रविवार, 16 अक्टूबर 2016

हनुमंस्तथा कुरुष्व


हनुमान जी को सीता अन्वेषण हेतु विदा करते श्रीराम जी के अंतिम उद्गार ये थे: 
 अतिबल बलमाश्रितस्तवाहम्,
हरिवर विक्रम विक्रमैरनल्पै:।  
पवनसुत यथाधिगम्यते सा, 
जनकसुता हनुमंस्तथा कुरुष्व॥

समर्पण की सर्वोच्च अवस्था में भक्त आराध्य से कहता है - सब छोड़ कर तुम्हारी शरण हूं, मेरे लिए जो तुम्हें योग्य लगे करो! यथा योग्यं तथा कुरु! 
क्यों न कहे? द्वापर में कह गये न - सर्व धर्मान परित्यज्य मामेकं शरणम् व्रज
यहाँ त्रेता में अद्भुत क्षण है। आराध्य स्वयं भक्त को समर्पित हो रहा है। राघव ने सब कुछ हनुमान पर छोड़ दिया है,
”हे परम बलशाली! मैं तुम्हारे बल के सहारे हूँ। हे अमित विक्रमी वानर! हे पवनसुत! तुम्हारा कोई भी पराक्रम अल्प नहीं होता। जिस प्रकार भी जनकसुता का उद्धार हो सके, करो। जाओ हनुमान,
यथाधिगम्यते ... तथा कुरु!”
आराध्य का समर्पण और सीता देवी का वात्सल्य, क्रमश: लङ्का प्रवेश और निर्गम के समय हनुमान जी के कवच बन गये। 

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