रविवार, 30 अक्टूबर 2011
भूमि से नीचे बहुत
गुरुवार, 20 अक्टूबर 2011
... सब समाप्त हो चुका है।
आज मद्धिम प्रकाश में तुम्हारी स्मृति क्षुब्ध कर रही है। आँखों में किचमिच है, कक्ष की सीमायें किसी चित्रकार की तूलिका रेखाओं सी होने लगी हैं – धुँधली। छत में लगे प्रकाशदीपों को घेरे उड़ते कीट अक्षरों से हैं - निरर्थक। उनमें अर्थ भरने वाला रहा ही नहीं! उन अन्हार भरे प्रकाशी क्षणों में कैसे तुम वाक्यों से शब्द, शब्दों से अक्षर और अक्षरों से उनके रूप छीन कर नभ की ओर उछाल दिया करते थे! नभ और हमारे बीच की छत का अस्तित्त्व ही नहीं रह जाता था और मैं आँखें फाड़े शून्य में देखा करता था – तुम्हारे स्वर में शक्ति है कि उसके पीछे के आत्मविश्वास में कि उस अज्ञान में जो मौन को व्यर्थ समझता है? तुमसे जाना कि वाणी में शक्ति होती है और मौन बहुत बार स्वयं को अवगुंठन में घेरने का उपक्रम कि कहीं अबुद्धि नग्न न हो जाय!
तुम्हारे कारण ही जान पाया कि मुझमें भी शक्ति है। वे तीन दिन, जब अस्तित्त्व ही डगमगा उठा था और चौराहे की प्रतिमा बहुत पास जाने पर दिखती थी और जब वक्ष में निर्वात भर उठा था; तुम निराशा की उस गहराई तक जा पहुँचे थे जिससे नीचे बस मृत्यु होती है। कितना समय हुआ था चौथे दिन? रात थी। महानगर निद्रा में था, जिसके सपनों का अनुमान मैं ट्रैफिक ध्वनियों की यादृच्छ भटकन से लगा रहा था – ऐसे नगर सोते भी हैं? और तुम आये।
“सब समाप्त हो गया बन्धु! सब समाप्त हो गया।“
श्मशान के ऊपर बने भवन में दिन प्रतिदिन हो रही मृत्यु की धीमी, सुनिश्चित, प्रक्रियावादी घटनाओं की सोच मैं दहल उठा और अपनी डगमगाहट, अपनी धुँधलाती दीठ और अपना निर्वात सब भूल गया। ट्यूब को खट से जला दिया था।
“हाँ, मुझे प्रकाश चाहिये।“
प्रकाश! पहली बार तुमने प्रकाश की चाहना की थी वरना कक्ष में आते ही तुम्हारा पहला काम ट्यूब बुझा कर टेबल लैम्प जलाना होता था - इतने प्रकाश में राह भटक जाओगे बन्धु! सोच समझ ठीक रहे इसके लिये अन्धेरे का स्पर्श आवश्यक होता है।
मेरे भीतर की बुझन में एक लौ सी उठी थी – तुम्हें मेरे शब्दों की आवश्यकता थी। अभी सब समाप्त नहीं हुआ था। तुम अभी भी मुझे बन्धु कह रहे थे, न भाई और न यार! तुममें तुम्हारा तुम शेष था।
हाँ, यही कहा था मैंने। कह कर ट्यूब बुझा दिया था – बाहर का विसरित प्रकाश बहुत है...और शब्द बह चले। मुझे स्मृति नहीं कि मैं क्या क्या बोलता चला गया। अंत किया तो भीतर से निर्वात भी समाप्त हो चला था। एक सुख की अनुभूति थी – मृत्यु ऐसी होनी चाहिये न कि भवन के कक्षों में भटकती सी। मृत्यु भीतर पैठती जानी चाहिये, तब जीवनशक्ति पर छाया गँदलापन साफ होता जाता है।
“कुछ समाप्त नहीं हुआ मित्र! यह नया प्रारम्भ है। जाओ सो जाओ।“
पता नहीं तुम पहले ही जा चुके थे या मैं स्वयं सो चुका था लेकिन रात भर केशों में रेंगती अंगुलियों से जैसे शुभ्र तरंगे मस्तिष्क में प्रवेश करती रहीं। मैं जागते हुये भी सोया था और सोते हुये भी जागता।
प्रात: मैंने पूछा – इतनी लाल आँखें! सो नहीं पाये क्या?
तुमने उत्तर दिया – मेरे जीवन का पहला जागरण था बन्धु! अब किसी भी रण में मैं समाप्त नहीं होने वाला। मेरी आँखों में धुँधलापन नहीं था। नई किरणें चुभ रही थीं। तुमने हाथ दबा दिया था – बीती रात जीवन भर याद रहेगी।
“हाँ केशव! मेरे केश अभी भी आवेशित हैं।“
तुम मुस्कुराये – भूलोगे तो नहीं?
“अवश्य भूल जाऊँगा मित्र! वह अपने आप होगा। जो अपने आप हो उसे सायास मोड़ना ठीक नहीं।“
“तुममें बहुत उलझन है।“
“नहीं, आज तो नया जीवन है। चलो, आँखें दिखा आऊँ। सम्भवत: चश्मा लगेगा।“
चश्मे की बात पर तुम मुस्कुराये थे – अर्थपूर्ण।
“मैं समझ रहा हूँ जो तुम सोच रहे हो! सब समाप्त हो चुका है।“
उस दिन डस्टबिन में कागज के टुकड़े थे – किसी बहुत लम्बे पत्र से वाक्य, शब्द, अक्षर टुकड़े टुकड़े हो कूड़े के ढेर में बढ़ोत्तरी कर गये थे। मैं अवाक था।
“सचमुच सब समाप्त हो गया। अब नया प्रारम्भ है। सब कुछ मिल जाय तो भाग्य की बात ही न हो... हाँ तुम भूल नहीं पाओगे और मैं भी।“
... आज स्मृति है लेकिन वह आलोड़न नहीं है। मैं भूला नहीं पर सादी सी तटस्थता है। तुम्हारी स्मृति में आर्द्रता भी नहीं है लेकिन यह तटस्थता को भेदती स्वर देती क्षुब्ध स्थिति?
बस इसलिये कि तुम भूल गये। जानते हो? दीपावली आने वाली है। अक्षर अक्षर कीट रात भर टुकड़े टुकड़े प्रकाशों के चहुँओर नाचेंगे और प्रात: मृत्यु के ढेर बन जायेंगे। मैं नहीं जागूँगा। सनातनी श्मशान में दिया नहीं जलाते। राख के चिह्न बचते ही कहाँ हैं?
वही अक्षर हैं, वही शब्द और अपना वही एक वाक्य - मैं समझ रहा हूँ जो तुम सोच रहे हो! सब समाप्त हो चुका है।
रविवार, 16 अक्टूबर 2011
मोलई माट्साब - अंत
शनिवार, 15 अक्टूबर 2011
मोलई माट्साब
प्रस्तावना:
दुनिया में कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं जिनके बारे में लिख कर बताना बहुत कठिन होता है। अनिवार्य रूप से उनके चर्चे उनसे पहले आप तक पहुँचते हैं और जब उनके आधार पर आप एक व्यक्तित्त्व गढ़ चुके होते हैं तो किसी दिन अचानक वे साक्षात होते हैं और आप की सारी गढ़न एक क्षण में ध्वस्त हो जाती है। बात वहीं समाप्त नहीं होती, आप के लिये वे ज्यों ज्यों पुराने परिचित होते जाते हैं त्यों त्यों नये भी होते जाते हैं। अर्थ यह कि आप उनके बारे में कभी कुछ अंतिम सा नहीं सोच समझ पाते और एक दिन पता चलता है कि उन्हों ने अंतिम साँसें भी ले लीं। आप बाकी जीवन और परिचितों के साथ बैठ कर यह समझने की नासमझ कोशिश करते रहते हैं कि आदमी कैसा था!
मोलई माट्साब ऐसे ही थे। उनके बारे में सोचते ही लोगों को उनकी मूँछें सबसे पहले ध्यान में आती हैं। मूँछ भी कोई चीज होती है भला? लेकिन जब बाईं ओर की मूँछ म्यूनिसिपलिटी के झाड़ू सी हो और दाईं ओर की घर के फूल झाड़ू जैसी तो समग्र का चीज कहलाना स्वत: हो जाता है। माट्साब जब तब मूँछों को हाथ फेर सँवार दिया करते थे जिसके लिये वे चारो अँगुलियों का प्रयोग सहलाते हुये करते। उस समय वह यह ध्यान रखते कि एक तरफ के बाल सीधे रहें और दूसरी ओर के घुँघराले से। टेरीकाट का पीलापन लिये कुर्ता, खादी की धोती और पाँव में प्लास्टिक के जूते। यह उनका पहनावा था। कुर्ते का एक ही तरह का कपड़ा और रंग देख कर लोगों को यह भ्रम हमेशा बना रहता कि उनके पास एक ही था या एक ही सूरते रंग के कई थे? इस बात की पूरी सम्भावना है कि एक समय में उनके पास एक ही रहता। सिर के केशों पर कभी कंघा नहीं फिरा। उनके लिये पाँचों अंगुलियाँ पर्याप्त थीं। मझोले कद के थे और शरीर का वर्ण गेहुँआ था।
वे गणित के अध्यापक थे। बेजोड़ अध्यापक। उनके नैष्ठिक विद्यार्थियों में कोई ऐसा नहीं होगा जिसे कनिष्ठका, अनामिका, मध्यमा और तर्जनी अंगुलियों के अनुपात 1:1.25:1.5:1.15 अभी तक याद न हों। जिस किसी ने इस अनुपात पर प्रश्न उठाने का साहस किया, नैष्ठिक विद्यार्थी नहीं रह पाया। उसे माट्साब व्यक्तिगत बातों के चौथे सूत्र से अभिषिक्त कर देते थे – पाड़ा!
बाकी तीन सूत्र यह थे – हमार बचिया, हमार चटनवा और हमार भैंसिया। ये तीन सूत्र उन्हें 3:1 के अनुपातांतर से विकराल श्रेणी के परिवारकेन्द्रित व्यक्ति के रूप में स्थापित कर देते थे। किसी को यह नहीं पता कि अपने घर के भीतर उनका अपने परिवारियों – बचिया यानि बेटी, चटनवा यानि बेटा और भैंसिया यानि भैंस से संवाद किस तरीके का होता था। हाँ, भैंस की संतान का पद अनुपात प्रश्नकारी शिष्य के लिये आरक्षित रहता।
वे अपने माँ बाप के दसवें और एकमात्र जीवित संतान थे। नौ की अकाल मृत्यु होने के बाद दसवें की बेरी उनकी माता से बगल के गाँव की एक नट्टिन ने उन्हें बिन पैदा हुये ही मोल लिया था। उनकी माँ ने यह टोटका इसलिये किया कि बच्चा जीवित रहे। इस दृष्टि से उनका नाम ‘बिकाऊ’ होना चाहिये था लेकिन नट्टिन की मर्जी से नाम ‘मोलई’ रखा गया। नाम बिगाड़न की परम्परा को जारी रखते हुये उन्हों ने अपने बेटे का नाम सिर्फ इसलिये चटनवा रख दिया कि उसे बचपन में अपनी जीभ निकाल होठ और अगल बगल जहाँ तक हो सकता था, चाटने की लत थी। माजरा खासा कौतुहलपूर्ण होता था। बाप का बिगाड़ा नाम हाईस्कूल में चतुर चन्द प्रसाद और बाद में डा. सी सी प्रसाद हो जाने के बावजूद प्रबल रहा। उनका बेटा कस्बे के जान पहचान वालों के लिये चटनवा ही रहा। डाक्टरी पास कर लेने के बाद मामूली से संशोधन के साथ डगचटनवा हो गया।
मजबूरी में बेचारे को क्लिनिक दूसरे कस्बे में खोलना पड़ा।
मोलई माट्साब सूद का धन्धा करते थे। खुद पर खर्च कुछ खास था नहीं और भैंस के साथ बच्चों को भी बहुत मितव्ययिता से रखते थे। जिस समय बन्दगोभी पन्द्रह रूपये मन होती और भूसा बीस रूपये, उस समय बिना मात्रा या पोषण मूल्य या किसी और बात की परवाह किये वे भैंस को भूसे का मात्रास्पर्श दे बन्दगोभी की छाँटी खिलाते और घर में भी उसी की सब्जी बनवाते। भैंस पर इतना आतंक रहता कि वह चुप चाप इस राशनिंग को स्वीकार करती और दूध देती रहती। भैंसे आती जाती रहीं लेकिन माट्साब का दिब्य प्रभाव जमा रहा। बचत होनी ही थी और बैंकिंग तंत्र पर भरोसा न रखने के कारण वह नट्टिनटोले को अपना बैंक बना लिये। उनकी सुबह नहा धो कर नट्टिनटोले की लछमिनिया के दर्शन से शुरू होती – ठीक साढ़े सात बजे। लोग कहते कि चाहे तो घड़ी मिला लो, एक मिंट का भी फर्क नहीं मिलेगा। उस समय उनके कन्धे से झोला टँगा होता जिसमें कॉपी और दो रंगों की स्याही वाले पेन होते। माट्साब तगादा करते, वसूली करते और नई उधारी करते। उस दौरान उनके मुँह से धाराप्रवाह गालियाँ निकलती रहतीं। सच कहा जाय तो कस्बे में नट्टिनों से गाली जंग में विजयी रहने वाले वह अकेले शख्स थे। सवा नौ बजे बेटी के हाथ की बनी रोटी दूध के साथ खाकर वह स्कूल की ओर चल देते। उस समय वह एकदम मास्टर होते। बेटी के खाना बनाने के लायक होने से पहले वह खुद राँधा करते थे – बारहो महीने खिंचड़ी दूध। जय गुरु गोरख! जय महिमा!!
बचिया:
सुरेसवा उनका खास चेला था और आजन्म चेलवाई निभाता रहा। हुआ यूँ कि हाईस्कूल में सात दिनों तक कक्षा से फरार रहने के बाद जब एक दिन अचानक गली में वह उनसे मुखातिब हुआ तो मारे डर के उसे पसीने छूट गये लेकिन माट्साब ने उससे उस बावत कुछ नहीं कहा। उन्हों ने कहा,”हमार बचिया, राति राति भर पढ़ती है। जब भी रात में पेशाब करने के लिये उठता हूँ, खड़ाऊँ की पहली खट से ही उठ जाती है और पढ़ने लग जाती है”।
इस अप्रत्याशित सी बात से सुरेसवा स्तब्ध रह गया। अगले दिन से उसने पढ़ाई छोड़ बाप की दुकान पर बैठना शुरू कर दिया और शाम को उनके घर आ कर उनसे व्यावहारिक गणित पढ़ने लगा जिसे वे बैदिक गणित कहा करते थे। यावदूनम, आनुरूप्येण सूत्रादि रटते, सीखते हुये वह प्रेम पूर्वक हमार बचिया की पढ़ाई के बारे में सुनता उसके प्रेम में गिरफ्तार होता गया और माट्साब का मानसिक गणित मन में मन की ही रफ्तार से भागता रहा। यह एक ऐसा मामला था जिसमें किसी को जल्दी नहीं थी। माट्साब को ट्यूशन की बढ़िया कमाई हो रही थी जिसका निवेश नट्टिन टोले में हो रहा था। सुरेसवा के पिता लालाराम को जल्दी नहीं थी – आवारा बेटा अनुशासित हो चला था, दुकान सँभालने लगा था और कुछ सीख रहा था। जब उन्हें नहीं थी तो सुरेसवा और बचिया को किस बात की होती?
दो वर्ष बीत गये और लगातार दस दिनों से माट्साब का गुणकसमुच्चय: समझ पाने में असफल रहे सुरेसवा ने तय किया कि अब विलोकनम् से आगे की क्रिया होनी चाहिये। उसने माट्साब से विदा माँगी जो मिल गई। अगले ही दिन गुरुदक्षिणा रूप दुहिता अपहरण कांड सुरेसवा के द्वारा सम्पन्न हुआ। कस्बे में हाहाकार मच गया पर माट्साब अगले दिन भी साढ़े सात बजे नट्टिन टोले में माँ बहन कर आये और उसके बाद थाने में रपट लिखा कर निश्चिंत हो गये।
आजकल अखबार के लोकल वरिष्ठ सम्वाददाता बोधी बाबू कामरेड ने इस प्रकरण में खास रुचि ली। उनके सद्प्रयासों से बचिया निकट के शहर से मय सुरेसवा बरामद हो गई। उसे तो कुछ नहीं हुआ लेकिन पूछ्ताछ के दौरान हुई बातचीत में सुरेसवा ने इतनी तेजी से उत्तर दिये कि उसके आगे के दो दाँत टूट गये। आतंकित दारोगा जी ने आगे पूछ्ताछ न करने का निर्णय ले मामला रफा दफा कर दिया। दोनों के घर वालों को कुछ खास नहीं पड़ी थी।
माट्साब ने इसके बाद अपनी महानता दिखाई। शहर के आर्यसमाज मन्दिर में साथ जा कर बचिया और सुरेसवा की शादी करा दिये। लालाराम को जीवन का सबसे बड़ा घाटा झेलना पड़ा लेकिन वह कर ही क्या सकते थे? बोधी बाबू इस घटना से इतने प्रभावित हुये कि अखबार के भीतरी भाग में चौथाई पृष्ठ घेरते हुये मोलई कामरेड के जातितोड़ू क्रांतिकारी काम की क्लिष्टतम शब्दों में प्रशंसा छप गई। वे सर्वहारा मसीहा हो गये जिन्हों ने एक खामोश क्रांति का सूत्रपात किया था। अंतिम पंक्तियों में नट्टिन टोले में उनके द्वारा किये जा रहे आर्थिक सुधारों का लेखा जोखा था। सम्भवत: सूद तक आते आते स्थान चुक गया था सो वह नहीं छपा था लेकिन समाचार लेख को पढ़ने से अधूरेपन का अहसास होता था।
माट्साब को कामरेडी से अच्छा नट्टिन टोले में अपना काम सुहाता था। लिहाजा वे स्थितप्रज्ञ बने रहे। अगले हफ्ते ही बचिया के दहेज के बच गये रुपयों का निवेश भी नट्टिन टोले में करने का उन्हों ने निर्णय लिया। उनसे यह ग़लती हो गई कि बोधी बाबू कामरेड के आँगन अक्सर पाई जाने वाली जट्टा नट्टिन को उसमें से हिस्सा नहीं मिला। अगले दिन आजकल अखबार में ठीक उसी पन्ने में उतनी ही जगह में रंगे सियार मोलई मास्टर की सूदखोरी की चर्चा थी। विद्वान किस्म के जिन लोगों ने भी पढ़ा, यह कहते हुये प्रशंसित किया कि अब लेख पूरा लग रहा है, पहले वाला तो लेखन से ही अधूरा लगता था। बोधी कामरेड वाकई काबिल आदमी है।
माट्साब फिर भी स्थितप्रज्ञ बने रहे। बचिया के विदा हो जाने के बाद वापस खिंचड़ी और दूध का आहार शुरू कर दिये। उन्हों ने चटनवा को दलाल जिह्वा पर ध्यान न देकर विद्यावातायन नेत्रों से पढ़ाई पर ध्यान देने की हिदायत दी और जीवन फिर यथावत हो चला।
अनुपातांतर 2:1 रह गया क्यों कि उसके बाद उन्हों ने अपने श्रीमुख से कभी हमार बचिया नहीं उचारा। उनकी दुनिया हमार चटनवा, हमार भैंसिया, पाड़ा और अदृश्य सूद पर केन्द्रित हो गई। बचिया तो किसी अज्ञात प्रमेय की ‘इति सिद्धम्’ होकर सेठाइन बनी सुख काट रही थी। फिक्र किस बात की?
सब प्रकरण समाप्त होने के बाद एक दिन सुरेसवा उनके यहाँ आया और यह कह कर चरण स्पर्श करने के बाद चलता बना कि माट्साब मैं आप का दामाद नहीं, हमेशा चेला ही रहूँगा। इस पर माट्साब ने अपनी दुर्लभ मुस्कान की छ्टा बिखेर दी थी।
शुक्रवार, 14 अक्टूबर 2011
कुछ गँवार चित्र
सोमवार, 10 अक्टूबर 2011
नामवर नागार्जुन
शनिवार, 8 अक्टूबर 2011
मंगलवार, 4 अक्टूबर 2011
बी - अंतिम भाग
घंटे भर की मसक्कत के बाद जमाल मियाँ से तनहाई में मिलने की अनुमति मिली तो असलम फूट पड़ने को तैयार था। उसका हाथ दबा कर मैंने जमाल मियाँ से जानकारियाँ लेनी शुरू कीं। बम्बई में वह सेठानी के बाप के यहाँ कारिन्दा थे जहाँ उन पर उसकी नज़र पड़ी तो उन्हें इम्फाल ले आई। वह दोनों के प्रिय थे – फैक्ट्री के मैनेजर सरीखे। दिन में सेठ का काम सँभालते और रात में सेठानी को। मीठा सोडा और अफीम उनकी देह को चला रहे थे। खत लिखने में माँ की याद नहीं, मुक्त होने की आस का जोर था। एक अजीब दुविधा वाला इंसान – जाना भी चाहे और रहना भी। मैंने बीच की राह सुझाई – अभी चलो, स्वस्थ हो जाना तो फिर आ जाना।
'आज मुझे सिर्फ सुनना बेटा, रोकना टोकना नहीं। भविस्स की आस पूरी हुई है। आज तुम्हें सब बताना चाहती हूँ।
‘सबरस’ खाली है लेकिन उसकी रसोई में अलकतरा निशान लगे थाली गिलास आज भी हैं। आज नवरात्र के नवें दिन रंगीबाबू मौत की आहट से त्रस्त नहीं, ज़िन्दगी से लबालब है।