वाल्मीकि जी के यहाँ अनेक शब्द अपने वैदिक और पुराने अप्रचलित
अर्थों में भी प्रयुक्त हुये हैं, शठ उनमें से एक है। सामान्यत: इसका अर्थ दुष्ट, मलिन,
कुटिल बुद्धि वाले मनुष्य के अर्थ में लिया जाता है लेकिन पुरानी संस्कृत में यह
बहुअर्थी है। यह कुछेक उन शब्दों में से है जिनके परस्पर विपरीत लगते अर्थ भी चलते
थे। इसका एक अर्थ बुराई बकने वाला है तो दूसरा अच्छे प्रकार से बोलने वाला भी है। इसका
अर्थ सच होने से भी है। शाठयते होने पर इसका अर्थ प्रशंसा करना, परचित्तानुरंजन करना
होता है।
इस शब्द में
कहीं वह सन्देह भी है जो सीधे साधे अक्खड़ लोग मीठी और चतुराई भरी बातें करने वाले के
प्रति रखते हैं। एक अर्थ कहीं उससे भी है जो बिना लाग लपेट के बात करता है। यह शब्द
हमारी छठी इन्द्रिय की प्रवृत्ति का द्योतक है। संवाद के इतने लक्षण और गुण समोये
इस शब्द का एक अर्थ यदि मध्यस्थ भी है तो आश्चर्य नहीं।
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चित्राभार: https://www.valmiki.iitk.ac.in/ |
हनुमान उन्हें समझाते हैं कि यहाँ वालि से कोई भय नहीं। उलाहना
भी देते हैं कि इस प्रकार प्रतिक्रिया दे कर आप ने वानरोचित चपलता का ही प्रदर्शन किया
है, आप की लघु बुद्धि स्थिर नहीं है:
अहो शाखामृगत्वं ते
व्यक्तमेव प्लवङ्गम।
लघुचित्ततयाऽऽत्मानं न स्थापयसि यो मतौ॥
लघुचित्ततयाऽऽत्मानं न स्थापयसि यो मतौ॥
आप बुद्धि और विज्ञान का आश्रय ले कर दूसरों के मनोभाव
समझें और शासन करें – बुद्धिविज्ञानसम्पन्न इङ्गितै:
सर्वमाचर।
सुग्रीव नहीं मानते। उन्हें शंका है, विश्वासो नात्र हि क्षम:। छ्द्मवेशी शत्रुओं की
पहचान करनी ही चाहिये – विज्ञेयाश्छद्मचारिण:।
कहते हैं उनके पास ‘प्राकृत’ अर्थात सीधे साधे छ्द्मवेश में जाओ। प्राकृत चेष्टा, रूप,
बातचीत आदि विधियों से उन दो आगंतुकों, अनाप्त जनों का परिचय प्राप्त करो – इङ्गितानां प्रकारैश्च रूपव्याभाषणेन च। भाँति भाँति की बातों
से उनके मनोभाव को समझो। उन्हें मेरे अनुकूल करो।
सुग्रीव को इतने से भी संतोष नहीं होता तो कहते हैं उनके
आने का प्रयोजन पूछ ही लेना, कैसे पूछना?
ममैवाभिमुखं स्थित्वा पृच्छ त्वं हरिपुङ्गव।
ममैवाभिमुखं स्थित्वा पृच्छ त्वं हरिपुङ्गव।
मेरी ओर मुँह कर के खड़े हो ताकि मैं भी अनुमान लगा सकूँ।
राजनीति की कहें तो एक बहुत ही महान घटना होने वाली है
जो कि आगे युगांतकारी सिद्ध होगी। भक्तों की सोचें तो भक्त और प्रभु का पहला सदेह
मिलन होने वाला है। ऐसे में वाल्मीकि जी कैसे वर्णन करें कि जो अर्थगढ़ू हो? भिक्षु
रूप बना कर मिलने चले हनुमान जी के लिये वाल्मीकि जी अनूठा शब्द प्रयोग करते हैं –
शठबुद्धितया!
भिक्षुरूपं ततो भेजे शठबुद्धितया कपि:। आधुनिक संस्कृत के विद्वान से
पूछेंगे तो कहेगा कि इसका अर्थ हुआ बहुत ही मक्कार बुद्धि वाला लेकिन आप प्रारम्भ में दिये विश्लेषण
पर ध्यान दें।
हनुमान जी कैसी बानी बोलते हैं? शब्द देखिये - श्लक्ष्णया, सुमनोज्ञया, विनीत, प्रशंसस, सत्यपराक्रमौ
और संशितव्रतौ।
शंका से भीत किसी व्यक्ति की वाणी सुनिये कभी, हर पक्ष
को उड़ेलता चित्त का अनुरंजन करता हुआ बात करता है। हनुमान जी भी वही करते हैं, आप दोनों
देह से क्षत्रिय लगते हैं, वेश व्रती तापसों का है! क्या कहूँ? अच्छा लगे इसलिये पूरक
करते राजर्षि और देवप्रतिमा कहते हैं - राजर्षिदेवप्रतिमौ
तापसौ संशितव्रतौ!
उसके पश्चात ताड़ जाते हैं और ऐसी प्रशंसायें करना
प्रारम्भ करते हैं जो क्षत्रियों को अच्छी लगें। वन के सभी मृगों को त्रास देते
पम्पा सर के किनारे के वृक्षों को निहारते, उसे सुशोभित करते आप दोनों कौन हैं?
कहीं आप देवलोक से तो नहीं पधारे? मृग से कौतुकप्रिय हनुमान जी का संकेत अपने ‘शाखामृग’
स्वामी सुग्रीव की ओर है।
सुग्रीव की शंका भी परोक्ष रूप से कह डालते हैं - आप दोनों तो राज्यश्री भोगने योग्य हैं, इस
दुर्गम वन प्रदेश मैं कैसे आना हुआ?
राज्यार्हावमरप्रख्यौ कथं देशमिहागतौ?
क्षत्रिय को सुहाने वाली जितनी प्रशंसायें हो सकती हैं, कह
डालते हैं लेकिन दूसरी ओर से कोई संकेत नहीं मिलता।
एवं मां परिभाषंतं कस्माद् वै नाभिभाषत:?
ये दोनों कुछ बोलते क्यों नहीं? संकेत क्यों नहीं मिलता?
इसलिये कि श्रीराम को भी तो जानना है कि इस अनजान प्रदेश
में अचानक यह कहाँ से आ टपका? पहले भी बहुत संकट झेले पड़े हैं, कोई नयी तो नहीं आन
पड़ी!
हनुमान जी की शठबुद्धि दूसरी राह लेती
है – बता ही देता हूँ कि मैं कौन हूँ। सुग्रीव का परिचय देते हैं, उनके साथ क्या
घटित हुआ बताते हैं। कहते हैं कि मैं उन्हीं के द्वारा प्रेषित हूँ, मेरा नाम हनुमान है। वानर जाति का हूँ। मेरे स्वामी
आप से मित्रता करना चाहते हैं। मुझे उनका सचिव समझें। मैं जो रूप चाहे बना सकता
हूँ, जहाँ चाहूँ जा सकता हूँ। सुग्रीव का प्रिय करने को भिक्षु रूप बना आप के पास
आया हूँ।
प्राप्तोऽहं प्रेषितस्तेन सुग्रीवेण महात्मना
राज्ञा वानरमुख्यानां हनुमान्नाम वानरः
युवाभ्यां सह धर्मात्मा सुग्रीवः सख्यमिच्छति
तस्य मां सचिवं वित्तं वानरं पवनात्मजम्
भिक्षुरूपप्रतिच्छन्नं सुग्रीवप्रियकाम्यया
ऋष्यमूकादिह प्राप्तं कामगं कामरूपिणम्
नीति पूरी हो गयी। शठता चुक गयी। भक्त
समर्पित हो चुप हो गया! अब तुम्हारे सामने हूँ, यथा योग्यं तथा कुरु। वाल्मीकि जी
लिखते हैं वाणी को जानने वाले हनुमान का कौशल शांत हो गया, पुन: कुछ न बोला।
एवमुक्त्वा तु हनुमांस्तौ वीरौ रामलक्ष्मणौ
वाक्यज्ञौ वाक्यकुशलः पुनर्नोवाच किंचन
संवाद का प्रारम्भ ऐसे मौन से ही
सम्भव है। दोनों पक्षों द्वारा प्रारम्भिक मीमांसा के पश्चात यह विराम आवश्यक है। श्रीराम
भी मानसिक प्रेक्षण और विश्लेषण कर आगे के लिये उद्यत हो उठे हैं। लक्ष्मण से कहते
हैं, ये सचिव हैं, कपीन्द्र हैं और महात्मा हैं। स्वामी के हित की इच्छा से हमारे
पास आये हैं। वाक्यज्ञ अर्थात बात के मर्म को समझने वाले हैं।
हे अरिन्दम! इनसे स्नेह पूर्वक
बात करो - वाक्यज्ञं मधुरैर्वाक्यैः स्नेहयुक्तमरिंदमम्।
शब्द प्रयोग पर ध्यान दें तो
पायेंगे कि उग्रमना लक्ष्मण के लिये अरिन्दम, शत्रुओं का दमन करने वाला सम्बोधन
उन्हें जैसे सतर्क करने के लिये है कि ठीक है कि तुम वीर समर्थ हो लेकिन यह व्यक्ति
शत्रु नहीं लगता इससे स्नेहपूर्वक बात कर समझना होगा।
हनुमान
द्वारा कामग और कामचारिण शब्दों के प्रयोग ने राम को सतर्क कर दिया है, यह व्यक्ति
अद्भुत शक्ति सम्पन्न लगता है, इससे यूँ ही भिंड़ जाना ठीक नहीं, अनुकूल हुआ तो आगे
बहुत काम आयेगा।
इसके पश्चात श्रीराम अपना
प्रेक्षण प्रत्यक्ष कहते हैं जो स्वयं श्रीराम की शिक्षा दीक्षा का भी साक्षी बनता
है:
नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिण:
नासामवेदविदुष: शक्यमेवं विभाषितुं
नासामवेदविदुष: शक्यमेवं विभाषितुं
नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्
बहु व्याहरतानेन न किंचिदपशब्दितम्
जिसे ऋग्वेद की शिक्षा न मिली हो,
जिसने यजुर्वेद को धारण न किया हो, जो सामवेद का ज्ञाता न हो; वह इस प्रकार बात
नहीं कर सकता अर्थात हनुमान तो त्रयी के ज्ञाता प्रतीत होते हैं।
निश्चय ही इन्हों ने व्याकरण का कई
बार श्रुतिसम्मत अभ्यास किया है, इतनी बात किये लेकिन इनके मुख से एक भी अपशब्द
नहीं निकला! (यहाँ अपशब्द का अर्थ गाली नहीं, भदेस उच्चारण और प्रयोग से है)
अविस्तरमसंदिग्धमविलम्बितमव्ययम्
उर:स्थं कण्ठगं वाक्यं वर्तते मध्यमस्वरम्
संस्कारक्रमसम्पन्नामद्भुतामविलम्बिताम्
उच्चारयति कल्याणीं वाचं हृदयहर्षिणीं
अनया चित्रया वाचा त्रिस्थानव्यञ्जनस्थया
कस्य नाराध्यते चित्तमुद्यतासेररेरपि
इनकी वाणी हृदय में मध्यमारूप में
अवस्थित है, कण्ठ से वैखरी रूप में प्रकट होती है। प्रवाही है, तोड़ मरोड़ नहीं, बहुत
ही सधावट है। ध्वनि न ऊँची है और न नीची, मध्यम है।
संस्कार, क्रम और अविलम्बित कल्याणमयी
वाणी इनकी विशेषता है। हृदय, कण्ठ और मूर्धा तीनों स्थानों द्वारा स्पष्ट रूप से
अभिव्यक्त होने वाली इनकी इस विचित्र वाणी से किसका चित्त न प्रसन्न होगा! आघात
करने को उद्यत शत्रु का हृदय भी यह वाणी परिवर्तित करने में सक्षम है।
आगे श्रीराम निषेधप्रशंसा करते
हैं – जिस राजा के पास इनके समान दूत न हो, उसके कार्यों की सिद्धि कैसे हो सकती
है? अर्थात नहीं हो सकती है। जिसके कार्यसाधक दूत ऐसे उत्तम गुणों से युक्त हों,
उस राजा के सभी मनोरथ दूतों की बातचीत से ही सिद्ध हो जाते हैं।
यह सब कह कर श्रीराम ने हनुमान जी
को भी संकेत दे दिया कि मैं इस योग्य हूँ कि तुम मेरे दूत बन सको।
यह कथन भविष्य के ‘रामदूत हनुमान’
की भूमिका है:
एवंविधो यस्य दूतो न भवेत् पार्थिवस्य तु।
सिद्धय् न्ति हि कथं तस्य कार्याणा गतयोऽनघ॥
एवंगुणगणैर्युक्ता यस्य स्यु: कार्यसाधका:।
एवंगुणगणैर्युक्ता यस्य स्यु: कार्यसाधका:।
तस्य सिद्धय् न्ति सर्वेऽर्था दूतवाक्यप्रचोदिता:॥
छ्द्म प्राकृत रूप से संस्कृत वाणी
प्रशंसा तक का यह ‘पहली भेंट’ प्रकरण मनन करने वालों के लिये बहुत ही कल्याणकारी
है।
॥स्वस्ति॥
आनंदित भये।
जवाब देंहटाएंआर्य हम तो इसे पढ़ के ही भाव विह्वल हो गए। अहा मिलन कितना अद्भुत रहा होगा।
जवाब देंहटाएंभावमय अति सुन्दर ....
जवाब देंहटाएंaap shayad abhi chennai mai hai kya konark jaisi sharnkhla minakshi mandir ramrshwaram or tanjavur pe padhnr ki icha putn karenge
जवाब देंहटाएंआनंद आ गया।
जवाब देंहटाएंआर्य, गदगद कर दिया इस लेख से।
जवाब देंहटाएंअति सुंदर व ज्ञानपूर्ण
जवाब देंहटाएंगद्गदितोऽहम्।
जवाब देंहटाएंअति सुंदर!
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