गर्मी की छुट्टियाँ हैं। एक किशोर क़स्बे से गाँव आया हुआ है। हर वर्ष की ग्रीष्म ऋतु उसके कल्पनाशील मस्तिष्क को विस्तार देती है। शाम का भोजन हो जाने के बाद जब बंगले की छ्त पर और दुआरे खुले में पुरुष वर्ग सोने के जुगाड़ कर लेता है और स्त्रियाँ मंडप की छत पर, तब दुआरे से पीता का जाने कौन सप्तक को छूता हुआ स्वर पूर्णिमा के चाँद को सिव के बियाह की कथा सुनाता है – अरे गउरा के जरि गइलें भागि हो, बर बागड़ भेंटइलें और नक्षत्र तक ठिठक जाते हैं।
अन्हार में किसी रोज पास के गाँव आया गायक कभी सोरठी बिरजाभार और कभी सीत बसंत देर रात तक गाता हुआ जाने कब सो जाता है। प्रात: की करुआती आँखों में उसके करुण स्वर की लाली चुगली करती रहती है – भउजी त रोवना हई, राति बड़ा रोवली... ए चाची जी, रुअरे नाहिं रोवलीं...हँ रे...।
किसी दिन जब अगल बगल की छतों से आती फरमाइशों पर पीता बबुआ लेहले जइह हमरो समान हो, टेरते हैं तो बीच में ही उन्हें बड़के चचा टोक देते हैं – तनि चुपा जा, लोग आइल बा, बतियावे के बा। किशोर को आश्चर्य होता है – अजीब देहाती लोगों से चचा की कितनी निभती है और वे भी कितना मान देते हैं! विचित्र हैं बड़के चचा!
वह किशोर से नक्षत्रों के बारे में बताने को कहते हैं। छत पर लेटे किशोर की आँखों में समूचा ब्रह्मांड छितरा होता है। वह केवल सप्तर्षि, पंचपांडव, ध्रुव, व्याध, वृश्चिक, महासर्प, हाइड्रा और झुलनिया यानि कृत्तिका को पहचानता है लेकिन उसने तारों के जीने मरने के बारे में पढ़ रखा है, उसने पढ़ रखा है कि कैसे धूल से पिंड बनते हैं, कैसे उनके पेट में हमेशा आग दहकती रहती है – रौरव नरक जैसी और वे पगलाये करोड़ो योजन योजन भर भर दूर रहते हुये ध्रुव के चक्कर लगाते रहते हैं। वह प्रकाश वर्ष को उन अनपढ़ बुजुर्गों के लिये बताता है। उनकी हूँ हाँ की उसे परवाह नहीं होती, उसे पता होता है कि उस नीम अन्धेरे में चचा फूल कर कुप्पा हो रहे होते हैं – देखलs, हमरे लइका के!
वह उन लोगों को कहानियाँ भी सुनाता है जिनके केवल स्टेज भर पता होते हैं। बाकी वह अपनी कल्पना शक्ति से जोड़ लेता है ठीक वैसे ही जैसे आठवीं घंटी में काले मोती की लम्बी कहानी में एक सैनिक और राजकुमारी की लगन गाथा को विस्तार देता, आगे बैठी लड़कियों की आँखों से टपकते आश्चर्य को देखता रहता है! लेकिन उस अन्धेरे में वह किसी का चेहरा नहीं देख पाता। वह उन्हें पिता से सुनी उपनिषदों की कहानियाँ भी सुनाता है लेकिन उनमें अपने पास से कुछ नहीं जोड़ता। प्रतिप्रश्न पर अक्सर उसे कहना पड़ता है – भोर परि गइल! वे लोग हँसते हैं – बिस्भोर हो जाला कथ्था कहानी में! वह सोचता है भला विस्मृति का तद्भव बिस्भोर कैसे हो सकता है? विस्मृति+भ्रम?
कभी खर्राटे लेते, कभी जगते चचा या उनके कोई साथी गुजरे जमाने की, गाँव जवार की भूली बिसरी घटनायें छेड़ देते हैं। लोग चचा के बाऊ यानि किशोर के बाबा का नाम बड़े आदर से लेते हैं और बाबू जी विचित्र से उत्साह से उनके बारे में बताते हैं। किशोर के मन में कोई कॉपी खुल जाती है और बेतरतीब विचित्र सी लंठई भरी गाथायें लिखाती चली जाती हैं। उन कथाओं में मानुख, प्रेत, बरम बाबा और चुड़ैलें भी, एक ही काल और स्थान आयाम में होते हैं वैसे ही जैसे पुराने युगों में ऋषि और देवता। पुरखों के विचित्र विचित्र कारनामें, पड़ोस के गाँवों में भी वैसे ही बजरलंठ।
बड़के चचा सीधे कहते हैं प्रेत, चुड़ैल, देव कुलि खाली दिमागी बहम होलें और वे एक ठंढी रात का किस्सा छेड़ देते हैं जब वह ऊँख मिल में गिराकर अकेले लौट रहे थे। उनका किस्सा उस जिन्न के मिथक को छिन्न भिन्न कर देता है जो कटहरिया चौराहे पर कई लोगों को आग के घेरे में नाचता दिखा करता है! वे कोई परहेज नहीं करते – अरे, अब लइका झँटउर हो गइल बा!
किशोर का उत्सुक मन दो संस्कारों में गढ़ता जाता है। एक ओर शिक्षित, अनुशासन प्रिय और अध्ययनशील पिता तो दूसरी ओर बाऊ की उंगली पकड़ अन्धेरे में घूमते नन्हें बने बड़के चचा। आश्चर्य नहीं कि कभी कभी वह अकेले ही सरेह में जाने कितनी दूर भटक आता है। वह विलियम ब्लेक की कविताओं और पीता के लोकगीतों में बराबर का रस पाता है।...
... बड़ा हो कर, दो बच्चों का बाप हो जाने के बाद वह एक बार कोणार्क गया। लौट कर आने के बाद उसने पाया कि वह फिर से वही किशोर हो गया है और अब भटकने के लिये ज्ञान के राजमार्ग हैं, समय की गति को झुठलाता अंतर्जाल है और वे पुस्तकें भी हैं जिन्हें खरीदना कभी उसके वश में नहीं था। वह भटकने लगा – इतिहास, साहित्य, पुरातत्त्व, गल्प, स्थापत्य, ज्योतिष, गीत संगीत, पांडुलिपियाँ, सनकी लोग...वह अपने अनुभव और अपनी खोजें लिखने लगा। बड़के चचा तो नहीं रहे लेकिन इस बार अंतर्जाल के चचा ने पूछ लिया:
पतोहू उवाच –
हन्नी हन्ना उई आयें, कचपचिया गई दूर।
का सास हांड़ी ढगढोरू, कांछ-पोंछ गयें घूर।
(रात में बहुत देर हो गयी है। देर से उगने वाले तारे हन्नी हन्ना उग आये हैं और कचपचिया तारामण्डल बहुत ऊपर चढ़ चुका है। सास जी क्या मुझे देने के लिये हांड़ी टटोल रही हो। उसको तो कांछ-पोंछ कर मैं घूरे पर डाल आयी हों।) बहुत ही मार्मिक है सासों द्वारा पतोहू को सताये जाने और भोजन तक ठीक से न देने का दृश्य! :-(
चलो, ढ़ूंढ़ निकालो हन्नी-हन्ना-कचपचिया को!...
... अंग्रेजों ने प्राचीन भारत की तमाम सम्पदाओं और उपलब्धियों को ढूँढ़ निकाला। अंग्रेज/यूरोपीय विद्वानों और धर्मांतरण एजेंटों ने वह काम कर दिखाया जो सदियों से नहीं हुआ था। मैक्समूलर, कनिंघम, जेम्स प्रिंसेप, विलियम जोंस आदि में से कई ने तो अपार कष्ट झेलते हुये अपना जीवन तक होम कर दिया। इस अवधी कहावत में वर्णित तारों और नक्षत्रमंडलों की पहचान के लिये बाइबिल के अवधी अनुवाद से स्पष्ट और लगभग पूर्ण सूत्र मिल जाते हैं। हालाँकि स्वयं प्राचीन हिब्रू भाषा और उसमें वर्णित शब्दों की आधुनिक पहचान के लिये किये जा रहे कर्म अपने आप में वृहद शोध की सामग्री प्रस्तुत करते हैं जो बहुत ही रोचक है लेकिन अपनी आदत के विपरीत मैं अबकी अपने काम से काम रखूँगा J (फिलहाल)।
कचपचिया का वर्णन ओल्ड टेस्टामेंट के प्रकरण जॉब 9:9, अमोस 5:8, अय्यूब 38:31 में मिलता है। पुरानी हिब्रू भाषा में इस तारासमूह का नाम किमा: है। उल्लेखनीय है कि गुच्छे में दिखते इस समूह के लिये बहुवचन विसर्ग (:) का प्रयोग संस्कृत की तरह ही हुआ है। अंग्रेजी अनुवाद करते एक अनुवादक ने seven stars और बाकियों ने Pleiades यानि कृत्तिका (सप्तमातृका) का प्रयोग किया है। वास्तव में इस समूह में अनेकों तारे हैं जिनमें नौ तो थोड़े प्रयास के साथ पहचाने जा सकते हैं और छ:/सात तो एकदम साफ दिखते हैं। इन्हीं संख्याओं को लेकर सात बहनों या छ: मातृकाओं के मिथक गढ़े गये।
पुरानी हिब्रू के सात तारों को लेकर समस्या यह रही कि सप्तर्षि यानि Great Bear और व्याध यानि Hunter तारामंडलों में भी सात सात तारे ही होते हैं लेकिन अन्य सन्दर्भों से यह समस्या सुलझा ली गई। पहले के आलेख में मैं ऋचाओं के दर्शन के समय सप्तमातृका [या छ: कृत्तिकाओं सहित शिवपुत्र कार्तिकेय] के महत्त्व का संकेत दे चुका हूँ।
ईसा से लगभग 2300 वर्षों पहले वर्ष प्रारम्भ का संकेत देता महाविषुव कृत्तिका नक्षत्र के निकट था। नक्षत्र और तारे कृत्तिका की परिक्रमा करते थे। इस कारण उस समूह की सात ललनायें बहुत ही प्रिय थीं और उनकी प्रशंसा में ही ऋषि दीर्घतमा ने ऋचायें गढ़ीं। इस नक्षत्र को लेकर गढ़े गये मिथक पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ते रहे। गाँवों के स्वच्छ और शुद्ध अन्धकार वाले खुले आकाश में कृत्तिकायें बहुत ही सुन्दर और स्पष्ट दिखती थीं – सुन्दर स्त्रियों के समूह जैसी।
उनकी साम्यता किसी भोजपुरी ग्रामबाला ने अपनी झुलनी (नाक का आभूषण) से कर प्यारा सा नाम दिया – झुलनिया।
कृत्तिका शब्द कर्तन यानि काटे जाने वाले अस्त्र की साम्यता से आया है। आकाश में इसका आकार ऐसा ही दिखता है। भोजपुरी में कहते हैं – काटि देहलसि कच्च से! कदाचित ‘कचपचिया’ कृत्तिका और लोकवाणी में काटने की ध्वनि ‘कच्च’ से विकसित हुआ है। विचित्र ही है कि तमिल परम्परा में सात ऋषियों की पत्नियों की प्रतीक कर्तिगइ या वेदों की सात ललनाओं या कार्तिकेय की पालनहारी ममतामयी छ: कृत्तिकाओं की पहचान काट देने वाले यंत्र से की जाय! मिथक और कथायें ऐसे ही गड्डमगड्ड होती हैं।
अंतरिक्ष में कृत्तिका नक्षत्र वृषभ और मेष राशि के बीच में दिखता है।
कृत्तिकाओं का स्वामी देव अग्नि है। ध्यातव्य है कि शिव के तेज को पहले अग्नि ने धारण किया और उसके बाद कृत्तिकाओं ने उसे स्कन्द रूप में पाला पोषा, बड़ा किया। वही स्कन्द अन्धकार प्रतीक असुरों का नाश करने वाला कार्तिकेय हुआ। यह किसी खगोलीय घटना का संकेत है, ठीक वैसे ही जैसे एक खास दिन उगते सूर्य के ठीक पहले वहीं भोर में प्राची दिशा में क्षितिज पर चन्द्र दिखाई देता है। शिव उस सूर्य के प्रतीक हैं जो अपने मस्तक पर चन्द्र को धारण करता है। वह दिन एक पर्व होता है। आप बता सकते हैं कौन सा?
अब जब कि कचपचिया की पहचान कृत्तिका नक्षत्र या छ: कृत्तिकाओं या देहाती झुलनिया या सात बहनों या सप्तमातृकाओं से हो चुकी है तो पता करते हैं कि उस दुखियारी बहू ने या उससे सहानुभूति रखने वाले देवर ने कब उन दो पंक्तियों को रचा होगा?
गाँवों में शारीरिक श्रम जीवन लय को तय करता है। किसान और उनकी घरनियाँ दिन भर या तो बाहर खेत में खटती हैं या डाँड़ गोयँड़ें। दिन भर की थकी शरीर किसी विशेष अवसर के अतिरिक्त रातों में बहुत देर तक नहीं जग सकती। बिजली के प्रकाश की अनुपस्थिति में रातें अधिक करिखही यानि काली और जल्दी गहन हो जाने वाली होती हैं। मवेशियों का डिनर भी साँझ के झुटपुटे के आसपास ही सम्पन्न हो जाता है। उसके बाद बस भोजन कर सो जाना होता है। ऐसे में भोजन मिलने में यदि रात के आठ, नौ बज जायँ तो बहुत बड़ी बात हो जाती है। कुआर(आश्विन, लगभग अक्टूबर) माह से कचपचिया पूरब दिशा में साँझ की बेर अधिक हो जाने पर दिखती है और उसके बाद चढ़ती जाती है। ऐसा दिसम्बर यानि लगभग अगहन मास तक होता रहता है। पूस जाड़ तन थर थर काँपा की स्थिति में आकाश निहारने की सुध नहीं होती। वैसे भी रात में धुन्ध रहती है। कउड़ा (अलाव) के धुयें मारे ठंड के आसमान में लटके रह जाते हैं, तारे साफ नहीं दिखते।
गीत रचने वाली बहू कोठा अमारी में तो रहती नहीं! लेकिन पूरब या पूरब उत्तर के शुभ कोने की ओर मुखातिब अपने फुसौला घर से वृक्षों के ऊपर चढ़ आई कचपचिया को आसमान में देख सकती है। मानुख आँख की ऊँचाई देखने की स्वाभाविक पराश क्षैतिज के ऊपर नीचे मिला 100 अंश के आस पास होती है। उसके बाद देखने के लिये सिर ऊपर उठाना पड़ता है। ‘कचपचिया गई दूर’ तब कहा जायेगा जब कृत्तिका यानि कचपचिया क्षितिज से 50 अंश ऊपर हो।
कातिक या अगहन का महीना है। घर के सभी जन खा पी चुके हैं। रात के आठ नौ बजे बजे तक भी भोजन न मिलने पर कुछ नवेली सी दुल्हन रसोई के बर्तन निहारने गई है। उनमें कुछ न पा मारे क्रोध के छूटा जूठा पोंछ पाछ घूरे पर फेंक आई है। बुजुर्ग सास की पहली नींद टूटी है तो बहू को भोजन देने की सुध आई है लेकिन उसे पता है कि कुछ बचा नहीं, फिर भी रसोई में जा खटर पटर करती है तो बहू मारे झुँझलाहट में कहती है:
हन्नी हन्ना उई आयें, कचपचिया गई दूर।
का सास हांड़ी ढगढोरू, कांछ-पोंछ गयें घूर।
ऐसा संयोग बनता है आज कल के दिनांक 30 नवम्बर को रात में लगभग 8:30 बजे। अपने अपने गाँव के खा पी सुत्ता पर जाने के समय को देखते हुये आप इसे एकाध महीने इधर उधर कर सकते हैं।
देखिये, इस समय अवध क्षेत्र में लखनऊ के आस पास नभ में आकाशगंगा के किनारे कचपचिया की स्थिति। उसके नीचे हैं देवगुरु वृहस्पति। यह दृश्य आज कल भी आकाश में दिखता है। प्रकाश प्रदूषण के बाद भी कल मैं वृहस्पति से साक्षात हुआ। आप भी प्रयास कीजिये।
सप्तमातृकाओं के विपरीत आचरण करने वाली, भावी कृत्तिका के क्षुधा की आग को शांत न करने वाली सास और कचपचिया के दूर जाने के साथ हन्नी हन्ना के उग आने की त्रासदी भी है। हन्नी हन्ना कौन हैं?
आप लोग अनुमान लगाइये। कल मिलते हैं उनकी पहचान के साथ।
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