बुधवार, 19 अक्टूबर 2016

मैं हूँ न! अहं द्रक्ष्यामि वैदेहीं

कुछ कथायें या गाथायें चिरजीवी क्यों हो जाती हैं? कई कारणों में से एक यह भी है कि वे जीवन के शाश्वत सत्यों की कोष होती हैं। जन उनमें अपनी उच्चकामा प्रज्ञा को आश्रय दे पाते हैं। ऐसी गाथायें जातीय संस्कार का अंग हो परिष्कार भी करती हैं। जो साधारण कार्यव्यापार हैं उनसे ऊपर, बहुत ऊपर तक पहुँचा देती हैं, आत्मविभूतियोग के स्तर तक।
आल्हा हो, लोरिकाइन हो, रासो हों या प्राचीन महाकाव्य; सबमें ऐसे प्रसंग मिलते हैं जो ऊर्ध्वरेता चेतना की चरम अभिव्यक्ति होते हैं।
आधुनिक काव्य ‘राम की शक्ति पूजा’ में श्रीराम के आँसू देख हनुमान की प्रतिक्रिया देखिये:
"ये अश्रु राम के" आते ही मन में विचार,
उद्वेल हो उठा शक्ति खेल सागर अपार,
हो श्वसित पवन उनचास पिता पक्ष से तुमुल
एकत्र वक्ष पर बहा वाष्प को उड़ा अतुल,
शत घूर्णावर्त, तरंग भंग, उठते पहाड़,
जलराशि राशिजल पर चढ़ता खाता पछाड़,
तोड़ता बन्ध प्रतिसन्ध धरा हो स्फीत वक्ष
दिग्विजय अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष,
शत वायु वेगबल, डूबा अतल में देश भाव,
जलराशि विपुल मथ मिला अनिल में महाराव
वज्रांग तेजघन बना पवन को, महाकाश
पहुँचा, एकादश रूद क्षुब्ध कर अट्टहास।
भगवद्गीता का आत्मविभूति हो या दिव्य रूप, चेतना का वही आयाम है।
कहते हैं कि विश्वामित्र के पिता पितर गाधि या गाथिन का सम्बन्ध भी गाथाओं से ही है। रामकथा में वह मंत्रद्रष्टा ऋषि परम्परा मनुजता और ऐश्वर्य के बीच सेतु का कार्य करती है  और आगे के लिये मार्ग प्रशस्त कर देती है।
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 जामवंत जी के प्रेरणा भरे शब्द सुन कर हनूमंतं महाबलं रामकाज सम्पन्न करने को उद्यत हो अपनी देह बढ़ाने लगे। देह बढ़ाना क्या है? आत्मबल का दैहिक सीमाओं का अतिक्रमण। कोई चिंता नहीं, कोई संशय नहीं बल्कि अपने ही बल का स्मरण करते हर्ष भी है – हर्षाद् बलमुपेयिवान्। आत्मविभूति का साक्षात्कार होता है, कहते हैं अयुतं योजनानां तु गमिष्यामीति में मति:, सौ योजन की कौन कहे, मैं तो अयुत योजन को भी पार कर जाऊँगा। मैं हूँ न! तुम सभी निश्चिन्त रहो, मैं वैदेही के दर्शन अवश्य करूँगा, मोद मनाओ - अहं द्रक्ष्यामि वैदेहीं प्रमोदध्वं प्लवंगमाः।
वाल्मीकि जी शब्दों के संयोजन से तुल्य प्रभाव का सृजन करते हैं:
अम्बरीषोपमं दीप्तं विधूम इव पावकः
हरीणामुत्थितो मध्यात्संप्रहृष्टतनूरुहः ...
अरुजन्पर्वताग्राणि हुताशनसखोऽनिलः
बलवानप्रमेयश्च वायुराकाशगोचरः
तस्याहं शीघ्रवेगस्य शीघ्रगस्य महात्मनः
मारुतस्यौरसः पुत्रः प्लवने नास्ति मे समः
उत्सहेयं हि विस्तीर्णमालिखन्तमिवाम्बरम्
मेरुं गिरिमसंगेन परिगन्तुं सहस्रशः
बाहुवेगप्रणुन्नेन सागरेणाहमुत्सहे
समाप्लावयितुं लोकं सपर्वतनदीह्रदम्
ममोरुजङ्घावेगेन भविष्यति समुत्थितः
संमूर्छितमहाग्राहः समुद्रो वरुणालयः
...
सागरं क्षोभयिष्यामि दारयिष्यामि मेदिनीम्
पर्वतान्कम्पयिष्यामि प्लवमानः प्लवंगमाः
हरिष्ये चोरुवेगेन प्लवमानो महार्णवम्
...
महामेरुप्रतीकाशं मां द्रक्ष्यध्वं प्लवंगमाः
दिवमावृत्य गच्छन्तं ग्रसमानमिवाम्बरम्
विधमिष्यामि जीमूतान्कम्पयिष्यामि पर्वतान्
सागरं क्षोभयिष्यामि प्लवमानः समाहितः
...
निमेषान्तरमात्रेण निरालम्भनमम्बरम्
सहसा निपतिष्यामि घनाद्विद्युदिवोत्थिता
...
अयुतं योजनानां तु गमिष्यामीति मे मतिः
वासवस्य सवज्रस्य ब्रह्मणो वा स्वयम्भुवः
विक्रम्य सहसा हस्तादमृतं तदिहानये
 मैं समस्त ग्रह नक्षत्रादि को लाँघ सकता हूँ, चाहूँ तो समुद्र सोख लूँ, पृथ्वी विदीर्ण कर दूँ, पर्वतों को चूर कर दूँ ...
स्यात निराला जी की प्रेरणा यह संयोजन रहा होगा। 
अनुवाद में सौन्दर्य नष्ट हो जाता है, इन अनुष्टुपों का सस्वर पाठ उस वातावरण का अनुमान करा देता है जिसमें मनुष्य देह से परे जा वज्रांग और अप्रतिहत हो जाता है।

...देह सिकोड़ कर महाबली छलाँग लगाने को उद्यत हैं। ऊर्जस्वित मारुति का प्रभाव परिवेश पर भी है –
... त्यज्यमानमहासानु: संनिलीनमहोरग:
शैलशृङ्गशिलोत्पातस्तदाभूत् स महागिरि:
बड़े बड़े सर्प बिलों में छिप गये, पर्वत के शिखरों से बड़ी बड़ी शिलायें टूट टूट गिरने लगीं, पर्वत बड़ी  दुरवस्था में पड़ गया।
मन में केवल लक्ष्य ही दिख रहा था। कवि कहते हैं, महानुभाव मनस्वी ने मन ही मन लङ्का का स्मरण किया:
मन: समाधाय महानुभावो, जगाम लङ्का मनसा मनस्वी!

॥इति किष्किन्धाकाण्ड॥
(आगे सुन्दरकाण्ड)  

6 टिप्‍पणियां:

  1. जानते हुए भी कि कविता ही तो है,हर बार आल्हा सुनते हुए प्रत्येक श्रौता की भुजाएं फड़कने लगती हैं।
    हमारे प्राचीन काव्य की तो बात ही निराली है। आदिकवि से तुलसी बाबा तक, आँखो के आगे सजीव चित्र खींच देते हैं। यह कविता है अथवा पटकथा, निर्णय कठिन है।

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