निर्लिप्त हनुमान एकांत का आश्रय ले किनारे सुखपूर्वक बैठे हुये हैं। सामने
महोदधि लहरा रहा है। वानरों के सामने बड़ी समस्या है कि पार कैसे करें?
नेता अङ्गद अन्य सबसे समुद्र को लाँघने की क्षमता के बारे में पूछते हैं।
सभी बताते हैं लेकिन किसी की क्षमता पर्याप्त नहीं है। जाम्बवान भी वार्धक्य की
दुर्बलता दर्शाते हुये अक्षमता बता देते हैं।
अन्तत: अङ्गद जैसे तैयार हो रहे हों, अपनी सीमा बताते हैं – पार तो कर जाऊँगा
लेकिन लौट पाऊँगा इसमें अनिश्चय है – निवर्तने तु में शक्ति: स्यान्न वेति न निश्चितं!
वृद्ध बुद्धिमान जाम्बवान उनकी क्षमता का बखान करते हुये उन्हें
ऐसा करने से बरजते हैं। जो कहते हैं वह बहुत ही समीचीन है:
नहि
प्रेषयिता तात स्वामी प्रेष्य: कथंचन
भवता अयम् जनः सर्वः प्रेष्यः प्लवग सत्तम
भवान् कलत्रम् अस्माकम् स्वामि भावे व्यवस्थितः
स्वामी कलत्रम् सैन्यस्य गतिः एषा परंतप
अपि वै एतस्य कार्यस्य भवान् मूलम् अरिम् दम
तस्मात् कलत्रवत् तात प्रतिपाल्यः सदा भवान्
मूलम् अर्थस्य संरक्ष्यम् एष कार्यविदाम् नयः
मूले हि सति सिध्यन्ति गुणाः पुष्प फल उदयः
‘कलत्र’
शब्द का अप्रचलित, पुराना मूल प्रयोग कर एक बार
पुन: वाल्मीकि जी संहितासमांतर परम्परा के वाहक सिद्ध होते हैं। इस शब्द का अर्थ
पूछेंगे तो ज्ञाता रूढ़ अर्थ बतायेंगे – पत्नी किंतु यहाँ यह
शब्द ‘रक्षणीय’ अर्थ में प्रयुक्त हुआ
है। पत्नी या भार्या रक्षणीय होती है क्यों कि वह धर्म की मूल है। इस शब्द का का
अर्थ राजदुर्ग भी होता है जिसमें बहुत कुछ मूल्यवान जमा होता है इसलिये वह रक्षणीय
होता है। इसका अर्थ गुह्य मर्मस्थल भी होते हैं जो रक्षणीय होते हैं। भवता अयम् जनः सर्वः प्रेष्यः प्लवग सत्तम
भवान् कलत्रम् अस्माकम् स्वामि भावे व्यवस्थितः
स्वामी कलत्रम् सैन्यस्य गतिः एषा परंतप
अपि वै एतस्य कार्यस्य भवान् मूलम् अरिम् दम
तस्मात् कलत्रवत् तात प्रतिपाल्यः सदा भवान्
मूलम् अर्थस्य संरक्ष्यम् एष कार्यविदाम् नयः
मूले हि सति सिध्यन्ति गुणाः पुष्प फल उदयः
जामवंत कहते हैं – नहीं कुमार, आप तो स्वामी प्रेषक हैं आप प्रेष्य सेवक कैसे हो सकते हैं? आप का कार्य तो कर्ता को नियुक्त करना है। आप हमारे कलत्र हैं जिसे हमने
अपना ‘स्वामी’ बना रखा है। आप की रक्षा
करना हमारा कर्तव्य है (हम वहाँ भेज आप को कैसे संकट में डाल सकते हैं?)। आप सेना के कलत्र हैं, आप की रक्षा करनी ही होगी।
हे शत्रुदमन! आप इस कार्य के मूल में हैं (जैसे भार्या गृहधर्म की होती है) इसलिये
हमें आप का प्रतिपालन कलत्रवत ही करना है। किसी भी उद्योग को करते समय उसके
मूलार्थ की रक्षा करनी होती है। मूल के सुरक्षित रहने से सभी गुण सिद्ध होते हैं
और फल फूल भी प्राप्त होते हैं। आप रक्षणीय हैं, आप को सङ्कट
में नहीं डाल सकते।
कलत्र का व्यापक अर्थ ज्ञान का विस्तार कर गया - आभार !
जवाब देंहटाएंमेरी टिप्पणी पता नही कहाँ गई . खैर ..कलत्र शब्द के अर्थ की जानकारी के लिये आभार .
जवाब देंहटाएंआप की बस यही टिप्पणी दिख रही है।
हटाएंजय हो!
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