बाबूजान, फिर कभी...
सिर पर हथौड़े बज उठे थे...तन्नी, नौटांक! साफ साफ नहीं कह सकती थी?
...घर पहुँच कर विमला को सब सुनाया और अगले दिन ही निकलने का निर्णय भी बता दिया। मेरा सिर सहलाते हुये विमला बोली थी – बहुत खराब इलाका है। कलकत्ता वाले बाबू बताते हैं कि उधर आसाम कमख्खा में चुड़ैलें रहती हैं। जान को भी खतरा है।
मेरी त्यौरी चढ़ते देख वह उदास भाव से मुस्कुरा उठी – सही कहा था बहिना ने, आप को उनके साथ भाग जाना चाहिये था। ... कल जाना है न? अभी सो जाइये। मैंने याद से तन्नी का फोटो निकाल कर बैग में रखने को कहा और आँखें मूँद लीं लेकिन नींद का अता पता नहीं था ...

रुखसत की बेला साफ पता चल रहा था कि असलम अनमना था लेकिन मेरे तैयार होने से वह फँस गया था। बी ने बलैयाँ लीं, दोनों को एक दूसरे का खयाल रखने को कहा और फिर राजरानी का चेहरा पत्थर की तरह सख्त हो गया। सुल्तान मियाँ को बरजने वाली फुफकार थी – रंगीबाबू! असलम मियाँ!! खाली हाथ मत लौटना। मुझमें इतनी हिम्मत भर गई कि हाथ में रुपये थमाती राजरानी को ही मैंने बरज दिया – बेटे कमाऊ हैं बी! उनसे रुपये पैसे की बात भी नहीं करते।
शहर से दूसरे शहर, फिर पटना और फिर ट्रेन से दीमापुर। ज्यों ज्यों लोग और इलाका अनजान होते गये, असलम मियाँ का दिल बैठता गया। घर में बैठी जोरू और बच्चे याद आने लगे। तन्नी को कोसा जाने लगा और मैं खामोश बस सुनता रहा। भीतर लोहा सख्त होता रहा। बस दो आँखें चमकती रहतीं - बेटा! समझदारी इसी में होती है कि दूसरों की नासमझी समझी जाय। छल पक छक पक ...

शनिवार का दिन था जब हमलोग दीमापुर पहुँचे – रेलमार्ग का अंतिम स्टेशन। आगे की यात्रा सड़क मार्ग से परमिट लेने के बाद होनी थी जो कि सोमवार को ही बन पाता और हम मंगल को आगे चल पाते। असलम अधीर असाध्य हो चला था और मैं मारे नफरत के वज्र खामोश। लोगों से टूटी फूटी बोल समझ कर काम चलता। सोमवार की भोर शुभ सन्देश ले कर आई। करीब चार बजे थे कि असलम ने मुझे झिंझोड़ कर जगाया। वह मुझे रंगीबाबू नहीं मास्टरबाबू कह रहा था – यह अपना ही देश है मास्टरबाबू! सुनिये अपनी ओर के लोग हैं यहाँ!! वह एक बच्चे की तरह मुझसे चिपट गया था। खुली खिड़की से सड़क पर चलते झाड़ू की आवाज आ रही थी और कोई भिनसहरी गा रहा था। मुझे सुर आज भी याद हैं – उठीं राम चहुँ दिसि चुचुही चहक राम, रैना बीतल...मैंने असलम के अल्ला को धन्यवाद दिया कि उसने उसे शायरी और गायन के फन से नवाजा वरना मास्टरसाहब तो ...

मंगल की सुबह सुबह सात बजे परमिटधारियों को लेकर चार बसें इम्फाल रवाना हुईं। एक के पीछे एक कर चार मिलिट्री जीपें भी साथ थीं। नागा विद्रोहियों के उत्पात जारी थे लेकिन असलम मियाँ तो जैसे जन्नत में थे। यात्रा के बारह घंटों में से दिन के समय में उन्हों ने जो मौज ली वह कहते नहीं बनती। असल में बसें खाने पीने को जहाँ भी रुकतीं, दुकानों पर सजी धजी बंगालनें और उधर की जवान लड़कियाँ दिखतीं। सामान मोलने के बाद फुटकर वापस करने की जगह मारक मुस्कान और यात्री कट कर रह जाते, न माँगते बनता और न लेते। सौन्दर्य भूमि थी वह! और असलम मियाँ के भीतर का शायर कुलाचें मार रहा था।

अगली सुबह इम्फाल में गणेश जी की खोज में खासी मसक्कत करनी पड़ी। शाम को मिलने पर जब हम लोग अधेड़ मदन सेठ के सामने अपने इरादे जाहिर कर चुके तो हमें गेस्ट हाउस में रुकने को बताया गया। बात अगले दिन होनी थी और जमाल मियाँ भी अगले ही दिन मिलने वाले थे। वैभव से दूसरी बार पाला पड़ा था लेकिन कोठी की बात और थी, यहाँ तो ग़जब का बेगानापन था। असलम का दिल फिर बैठने लगा...

जमाल मियाँ वही थे लेकिन दीमक लगे पेंड़ की तरह। सामने मदन सेठ और उसकी जवान बीवी बैठी थी जिसे देख कर मैं समझ गया कि कमख्खा की धरती क्यों प्रसिद्ध थी और चुड़ैलें कैसी होती होंगी! वह मूर्तिमान वासना थी जिसकी सुन्दरता से पहले उसकी आँखों की भूख पर ध्यान जाता था। जमाल मियाँ चलने से मना कर रहे थे जब कि उनके चेहरे की किताब कुछ और कहानी कह रही थी। सेठानी तो जैसे हमें निगलने को तैयार थी। बी की समझदारी वाली बात का ही आसरा ले मैं समझाता रहा, बीमार माँ बाप की बातें करता रहा। समझ ही थी कि तन्नी का न नाम लिया और न यह जाहिर होने दिया कि जमाल मियाँ शादीशुदा थे। 
घंटे भर की मसक्कत के बाद जमाल मियाँ से तनहाई में मिलने की अनुमति मिली तो असलम फूट पड़ने को तैयार था। उसका हाथ दबा कर मैंने जमाल मियाँ से जानकारियाँ लेनी शुरू कीं। बम्बई में वह सेठानी के बाप के यहाँ कारिन्दा थे जहाँ उन पर उसकी नज़र पड़ी तो उन्हें इम्फाल ले आई। वह दोनों के प्रिय थे – फैक्ट्री के मैनेजर सरीखे। दिन में सेठ का काम सँभालते और रात में सेठानी को। मीठा सोडा और अफीम उनकी देह को चला रहे थे। खत लिखने में माँ की याद नहीं, मुक्त होने की आस का जोर था। एक अजीब  दुविधा वाला इंसान – जाना भी चाहे और रहना भी। मैंने बीच की राह सुझाई – अभी चलो, स्वस्थ हो जाना तो फिर आ जाना।

शराबी सेठ मान गया लेकिन उसने सब कुछ सेठानी पर छोड़ दिया। सेठानी को समझाना मेरे लिये टेढ़ी खीर थी। वह पूछती – आप खुद ‘राजू’ से पूछिये कि क्या यह जाने को तैयार है? और जमाल मियाँ उर्फ राजू चुप हो जाते। फिर वही सत्कार। वैभव का बेगानापन। आजिज आ कर एक  दिन असलम ने कहा – बहुत हुआ। अब मुझे कुछ करने दीजिये।

अगली सुबह असलम मियाँ को लड़खड़ाते हुये मैंने गेस्ट हाउस में आते हुआ देखा तो हैरान हुआ। पता चला कि मेरे सो जाने के बाद असलम मियाँ ने जुगत लगाई थी। उन्हों ने रात भर में सेठानी को मना लिया था - इस शर्त पर कि राजू वापस आये या खुद असलम मियाँ...उस समय वह अफीम के नशे से उबर रहे थे। ज़िन्दगी का वह पहला और आखिरी अवसर था जब मैं न घृणा कर पा रहा था, न प्रेम। न प्रसन्न हो पा रहा था, न दुखी। विरक्त रहने की गुंजाइश ही नहीं थी। मैंने ईश्वर और अल्ला दोनों को कोसा और फिर बी की ‘समझदारी’ से स्वयं को संयत किया। नरक से गुजरना ऐसा ही होता होगा... मौका अच्छा देख मैंने अंतिम वार किया। जमाल को तन्नी का फोटो दिखाया और बताया कि वह पागल सी हो रही थी। जमाल ने मुँह छिपा लिया था। 
...वापसी में जमाल मियाँ दो बार भागे। एक बार तो हमें ट्रेन ही छोड़नी पड़ी। हम लोग उन्हें अपने बीच में बैठाने लगे। पटना के बाद जब ट्रेन अपने शहर रुकी तो मैंने सब कुछ भूल कर जमाल को धमकाया – अगर अब भागने की कोशिश किये तो पटक कर इतना पीटूँगा कि अकल ठिकाने आ जायेगी। यहाँ किसी बखेड़े का डर नहीं है। असलम ने सहमति में हामी भरी।
घर पहुँचने पर जो रोना धोना हुआ जिसमें बी शामिल नहीं हुईं। उन्हों ने कहा – बेटा, कोख के जाये नहीं हो और न पिलाया फिर भी आज दूध का कर्ज माफ किया। मेरे मुँह से बस इतना निकला – माई... और हम दोनों लिपट गये।

सुबह तन्नी जमाल के साथ मिलने आई। वह जा रही थी। मेरे पाँव के पास बैठ कर बोली – बाबूजान, धूल ले लेने दीजिये ... आँचल फैला कर उसने कहा – खाली नहीं है, देख लीजिये... उधारी दोनों ओर चढ़ गई है... क़यामत के बाद तो मिलना ही पड़ेगा। उसकी आँखें सूखी हुई थीं – एकदम!
बी, सुल्तान मियाँ, मैं और विमला असलम के साथ उन दोनों को जाते देखते रहे। मेरे हाथ प्रार्थना में जुड़ गये। आँखें विमला के स्पर्श से खुलीं – आज तो कॉलेज जायेंगे?...

...दिन गुजरते रहे। छ: साल बीत गये और बी उदास रहने लगीं। जैसे तैसे मैंने पी एच डी तो पूरी कर ली थी लेकिन ज़िन्दगी की एक अहम परीक्षा में पास नहीं हो सका था। विमला की कोख सूनी थी। ताल किनारे की राजरानी पीर, मजार, बाबा जाने कहाँ कहाँ जाती। चौखट सेना भी काम न आ रहा था और तसबीहें बेजान थीं। तन्नी कभी कभार आती तो खिलखिलाते हुये सहम सी जाती और गाँव तो बस!
कोई बाँझिन कहता, कोई ताल किनारे की मियाँइन को दोष देता तो कोई मेरी मर्दानगी पर शक करता। जितने मुँह उतनी बातें! 
जिस दिन बी ने कहा कि बेटा, मेरी बात का बुरा न मानना। मुझे लगता है कि इस जगह में ही दोष है। मेरी छाया ठीक नहीं है। कहीं और बसेरा कर लो; उस दिन मैं कट कर रह गया। न तो बी को रोक पाया और न बेहूदी बकवास के लिये झिड़क पाया। वह एकदम हिन्दू हो रही थीं। उस एकदम माँ को माफ करने की समझदारी तो मैंने दिखाई लेकिन तीन रातें सो नहीं पाया। उस जगह रहने से क्या फायदा था जब हम लोगों को देख देख बी तेजी से बूढ़ी होती जा रही थी? निर्णय लिया और दौड़ धूप कर शहर में डिग्री कॉलेज ज्वाइन कर लिया।

वहाँ से हमलोगों की विदाई बहुत साधारण रही। बी ने बस इतना कहा – आते रहना और अल्ला पर भरोसा रखना। विमला ने बाद में बताया – उस समय वह पेट से थी। मैं पहले उस पर खूब नाराज़ हुआ और बाद में थोड़ा सा खुश। कभी कभी ईश्वर की साक्षात कृपा पर भी विश्वास नहीं होता न! 
महीने भर बाद जिन्दगी में पहली बार मकानमालिक के हाथ में किराया सौंपते मैं खुद को रोक नहीं पाया, रो पड़ा था। वह हैरान से चले गये।
जमाल मियाँ की जूतों की दुकान उसी शहर में थी। जब तब तन्नी आ जाती और घर बच्चों की किलकारी से गुलजार हो उठता। विमला का मन लगा रहता। 
महीना भी नहीं बीता कि एक दिन लेक्चर खत्म कर के बाहर आया तो जमाल को इंतज़ार करते पाया। स्टेशन पर असलम और बी दोनों थे। ट्रेन पकड़ने के पहले मुझे मिलने को बुलाया गया था। वहाँ पहुँचा तो बी ने बलैया लीं और कहा कि तुमसे कुछ बात करनी है। प्लेटफॉर्म की भीड़ से किनारे आने को मैंने इशारा किया तो अड़ गईं -  नहीं, यहीं।
उनकी बातों से यही निकला कि जमाल मियाँ को दुकान फैलाने के लिये पैसों की ज़रूरत थी और बी उसके लिये शहर के किनारे की जमीन मुझे बेचना चाहती थीं। मैं हड़बड़ा गया। वह जगह तेजी से बस रही थी जब कि बी मुझसे सिर्फ तीन हजार माँग रही थीं। इतने से पैसों में दुकान बढ़ जायेगी?
मेरी आँखें भर आईं – बी, इस बात को यही जगह चुनी और यही मौका? बच्चों से कभी रुपये की इतनी सीधी बात करती हैं और कभी डाँट भी देती हैं। उस भीड़ भरे प्लेटफॉर्म पर बी ने मेरे दोनों हाथ अपने हाथों में दबा लिये – भविस्स बेटा, भविस्स! पतोहा का खयाल रखना और तन्नी से खूब काम लेना ... उन्हों ने बात अधूरी छोड़ दी। ट्रेन की तेज सीटी सुनाई दी और वह जल्दी जल्दी असलम का हाथ पकड़ डिब्बे की ओर चल दीं। मैं और जमाल तब तक ताकते रहे जब तक ट्रेन ओझल नहीं हो गई। मैंने जमाल से कहा – हम दोनों की ज़िन्दगियाँ बी के कारण चल रही हैं। वह खामोश मुस्कुरा दिया।

...छोटा सा घर तैयार हो गया, शहर में मेरा अपना घर ‘सबरस’ - आगे बड़ी सी खुली दलान, बी के कुवाटर जैसा। मकान बनने के दौरान तन्नी ने बहुत मेहनत की। नहीं, मेहनत कम, ठेकेदार और मजदूरों से लड़ाइयाँ अधिक कीं, जिसके कारण काम सुन्दर तो नहीं, तेज जरूर हुआ।  घरभोज में बी को बुलावा भेजा तो स्वीकार के साथ यह अनुरोध भी आया कि शामियाना ज़रूर लगवाना। एक दिन पहले ही आ पहुँची बी ने अगले दिन कुर्सी पर बैठ कर संचालन कर आये सभी पट्टीदारों को हैरान कर दिया। सब सकुशल सम्पन्न हो जाने के बाद तन्नी ने मुझे किनारे बुलाया और जमाल के सामने ही आँखों से काजल निकाल कर मेरे माथे पर लगा दिया – बाबूजान! असल जश्न तो अभी बाकी है...
तेजस के जन्म में मैंने गाँव से किसी को नहीं बुलाया। तन्नी ने सब सँभाला और मुहल्ले की औरतों ने रीति रिवाज पूरे किये। बरही बीत जाने के हफ्ते भर बाद बी पधारीं।
आते ही बोलीं – बेटा, रंगीबाबू के घर में एक दिन और एक रात दोनों गुजारने हैं। उन्हों ने तन्नी को रोक लिया और शाम को दास्ताँ शुरू हुई। गेट नहीं मुख्य द्वार की चौखट पर मुँह में पान दबा कर और उगलदान पास रख कर बी बैठीं।
'आज मुझे सिर्फ सुनना बेटा, रोकना टोकना नहीं। भविस्स की आस पूरी हुई है। आज तुम्हें सब बताना चाहती हूँ।
तुम्हारे लाला को हम मियाँ बीवी अच्छी तरह से जानते थे। दोनों की अजीब दोस्ती की खबर तुम्हारे घर वालों को नहीं थी। पागल होकर बही खाता फूँकने के पहले हम लोगों पर उनका कर्ज था। बटाई देने के लिये पहली भैंस और बगीची का ठीका लेने के पहले की जमानत उन्हीं के रुपयों से खरीदे और भरे गये। जब वापस करने की औकात हुई तो तुम मिल गये। जानते हो? मैंने तुम्हारे लाला से एक दुल्हे की बात पक्की कर रखी थी। सुन्नरसिंघ के यहाँ से मेरे अब्बू की बड़ी पटरी थी।  
 तुमसे ट्यूशन पढ़वाने में कोठी वालों की गर्ज नहीं थी, हमारी गर्ज थी। मैंने उन्हें मनाया था। वहाँ से बदले में एक रुपया भी नहीं मिलता था। तुम्हारा कुआटर भी मुफ्त का नहीं था। उसका किराया छै रुपये महीना था। मैंने झूठ बोला क्यों कि मैं नहीं चाहती थी कि बेकार के अहसान भाव से तुम दबे रहो। मैं तुम्हें पहचानती थी बेटा!'
...मैं मुँह बाये सुनता रहा ...
'तुम नहीं समझ सकते कि मैं आज कितनी खुश हूँ! तन्नी समझ रही होगी... न तो वह, न असलम और न बाकी दोनों; कोई भी मेरे पेट जने नहीं हैं। मैं बाँझ हूँ बेटा! बाँझ। मियाँ से मेरी शादी तब हुई जब तन्नी की अम्मी का इंतकाल हुआ। उस समय तन्नी साल भर की थी...'
...मै अवाक था। कुछ बोलना चाहा तो बी ने रोक दिया।
'रंगीबाबू! यह न पूछियेगा कि कर्जे की रकम कितनी थी और अभी कितनी बाकी है...बेटा, तुमसे कहा था न कि मुझसे रुपये पैसों की बात न करना?...रंगीबाबू, मुझे सवा रुपये दे दीजिये। घर जाऊँगी तो उसका नमक मोल कर ताल में बोर दूँगी। हिसाब किताब सब खत्म! न नमकहलाली और न नमकहरामी! भविस्स को देखिये। आगे आगे देखिये...'
... बी ने झोले से नारंगी रंग का एक कुर्ता जैसा छोटा सा कपड़ा निकाला। विमला से बच्चे को लाने को कहा और उसे पहना दिया।...  
'साँझ है बेटा। इस बाँझ की असीस तुम लोगों को फलेगी, मुझे अब यकीन है। यह कुर्ता मेरे बुने सूत का, मेरा रंगा और सिला है। बबुना सौ साल जिये, बरक्कत हो, तरक्की करे।'
हम सबकी आँखें बही जा रही थीं लेकिन बी तो बस बी थीं।
राजरानी ने झोले से वही थाली, गिलास निकाले जिनमें मुझे खिलाया करती थी। गिलास पर अलकतरा निशान वैसे ही था। मैंने तन्नी की ओर देखा तो बी कह उठीं – मैं आज इसी थाली गिलास में जीमूँगी। अब ये यहीं रहेंगे। फिर से आने पर ...
मैंने बी को रोका लेकिन उन्हों ने यह कह कर चुप करा दिया – मुझे मेरे ईमान के साथ रहने दो।
अगली सुबह जाते हुये वह सवा रुपये माँगना नहीं भूलीं...

... सब चले गये। पहले बमड़ी गई। घर में झगड़ा हुआ और उसने सल्फास खा लिया। तन्नी की मौत सड़क हादसे में हुई। अस्पताल की बेड पर अंतिम साँस लेते उसने मुझे बुला कर अपना पसीजता हुआ हाथ थमा दिया था। चेहरे पर अपार शांति थी – बाबूजान, क़यामत का वादा याद रहेगा न? और उसने आँखें मूँद ली। बाकियों के तो नाम हैं लेकिन मेरी डायरियों में तन्नी का कहीं नाम तक नहीं है।
सुल्तान मियाँ, बी, काका, पहलवान, ब्रह्मचारी, असलम और आखिर में छोटे- सब गये ...बाकियों से अब मेरा कोई सम्पर्क ही नहीं है।
दुनिया के लिये रिटायर्ड डा. आर बी सिंह, गाँव का रँगबहादुर काका, बी का रंगीबाबू, तन्नी का बाबूजान गाँव में रहता है।
 ‘सबरस’ खाली है लेकिन उसकी रसोई में अलकतरा निशान लगे थाली गिलास आज भी हैं। आज नवरात्र के नवें दिन रंगीबाबू मौत की आहट से त्रस्त नहीं, ज़िन्दगी से लबालब है।  
... ये नौ दिन मैंने बी के साथ क्या गुजारे, लग रहा है कि माँ की कोख में नौ महीने गुजारे हैं। मेरा नया जन्म हुआ है। तन्नी! बी को बताना कि वह बाँझ न थीं और न हैं... हाँ, मुझे क़यामत की भी याद है!  (समाप्त)