सोमवार, 31 अक्टूबर 2016

गच्छ सौम्य यथासुखम् [सुंदरकाण्ड - 4]


महर्षि कहते हैं कि हनुमान जी द्वारा मैनाक को इस प्रकार पार करना उनका दूसरा दुष्कर कर्म था – द्वितीयं हनुमत्कर्म दृष्ट्वा तत्र सुदुष्करम्। सागर को पार कर शत्रु क्षेत्र के अत्यंत अपरिचित, हिंस्र और दुर्जेय लङ्का में प्रवेश का निर्णय ले छलाँग भरना पहला दुष्कर कर्म था:
रामार्थं वानरार्थे च चिकीर्षन् कर्म दुष्करम्।
समुद्रस्य परं पारं दुष्प्रापं प्राप्तुमिच्छति॥

परीक्षा अभी पूर्ण नहीं हुयी थी - लङ्का पुरी में तो इच्छा अनुसार रूप धारण करने वाले कामरूपियों से पाला पड़ेगा जो कि भय के साथ बुद्धि को भी चुनौती देंगे, मारुति क्या उनसे पार पा सकेंगे?
राक्षसों से पीड़ित देव, गन्धर्व, सिद्ध और महर्षि; ये चार मिल कर नागमाता सुरसा के पास गये – मारुति के मार्ग में मुहुर्त भर के लिये विघ्न डाल दो। भय उत्पन्न करने वाली राक्षसी का भयंकर रूप बनाओ – द्रंष्टाकरालं पिङ्गाक्षं वक्त्रं कृत्वा नभ:स्पृशम्! हम सब पुन: मारुति के बल और पराक्रम को जानना चाह रहे हैं को संकट के समय ये उपाय कर तुम्हें जीतने के लिये कार्य करेंगे या विषाद में पड़ जायेंगे – त्वां विजेष्यत्युपायेन विषादं वा गमिष्यति?

राक्षसों की अजेयता का इतना आतङ्क था कि श्रीराम हित उनका भी कार्य सम्पन्न करने जा रहे मारुति को वे सभी ठोंक पीट कर परीछ लेना चाहते थे – आगे की सम्भावित दारुण परिणति से अच्छा है कि अभी निर्णय हो जाय। उन्हें केवल अपनी पड़ी है। पिटी पिटायी परिस्थिति में स्वयं अभियान न कर किसी अन्य उद्योगी को परीक्षित करना उसके लिये रजोगुणी बाधा उत्पन्न करना है। स्थैतिक बल और गतिक पराक्रम की पर्याप्तता जाँचना रजस है।
सुरसा अर्थात सुर-सा। नागमाता हैं किंतु उन चार के वर्गहित में पीड़ित नागों का भी हित देख कर नागमाता सहमत हो गयीं, रजोगुणी का यह भी एक लक्षण है। वह भयङ्कर रूप धारण कर पथ में अड़ गयीं - विकृतं च विरूपं च सर्वस्य च भयावहम्!

हनुमान! देवताओं ने तुम्हें भक्ष्य बता मुझे अर्पित कर दिया है। मैं तुम्हें खाऊँगी, मेरे मुख में प्रवेश करो। यहीं पर नहीं रुकीं, कहा कि यह तो मुझे पुराना ब्रह्म वरदान है – वर एष पुरा दत्तो मम! सुजन वरदानों के भ्रष्ट उपयोग और उनसे निवृत्ति के उदाहरण पूरी रामायण में व्याप्त हैं। विशिष्ट के विरुद्ध साधारण किंतु अप्रतिहत मानवीयता की अंतत: विजय ही तो रामाख्यान है। इस महत्त्वपूर्ण घड़ी भी उसे उपस्थित होना ही था। (आगे लङ्का में भी ऐसी स्थिति आनी है जहाँ दैहिक बल और पराक्रम से अधिक बुद्धि उपयुक्त होगी। महाकाव्य की विशेषता इसमें है कि मानवीयता को दृढ़ खड़ा रखता है - देखते हैं। सब कुछ जान समझ कर ‘देखी जायेगी’ कह कर उद्यत होने वाला रजस भाव यहाँ प्रतिष्ठित है।)    

मारुति ने धैर्य धारण किया, भयभीत तो हुये ही नहीं। प्रसन्नमुख अपना पक्ष निवेदित किये – प्रहृष्टवदनोऽब्रवीत्। राक्षसों से तो राम का भी वैर है और उनकी यशस्विनी पत्नी का हरण रावण ने कर लिया है – सीता हृता भार्या रावणेन यशस्विनी। अर्थात श्रीराम वैरी के वैरी हैं और पीड़ित स्त्री को मुक्त करना चाहते हैं, तुम तो राम की प्रजा भी हो। माता! ऐसे में तुम्हें तो उनकी सहायता करनी चाहिये – कर्तुमर्हसि रामस्य साह्यं विषयवासिनी। (उल्टे बाधा डाल रही हो?)

ध्यान देने योग्य है कि सीता यशस्विनी हैं, वनवास के वर्ष उन्हों ने ऐसे ही नहीं बिता दिये थे। राम के अभियान का जनपक्ष यहाँ भी उद्धृत है। नाग भी उनके विषयवासी प्रजा थे और वे भी राक्षसों से पीड़ित थे। अभियान साधारण नहीं था।

मारुति ने विकल्प भी दे दिया। मैथिली का दर्शन कर श्रीराम जी से मिल लूँगा तब तुम्हारे पास आ जाऊँगा, यह मेरा सत्यवचन है – आगमिष्यामि ते वक्त्रं सत्यं प्रतिशृणोमि ते, अभी तो जाने दे माँ! राजन्य वर्ग में वचन की बड़ी प्रतिष्ठा थी। इक्ष्वाकु कुल तो प्रसिद्ध ही था। मारुति ने यह कह स्मृति सी दिलायी कि मैं रघुवंशी राम का दूत हूँ, तुम्हें मेरे वचन को मान देना ही चाहिये।

राजा, प्रजा, कुल, वचन-प्रतिष्ठा, स्त्री पीड़ा आदि सबको मिला कर स्थिर प्रसन्न बुद्धि से मारुति ने जो संवाद किया उससे उनकी बुद्धिमत्ता प्रमाणित हो गयी लेकिन सुरसा को तो हनुमान की क्षमता भी जाननी थी – बलं जिज्ञासमाना, उसे युक्ति पूर्वक प्रयोग में ला भी सकता है या नहीं, यह भी तो जानना है।

माता ने मुख फैला दिया – तुम्हें तो मेरे मुख में प्रवेश कर के ही आगे जाना होगा, मेरी अवहेलना कर कोई आगे नहीं बढ़ सकता! निविश्य वदनं मेऽद्य गंतव्यं वानरोत्तम

हनुमान और उनमें होड़ सी लग गयी – वे मुख फैलाती गयीं, हनुमान भी बढ़ते गये। सीमा समझ हनुमान ने अपना आकार अंङ्गूठे के बराबर कर लिया, मुख में प्रवेश कर बाहर निकल नमस्कार मुद्रा में खड़े हो गये – दाक्षायणि! तुम्हें नमन है। अब तो तुम्हारा वर भी सत्य हो गया, मैं तुम्हारे मुख में प्रवेश कर बाहर जो आ गया। मैं अब वहाँ जाऊँगा जहाँ वैदेही हैं। (विद्वानों ने दाक्षायणि का अर्थ दक्ष पुत्री किया है। नागमाता का दक्ष पुत्री होना एक अलग विषय है।)

रजोगुणी परीक्षा पूर्ण हुई, बलबुद्धिनिधान हनुमान सफल हुये। आश्वस्त माता ने प्रकृत रूप धारण कर उन्हें आशीर्वाद दिया:
अर्थसिद्ध्यै हरिश्रेष्ठ गच्छ सौम्य यथासुखम्
समानय च वैदेहीं राघवेण महात्मना
हे हरिश्रेष्ठ! वांछित कार्यसिद्धि के लिये सुख पूर्वक जाओ। हे सौम्य! वैदेही को राघव से शीघ्र मिलाओ।

हमुमान जी द्वारा यह तीसरा दुष्कर कार्य सम्पन्न हुआ - तत्तृतीयं हनुमतो दृष्ट्वा कर्म सुदुष्करम्

... तमस परीक्षा आगे थी।  

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