शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2016

मैनाक! प्रतिज्ञा च मया दत्ता [सुंदरकाण्ड - 3]

जीवन की भारतीय संकल्पना त्रिदेव, त्रिगुण, त्रिदोष संतुलन और त्रि पुरुषार्थ के पथ चलते अनंत से एकाकार होने या मोक्ष प्राप्त करने की रही है। काल के तीन आयामों में विचरित चेतना इनसे ही अनुशासित होती है। ऋग्वेद में भी  तिस्रो देवियाँ मही, इळा और सरस्वती बीज रूप में हैं और समस्त ऋषिकुलों के आह्वान मंत्रों में रची बसी हैं:
आ भारती भारतीभि: सजोषा इळा देवैर्मनुष्येभिरग्नि:।
सरस्वती सारस्वतोभिरर्वाक् तिस्रो देवीर्बर्हिरेदं सदंतु॥  
(वसिष्ठ, विश्वामित्र)
भारतीळे सरस्वति या व: सर्वां उपब्रुवे। ता नश्चोदयत श्रिये॥ 
(अगस्त्य मैत्रावरुणि)
इसी क्रम में तीन नाड़ियों पिंगला, इड़ा और सुषुम्ना पर भी ध्यान चला जाता है।    
बिना बँधे अनासक्त कर्म चरम आदर्श है, सत है। उसका मार्ग रजस से है जो कि दोषयुक्त होने पर भी वरेण्य है। रजस तत्त्व तमस वृत्ति से उठान है। परिवेश से सद् प्रेरणा, तुलना, प्रतिद्वन्द्विता, कठिन कर्म आदि रजोगुण के लक्षण हैं। रजोगुणी होना सर्वसाधारण के लिये भी सरल है। निष्क्रिय तमस को ही सतोगुण मान बैठे भारत हेतु विवेकानन्द ने इसीलिये कभी रजोगुण का आह्वान किया था। युवकों के लिये वे हनुमत् आदर्श ही चाहते थे – नि:स्वार्थ, बली, पराक्रमी और पूर्णत: समर्पित।   
     
कर्म के पथ त्रिगुण अर्थात सत्, रजस और तमस परीक्षायें आती ही हैं। अनजान और भयङ्कर तमसकेन्द्र लङ्का में वायुपुत्र को आगे अग्नि को भी साधना था, परीक्षाओं से कैसे छूट जाते?
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 पितरों के शुभकर्म संतति के लिये सुभीते हो जाते हैं। आदिकवि सागर और पर्वत दोनों का मानवीकरण करते हैं। वज्रांग हनुमान के अभियान हित सागर का कृतज्ञ भाव मूर्तिमान हो उठा। उसने अपने भीतर स्थित  मैनाक पर्वत से कहा,”हनुमान श्रीराम के हित इतने उत्कट अभियान पर निकले हैं। श्रीराम के पूर्वज सगर ने मेरी अभिवृद्धि की थी, कृतज्ञता कहती है कि इतने लम्बे पथ पर मुझे इस कपि को विश्राम प्रदान करना चाहिये। अहमिक्ष्वाकुनाथेन सगरेण विवर्धित: ... तथा मया विधातव्यं विश्रमेत यथा कपि:। पानी से ऊपर हो - सलिलादूर्ध्वमुत्तिष्ठ तिष्ठत्वेष कपिस्त्वयि!” 
मैनाक ऊपर हो आया।
 नि:स्वार्थ भाव से रामकाज करने को कभी तैरते और कभी अंतरीप छलाँग भरते जाते मारुति को पथ में विशाल मैनाक पर्वत अड़ा दिखा – दृष्टिपथ बाधित और मार्ग अवरुद्ध।

कृतज्ञता से उपजी थी, सतोगुणी थी किंतु जिस अभियान को बिना रुके पूरा करने की प्रतिज्ञा थी, उसके लिये तो विघ्न बाधा ही थी - विघ्नोऽयमिति निश्चितः।  मारुति ने इस विघ्न पर अपने वक्ष से आघात कर गिरा दिया – महावेगो महाकपि: ... उरसा पातयामास जीमूतमिव मारुत:
सतोगुणी परीक्षा लेते हैं, सफल होने पर हर्षित हो उत्साह वर्द्धन करते हैं। कवि लिखते हैं कि पर्वत प्रसन्न हो गया - बुद्ध्वा तस्य कपेर्वेगं जहर्ष च ननन्द च
 वह मानव रूप में आ गया। समानधर्मा उत्प्रेरण हुआ, मैनाक की स्मृति जीवंत हो उठी -  पुराकाल में पर्वतों के पंख थे, उड़ते विशाल पिण्डों से जनता भयभीत होती थी - भयं जग्मुस्तेषां, क्रुद्ध हो इन्द्र ने उनके पंख काट दिये किंतु मुझे वायुदेवता ने बचा लिया था। उनके पुत्र का सम्मान तो करना ही चाहिये।  

हे हनुमान! उपकार के लिये प्रत्युपकार सनातन धर्म है। ऐसी मति वाले इस समुद्र की इच्छा का आप को सम्मान करना चाहिये। मेरे शिखर पर ठहर थोड़ा विश्राम कर लीजिये। ये सुस्वादु सुगन्धित कन्द, मूल और फल हैं। इन्हें ग्रहण करने के पश्चात आगे प्रयाण कीजिये।
कृते च प्रतिकर्तव्यमेष धर्मः सनातनः
सोऽयं तत्प्रतिकारार्थी त्वत्तः संमानमर्हति
...
तव सानुषु विश्रान्तः शेषं प्रक्रमतामिति
तिष्ठ त्वं हरिशार्दूल मयि विश्रम्य गम्यताम्
तदिदं गन्धवत्स्वादु कन्दमूलफलं बहु
तदास्वाद्य हरिश्रेष्ठ विश्रान्तोऽनुगमिष्यसि
 धर्मानुरागी के लिये तो साधारण अतिथि भी पूजा का पात्र होता है। आप जैसे महान अतिथि के लिये क्या कहूँ?
अतिथिः किल पूजार्हः प्राकृतोऽपि विजानता
धर्मं जिज्ञासमानेन किं पुनर्यादृशो भवान्

हनुमान जी शीघ्रता में थे। उन्हों ने उत्तर दिया – आप के इस प्रिय प्रस्ताव से ही आतिथ्य हो गया, (मेरे न रुकने के कारण) कोई लाग डाँट न रखियेगा। मुझे शीघ्रता से यह कार्य पूरा करना है और दिन बीता जा रहा है। मैं प्रतिज्ञाबद्ध हूँ कि जब तक कार्य पूरा नहीं कर लूँगा, रुकूँगा नहीं। (नहीं रुक सकता, क्षमा कीजिये।)    
प्रीतोऽस्मि कृतमातिथ्यं मन्युरेषोऽपनीयताम्
त्वरते कार्यकालो मे अहश्चाप्यतिवर्तते
प्रतिज्ञा च मया दत्ता न स्थातव्यमिहान्तरा

ऐसा कह कर पर्वत को मान सा देते हुये हनुमान जी ने उसका हाथ से स्पर्श किया और आगे बढ़ गये।
इत्युक्त्वा पाणिना शैलमालभ्य हरिपुंगवः


... सतोगुणी बाधा के लिये तो स्पर्श भर सम्मान ही पर्याप्त था। आगे देवों द्वारा आयोजित रजोगुणी परीक्षा प्रतीक्षा में थी। 

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