भारतीय
वैचारिकी में कवि द्रष्टा होता है। नारेबाजी, दार्शनिक अपच, सुर ताल छ्न्द समास
हीनता आदि आदि के टूटे बन्ध लिखने वाले चाहे जो हों, कवि नहीं हैं। एक कवि वर्ण्य विषय
के मार्मिक स्थल पहचानता है और वहाँ वह रचता है जिसकी भावभूमि सामान्यता से ऊँचाई
की ओर ले जाती है। कवि कर्म नश्वर और ईश्वर के बीच पसरा वह संसार है जिसमें मानवीय
चेतना अपने लिये अमृत संगीत पाती है।
यह केवल संयोग नहीं कि भारतीय इतिहास महाकाव्यों का रूप लिये हुये है। हमारा इतिहास लिखने का ढंग अनूठा रहा जिसे पश्चिमी आलोचक ‘इतिहास
बोध शून्यता’ कहते रहे हैं। हमारे पुरखों के लिये इतिहास चौकी की बही कभी नहीं रहा
जिसमें दिनांक सहित आगम निर्गम लिखे जाते हों, ऐसा करना इतिहास से उसकी जीवनशक्ति छीन
उसे एक स्मारक में परिवर्तित कर देना होता जो कि नश्वर होता, क्षरित होता और एक
दिन काल के गाल में ऐसे समा जाता कि उसकी स्मृति भी नहीं रहती!
हमारा
इतिहास जड़ शिलालेख नहीं, दैनन्दिन कर्म और पीढ़ी दर पीढ़ी मेधा में अंकित जीवन थाती रहा।
हमारा लिये इतिहास तरल प्रवाही रहा जो सहस्राब्दियों तक अपने को घटनाओं, व्याख्याओं
और आख्यानों से परिपूरित करता रहा। रामायण वही इतिहास है।
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मारुति के अंग सिकोड़ छलाँग लगाने के उद्योग की प्रतिक्रिया में अभूतपूर्व घटित होते हैं। अतिशयोक्तियाँ
और घटनायें एक दूसरे में समाती दिखती हैं। कवि बिम्बों की झड़ी लगा देते हैं!
पर्वत
से जल स्राव होने लगा है जैसे गजराज के कुंभस्थल से मद बह रहा हो – सम्प्रसुस्राव मदमत्त इव द्विप:! शिलायें ऐसे गिर रही हैं जैसे मध्यम अग्नि से धुआँ
निकल रहा हो, अद्भुत शब्दवल्लरी है – शिला:
शैलो विशाला: समन: शिला:, मध्यमेनार्चिषा जुष्टो धूमराजीरिवानल:।
भयभीत
जीव जंतु गुफाओं में प्रवेश करते हैं, निकलते हैं, अतुल कोलाहल है। पर्वत के सर्प
क्रुद्ध हो शिलाओं को डँसने लगे हैं, विष इतना प्रबल है कि आग लग जाती है, विषयुक्त आग
ऐसी है कि पर्वतीय औषधियाँ भी शमित नहीं कर पातीं – विषघ्नान्यपि नागानां न शेकु: शमितुं विषम्।
तपस्वी
भाग चले, भयभीत विद्याधर अपने आमोद प्रमोद छोड़ स्त्रीगण के साथ आकाश में चले गये
और विस्मित हो वज्रांग को देखने लगे। रोंये झाड़ते महाकाय कपि कवि के शब्द
संयोजन को ही रूप देते नाद करने लगे – रोमाणि
चकम्पे .. ननाद च महानादं सुमहानिव, दर्शकों
के रोंगटे खड़े हो गये।
क्या
है वह महानाद? मूर्तिमान आत्मविश्वास है:
न हि द्रक्ष्यामि यदि तां लङ्कायां जनकात्मजाम्
अनेनैव हि वेगेन गमिष्यामि सुरालयम्
यदि वा त्रिदिवे सीतां न द्रक्ष्यामि कृतश्रमः
बद्ध्वा राक्षसराजानमानयिष्यामि रावणम्
सर्वथा कृतकार्योऽहमेष्यामि सह सीतया
आनयिष्यामि वा लङ्कां समुत्पाट्य सरावणाम्
यदि
लङ्का में जानकी नहीं मिलीं तो सुरालय जाऊँगा, यदि वहाँ भी नहीं मिलीं तो रावण को
बाँध कर लाऊँगा। सीता के साथ सर्वथा कृतकृत्य हो कर लौटूँगा अथवा रावण सहित लङ्का को
ही उखाड़ लाऊँगा। कपि ने इस वज्र विश्वास से भर छलाँग भरी। प्रचण्ड वेग के कारण वृक्ष
उखड़ कर साथ हो चले।
शुभकर्म
है, पुरुष के साथ प्रकृति चलायमान हो गयी है। पेंड़ पौधे, पुष्प लतायें आदि उनके पीछे
पीछे ऐसे जा रहे हैं मानों दूर देश जाते सुहृद बन्धु को विदा दे रहे हों! - प्रस्थितं दीर्घमध्वानं स्वबन्धुमिव बान्धवाः। कुछ दूर चल कर मुक्त हो वैसे ही जल में आ जाते हैं जैसे
सुहृद बिदाई देने के पश्चात लौट रहे हों! सलिले
निवृत्ता: सुहृदो यथा।
छ्लाँग
मार वायुमार्गी होते तो कभी तैरते महाकाय मारुति में वह सब कुछ था जो द्यौ और
पृथ्वी की भिन्नता को तितर बितर कर ऐसे तरल बिम्ब रचे जाने की प्रेरणा देता था
जिसमें सागर और अम्बर एक हो जायँ और आदि कवि ने वही किया। कहाँ आकाश, कहाँ सागर, मारुति
के उद्योग ने तो अपना ही संसार रच दिया है!
ताराचितमिवाकाशं प्रभवौ स महार्णव:
पुष्पौघेण सुगन्धेन नानावर्णेन वानर:
बभौ मेघ इवोद्यन् वै विद्युद्गणविभूषित:
ताराभिरभिरामाभिरुदिताभिरिवाम्बरम्
तस्याम्बरगतौ बाहू ददृशाते प्रसारितौ
पर्वताग्राद्विनिष्क्रान्तौ पञ्चास्याविव पन्नगौ
पिबन्निव बभौ चापि सोर्मिजालं महार्णवम्
पिपासुरिव चाकाशं ददृशे स महाकपिः
तस्य विद्युत्प्रभाकारे वायुमार्गानुसारिणः
नयने विप्रकाशेते पर्वतस्थाविवानलौ
पिङ्गे पिङ्गाक्षमुख्यस्य बृहती परिमण्डले
चक्षुषी संप्रकशेते चन्द्रसूर्याविव स्थितौ
मुखं नासिकया तस्य ताम्रया ताम्रमाबभौ
संध्यया समभिस्पृष्टं यथा सूर्यस्य मण्डलम्पा...
उपरिष्टाच्छरीरेण च्छायया चावगाढया
सागरे मारुताविष्टा नौरिवासीत् तदा कपि: ...
तस्य वेगसमुद्घुष्टं जलं सजलदं तदा
अम्बरस्थं विबभ्राजे शरदभ्रमिवाततम्
तैरते
पुष्प पल्लव आदि से समुद्र वैसे ही शोभित है जैसे तारों से खचित आकाश हो। विविध पुष्पों
से अलंकृत हो उठते वानरशिरोमणि ऐसे लग रहे हैं जैसे उमड़ता मेघ हो। तैरते समय भुजायें
जब फैलती सिकुड़ती हैं तो लगता है जैसे किसी पर्वत शिखर से पाँच मुख वाले नाग निकल
आये हों। महाकपि तो जैसे तरङ्गमालाओं सहित महासागर और आकाश दोनों को पी लेना चाह
रहे हैं। छलाँग भरते वायुमार्गी की आँखें ऐसे दहक रही हैं जैसे बिजलियाँ चमक रही
हों, जैसे सागर मथते इस पर्वत पर दो स्थानों पर आग लग गई हो!
पिङ्गल नेत्र वाले मारुति की आँखें ऐसी हैं जैसे आकाश में सूर्य चन्द्र साथ साथ प्रकाशित हो रहे हों। लाल नासिका वाला ताम्रवर्णी मुख ऐसे शोभित है जैसे संध्याकाल में सूर्यमण्डल।
पिङ्गल नेत्र वाले मारुति की आँखें ऐसी हैं जैसे आकाश में सूर्य चन्द्र साथ साथ प्रकाशित हो रहे हों। लाल नासिका वाला ताम्रवर्णी मुख ऐसे शोभित है जैसे संध्याकाल में सूर्यमण्डल।
सागर
ऊपर देह और छाया साथ साथ ऐसे दिख रहे हैं जैसे जल में नौका हो जिसके पाल वायु से
भरे हैं और निम्नभाग सागर पर सवार है। उनके वेग से ऊँचे उठ कर मेघमण्डल के साथ जल शरद
काल के मेघों के समान दिख रहा है ...
...प्रकृति
जब साथ देती है तो साथ साथ पात्रता की परीक्षा भी लेती चलती है। मारुति के लिये आगे
त्रिगुण परीक्षायें प्रतीक्षा में थीं।
बहुत ही उम्दा ..... बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति .... Thanks for sharing this!! :) :)
जवाब देंहटाएं_/\_
जवाब देंहटाएंनिःशब्द।
जवाब देंहटाएंकवि की कृति की सुन्दरता वही बता सकता है जो उस सौंदर्य का दर्शन कर सके। आप के कारण अब रामायण के अध्ययन की पिपासा जागने लगी है । धन्यवाद
जवाब देंहटाएंआर्य सरस कर देते हैं अपनी व्याख्या से।
जवाब देंहटाएंThank you for all of these amazing posts. The posts on Sundarkand are specially enlightening!
जवाब देंहटाएंवाह!
जवाब देंहटाएंसजीव वर्णन !
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