मंगलवार, 18 अक्टूबर 2016

तुम जाओगे मारुति!

भारत महाकाव्य 75 वर्ष पाये व्यक्ति को ऋषि की संज्ञा देता है। ऋषि अर्थात जो जीवन ऋचा का द्रष्टा हो। वृद्ध का कार्य नयी पीढ़ी को पहचानना, दिशा देना, उत्साहित करना और प्रेरित करना होता है। जो बूढ़े केवल कोसने का काम करें उन्हें मृत ही मानना चाहिये।
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विषण्ण किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में बूढ़े जामवंत कहते हैं – एष संचोदयाम्येनं य: कार्ये साधयिष्यति। अब मैं उसे प्रेरित कर रहा हूँ जो इस कार्य को सिद्ध कर देगा।
हनुमान तुम चुपचाप बैठे हो, बोलते क्यों नहीं? किं न जल्पसि?
गरुड़ का दृष्टांत देते हुये भूली शक्ति का आह्वान करते हैं, जैसे संकेत कर रहे हों,  विनता के पुत्र गरुड़ विष्णु के वाहन हैं और तुम्हारे ऊपर श्रीराम की आशा आरूढ़ है, उठो! बल और वेग में तुम उनसे कम नहीं!!
अरिष्टनेमि: पुत्रो वैनतेयो महाबल:
पक्षर्योयद् बलं तस्य भुजवीर्यबलं तव
विक्रमश्चापि वेगश्च न ते तेनापहीयते
बलं बुद्धिश्च तेजश्च सत्त्वं च हरिपुङ्गव
विशिष्टं सर्वभूतेषु किमात्मानं सज्जसे?
जामवंत जी असाध्य कार्य साधन हेतु गुण गिनाते हैं – बल, वेग, बुद्धि, तेज, सत्त्व और विशिष्ट नवोन्मेषी स्वभाव। हनुमान!  तुममें वह सब है, तुम स्वयं को अभियान हेतु सज्जित क्यों नहीं करते?
बस कहना पर्याप्त नहीं होगा यह सोच हनुमान को उनका पूरा बाल्यकाल बताते पराक्रम गिनाते हैं और समर्पण कर देते हैं:
मैं बूढ़ा हुआ, पराक्रम घट गया और तुम सब गुण सम्पन्न हो।
स इदानीमहं वृद्ध: परिहीनपराक्रम: ... भवान् सर्वगुणान्वित:
पुरानी पीढ़ी को एक समय बागडोर नयी को थमानी पड़ती है। अवसर और सुपात्र की पहचान ऋषि का काम है। जाम्बवान ऋषि हैं।
हनुमान जी से कहते हैं कि हम सभी विक्रांत पराक्रम देखना चाहते हैं – विक्रांत द्रष्टुकामा हि सर्वा वानरवाहिनी
पुन: पुन: प्रेरित करते हैं – उत्तिष्ठ हरिशार्दूल! अंत में विष्णु के तीन पग द्वारा पृथ्वी नापने के पराक्रम की तुलना कर जैसे स्मृति दिलाते हैं – तुम्हारा वह आराध्य तुझमें समर्पण कर बैठा अगोरा में है, उसका और हम सबकी चिंता हरो – विषण्णा हरय: सर्वे!
विक्रमस्व महावेग विष्णुस्त्रीन् विक्रमानिव।
मनोविज्ञान में एक बात कही जाती है – विधायी सुझाव की, Self suggestion.
जामवंत जी उसी का प्रयोग करते हैं। विक्रम शब्द इतनी बार कहते हैं कि हनुमान को प्रबोध और विश्वास हो उठता है:
चोदित: प्रतीतवेग: पवनात्मज: कपि:!
 प्रेरित हनुमान सबका हर्ष बढ़ाते अपना विराट रूप धारण कर लेते हैं – प्रहर्षयंस्तां हरिवीरवाहिनीं चकार रूपं महदात्मनस्तदा

( शेष आगे)         

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