रविवार, 21 अक्टूबर 2012

चचा के हन्नी हन्ना, तिनजोन्हिया, मृगशिरा, मृगव्याध, रुद्र, प्रजापति, ऋषि अगस्त्य और दत्तात्रेय

पिछले भाग से आगे ...
Orion_constelation_PP3_map_PLहन्नी हन्ना पर मैं एक पुस्तक लिख सकता हूँ। कैशोर्य के इन आकाशी मीतों के बारे में इतना कुछ पढ़ चुका हूँ कि स्वयं आश्चर्य होता है –ऐसा क्या है इनके सम्मोहन में! भीतर बैठा शिशु मन तो अन्य बहुत से कारकों के प्रभाव से विस्मित होता है लेकिन इनकी बात खास है। याद कीजिये बाऊ कथा की तिनजोन्हिया और उसके आस पास कथा की बुनावट! इस लेख को लघु रख पाना एक चुनौती है।
दो वर्ष पहले मैं एक यात्रा पर था। महाविषुव 20 मार्च के आसपास का कोई दिन था जब दिन और रात बराबर होते हैं। आदि काल से ही महाविषुव का यह दिन उत्तरी गोलार्द्ध में वसंत ऋतु के आगमन का संकेत देता है। इस दिन से सूर्य की झुकान विषुवत वृत्त के उत्तर की ओर होनी प्रारम्भ होती है। विभिन्न सभ्यताओं में इस दिन को अपनी अपनी तरह से मनाया जाता रहा है। सूर्य और चन्द्र दोनों गतियों को लेकर चलने वाले भारतीय पंचांग में इसी दिन के आस पास वसंतोत्सव यानि होली मनाई जाती है। पुरा वैदिक काल में जब कि वर्ष भर चलने वाले यज्ञ सत्रों का चलन था, वर्ष को देवयान और पितृयान दो भागों में बाँटा गया था। इस दिन से देवताओं की ऋतुयें प्रारम्भ होती थीं वसंत, ग्रीष्म और वर्षा और यही दिन नववर्ष का प्रारम्भ होता जब कि नये सत्र प्रारम्भ होते। चन्द्रगति की दृष्टि से वर्ष में मात्र 353/4 दिन होते जब कि सौर गति से 365/6। लगभग बारह दिनों के इस अन्तर को वर्षांत में नये सत्र के प्रारम्भ होने के पहले की तैयारियों के लिये रखा जाता और यह काल कहलाता था - द्वादशाह।    बीच का जल विषुव यानि आज का 22 सितम्बर जब कि पुन: दिन और रात बराबर होते, सूर्य ठीक पूर्व में उगता और ठीक पश्चिम में अस्त होता, वर्षा ऋतु के अंत का सन्देश ले आता। वर्षा के अंत के बाद से शरद, शिशिर और हेमंत ये तीन ऋतुयें पितरों की मानी जाती थीं। यह समय पितरों का होता। देवयान का स्वामी जैसे इन्द्र था वैसे ही पितृयान का स्वामी यम। पितृविसर्जन का अध्याय फिर कभी।
तो मार्च 2010 के उस दिन थोड़ी सी वर्षा हुई थी। स्मृति साथ नहीं दे रही कि सूर्योदय के आसपास का समय था या सूर्यास्त का, मैंने कार के भीतर से ही सूर्य का फोटो खींचा था। उसी रात लौटते हुये किसी ढाबे पर हम सभी रुके थे और खुले भूदृश्य के ऊपर नभ में अद्भुत दृश्य दिखा। आकाशगंगा के किनारे सबसे चमकदार तारे लुब्धक (Sirius), व्याध नक्षत्र (Hunter, Orion), झुलनिया (कृत्तिका) और शुक्र को मैं पहचान गया। बाकी महानुभावों के बारे में कुछ पता न होने पर भी मैं उस दृश्य में खो गया। उस दिन तो नहीं खींच सका लेकिन अब सॉफ्टवेयर से पुन:सृजित वह दृश्य देखिये:
Untitled 

घर पहुँचने पर नेट से चित्र डाउनलोड कर मैंने यह रचना पोस्ट की।
vyadh reptilianisis_osirus_goddess

इसमें अनुभूतियों पर कोई विराम नहीं था और प्रेरणा बना था प्राचीन मिस्र का मिथक – मातृशक्ति देवी आइसिस (Sirius) और देव ओसिरिस (Orion) की प्रेम कहानी। हत्या कर दिये गये ओसिरिस को प्रेमस्वरूपा आइसिस ने अपने प्रेम से पुनर्जीवित किया और उनके मिलन से जो पुत्र हुआ उसने घृणित वातावरण में पुन: व्यवस्था की स्थापना की। नील नदी की बाढ़ कुछ नहीं ओसिरिस की हत्या के पश्चात रोती हुई देवी आइसिस के आँसू हैं तो नई फसल अभिचार के बाद ओसिरिस का पुनर्जीवन। मिस्र के तीन पिरामिड व्याध के तीन तारों की प्रतिकृति हैं। pyramids
जब ज्ञान जी ने पूछा था तब मुझे कचपचिया और कृत्तिका की संगति नहीं पता थी। संगति जानने के पश्चात राह आसान हो गई। कचपचिया के दूर यानि दृष्टिपटल में ऊपर जाने पर उगता है हंटर यानि पश्चिमी ज्योतिष का व्याध नक्षत्र और हमारे भोजपुरी इलाके का तिनजोन्हिया । कहावत अवधी क्षेत्र की है जहाँ मारने के लिये संस्कृत के हनन से बना शब्द ‘हनना’ चलता है। भारोपीय भाषा होने से अंग्रेजी का
Hunter भी इसी हन् से बना है।मैंने तिनजोन्हिया की संगति हंटर यानि हनने वाले ‘हन्ना’ से लगाई। समस्या अब आई कि तब ‘हन्नी’ क्या है? हन्नी हन्ना के क्रम से स्पष्ट है कि पहले हन्नी उगती है और उसके पश्चात हन्ना। तो मेरे बचपन के साथी हण्टर के पहले कौन उगता है आकाश में? कहावत से स्पष्ट है कि यह किसी ज्योतिष  विशारद की नहीं बल्कि आम घरनी या गृहस्थ की गढ़ी हुई है जो उन्हीं नक्षत्रों को आसमान में पहचान सकते हैं जो कि आकाश में स्पष्ट आसान आकार में दिखें।कचपचिया और व्याध जैसा कौन और है जो इनके बीच में पूर्व और दक्षिण-पूर्व आकाश में कुआर और अगहन महीनों के मध्य उगता हो? मैं उलझ गया।
राह मिली घाघ भड्डरी की इस कहावत से:
ऊगी हरनी फूले कास। अब का बोये निगोड़े मास ॥(कास फूल गये हैं। हरनी यानि अगस्त्य तारा उग आया है। निगोड़े! अब उड़द बोने से क्या लाभ?)  

कास तो अपना खूब जाना पहचाना हुआ है। उसका फूलना माने वर्षा का अंत और पितृयानी शरद ऋतु का प्रारम्भ। अगस्त्य के लिये ‘हरनी’ शब्द का प्रयोग चौंका गया। एक स्थान पर और ढूँढ़ा तो उस सज्जन ने अर्थ दिया था हरनी माने ‘हस्त’। हस्त नक्षत्र, इस समय? अचानक ही मन में आया ‘अगस्त्य’ से ही लोक में ‘हस्त’ हो गया होगा। अगस्त्य यानि आकाश में इस समय देर रात क्षितिज पर उसी दिशा क्षेत्र में उगने वाला तारा Canopus
अगस्त्य
अगस्त्य ऋषि! अपने ज्ञान से लोपा को लुभाने वाले। ऋषि लोपामुद्रा उनके प्रेम में ऐसी रीझीं कि ऋचायें रचती गईं:
पूर्वीरहं शरद: शश्रमाणा ....नदस्य मा रुधतः काम आगन्नित आजातो अमुतः कुतश्चित।
लोपामुद्रा वृषणं नी रिणाति धीरमधीरा धयति श्वसन्तं॥ 
अंतरिक्ष के प्रेम! तू कितना व्यापक है रे! यह आदर्श दम्पति वनवास के समय राम और सीता का पथ प्रदर्शक बना।अगस्त्य का काल 4000 से 5000 ई.पू. माना जाता है। अगस्त्य विन्ध्य पार करने वाले पहले ऋषि थे। उत्तर भारत में वर्षाकाल के अंत का सूचक और रात में दक्षिणपूर्व दिशा में दिखने वाला अगस्त्य तारा उनके नाम पर है। यह तारा ई.पू. 10000 से पहले भारत में नहीं दिखता था। उस समय कन्याकुमारी में दिखना प्रारम्भ हुआ। वर्तमान चेन्नई के के स्थान पर 8500 ई.पू. और विन्ध्य पर्वतमाला के आसपास इसके दर्शन लगभग 5000 ई.पू. में होने शुरू हुये जब कि उत्तर से विन्ध्य को पार करते अगस्त्य ने इसे पहली बार देखा। अब समूचे भारत में दिखने वाला यह तारा सन् 3400 , में जम्मू में दिखना बन्द हो जायेगा, सन् 5300 में दिल्ली में, सन् 7400 में विन्ध्य क्षेत्र में और अंतत: सन् 11700 के आस पास कन्याकुमारी में दिखना बन्द हो जायेगा। आजकल जो लोग देर रात तक जग सकते हैं वे पूर्व से दक्षिणी पूर्वी आकाश के मध्य तेज चमकते लुब्धक sirius और अगस्त्य canopus के दर्शन कर सकते हैं।

व्याध, लुब्धक और अगस्त्य के उगने के क्रम और घाघ की बात से हन्नी हन्ना के बारे में संकेत तो मिले किंतु प्रकरण और उलझ गया। संख्या तीन थी जब कि अभिज्ञान दो का करना था। सबसे बड़ा प्रश्न यह कि एक साधारण ग्रामीण क्षितिज के पास देर रात अल्प समय उगने वाले तारे को क्यों कर पहचानेगी तब जब कि आकाश में तेज चमकता लुब्धक तिनजोन्हिया जैसे एकदम से पहचान में आ जाने वाले नक्षत्र के साथ विराजमान हो? भूख से तड़प रही है या गणित  ज्योतिष पढ़ने बैठी है?
mrigshiraतब आये लोकमान्य टिळ्क (तिलक)। उनके कारण पहली बार हंटर orion का भारतीय नाम पता चला – मृगशिरा नक्षत्र। मिथकों का पूरा संसार सामने खुल गया और साथ ही पुराने समय गाँवों में इसका कहा जाने वाला नाम पता चला – हरनी यानि हिरणी। मृगशिरा यानि हिरण या हिरनी का सिर। उसके सिर में शिकारी का चलाया तीर उन तीन तारों द्वारा व्यक्त होता है जो उसकी पहचान हैं। यह हरनी ही हन्नी है यानि बाऊ युग की तिनजोन्हिया!  कृत्तिका कचपचिया के ऊपर चढ़ दूर चले जाने पर उग आती है हन्नी...  
...”और हन्ना?”  
“हन्ना जो हनता है मिरगा या हरनी।  हन्नी का हंता हन्ना, मृग का शिकारी मृगव्याध।“  
“हैं? वह तो orion था।“  
“मिथकों का मिश्रण न करो, सुनो...व्याध नहीं, मृगव्याध। मृगव्याध है लुब्धक। लुब्धक यानि लुभाने वाला। उसकी चमक देखो। प्राचीनकाल में शिकारी यानि मृगव्याध रात में वस्त्र में अनेक जुगनुओं को बाँध कर उनके प्रकाश से हिरणियों को सम्मोहित कर उन्हें बन्धक बना लेते या मार देते थे!
हन्नी हन्ना उइ आये माने आकाश में मृगशिरा और लुब्धक यानि मृगव्याध उग आये हैं।“  
krittika_jupiter_orion_sirius
“तो घाघ ने अगस्त्य को हरनी क्यों कहा?”
“ज्योतिष ज्ञाता घाघ ग्रामीण पंडित थे। नक्षत्रों के आकार पूरा करने की प्रवृत्ति बहुत पुरानी रही है। मृगशिरा में केवल सिर है। बाकी देह कहाँ गई? उन्हों ने देह को नीचे अगस्त्य तारे तक ला कर पूरा किया। इस तरह से अगस्त्य तारे के उग आने पर हिरनी के पूरी तरह साक्षात हो जाने की बात भी हो गई और ग्रामीणों की अधिक रात हो जाने की भी।“...
अवधी क्षेत्र की यह कहावत सास बहू का झगड़ा ही नहीं, ऋतुचक्र और फसल के चक्र की ओर भी संकेत करती है। अगहन या आग्रहण्य महीने का नाम मार्गशीर्ष भी है। मार्गशीर्ष अर्थात मृगशिरा, हमारे हन्नी का महीना। इस महीने वर्षा के बाद की फसल होती है - अगहनी धान जो कि प्रमुख अन्न आहार है।
का सास हांड़ी ढगढोरू, कांछ-पोंछ गयें घूर
(सास जी क्या मुझे देने के लिये हांड़ी टटोल रही हो। उसको तो कांछ-पोंछ कर मैं घूरे पर डाल आयी)
यह पंक्ति वर्षा ऋतु में बैठ कर बिना कुछ  कमाये खाते रहने जाने के कारण खाली हो चुके बखार की त्रासद बात करती है, साथ ही अगहनी धान के आने की आशा की ओर संकेत भी।
21 दिसम्बर को शीत अयनांत होता है। जब सूर्य दक्षिणी झुकाव से उत्तर की ओर पलटने लगता है। यह दिनांक अगहन के महीने में पड़ता है। कालान्तर में वर्ष यानि संवत्सर का प्रारम्भ महाविषुव के बजाय शीत अयनांत से होने लगा - अगहनी धान यानि वृहि की बलि से नवसत्र का आरम्भ। मिस्र की नई फसल की कथा की स्मृति हो आई।   
हजारो वर्षों में महाविषुव का सूर्य मृगशिरा (हन्नी) नक्षत्र से कृत्तिका(कचपचिया) में, कृत्तिका से अश्विनी में.... मृगशिरा को लेकर मिथक बनते बिगड़ते इकठ्ठे होते रहे। उनके साथ हमारी अनेक पौराणिक कथायें बनती चली गयीं:
  • कटि में यज्ञोपवीत पहनने वाला प्रजापति यानि अब का मृगशिरा काममोहित हो कर अपनी पुत्री यानि आकाश के रोहिणी नक्षत्र की ओर दौड़ा तो व्याध यानि किरात रुद्ररूपी लुब्धक ने उसका सिर काट डाला। इस बलि द्वारा नये वर्ष का प्रारम्भ हुआ।  
  •  शिव द्वारा प्रजापति का यज्ञ ध्वंश, कुछ नहीं एक युग में वर्षांत में लुब्धक के उदय के साथ समाप्त होने वाले यज्ञ सत्र का रूपक है।
  • इसी स्थान पर इन्द्र रूपी लुब्धक द्वारा आकाशगंगा रूपी फेन के अस्त्र से वृत्र रूपी वर्षा का ध्वंस और उसके पश्चात पूजित होना, शीत अयनांत से नवसत्र के प्रारम्भ का रूपक है। उत्तरायण दक्षिणायन सूर्य की अयनांत सापेक्ष अवधारणा यहीं से प्रारम्भ हुई जिसमें देवताओं के राजा इन्द्र की पूजा और शुभ कार्यों हेतु इस काल की महत्ता देवयानी सत्रों की स्मृति में स्थापित हुई।    
  •  तीन सिर वाले दत्तात्रेय तीन प्रमुख  तारों वाले मृगशिरा हैं। उनके पैरों के पास घूमते वेद रूपी कुत्ते  कुछ नहीं श्वान नक्षत्र हैं। यह उस समय का रूपक है जब भिन्न धाराओं के संगम संयोजन द्वारा वैदिक संहितायें अपने वर्तमान रूप में आईं। वह समय भी एक नये सत्र का प्रारम्भ था जब संवत्सर शीत अयनांत से प्रारम्भ हुआ...
... मिस्री देवता अनूबिस यानि भेड़िया रूपी श्वान नक्षत्र का प्रतिरूप है स्फिंक्स।
Anubis2
sphinx-and-pyramids-at-sunset
ऋक् संहिता कहती है कि संवत्सर का प्रारम्भ श्वान से हुआ।
श्वानं बस्तो बोधयितारमब्रवीत्संवत्सर इदमद्या व्यख्यन। (1.161.13) 
इसका अर्थ हुआ कि संहिता अनूबिस के मिथक इतनी तो पुरानी है ही अर्थात प्रजापति मृगशिरा के समय नववर्ष का प्रारम्भ करने वाले जन कम से कम ईसा से 4500 वर्ष पुराने तो थे ही!
अगली बार कोई मैक्समूलर की मनबढ़ बाँट का सन्दर्भ देते यह कहे कि ऋक् संहिता ईसा से 1500 वर्ष ही पुरानी है तो न मानना, अड़ जाना! ...
...यायावर के पास कथाओं की कमी नहीं है।
अभी तो उसे विदिशा जाना है – शेषशायी विष्णु की बात तो रह ही गयी थी न?
क्षितिज के पास अंतरिक्ष में कभी न डूबने वाले उस महासर्प को देखा है आप ने, जो सागर से सिर ऊपर किये दिखता है और जिसके ऊपर विष्णुरूपी सूर्य लेटे दिखाई देते हैं? योगनिद्रा कब होती है? विष्णु की नाभि से निकलता ब्रह्मा कहीं तिनजोन्हिया प्रजापति तो नहीं?
______ 
(बड़ा देखने के लिये चित्रों पर क्लिक करें।)

गुरुवार, 18 अक्टूबर 2012

रोज रोज का सड़क छाप बलात्कार

गोसाईं बाबा लिख गये - नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं। यह एक लोकप्रेक्षित सत्य है, भर्तृहरि के सर्वे गुणा: कांचनमाश्रयंति की तरह। सभ्य और विकसित होता समाज इन सचाइयों को झुठलाने की दिशा में आचरण और प्रयास करता है। यह प्रयास बहुसंख्य 80% जनसंख्या की सोच और जीवन स्तर की गुणवत्ता को ऊपर उठाने की ओर होता है ताकि सकल गुणवत्ता बढ़ सके। जिसे 'आम' या masses कहा जाता है, किसी भी तंत्र में वह महत्त्वपूर्ण होता है। लोकतंत्र में चूँकि तंत्र लोक से बनता है इसलिये इसकी समूची गुणवत्ता ही लोक यानि 'आम' पर निर्भर है।  

हमारे समाज में एक जुमला चलता है - सड़क छाप आदमी। यकीनन किसी भी समाज का छापा उसकी सड़कें हैं  अर्थात सड़क पर चलते आदमी के व्यवहार से उस समाज की स्थिति का स्पष्ट पता चलता है। 'सड़क छाप आदमी' जुमले में भटकते विपन्न रसूखहीन व्यक्ति के पक्ष के अलावा एक पक्ष यह भी है कि सड़कों पर चलते आदम जात की हरकतें निहायत ही निषेधात्मक और अवांछनीय हैं और राजमार्गों पर डहरते पशुओं की तुलना में वे कोई खास बेहतर नहीं हैं। मुफ्त में मिलते जहर तक की खोज खबर रखने वाला आदमी ट्रैफिक नियमों को तोड़ता हुआ पकड़े जाने पर पूछता है - ऐसा भी है! हमें नहीं पता था साहब और फिर बड़े भोलेपन के साथ जेब से गान्धी छाप निकालने का उद्यम करता माफी की माँग करता है।

प्रभुता प्रदर्शन की एक बहुत ही आम प्रवृत्ति है - गाड़ियों पर लगे और छपे विभिन्न प्रदर्श। बन्दा भले सचिवालय में चपरासी हो, स्कूटी के नम्बर प्लेट पर सचिवालय लिखवाना नहीं भूलता। साइकिल के मड गार्ड तक पर 'वित्त विभाग' लिखा मैंने देखा है - यह कंचन यानि 'वित्त' और उससे सम्बन्धित विभाग की प्रभुता और गुणवत्ता का ऐसा 'विपन्न' प्रदर्शन है कि देख के अपने केश नोचने को मन करता है और साथ ही अपनी मानसिक स्थिति पर भी सन्देह होने लगता है - यार, मिसफिट तो ठीक, कहीं हम अनफिट तो नहीं!

नये युग की कथित SUV गाड़ियाँ प्रभुता और कंचन वालों यानि रसूखदार धनपशुओं के नग्न प्रदर्शन की साधन हैं। लाल, नीली बत्तियाँ, पार्टियों के झंडे, पिछले काँच पर किसी खास पार्टी के मिशन 2014 का सन्देश, नियमों के विपरीत खिड़कियों पर काली फिल्में, संसार के सर्वोत्तम कैलीग्राफरों को लजवा देने की शैलियों में लिखे नम्बर प्लेट, गे पुरुषों की तरह ही बॉडी पर सजे विचित्र से सौन्दर्याभरण आदि इन गाड़ियों के स्थायी मानक हैं। इन गाड़ियों के नम्बर भी सन्देश देते हैं: 786, 9999, 6666, 0001, 1234 - कथित विशिष्ट किंतु शिष्टताहीन आतंकी वी आई पी नम्बर जिनकी आधिकारिक रूप से नीलामी होती है और जिन्हें 'ब्लैक' में पाने के लिये कई बार लाखों उड़ा दिये जाते हैं। अंकों की ऐसी दुर्गति केवल अपने यहाँ ही हो सकती है। क्यों न हो, आखिर हमने ही तो इन्हें ढूँढ़ा था! ये अलिखित मानक परिवहन विभाग के पूरे संज्ञान में प्रभु वर्ग द्वारा उतने ही भ्रष्ट आम जन के मानसिक और भौतिक उत्पीड़न के लिये बनाये गये हैं। इनके द्वारा वे दैनिक आतंकवाद के पाठ सीखते, पढ़ते और पढ़ाते हैं।

अधिकतर ऐसे प्रदर्शों वाले व्यक्ति सड़क का और सड़क पर मानसिक बलात्कार करते चलते हैं। ट्रैफिक के नियम तोड़ने हों या हूटर बजा कर चौंकाना हो, ये पहले नम्बर पर आते हैं। ऐसी गाड़ियों के ड्राइवरों में पाई जाने वाली सहज, स्वाभाविक और आदरणीय बदतमीजी उनके स्वामियों में पाई जाने वाली बदतमीजी की अनुक्रमानुपाती होती है। यदि गाड़ी में मालिक न हों तो क्या कहने! (वाहन स्वामी के अपने खुद के किसी वाहन में पाये जाने की प्रायिकता (probability) उसके पास पाये जाने वाले वाहनों की कुल संख्या के व्युत्क्रमानुपाती होती है। यदि उनमें से एक 'सरकारी' है तो यह प्रायिकता उसके निजी वाहनों के लिये शून्य हो जाती है।), ड्राइवर सड़क पर ऐसे चलता है जैसे पगलाया साँड़। कोई आश्चर्य नहीं कि काले शीशे चढ़ा कर किसी भी समय कहीं किनारे पार्क कर 'लग जाने वाले' यही साँड़, सॉरी ड्राइवर होते हैं। सत्ता और सुरा के मद की तो बात ही क्या! जिसकी जितनी श्रद्धा, उसका उतना अद्धा!

गाड़ियों द्वारा आभासी शक्ति प्रदर्शन में प्रेस, मीडिया, पुलिस, प्रशासन, न्यायपालिका, राजनीतिक पार्टियाँ आदि सभी लगे हुये हैं। सामूहिक बलात्कार में सबकी आम सहमति है। इसीलिये सब कुछ दिखते हुये भी कोई इस पर नहीं बोलता या कुछ करता। चौराहों पर इसीलिये किनारे दो सौ पर डे के पुलिसिया वसूली प्रोग्रामों के तहत गुमटियाँ पनपती हैं ताकि ट्रैफिक हवलदार को पान मसाले और सिगरेट के लिये दूर न जाना पड़े और वह ड्यूटी पर होते हुये भी न रहे। बात बेबात व्यर्थ का कोलाहल मचाने वाले प्रेस को नाक नीचे के ये नजारे नहीं दिखते क्यों कि साँझ के हाला हल का प्रबन्ध भी तो देखना होता है।
इस वाहन को देखिये, ऊपर उच्च न्यायालय और नीचे मानवाधिकार लिखा हुआ है (मैंने फोटो से नम्बर हटा दिया है क्यों कि मैं 'तमाम आमों से भी आम' आदमी हूँ, इन सूरों की तपिश मुझे नहीं झेलनी। पंगे लेकर देख चुका हूँ, कुछ नहीं होता जाता)। POWER BRAKE के पॉवर की तो बात ही अलग, अनब्रेकेबल है!

2012-10-17-099

ऐसा तो हो नहीं सकता कि वाहन स्वामी को पते न हो कि कौन यह सब लिख गया, कैसे लिखा गया! अब इसके स्वामी किस तरह का न्याय करते होंगे, आप समझ सकते हैं। मानवाधिकार का अर्थ ये अपने ग़लतफहमी अधिकार से लगाते होंगे और वादी के पहुँचने पर कहते होंगे - मानवाधिकार? कौन ची? हे, हे, हे...वह तो सड़कों पर छितराया हुआ है। जाओ जितना चाहे बटोर लो। उसके बाद उसे इतना धिक्कारते होंगे कि वह अधिकार की बात भूल साहब की कार वन्दना करता घर को रवाना हो जाता होगा।  

हमारे तंत्र का कोढ़ ऊपर का भ्रष्टाचार और बलात्कार, आम जन के जीवन में पाये जाने वाले लघु यानि कुटीर उद्योग के स्तर के भ्रष्टाचार और बलात्कार का समुच्चय भर है। जिस तरह से बाहर से प्रायोजित इस्लामी आतंकवाद से अधिक हानिकर और क्षयकारी गली मुहल्लों के दैनिक लघु स्तर के  आतंकी हैं, वैसे ही सड़कों पर प्रदर्शित किंतु वस्तुत: हमारे अस्तित्त्व में जड़ित टुच्ची शक्ति प्रदर्शन और बलात्कार की प्रवृत्तियाँ रसूखदारों की अहमकाना प्रवृत्तियों से। ऐसा इसलिये कि आम जन की यही प्रवृत्तियाँ उनका पोषण करती हैं, उनके लिये ज़मीन तैयार करती हैं। उगते सूरज को सलाम करने की प्रवृत्ति भले उसमें कितने ही कृष्ण विवर हों, यहीं से आती है। इसके पीछे यह सोच काम करती है कि चूँकि फलाँ येन केन प्रकारेण पूँजी और बल एकत्रित करने और उसके भौंड़े प्रदर्शन में मुझसे आगे है, इसलिये श्रद्धेय है, पूज्य है।

कहा गया है:

हेम्न: संलक्ष्यते ह्यग्नौ: विशुद्धि: श्यामिकाsपि वा (सोने की शुद्धि या अशुद्धि की परख अग्नि में होती है)।

यह कथन उन विकसित समाजों के लिये है जहाँ आग पाई जाती है, यहाँ तो सब गोबर हैं। पहले सूख कर जलने लायक तो हो लें ताकि परख सकें कि जो पास है वह राँगा है या सोना!   

बुधवार, 17 अक्टूबर 2012

अवधी चचा देखलेंs सास-बहू के झगरा आ कचपचिया गइल लामे

गर्मी की छुट्टियाँ हैं। एक किशोर क़स्बे से गाँव आया हुआ है। हर वर्ष की ग्रीष्म ऋतु उसके कल्पनाशील मस्तिष्क को विस्तार देती है। शाम का भोजन हो जाने के बाद जब बंगले की छ्त पर और दुआरे खुले में पुरुष वर्ग सोने के जुगाड़ कर लेता है और स्त्रियाँ मंडप की छत पर, तब दुआरे से पीता का जाने कौन सप्तक को छूता हुआ स्वर पूर्णिमा के चाँद को सिव के बियाह की कथा सुनाता है – अरे गउरा के जरि गइलें भागि हो, बर बागड़ भेंटइलें और नक्षत्र तक ठिठक जाते हैं।

अन्हार में किसी रोज पास के गाँव आया गायक कभी सोरठी बिरजाभार और कभी सीत बसंत देर रात तक गाता हुआ जाने कब सो जाता है। प्रात: की करुआती आँखों में उसके करुण स्वर की लाली चुगली करती रहती है – भउजी त रोवना हई, राति बड़ा रोवली... ए चाची जी, रुअरे नाहिं रोवलीं...हँ रे...।

किसी दिन जब अगल बगल की छतों से आती फरमाइशों पर पीता बबुआ लेहले जइह हमरो समान हो, टेरते हैं तो बीच में ही उन्हें बड़के चचा टोक देते हैं – तनि चुपा जा, लोग आइल बा, बतियावे के बा। किशोर को आश्चर्य होता है – अजीब देहाती लोगों से चचा की कितनी निभती है और वे भी कितना मान देते हैं! विचित्र हैं बड़के चचा!

वह किशोर से नक्षत्रों के बारे में बताने को कहते हैं। छत पर लेटे किशोर की आँखों में समूचा ब्रह्मांड छितरा होता है। वह केवल सप्तर्षि, पंचपांडव, ध्रुव, व्याध, वृश्चिक, महासर्प, हाइड्रा और झुलनिया यानि कृत्तिका को पहचानता है लेकिन उसने तारों के जीने मरने के बारे में पढ़ रखा है, उसने पढ़ रखा है कि कैसे धूल से पिंड बनते हैं, कैसे उनके पेट में हमेशा आग दहकती रहती है – रौरव नरक जैसी और वे पगलाये करोड़ो योजन योजन भर भर दूर रहते हुये ध्रुव के चक्कर लगाते रहते हैं। वह प्रकाश वर्ष को उन अनपढ़ बुजुर्गों के लिये बताता है। उनकी हूँ हाँ की उसे परवाह नहीं होती, उसे पता होता है कि उस नीम अन्धेरे में चचा फूल कर कुप्पा हो रहे होते हैं – देखलs, हमरे लइका के!

वह उन लोगों को कहानियाँ भी सुनाता है जिनके केवल स्टेज भर पता होते हैं। बाकी वह अपनी कल्पना शक्ति से जोड़ लेता है ठीक वैसे ही जैसे आठवीं घंटी में काले मोती की लम्बी कहानी में एक सैनिक और राजकुमारी की लगन गाथा को विस्तार देता, आगे बैठी लड़कियों की आँखों से टपकते आश्चर्य को देखता रहता है! लेकिन उस अन्धेरे में वह किसी का चेहरा नहीं देख पाता। वह उन्हें पिता से सुनी उपनिषदों की कहानियाँ भी सुनाता है लेकिन उनमें अपने पास से कुछ नहीं जोड़ता। प्रतिप्रश्न पर अक्सर उसे कहना पड़ता है – भोर परि गइल! वे लोग हँसते हैं – बिस्भोर हो जाला कथ्था कहानी में! वह सोचता है भला विस्मृति का तद्भव बिस्भोर कैसे हो सकता है? विस्मृति+भ्रम?

कभी खर्राटे लेते, कभी जगते चचा या उनके कोई साथी गुजरे जमाने की, गाँव जवार की भूली बिसरी घटनायें छेड़ देते हैं। लोग चचा के बाऊ यानि किशोर के बाबा का नाम बड़े आदर से लेते हैं और बाबू जी विचित्र से उत्साह से उनके बारे में बताते हैं। किशोर के मन में कोई कॉपी खुल जाती है और बेतरतीब विचित्र सी लंठई भरी गाथायें लिखाती चली जाती हैं। उन कथाओं में मानुख, प्रेत, बरम बाबा और चुड़ैलें भी, एक ही काल और स्थान आयाम में होते हैं वैसे ही जैसे पुराने युगों में ऋषि और देवता। पुरखों के विचित्र विचित्र कारनामें, पड़ोस के गाँवों में भी वैसे ही बजरलंठ।

बड़के चचा सीधे कहते हैं प्रेत, चुड़ैल, देव कुलि खाली दिमागी बहम होलें और वे एक ठंढी रात का किस्सा छेड़ देते हैं जब वह ऊँख मिल में गिराकर अकेले लौट रहे थे। उनका किस्सा उस जिन्न के मिथक को छिन्न भिन्न कर देता है जो कटहरिया चौराहे पर कई लोगों को आग के घेरे में नाचता दिखा करता है! वे कोई परहेज नहीं करते – अरे, अब लइका झँटउर हो गइल बा!

किशोर का उत्सुक मन दो संस्कारों में गढ़ता जाता है। एक ओर शिक्षित, अनुशासन प्रिय और अध्ययनशील पिता तो दूसरी ओर बाऊ की उंगली पकड़ अन्धेरे में घूमते नन्हें बने बड़के चचा। आश्चर्य नहीं कि कभी कभी वह अकेले ही सरेह में जाने कितनी दूर भटक आता है। वह विलियम ब्लेक की कविताओं और पीता के लोकगीतों में बराबर का रस पाता है।...

... बड़ा हो कर, दो बच्चों का बाप हो जाने के बाद वह एक बार कोणार्क गया। लौट कर आने के बाद उसने पाया कि वह फिर से वही किशोर हो गया है और अब भटकने के लिये ज्ञान के राजमार्ग हैं, समय की गति को झुठलाता अंतर्जाल है और वे पुस्तकें भी हैं जिन्हें खरीदना कभी उसके वश में नहीं था। वह भटकने लगा – इतिहास, साहित्य, पुरातत्त्व, गल्प, स्थापत्य, ज्योतिष, गीत संगीत, पांडुलिपियाँ, सनकी लोग...वह अपने अनुभव और अपनी खोजें लिखने लगा। बड़के चचा तो नहीं रहे लेकिन इस बार अंतर्जाल के चचा ने पूछ लिया:

पतोहू उवाच –

हन्नी हन्ना उई आयें, कचपचिया गई दूर।

का सास हांड़ी ढगढोरू, कांछ-पोंछ गयें घूर।

(
रात में बहुत देर हो गयी है। देर से उगने वाले तारे हन्नी हन्ना उग आये हैं और कचपचिया तारामण्डल बहुत ऊपर चढ़ चुका है। सास जी क्या मुझे देने के लिये हांड़ी टटोल रही हो। उसको तो कांछ-पोंछ कर मैं घूरे पर डाल आयी हों।) बहुत ही मार्मिक है सासों द्वारा पतोहू को सताये जाने और भोजन तक ठीक से न देने का दृश्य! :-(

चलो, ढ़ूंढ़ निकालो हन्नी-हन्ना-कचपचिया को!...

... अंग्रेजों ने प्राचीन भारत की तमाम सम्पदाओं और उपलब्धियों को ढूँढ़ निकाला।  अंग्रेज/यूरोपीय विद्वानों और धर्मांतरण एजेंटों ने वह काम कर दिखाया जो सदियों से नहीं हुआ था। मैक्समूलर, कनिंघम, जेम्स प्रिंसेप, विलियम जोंस आदि में से कई ने तो अपार कष्ट झेलते हुये अपना जीवन तक होम कर दिया। इस अवधी कहावत में वर्णित तारों और नक्षत्रमंडलों की पहचान के लिये बाइबिल के अवधी अनुवाद से स्पष्ट और लगभग पूर्ण सूत्र मिल जाते हैं। हालाँकि स्वयं प्राचीन हिब्रू भाषा और उसमें वर्णित शब्दों की आधुनिक पहचान के लिये किये जा रहे कर्म अपने आप में वृहद शोध की सामग्री प्रस्तुत करते हैं जो बहुत ही रोचक है लेकिन अपनी आदत के विपरीत मैं अबकी अपने काम से काम रखूँगा J (फिलहाल)।

ayyub_38_31_awadhi

job_9_9_awadhi
amos_5_8_awadhi

 pleiades-300x199कचपचिया का वर्णन ओल्ड टेस्टामेंट के प्रकरण जॉब 9:9, अमोसkimah 5:8, अय्यूब 38:31 में मिलता है। पुरानी हिब्रू भाषा में इस तारासमूह का नाम किमा: है। उल्लेखनीय है कि गुच्छे में दिखते इस समूह के लिये बहुवचन विसर्ग (:) का प्रयोग संस्कृत की तरह ही हुआ है। अंग्रेजी अनुवाद करते एक अनुवादक ने seven stars और बाकियों ने   Pleiades यानि कृत्तिका (सप्तमातृका) का प्रयोग किया है। वास्तव में इस समूह में अनेकों तारे हैं जिनमें नौ तो थोड़े प्रयास के साथ पहचाने जा सकते हैं और छ:/सात तो एकदम साफ दिखते हैं। इन्हीं संख्याओं को लेकर सात बहनों या छ: मातृकाओं के मिथक गढ़े गये।

पुरानी हिब्रू के सात तारों को लेकर समस्या यह रही कि सप्तर्षि यानि Great Bear और व्याध यानि Hunter तारामंडलों में भी सात सात तारे ही होते हैं लेकिन अन्य सन्दर्भों से यह समस्या सुलझा ली गई। पहले के आलेख में मैं ऋचाओं के दर्शन के समय सप्तमातृका [या छ: कृत्तिकाओं सहित शिवपुत्र कार्तिकेय] के महत्त्व का संकेत दे चुका हूँ।

ईसा से लगभग 2300 वर्षों पहले वर्ष प्रारम्भ का संकेत देता महाविषुव कृत्तिका नक्षत्र के निकट था। नक्षत्र और तारे कृत्तिका की परिक्रमा करते थे। इस कारण उस समूह की सात ललनायें बहुत ही प्रिय थीं और उनकी प्रशंसा में ही ऋषि दीर्घतमा ने ऋचायें गढ़ीं। इस नक्षत्र को लेकर गढ़े गये मिथक पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ते रहे। गाँवों के स्वच्छ और शुद्ध अन्धकार वाले खुले आकाश में कृत्तिकायें बहुत ही सुन्दर और स्पष्ट दिखती थीं – सुन्दर स्त्रियों के समूह जैसी।

619-00904370wउनकी साम्यता किसी भोजपुरी ग्रामबाला ने अपनी झुलनी (नाक का आभूषण) से कर प्यारा सा नाम दिया – झुलनिया।

कृत्तिका शब्द कर्तन यानि काटे जाने वाले अस्त्र की साम्यता से आया है। आकाश में इसका आकार ऐसा ही दिखता है। भोजपुरी में कहते हैं – काटि देहलसि कच्च से! कदाचित ‘कचपचिया’ कृत्तिका और लोकवाणी में काटने की ध्वनि ‘कच्च’ से विकसित हुआ है। विचित्र ही है कि तमिल परम्परा में सात ऋषियों की पत्नियों की प्रतीक कर्तिगइ या वेदों की सात ललनाओं या कार्तिकेय की पालनहारी ममतामयी छ: कृत्तिकाओं की पहचान काट देने वाले यंत्र से की जाय! मिथक और कथायें ऐसे ही गड्डमगड्ड होती हैं।

अंतरिक्ष में कृत्तिका नक्षत्र वृषभ और मेष राशि के बीच में दिखता है।  

कृत्तिकाओं का स्वामी देव अग्नि है। ध्यातव्य है कि शिव के तेज को पहले अग्नि ने धारण किया और उसके बाद कृत्तिकाओं ने उसे स्कन्द रूप में पाला पोषा, बड़ा किया। वही स्कन्द अन्धकार प्रतीक असुरों का नाश करने वाला कार्तिकेय हुआ। यह किसी खगोलीय घटना का संकेत है, ठीक वैसे ही जैसे एक खास दिन उगते सूर्य के ठीक पहले वहीं भोर में प्राची दिशा में क्षितिज पर चन्द्र दिखाई देता है। शिव उस सूर्य के प्रतीक हैं जो अपने मस्तक पर चन्द्र को धारण करता है। वह दिन एक पर्व होता है। आप बता सकते हैं कौन सा?  

अब जब कि कचपचिया की पहचान कृत्तिका नक्षत्र या छ: कृत्तिकाओं या देहाती झुलनिया या सात बहनों या सप्तमातृकाओं से हो चुकी है तो पता करते हैं कि उस दुखियारी बहू ने या उससे सहानुभूति रखने वाले देवर ने कब उन दो पंक्तियों को रचा होगा?

गाँवों में शारीरिक श्रम जीवन लय को तय करता है। किसान और उनकी घरनियाँ दिन भर या तो बाहर खेत में खटती हैं या डाँड़ गोयँड़ें। दिन भर की थकी शरीर किसी विशेष अवसर के अतिरिक्त रातों में बहुत देर तक नहीं जग सकती। बिजली के प्रकाश की अनुपस्थिति में रातें अधिक करिखही यानि काली और जल्दी गहन हो जाने वाली होती हैं। मवेशियों का डिनर भी साँझ के झुटपुटे के आसपास ही सम्पन्न हो जाता है। उसके बाद बस भोजन कर सो जाना होता है। ऐसे में भोजन मिलने में यदि रात के आठ, नौ बज जायँ तो बहुत बड़ी बात हो जाती है। कुआर(आश्विन, लगभग अक्टूबर) माह से कचपचिया पूरब दिशा में साँझ की बेर अधिक हो जाने पर दिखती है और उसके बाद चढ़ती जाती है। ऐसा दिसम्बर यानि लगभग अगहन मास तक होता रहता है। पूस जाड़ तन थर थर काँपा की स्थिति में आकाश निहारने की सुध नहीं होती। वैसे भी रात में धुन्ध रहती है। कउड़ा (अलाव) के धुयें मारे ठंड के आसमान में लटके रह जाते हैं, तारे साफ नहीं दिखते।

गीत रचने वाली बहू कोठा अमारी में तो रहती नहीं! लेकिन पूरब या पूरब उत्तर के शुभ कोने की ओर मुखातिब अपने फुसौला घर से वृक्षों के ऊपर चढ़ आई कचपचिया को आसमान में देख सकती है। मानुख आँख की ऊँचाई देखने की स्वाभाविक पराश क्षैतिज के ऊपर नीचे मिला 100 अंश के आस पास होती है। उसके बाद देखने के लिये सिर ऊपर उठाना पड़ता है।  कचपचिया गई दूर’ तब कहा जायेगा जब कृत्तिका यानि कचपचिया क्षितिज से 50 अंश ऊपर हो।

कातिक या अगहन का महीना है। घर के सभी जन खा पी चुके हैं। रात के आठ नौ बजे बजे तक भी भोजन न मिलने पर कुछ नवेली सी दुल्हन रसोई के बर्तन निहारने गई है। उनमें कुछ न पा मारे क्रोध के छूटा जूठा पोंछ पाछ घूरे पर फेंक आई है। बुजुर्ग सास की पहली नींद टूटी है तो बहू को भोजन देने की सुध आई है लेकिन उसे पता है कि कुछ बचा नहीं, फिर भी रसोई में जा खटर पटर करती है तो बहू मारे झुँझलाहट में कहती है:

हन्नी हन्ना उई आयें, कचपचिया गई दूर।

का सास हांड़ी ढगढोरू, कांछ-पोंछ गयें घूर।

ऐसा संयोग बनता है आज कल के दिनांक 30 नवम्बर को रात में लगभग 8:30 बजे। अपने अपने गाँव के खा पी सुत्ता पर जाने के समय को देखते हुये आप इसे एकाध महीने इधर उधर कर सकते हैं।

देखिये, इस समय अवध क्षेत्र में लखनऊ के आस पास नभ में आकाशगंगा के किनारे कचपचिया की स्थिति। उसके नीचे हैं देवगुरु वृहस्पति। यह दृश्य आज कल भी आकाश में दिखता है। प्रकाश प्रदूषण के बाद भी कल मैं वृहस्पति से साक्षात हुआ। आप भी प्रयास कीजिये।

 kachpachiya

सप्तमातृकाओं के विपरीत आचरण करने वाली, भावी कृत्तिका के क्षुधा की आग को शांत न करने वाली सास और कचपचिया के दूर जाने के साथ हन्नी हन्ना के उग आने की त्रासदी भी है। हन्नी हन्ना कौन हैं?

आप लोग अनुमान लगाइये। कल मिलते हैं उनकी पहचान के साथ। 

(अगले भाग के लिये यहाँ क्लिक करें)                                                   (जारी)