सोमवार, 17 अक्टूबर 2016

घुटन की कब्ज

भैवा देश की दुर्दशा देख स्वयं तो व्यथा में था ही, मुझे भी दुर्दांत प्रश्नों के चक्रव्यूह में घेरे था।  उनके उत्तर टंकाते टंकाते जब अंगुलियों की पीर घणी हो गयी तो मैंने उससे पूछा – मोहनदास को जानते हो?
उसने प्रतिप्रश्न किया - कौन मोहनदास?
मैंने बताया – नोट छाप।
वह समझ गया और भड़क भी गया। इससे पहले कि कोई आहत नाजिल टाइप करता, मैंने उसकी ‘टिप टिप करती टाइपिंग जारी है’ वाली स्थिति के बीच में ही शब्द अड़ा दिये। उसे बताया कि मोहन बाबू ताबीज देते थे बढ़िया बढ़िया, शब्दों की ताबीज, जैसे दंगे में तुम्हारे बच्चे को कस्साई ने जिबह कर दिया है तो तुम किसी कसाई के अनाथ बच्चे को गोद ले ऐसे पालो कि बड़ा हो कर वह सच्चा जिहादी बने।
मैं भी तुम्हें एक शब्द-ताबीज देता हूँ।
क्या है वह?  –कीपैड पर उसकी क्रोध भरी टकटकाहट को मैं अनुभव कर पा रहा था। लैपी की स्क्रीन लपलपाने जो लगी थी!
मैंने डरते हुये एक स्माइली डाली और उधर से ब्लैंक देख साहस कर टंका दिया – तुम गाँव में रहते हो या नगर में?
‘नगर में’।
‘कॉलोनी महल्ले में या अपार्टमेण्ट में?’
‘मुहल्ले में... जल्दी से अपना टोटका बताओ।’
वह देशोद्धार की जल्दी में था। मैंने विरमित किया – देखो, भदेस भारत में रहते हो तो सूअरखाना होगा ही।
वह भड़क गया और  – ~!@#$ करने के पश्चात खटकाया – इधर सूअर नहीं रहते।
मैंने समझाया – भाया, विष्ठा कूड़े में रहने वाला हर व्यक्ति वही होता है। तुम्हारे मुहल्ले न हो, हो ही नहीं सकता। टोटका यह है कि महीने के दूसरे शुक्रवार की साँझ को गलीबहारू झाड़ू ले आ कर घर में ताला लगा दो। अगले दिन शनिवार को प्रात:काल उस स्थान से झाड़ू लगाना प्रारम्भ करो जहाँ सूअरों के चिह्न अर्थात कूड़े के ढेर सबसे अधिक हों। यह काम केवल पट्टे वाली जँघिया पहन के करना वरना काका बहुत पीटेंगे। जब सौ मीटर जैसा इलाका साफ हो जाय तो घर आ कर हाथ मुँह धो कपड़े पहन सब के यहाँ जाओ, बताओ और आह्वान करो कि कल पूरा मुहल्ला साफ करना है।
उसने दाँत अवश्य किटकिटाये होंगे। कँपकँपाहट शब्दों के विन्यास से पता चल रही थी।
‘बन्द करो बकवास!’
मैंने कहा, सुन तो लो। तुम्हारी तरह ही बाकी जनता भी घुटन के कब्ज की मारी घर में कुढ़ती रहती है। घुटन की गन्ध कभी बच्चों तो कभी घरवालों पर निकालती रहती है। जब तुम यह आह्वान करोगे तो उनमें से कुछ को जब तब हाजत से मुक्ति की राह सूझेगी, वे बाहर आयेंगे, लुंगी सँभालते, चश्मा पोंछते, खाँसते, थूकते, चाहे जैसे भी।
उस समय उन्हें इकट्ठा कर अपनी की हुई सफाई दिखा देना। अगले दिन एक दो आ ही जायेंगे।
विश्वास रखो, हममें से हर कोई घुटन से मुक्ति चाहता है। घुटन की कब्ज न हो तो मस्तिष्क तेज चलता है, ठीक चलता है। तुम्हें एक से बढ़ कर एक नवोन्मेषी विचार और उपाय बताये जाने लगेंगे। सफाई तो होगी ही, हो कर कोई मुद्दा ही नहीं रह जायेगी लेकिन जो बड़ी बात होगी वह यह होगी कि चार लोग साथ साथ नि:स्वार्थ बैठने बतियाने लगेंगे। अपने आप ही तुम सभी समस्याओं और उनके हल पर ध्यान दे विचार विमर्श करने लगोगे। पचास रुपये की झाड़ू महीने भर में ही स्थानीय निकाय के ऑफिस तक अन्य समस्यायें ले चलने लगेगी और तुम्हारे देश का एक बहुत बहुत नन्हा सा मुहल्ला मुक्त होने लगेगा। तुम्हें आगे बस यह करना होगा कि अपनी सफलता को अन्य मुहल्लों को पहले दिखाना और आगे उन तक पहुँचाना होगा।
उसने तीन चार प्रकार के स्माइली और ROFL का सन्देश लगाया। उसके बाद इतराया – यही था तुम्हारा टोटका? इससे क्या होगा?
मैंने ग़रम मिज़ाज इस्माइली लगा पूछा – घंटे भर से जो यह बकवास चैट कर हम दोनों का समय खराब कर रहे हो, उससे देश का कल्याण हो रहा है?
वह बमक गया – बता तो ऐसे रहे हो जैसे स्वयं आजमाये हो?
मैंने कहा – इस मामले में मैं मोहनदास से आगे हूँ। जो स्वयं नहीं आजमाया वह बताता नहीं हूँ। गुड़ चीनी वाले मिथ भी नहीं गढ़ता। करना हो तो करो या फूटो, बात बहादुरों पर समय देना वृथा है। करोगे तो स्वयं पाओगे कि तुम्हारे भीतर भी एक सफाई अभियान चल रहा है।

आगे यह काम करने के बाद ही मुझे चैट के लिये छेड़ना अन्यथा किसी बालानाम धारी छौंड़े से मीठी मीठी बातें कर और सोना मोना टाइप चिंता विमर्श कर टाइमपास कर लेना।              

जामवंत जी! उस पार कौन जायेगा?

निर्लिप्त हनुमान एकांत का आश्रय ले किनारे सुखपूर्वक बैठे हुये हैं। सामने महोदधि लहरा रहा है। वानरों के सामने बड़ी समस्या है कि पार कैसे करें?
नेता अङ्गद अन्य सबसे समुद्र को लाँघने की क्षमता के बारे में पूछते हैं। सभी बताते हैं लेकिन किसी की क्षमता पर्याप्त नहीं है। जाम्बवान भी वार्धक्य की दुर्बलता दर्शाते हुये अक्षमता बता देते हैं। 
अन्तत: अङ्गद जैसे तैयार हो रहे हों, अपनी सीमा बताते हैं – पार तो कर जाऊँगा लेकिन लौट पाऊँगा इसमें अनिश्चय है – निवर्तने तु में शक्ति: स्यान्न वेति न निश्चितं!  
वृद्ध बुद्धिमान जाम्बवान उनकी क्षमता का बखान करते हुये उन्हें ऐसा करने से बरजते हैं। जो कहते हैं वह बहुत ही समीचीन है:
नहि प्रेषयिता तात स्वामी प्रेष्य: कथंचन 
भवता अयम् जनः सर्वः प्रेष्यः प्लवग सत्तम 
भवान् कलत्रम् अस्माकम् स्वामि भावे व्यवस्थितः 
स्वामी कलत्रम् सैन्यस्य गतिः एषा परंतप
अपि वै एतस्य कार्यस्य भवान् मूलम् अरिम् दम
तस्मात् कलत्रवत् तात प्रतिपाल्यः सदा भवान्
मूलम् अर्थस्य संरक्ष्यम् एष कार्यविदाम् नयः
मूले हि सति सिध्यन्ति गुणाः पुष्प फल उदयः
कलत्रशब्द का अप्रचलित, पुराना मूल प्रयोग कर एक बार पुन: वाल्मीकि जी संहितासमांतर परम्परा के वाहक सिद्ध होते हैं। इस शब्द का अर्थ पूछेंगे तो ज्ञाता रूढ़ अर्थ बतायेंगे पत्नी किंतु यहाँ यह शब्द रक्षणीयअर्थ में प्रयुक्त हुआ है। पत्नी या भार्या रक्षणीय होती है क्यों कि वह धर्म की मूल है। इस शब्द का का अर्थ राजदुर्ग भी होता है जिसमें बहुत कुछ मूल्यवान जमा होता है इसलिये वह रक्षणीय होता है। इसका अर्थ गुह्य मर्मस्थल भी होते हैं जो रक्षणीय होते हैं। 
जामवंत कहते हैं नहीं कुमार, आप तो स्वामी प्रेषक हैं आप प्रेष्य सेवक कैसे हो सकते हैं? आप का कार्य तो कर्ता को नियुक्त करना है। आप हमारे कलत्र हैं जिसे हमने अपना स्वामीबना रखा है। आप की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है (हम वहाँ भेज आप को कैसे संकट में डाल सकते हैं?)। आप सेना के कलत्र हैं, आप की रक्षा करनी ही होगी। हे शत्रुदमन! आप इस कार्य के मूल में हैं (जैसे भार्या गृहधर्म की होती है) इसलिये हमें आप का प्रतिपालन कलत्रवत ही करना है। किसी भी उद्योग को करते समय उसके मूलार्थ की रक्षा करनी होती है। मूल के सुरक्षित रहने से सभी गुण सिद्ध होते हैं और फल फूल भी प्राप्त होते हैं। आप रक्षणीय हैं, आप को सङ्कट में नहीं डाल सकते।

रविवार, 16 अक्टूबर 2016

हनुमंस्तथा कुरुष्व


हनुमान जी को सीता अन्वेषण हेतु विदा करते श्रीराम जी के अंतिम उद्गार ये थे: 
 अतिबल बलमाश्रितस्तवाहम्,
हरिवर विक्रम विक्रमैरनल्पै:।  
पवनसुत यथाधिगम्यते सा, 
जनकसुता हनुमंस्तथा कुरुष्व॥

समर्पण की सर्वोच्च अवस्था में भक्त आराध्य से कहता है - सब छोड़ कर तुम्हारी शरण हूं, मेरे लिए जो तुम्हें योग्य लगे करो! यथा योग्यं तथा कुरु! 
क्यों न कहे? द्वापर में कह गये न - सर्व धर्मान परित्यज्य मामेकं शरणम् व्रज
यहाँ त्रेता में अद्भुत क्षण है। आराध्य स्वयं भक्त को समर्पित हो रहा है। राघव ने सब कुछ हनुमान पर छोड़ दिया है,
”हे परम बलशाली! मैं तुम्हारे बल के सहारे हूँ। हे अमित विक्रमी वानर! हे पवनसुत! तुम्हारा कोई भी पराक्रम अल्प नहीं होता। जिस प्रकार भी जनकसुता का उद्धार हो सके, करो। जाओ हनुमान,
यथाधिगम्यते ... तथा कुरु!”
आराध्य का समर्पण और सीता देवी का वात्सल्य, क्रमश: लङ्का प्रवेश और निर्गम के समय हनुमान जी के कवच बन गये। 

शनिवार, 15 अक्टूबर 2016

सुंदरकाण्ड में अग्निपरीक्षा


हनुमान जी के लांगूल में आग लगा दी गई है। हिंसक आनंद से भर राक्षसियां सीता जी को समाचार देती हैं - तुम्हारे उस ललमुंहे की पूंछ में आग लगा घुमाया जा रहा है - ताम्र मुखः कपिः ... लांगूलेन प्रदीप्तेन स एष परिणीयते!
सीता जी व्यग्र हो उठती हैं। कवि कैसे समझाये उस पीड़ा की तीव्रता को? अभिधा, लक्षणा, व्यंजना सब व्यर्थ हैं। माता की पीड़ा को उस उपमा का सहारा देते हैं जो रामायण में संभवत: एक बार ही प्रयुक्त हुई है:
श्रुत्वा तत् वचनम् क्रूरम् आत्म अपहरण उपमम्।
सूचना देने वाले शब्द क्रूर हैं और उनसे जो पीड़ा हुई है वह वैसी ही है जैसी रावण द्वारा अपहरण के समय उन्हें हुई थी।
सीता देवी के हाथ हुताशन अग्नि से प्रार्थना में जुड़ जाते हैं - कपि के लिए शीतल हो जाओ। 'कच्चित्' शब्द को ले अद्भुत करने वाले कवि कुल श्रेष्ठ 'यदि' शब्द का साथ ले एक तुलनीय प्रसंग रचते हैं।
माँ अपने समस्त पुण्य दाँव पर लगा देती है! सीता जी अपनी उस विशिष्टता को दाँव पर लगा देती हैं जिसके लिए आगे उन्हें युगों युगों तक आदर्श मान पूजा जाने वाला है। वाल्मीकि कहते हैं - मङ्गलाभिमुखी!
वैदेही शोकसंतप्ता हुताशनमुपागमत्
मङ्गलाभिमुखी तस्य सा तदासीन्महाकपेः
उपतस्थे विशालाक्षी प्रयता हव्यवाहनम्
यद्यस्ति पतिशुश्रूषा यद्यस्ति चरितं तपः
यदि चास्त्येकपत्नीत्वं शीतो भव हनूमतः
यदि कश्चिदनुक्रोशस्तस्य मय्यस्ति धीमतः
यदि वा भाग्यशेषं मे शीतो भव हनूमतः
यदि मां वृत्तसंपन्नां तत्समागमलालसाम्
स विजानाति धर्मात्मा शीतो भव हनूमतः
यदि मां तारयत्यार्यः सुग्रीवः सत्यसंगरः
अस्माद्दुःखान्महाबाहुः शीतो भव हनूमतः

यदि मैं पति के प्रति एकनिष्ठ हूं, यदि पति की शुश्रूषा की है, यदि मैं तपस्विनी चरित्र की हूँ ...यदि श्रीराम के मन में मेरे लिए थोड़ी भी दयालुता शेष है, यदि मेरे भाग्य में थोड़ा भी कुछ शुभ शेष है ... यदि श्रीराम मुझे उदात्त नैतिक चरित्र की मानते हैं जिसके भीतर उनसे मिलन की लालसा है.... यदि सत्यशील सुग्रीव के नेतृत्व वाली सेना मुझे मुक्त कराने वाली है ... 
तो हनुमत के लिए शीतल हो जाओ।

अग्नि कहाँ ऐसी के सामने ठहर सकते हैं? शिखाओं द्वारा प्रदक्षिण हो सीता को मान रखने की सूचना देते हैं। पवन देव भी शीतल वायु हो हनुमान को लपेट लेते हैं और हनुमान को आश्चर्य हो रहा है, चिन्ता हो रही है कि लांगूल दहक रहा है, आग चारो ओर इतनी प्रदीप्त है लेकिन मुझे जला क्यों नहीं रही?
तस्तीक्ष्णार्चिरव्यग्रः प्रदक्षिणशिखोऽनलः
जज्वाल मृगशावाक्ष्याः शंसन्निव शिवं कपेः
हनुमज्जनकश्चापि पुच्छानलयुतोऽनिलः
ववौ स्वास्थ्यकरो देव्याः प्रालेयानिलशीतलः
दह्यमाने च लाङ्गूले चिन्तयामास वानरः
प्रदीप्तोऽग्निरयं कस्मान्न मां दहति सर्वतः 
पूँछ आग में है लेकिन इतनी शीतल जैसे कि उस पर शिशिर ऋतु का संपात हुआ हो!
शिशिरस्य इव सम्पातो लाङ्गूल अग्ने प्रतिष्ठितः 
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जो सीता हैं न, हम सबकी आदर्श, उनकी अग्निपरीक्षा यह है। 

https://www.valmiki.iitk.ac.in/sloka?field_kanda_tid=5&language=dv&field_sarga_value=53

पहली भेंट

वाल्मीकि जी के यहाँ अनेक शब्द अपने वैदिक और पुराने अप्रचलित अर्थों में भी प्रयुक्त हुये हैं, शठ उनमें से एक है। सामान्यत: इसका अर्थ दुष्ट, मलिन, कुटिल बुद्धि वाले मनुष्य के अर्थ में लिया जाता है लेकिन पुरानी संस्कृत में यह बहुअर्थी है। यह कुछेक उन शब्दों में से है जिनके परस्पर विपरीत लगते अर्थ भी चलते थे। इसका एक अर्थ बुराई बकने वाला है तो दूसरा अच्छे प्रकार से बोलने वाला भी है। इसका अर्थ सच होने से भी है। शाठयते होने पर इसका अर्थ प्रशंसा करना, परचित्तानुरंजन करना होता है।
इस शब्द में कहीं वह सन्देह भी है जो सीधे साधे अक्खड़ लोग मीठी और चतुराई भरी बातें करने वाले के प्रति रखते हैं। एक अर्थ कहीं उससे भी है जो बिना लाग लपेट के बात करता है। यह शब्द हमारी छठी इन्द्रिय की प्रवृत्ति का द्योतक है। संवाद के इतने लक्षण और गुण समोये इस शब्द का एक अर्थ यदि मध्यस्थ भी है तो आश्चर्य नहीं।
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चित्राभार: https://www.valmiki.iitk.ac.in/
राम और लक्ष्मण वीर वेश में ऋष्यमूक पर्वत पर पधारे हैं। उन्हें देख कर सुग्रीव सशंकित हो उठते हैं, कहीं वालि ने तो नहीं भेजा?
हनुमान उन्हें समझाते हैं कि यहाँ वालि से कोई भय नहीं। उलाहना भी देते हैं कि इस प्रकार प्रतिक्रिया दे कर आप ने वानरोचित चपलता का ही प्रदर्शन किया है, आप की लघु बुद्धि स्थिर नहीं है:
अहो शाखामृगत्वं ते व्यक्तमेव प्लवङ्गम।
लघुचित्ततयाऽऽत्मानं न स्थापयसि यो मतौ॥
आप बुद्धि और विज्ञान का आश्रय ले कर दूसरों के मनोभाव समझें और शासन करें – बुद्धिविज्ञानसम्पन्न इङ्गितै: सर्वमाचर।
सुग्रीव नहीं मानते। उन्हें शंका है, विश्वासो नात्र हि क्षम:। छ्द्मवेशी शत्रुओं की पहचान करनी ही चाहिये – विज्ञेयाश्छद्मचारिण:। कहते हैं उनके पास ‘प्राकृत’ अर्थात सीधे साधे छ्द्मवेश में जाओ। प्राकृत चेष्टा, रूप, बातचीत आदि विधियों से उन दो आगंतुकों, अनाप्त जनों का परिचय प्राप्त करो – इङ्गितानां प्रकारैश्च रूपव्याभाषणेन च। भाँति भाँति की बातों से उनके मनोभाव को समझो। उन्हें मेरे अनुकूल करो।
सुग्रीव को इतने से भी संतोष नहीं होता तो कहते हैं उनके आने का प्रयोजन पूछ ही लेना, कैसे पूछना?
ममैवाभिमुखं स्थित्वा पृच्छ त्वं हरिपुङ्गव।     
मेरी ओर मुँह कर के खड़े हो ताकि मैं भी अनुमान लगा सकूँ।
राजनीति की कहें तो एक बहुत ही महान घटना होने वाली है जो कि आगे युगांतकारी सिद्ध होगी। भक्तों की सोचें तो भक्त और प्रभु का पहला सदेह मिलन होने वाला है। ऐसे में वाल्मीकि जी कैसे वर्णन करें कि जो अर्थगढ़ू हो? भिक्षु रूप बना कर मिलने चले हनुमान जी के लिये वाल्मीकि जी अनूठा शब्द प्रयोग करते हैं – शठबुद्धितया!
भिक्षुरूपं ततो भेजे शठबुद्धितया कपि:। आधुनिक संस्कृत के विद्वान से पूछेंगे तो कहेगा कि इसका अर्थ हुआ बहुत ही मक्कार बुद्धि वाला लेकिन आप प्रारम्भ में दिये विश्लेषण पर ध्यान दें।
हनुमान जी कैसी बानी बोलते हैं? शब्द देखिये - श्लक्ष्णया, सुमनोज्ञया, विनीत, प्रशंसस, सत्यपराक्रमौ और संशितव्रतौ
शंका से भीत किसी व्यक्ति की वाणी सुनिये कभी, हर पक्ष को उड़ेलता चित्त का अनुरंजन करता हुआ बात करता है। हनुमान जी भी वही करते हैं, आप दोनों देह से क्षत्रिय लगते हैं, वेश व्रती तापसों का है! क्या कहूँ? अच्छा लगे इसलिये पूरक करते राजर्षि और देवप्रतिमा कहते हैं - राजर्षिदेवप्रतिमौ तापसौ संशितव्रतौ!
उसके पश्चात ताड़ जाते हैं और ऐसी प्रशंसायें करना प्रारम्भ करते हैं जो क्षत्रियों को अच्छी लगें। वन के सभी मृगों को त्रास देते पम्पा सर के किनारे के वृक्षों को निहारते, उसे सुशोभित करते आप दोनों कौन हैं? कहीं आप देवलोक से तो नहीं पधारे? मृग से कौतुकप्रिय हनुमान जी का संकेत अपने ‘शाखामृग’ स्वामी सुग्रीव की ओर है।
सुग्रीव की शंका भी परोक्ष रूप से कह डालते हैं -  आप दोनों तो राज्यश्री भोगने योग्य हैं, इस दुर्गम वन प्रदेश मैं कैसे आना हुआ?
राज्यार्हावमरप्रख्यौ कथं देशमिहागतौ?
क्षत्रिय को सुहाने वाली जितनी प्रशंसायें हो सकती हैं, कह डालते हैं लेकिन दूसरी ओर से कोई संकेत नहीं मिलता।
एवं मां परिभाषंतं कस्माद् वै नाभिभाषत:?
ये दोनों कुछ बोलते क्यों नहीं? संकेत क्यों नहीं मिलता?
इसलिये कि श्रीराम को भी तो जानना है कि इस अनजान प्रदेश में अचानक यह कहाँ से आ टपका? पहले भी बहुत संकट झेले पड़े हैं, कोई नयी तो नहीं आन पड़ी!
हनुमान जी की शठबुद्धि दूसरी राह लेती है – बता ही देता हूँ कि मैं कौन हूँ। सुग्रीव का परिचय देते हैं, उनके साथ क्या घटित हुआ बताते हैं। कहते हैं कि मैं उन्हीं के द्वारा प्रेषित हूँ, मेरा  नाम हनुमान है। वानर जाति का हूँ। मेरे स्वामी आप से मित्रता करना चाहते हैं। मुझे उनका सचिव समझें। मैं जो रूप चाहे बना सकता हूँ, जहाँ चाहूँ जा सकता हूँ। सुग्रीव का प्रिय करने को भिक्षु रूप बना आप के पास आया हूँ।
प्राप्तोऽहं प्रेषितस्तेन सुग्रीवेण महात्मना
राज्ञा वानरमुख्यानां हनुमान्नाम वानरः
युवाभ्यां सह धर्मात्मा सुग्रीवः सख्यमिच्छति
तस्य मां सचिवं वित्तं वानरं पवनात्मजम्
भिक्षुरूपप्रतिच्छन्नं सुग्रीवप्रियकाम्यया
ऋष्यमूकादिह प्राप्तं कामगं कामरूपिणम्

नीति पूरी हो गयी। शठता चुक गयी। भक्त समर्पित हो चुप हो गया! अब तुम्हारे सामने हूँ, यथा योग्यं तथा कुरु। वाल्मीकि जी लिखते हैं वाणी को जानने वाले हनुमान का कौशल शांत हो गया, पुन: कुछ न बोला।
एवमुक्त्वा तु हनुमांस्तौ वीरौ रामलक्ष्मणौ
वाक्यज्ञौ वाक्यकुशलः पुनर्नोवाच किंचन  

संवाद का प्रारम्भ ऐसे मौन से ही सम्भव है। दोनों पक्षों द्वारा प्रारम्भिक मीमांसा के पश्चात यह विराम आवश्यक है। श्रीराम भी मानसिक प्रेक्षण और विश्लेषण कर आगे के लिये उद्यत हो उठे हैं। लक्ष्मण से कहते हैं, ये सचिव हैं, कपीन्द्र हैं और महात्मा हैं। स्वामी के हित की इच्छा से हमारे पास आये हैं। वाक्यज्ञ अर्थात बात के मर्म को समझने वाले हैं।
हे अरिन्दम! इनसे स्नेह पूर्वक बात करो - वाक्यज्ञं मधुरैर्वाक्यैः स्नेहयुक्तमरिंदमम्।

शब्द प्रयोग पर ध्यान दें तो पायेंगे कि उग्रमना लक्ष्मण के लिये अरिन्दम, शत्रुओं का दमन करने वाला सम्बोधन उन्हें जैसे सतर्क करने के लिये है कि ठीक है कि तुम वीर समर्थ हो लेकिन यह व्यक्ति शत्रु नहीं लगता इससे स्नेहपूर्वक बात कर समझना होगा।
 हनुमान द्वारा कामग और कामचारिण शब्दों के प्रयोग ने राम को सतर्क कर दिया है, यह व्यक्ति अद्भुत शक्ति सम्पन्न लगता है, इससे यूँ ही भिंड़ जाना ठीक नहीं, अनुकूल हुआ तो आगे बहुत काम आयेगा।

इसके पश्चात श्रीराम अपना प्रेक्षण प्रत्यक्ष कहते हैं जो स्वयं श्रीराम की शिक्षा दीक्षा का भी साक्षी बनता है:
नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिण:
नासामवेदविदुष: शक्यमेवं विभाषितुं
नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्
बहु व्याहरतानेन न किंचिदपशब्दितम्
जिसे ऋग्वेद की शिक्षा न मिली हो, जिसने यजुर्वेद को धारण न किया हो, जो सामवेद का ज्ञाता न हो; वह इस प्रकार बात नहीं कर सकता अर्थात हनुमान तो त्रयी के ज्ञाता प्रतीत होते हैं।
निश्चय ही इन्हों ने व्याकरण का कई बार श्रुतिसम्मत अभ्यास किया है, इतनी बात किये लेकिन इनके मुख से एक भी अपशब्द नहीं निकला! (यहाँ अपशब्द का अर्थ गाली नहीं, भदेस उच्चारण और प्रयोग से है)

अविस्तरमसंदिग्धमविलम्बितमव्ययम्
उर:स्थं कण्ठगं वाक्यं वर्तते मध्यमस्वरम्
संस्कारक्रमसम्पन्नामद्भुतामविलम्बिताम्
उच्चारयति कल्याणीं वाचं हृदयहर्षिणीं
अनया चित्रया वाचा त्रिस्थानव्यञ्जनस्थया
कस्य नाराध्यते चित्तमुद्यतासेररेरपि
इनकी वाणी हृदय में मध्यमारूप में अवस्थित है, कण्ठ से वैखरी रूप में प्रकट होती है। प्रवाही है, तोड़ मरोड़ नहीं, बहुत ही सधावट है। ध्वनि न ऊँची है और न नीची, मध्यम है।
संस्कार, क्रम और अविलम्बित कल्याणमयी वाणी इनकी विशेषता है। हृदय, कण्ठ और मूर्धा तीनों स्थानों द्वारा स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त होने वाली इनकी इस विचित्र वाणी से किसका चित्त न प्रसन्न होगा! आघात करने को उद्यत शत्रु का हृदय भी यह वाणी परिवर्तित करने में सक्षम है।

आगे श्रीराम निषेधप्रशंसा करते हैं – जिस राजा के पास इनके समान दूत न हो, उसके कार्यों की सिद्धि कैसे हो सकती है? अर्थात नहीं हो सकती है। जिसके कार्यसाधक दूत ऐसे उत्तम गुणों से युक्त हों, उस राजा के सभी मनोरथ दूतों की बातचीत से ही सिद्ध हो जाते हैं।
यह सब कह कर श्रीराम ने हनुमान जी को भी संकेत दे दिया कि मैं इस योग्य हूँ कि तुम मेरे दूत बन सको।   
यह कथन भविष्य के ‘रामदूत हनुमान’ की भूमिका है:
एवंविधो यस्य दूतो न भवेत् पार्थिवस्य तु।
सिद्धय् न्ति हि कथं तस्य कार्याणा गतयोऽनघ॥
एवंगुणगणैर्युक्ता यस्य स्यु: कार्यसाधका:।
तस्य सिद्धय् न्ति सर्वेऽर्था दूतवाक्यप्रचोदिता:॥
छ्द्म प्राकृत रूप से संस्कृत वाणी प्रशंसा तक का यह ‘पहली भेंट’ प्रकरण मनन करने वालों के लिये बहुत ही कल्याणकारी है।  
॥स्वस्ति॥