रविवार, 6 मई 2018

महाभारत : द्रौपदी स्वयम्वर एवं विवाह - 1

[हिडिम्बा प्रकरण से आगे] 
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बहुधा आख्यानों में विचित्र यौन सम्‍बंधों के वर्णन मिलते हैं। मनुष्य का पक्षी से, किसी मृग से आदि आदि। ऐसे प्रकरणों को गल्प कह कर निरस्त भी कर दिया जाता है किन्‍तु ऐसा करना भूसे के साथ साथ चावल फेंक देने भाँति ही होता है। इन प्रकरणों में आप बहुधा या तो किसी ऋषि को पायेंगे या प्रतापी राजा को। कृषि सभ्यता स्थापित होने पर भी समान्‍तर समाज बने रहे। दुर्गम वन एवं पर्वत प्रान्‍तरों के कारण एक दूसरे से कटे अपने आप में विकसित पल्लवित होते रहे। वेदों में नवग्व एवं दशग्व के उल्लेख मिलते हैं। एक अनुमान यह भी है कि ये वे ऋषि थे जो वर्षा के दो या तीन कठिन माह तज शेष समय भौतिक उपादानों, नयी सम्भावनाओं, समाजों इत्यादि के अनुसन्‍धान में निरन्‍तर भ्रमणशील रहते थे। प्रतापी राजा भी कृषि योग्य भूमि विस्तार एवं राज्य में कराधान की वृद्धि के उद्देश्य से जन विस्तार हेतु दुर्गम क्षेत्रों में कभी नितान्‍त अकेले, कभी सेना के साथ अभियान के दुस्साहस किया करते थे। ऐसे में नये समाजों के साथ उनके साक्षात्कार होते रहते थे। समायोजन हेतु किये गये अनूठे उद्योग कवियों की वाणी में अद्भुत रससिक्त हो अतिशयोक्तियों के माध्यम से जन सामान्य तक पहुँचते थे।
स्त्री पुरुष आकर्षण, विवाह एवं संयोग भी होते। विविध टोटेम (गण चिह्न) यथा पक्षी, मृगशिर मुकुट, नागचिह्न आदि धारण करने वाले समूहों को कौतुक वश पक्षी, मृग आदि कहा गया। कभी समय की मार के कारण अपने समाज में स्त्री न मिली तो इन समाजों में सम्बन्‍ध कर लिये। ये लोग अनूठे थे क्योंकि नितान्‍त अपरिचित समूह से मैत्री स्थापित करना सरल नहीं होता। अस्तु। 

द्रौपदी स्वयम्वर के पूर्व गंधर्व चित्ररथ से युद्ध का प्रकरण आता है। उसने एक अनूठी बात कही कि आप लोग अग्नि से रहित हैं, आहुति नहीं देते एवं आप के आगे कोई विप्र (पुरोहित) भी नहीं है।मैंने इस कारण ही आप पर आक्रमण किया। 
अनग्नयोऽनाहुतयो न च विप्रपुरस्कृताः
यूयं ततो धर्षिताः स्थ मया पाण्डवनन्दन
पाण्डव स्नातक हो चुके थे अत: वटुक अपेक्षित अग्नि अनुष्ठान नहीं करते थे, अविवाहित थे अत: त्रिविध अग्नि आहुति नहीं करते थे, पुरोहित नहीं थे अत: अन्य कर्म भी नहीं होते थे जोकि राजन्य वर्ग से अपेक्षित थे। यह हिडिम्बा प्रकरण हो जाने के पश्चात की घटना है। यह द्वितीयक प्रमाण है कि भीम एवं हिडिम्‍बा का संयोग विवाह संस्कार के बिना हुआ था। 
गंधर्व ने ही उन्हें अच्छा पुरोहित कैसा हो, यह बताने के लिये वसिष्ठ की कथा सुनाई। उसी की प्रेरणा से पाण्डवों ने धौम्य को पुरोहित बनाने के पश्चात ही पाञ्चाल देश स्वयम्वर में भाग लेने को प्रस्थान किया। 
गंधर्व ने अर्जुन को तपतीनंदन, तापत्य आदि सम्‍बोधनों से पुकारा था। अर्जुन के पूछने पर उसने बताया कि आप के कुल में राजा ऋक्ष के पुत्र संवरण का सूर्यपुत्री तपती से विवाह वसिष्ठ की सहायता से हुआ था, इस कारण आप लोग तापत्य हुये। देखें तो यहाँ ऋषि एवं राजा का सम्मिलित उद्योग सूर्यपूजक समाज की अद्भुत तेजस्विनी रूपवती कन्या के साथ संवरण के विवाह के रूप में फलीभूत होता है। संवरण तो आसक्त थे ही, तपती भी उन पर आसक्त थी किन्‍तु राजा द्वारा गन्‍धर्व विवाह के अनुरोध पर उसने स्पष्ट कहा था कि मेरे पिता जीवित हैं। यह देह मेरी नहीं, उनकी है, आप मुझे उनसे माँग लें। आप जैसे को कौन पिता अपनी पुत्री नहीं देना चाहेगा? 
गंधर्व ने अर्जुन को उनके कुल के विविध नाम बताये - तपती से तापत्य, कुरु से कौरव, पुरु से पौरव, अजमीढ से आजमीढ, भरत से भारत; इतने नामों से आप लोग प्रसिद्ध हैं। 
गन्‍धर्व द्वारा तपती के नाम को महत्व दिये जाने से स्पष्ट है कि कभी वह प्रभावशाली समाज रहा होगा जिसकी स्मृति गंधर्व को थी, गंधर्व भी तो मनुष्य समाज से भिन्न ही माने जाते थे। 

द्रुपद का एक नाम यज्ञसेन था, उनकी पुत्री होने के कारण द्रौपदी याज्ञसेनी भी कहलाई। स्वयंवर में पहुँचने से पूर्व पाण्डवों ने वेदार्थ तत्वज्ञ धौम्य को अपना पुरोहित बनाया जिन्होंने प्रस्थान से पूर्व उनके लिये स्वस्तिवाचन किया। नीलोत्पलसम देह गंध वाली याज्ञसेनी के स्वयंवर में आये विविध राजाओं से दान प्राप्त करने, उत्सव एवं स्वयंवर देखने के लिये ब्राह्मणों का एक दल दक्षिणपञ्चाल जा रहा था, पाण्डव उसके साथ हो लिये। मार्ग में उन्हें कृष्ण द्वैपायन व्यास भी मिले जिनकी आवभगत कर एवं आवश्यक वार्त्तालाप कर पाण्डव उनसे अनुमति ले कर आगे बढ़ गये।
द्रुपद की इच्छा कृष्णा का हाथ किरीटी अर्जुन के हाथ देने की थी। अर्जुन के अन्‍वेषण के उद्देश्य से उन्होंने ऐसा दृढ़ धनुष बनवाया था जिसे कोई अन्य नवा न सके। 
यज्ञसेनस्य कामस्तु पाण्डवाय किरीटिने
कृष्णां दद्यामिति सदा न चैतद्विवृणोति सः
सोऽन्वेषमाणः कौन्तेयान्पाञ्चाल्यो जनमेजय
दृढं धनुरनायम्यं कारयामास भारत
एक कृत्रिम आकाश यंत्र भी बनवाया। उस धनुष एवं दिये गये 5 बाणों के प्रयोग से यंत्र के छिद्र से हो कर लक्ष्यभेद करने वाला विजयी कृष्णा को प्राप्त करने वाला था। स्वयंवर में कौरवों के साथ कर्ण एवं अश्वत्थामा भी पहुँचे थे। कृष्ण समस्त वृष्णि वंश के साथ दर्शक के रूप में पहुँचे थे। कृष्ण ने भस्म से सम्पूर्ण शरीर छिपाये पाण्डवों को बलराम को दिखाया: 
भस्मावृताङ्गानिव हव्यवाहा;न्पार्थान्प्रदध्यौ स यदुप्रवीरः
शशंस रामाय युधिष्ठिरं च; भीमं च जिष्णुं च यमौ च वीरौ
शनैः शनैस्तांश्च निरीक्ष्य रामो; जनार्दनं प्रीतमना ददर्श
राजा लोग धनुष चढ़ाने के प्रयास किये, असफल हो अपने अपने स्थान बैठ गये। 
... 
यहाँ वह क्षेपक प्रसङ्ग है जिसमें कर्ण द्वारा लक्ष्यभेदन हेतु प्रत्यञ्चा चढ़ाना एवं द्रौपदी का यह कहना कि सूतपुत्र का वरण नहीं करूँगी वर्णित है। 
दाक्षिणात्य पाठ में यह प्रसंग नहीं है, नीलकण्ठी पाठ में भी नहीं है एवं निम्नतर आलोचना द्वारा शोधित भण्डारकर पाठ में भी नहीं है। नीलकण्ठी पाठ में उल्लेख है कि कर्ण धनुष पर प्रत्यञ्चा एवं बाण नहीं चढ़ा पाया था।
इस तथ्य की पुष्टि तब हो जाती है जब ब्राह्मणों के दल से अर्जुन संधान को उठते हैं। उस समय ब्राह्मण हर्ष एवं शङ्का से भर परस्पर बात करते हैं कि जिसे कर्ण शल्य समेत लोकप्रसिद्ध बड़े बड़े धनुर्धर नहीं नवा पाये उसे यह दुर्बल दिखता बटुक कैसे साध पायेगा? 
यत्कर्णशल्यप्रमुखैः पार्थिवैर्लोकविश्रुतैः
नानतं बलवद्भिर्हि धनुर्वेदपरायणैः
तत्कथं त्वकृतास्त्रेण प्राणतो दुर्बलीयसा
बटुमात्रेण शक्यं हि सज्यं कर्तुं धनुर्द्विजाः
क्षेपक ने सम्पूर्ण प्रकरण को अंतर्विरोधी बना दिया है। 
आन्तरिक प्रमाणों से ही स्पष्ट है कि न तो कर्ण धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ा पाया था, न ही द्रौपदी ने ऐसा कुछ कहा था कि सूतपुत्र से विवाह नहीं करेगी।
... 
अर्जुन आये, धनुष के पास अचल पर्वत की भाँति खड़े हो गये। उन्होंने धनुष की दक्षिणावर्त परिक्रमा की। उसे प्रणाम किया एवं पलक झपकते ही प्रत्यञ्चा चढ़ा दी। बाण हाथ में लिये एवं बात ही बात में लक्ष्य को भेद दिया।
अर्जुनो धनुषोऽभ्याशे तस्थौ गिरिरिवाचलः
स तद्धनुः परिक्रम्य प्रदक्षिणमथाकरोत्
प्रणम्य शिरसा हृष्टो जगृहे च परंतपः
सज्यं च चक्रे निमिषान्तरेण; शरांश्च जग्राह दशार्धसंख्यान्
विव्याध लक्ष्यं निपपात तच्च; छिद्रेण भूमौ सहसातिविद्धम्
अन्तरिक्ष में निनाद हुआ, उपस्थित समाज में महान आनंद कोलाहल छा गया। 
ततोऽन्तरिक्षे च बभूव नादः; समाजमध्ये च महान्निनादः
कोलाहल बढ़ने लगा तो वरिष्ठ युधिष्ठिर नकुल एवं सहदेव के साथ आवास पर चले गये: 
तस्मिंस्तु शब्दे महति प्रवृत्ते; युधिष्ठिरो धर्मभृतां वरिष्ठः
आवासमेवोपजगाम शीघ्रं; सार्धं यमाभ्यां पुरुषोत्तमाभ्याम्
द्रुपद ने (उपद्रव की स्थिति में) अर्जुन को अपनी सेना द्वारा सहायता का निश्चय किया।
लक्ष्य को भेदा हुआ जान इन्‍द्र समान अर्जुन को देखती श्वेत वरमाला हाथ में लिये कृष्णा मंद मंद मुस्कुराती उनके पास पहुँची। 
अद्भुत कर्म कर स्वयंवर में विजयी हुये अर्जुन पत्नी को साथ ले बाहर निकले जो उनका अनुसरण कर रही थी। ब्राह्मणों ने उनका बड़ा सत्कार किया। 
विद्धं तु लक्ष्यं प्रसमीक्ष्य कृष्णा; पार्थं च शक्रप्रतिमं निरीक्ष्य
आदाय शुक्लं वरमाल्यदाम; जगाम कुन्तीसुतमुत्स्मयन्ती
स तामुपादाय विजित्य रङ्गे; द्विजातिभिस्तैरभिपूज्यमानः
रङ्गान्निरक्रामदचिन्त्यकर्मा; पत्न्या तया चाप्यनुगम्यमानः

स्वयम्‍वर विजयी अर्जुन को राजाओं ने ब्राह्मण समझा, ब्राह्मणों ने हर्षध्वनि एवं उत्साह वर्धन किया ही था। ईर्ष्या एवं अमर्ष से भरे पराजित राजाओं ने स्वयम्वर में कन्या प्राप्त करने का अधिकार ब्राह्मणों को नहीं है, यह मर्यादा उल्लंघन है, ऐसा कहते हुये द्रुपद एवं द्रौपदी का वध करने के उद्देश्य से आक्रमण किया ताकि दण्ड मिले एवं भविष्य में स्वयम्वर की मर्यादा न भङ्ग हो, धर्म की रक्षा हो: 
न च विप्रेष्वधीकारो विद्यते वरणं प्रति
स्वयंवरः क्षत्रियाणामितीयं प्रथिता श्रुतिः
... 
अवमानभयादेतत्स्वधर्मस्य च रक्षणात्
स्वयंवराणां चान्येषां मा भूदेवंविधा गतिः

ब्राह्मण अवध्य होता है, इस कारण अर्जुन के प्रति कोई ऐसा भाव नहीं आया - विप्रियं पार्थिवेन्द्राणां नैष वध्यः कथंचन। द्रुपद ब्राह्मणों की शरण में गये, भीम अर्जुन उनकी रक्षा को आगे आ गये। दोनों की ओर सङ्केत कर कृष्ण ने बलराम से कहा - ये निश्चित ही भीम अर्जुन हैं तथा जो गौरवर्ण ज्येष्ठ दो अश्विनीकुमारों सम भाइयों के साथ कुछ समय पहले बाहर गये, वे युधिष्ठिर थे। मैंने सुना है कि लाक्षागृह की आग से कुन्‍ती सहित पाण्डव बच गये थे - मुक्ता हि तस्माज्जतुवेश्मदाहा;न्मया श्रुताः पाण्डुसुताः पृथा च। बुआ पृथा सहित कुरुकुल के इन वीरों को सुरक्षित देख मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है - प्रीतोऽस्मि दिष्ट्या हि पितृष्वसा नः; पृथा विमुक्ता सह कौरवाग्र्यैः। 
कर्ण अर्जुन से युद्ध करने लगा। अर्जुन के लाघव से विस्मित हुआ - आप या तो साक्षात धनुर्वेद हैं, या भार्गव राम - किं त्वं साक्षाद्धनुर्वेदो रामो वा विप्रसत्तम। साक्षात विष्णु हैं या इंद्र - अथ साक्षाद्धरिहयः साक्षाद्वा विष्णुरच्युतः। 
युद्ध में मेरे कुपित होने पर सामना या तो साक्षात इंद्र कर सकते हैं या किरीटी अर्जुन: 
न हि मामाहवे क्रुद्धमन्यः साक्षाच्छचीपतेः
पुमान्योधयितुं शक्तः पाण्डवाद्वा किरीटिनः
अर्जुन ने कहा कि मैं ब्राह्मण ही हूँ, युद्धकला में श्रेष्ठ, सर्वशस्त्र ज्ञाता हूँ। गुरुकृपा से ब्रह्मास्त्र एवं ऐंद्रास्त्र भी मुझे सिद्ध हैं। वीर! रण में तुमसे जीतने के लिये यहाँ खड़ा हूँ। तुम भी स्थिरतापूर्वक खड़े रहो। 
ब्राह्मणोऽस्मि युधां श्रेष्ठः सर्वशस्त्रभृतां वरः
ब्राह्मे पौरंदरे चास्त्रे निष्ठितो गुरुशासनात्
स्थितोऽस्म्यद्य रणे जेतुं त्वां वीराविचलो भव
अर्जुन के मुँह से यह बात सुन कर यह मानते हुये कि ब्रह्मतेज अजेय होता है, कर्ण पीछे हट गया। 
एवमुक्तस्तु राधेयो युद्धात्कर्णो न्यवर्तत
ब्राह्मं तेजस्तदाजय्यं मन्यमानो महारथः
भीम ने शल्य को पटक कर रगड़ दिया। उन दोनों को घेरे सभी आश्चर्यचकित हो अनुमान लगाने लगे। कृष्ण को पक्का विश्वास हो गया कि ये दोनों भीम एवं अर्जुन ही हैं। उन्होंने यह कहते हुये कि इन ब्राह्मणों ने द्रौपदी को धर्मानुसार ही प्राप्त किया है, सबको लड़ाई समाप्त करने को समझाया। सभी मान गये। 
तत्कर्म भीमस्य समीक्ष्य कृष्णः; कुन्तीसुतौ तौ परिशङ्कमानः
निवारयामास महीपतींस्ता;न्धर्मेण लब्धेत्यनुनीय सर्वान्
दोनों वीर द्रौपदी को लेकर चल दिये। 
उधर भिक्षाकाल हो जाने पर भी पुत्रों के न लौटने से माता कुंती के मन में विविध विनाश आशंकायें उठने लगीं। मेरे कुरुवीरों को पहचान कर धृतराष्ट्र के पुत्रों ने मार तो नहीं डाला? कहीं मायावी राक्षसों ने तो वैर नहीं निकाल लिया! 
तेषां माता बहुविधं विनाशं पर्यचिन्तयत्
अनागच्छत्सु पुत्रेषु भैक्षकालेऽतिगच्छति
धार्तराष्ट्रैर्हता न स्युर्विज्ञाय कुरुपुंगवाः
मायान्वितैर्वा रक्षोभिः सुघोरैर्दृढवैरिभिः
क्या महात्मा व्यास की वाणी असत्य हो जायेगी? विपरीतं मतं जातं व्यासस्यापि महात्मनः। 
कुंती का मन विविध चिन्ताओं में डूबने उतराने लगा। तभी अपराह्न में मेघों से घिरे सूर्य की भाँति ब्राह्मणों से घिरे अर्जुन ने उन्हें आगे कर घर में प्रवेश किया: 
महत्यथापराह्णे तु घनैः सूर्य इवावृतः
ब्राह्मणैः प्राविशत्तत्र जिष्णुर्ब्रह्मपुरस्कृतः
कुम्हार के कर्मशाला में प्रवेश कर उन दो महानुभावों भीम एवं अर्जुन ने माता को जोकि कुटी में भीतर थीं, पुकारा:
गत्वा तु तां भार्गवकर्मशालां; पार्थौ पृथां प्राप्य महानुभावौ
.... 
[कुम्हार के लिये भार्गव शब्द का प्रयोग चिह्नित कर लें, आगे कभी काम आ सकता है।] 
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(क्रमश:) 

महाभारत : हिडिम्बा विवाह एवं लिव-इन पर कुछ स्फुट


(क) 
महाभारत आख्यान है। आख्यान उसे कहते हैं जो बीते घटित का वर्णन करता है। ऐतरेय ब्राह्मण में अश्वमेध एवं राजसूय यज्ञों के समय आख्यान सुनाने वाले अख्यानविदों का उल्लेख है। अश्व के भ्रमण करते समय यज्ञ स्थल पर जो आख्यानों की शृंखलायें यजमान को सुनाई जाती थीं, उन्हें परिप्लव कहते थे। यास्क ने ऐतिहासिकों के अर्थ में भी इस शब्द का प्रयोग किया है जो ऋग्वेद की 'व्याख्या', विवेचन आदि करते थे। बुद्ध ने अख्खानम नाम की कथाओं का उल्लेख किया है। 
महाभारत काव्य भी है। सूतों द्वारा सहस्राब्दियों में गाया जाने वाला, मञ्चित महाकाव्य जिसमें काव्य के विविध अङ्गों, नायक नायिका भेद, रसादि के निरूपण, विविध विद्याओं के सुग्राह्य उद्धरण एवं लोकरञ्जन हेतु भी अपनी कल्पनाशीलता का समावेश लोकगायकों ने किया। स्पष्ट है कि जनश्रुतियों एवं जनप्रचलित बातों के पीछे यही प्रवृत्ति रही। महाभारत को पढ़ते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि यह प्रवृत्ति आज भी है तथा आख्यान एवं काव्य में भेद है। काव्य का अर्थ छंद बद्ध कृति मात्र नहीं, विविध उद्भावनाओं से परिपूर्ण रञ्जक कृति। शिवाजी सावंत का मृत्युञ्जय काव्य है, इतिहास नहीं। रश्मिरथी काव्य है, आख्यान नहीं। नरेंद्र कोहली का उपन्यास है, इतिहास नहीं। पुराण कथायें काव्य एवं इतिहास दोनों से पगी हैं। 
इतिहास महाभारत को जानने के लिये लोकोक्तियों, जनश्रुतियों, आप की अवधारणा को जो भाये उस काव्य, द्वितीयक सोतों आदि को तज मूल उद्गम को देखना होगा जोकि स्वयं जय, भारत, महाभारत, शतसहस्री संहिता इत्यादि नामों से प्रसिद्ध कृष्ण द्वैपायन व्यास की कृति है। वही प्रमाण है, कुछ बच जाये तो उन्हीं द्वारा रचित खिल भाग हरिवंश है। पुराण द्वितीयक कृतियाँ हैं, महाभारत से विरोध होने पर या उससे अतिरिक्त मिलने पर उन्हें संदिग्ध माना जाना चाहिये क्योंकि उनकी रचना बहुत आगे के काल तक ऊपर बतायी प्रवृत्तियों के अनुकरण में होती रही है।
(ख) 

वारणावत की आग से बच कर भटकते हुये पाण्डव एक वन में पहुँचे। प्यास से विकल माता कुंती हेतु भीम पानी के अनुसंधान में दो कोस की दूरी तक गये, स्वयं पानी पिये एवं अपने उत्तरीय में पानी ले कर शीघ्रता से पहुँचे तब तक थके हुये शेष पाण्डव एवं कुंती सो गये थे। भीम ने उन्हें जगाने के स्थान पर प्रतीक्षा करना उचित समझा। निकट ही एक नगरी दिखाई दे रही थी। 


भीम सावधान थे। वहीं, बहुत दूर नहीं, शाल वृक्ष का आश्रय ले मनुष्य मांस भोजी राक्षस हिडिम्ब रहता था। उसके कहने पर हिडिम्बा नाम की उसकी बहन सोते हुये पाण्डवों को मार कर उनका मांस लाने हेतु पहुँची। साँवले एवं सिंह समान बलिष्ठ कंधों वाले महाबाहू भीम को देख कर कामपीड़ित हो गयी - अयं श्यामो महाबाहुः सिंहस्कन्धो महाद्युतिः। मार कर खाने से तो मुहूर्त भर मात्र आनंद होगा, जीवित रख कर इसे भतार बना लूँ तो अनंत काल तक सुख भोगूँगी। भाई की बात क्रूरता भरी है, नहीं मानूँगी। भाई के सौहार्द्र से पतिका स्नेह बहुत बड़ा होता है। पतिस्नेहोऽतिबलवान्न तथा भ्रातृसौहृदम् ... हतैरेतैरहत्वा तु मोदिष्ये शाश्वतीः समाः। 

लम्बे समय के लिये शाश्वती समा शब्द युग्म का प्रयोग देखिये। यह रामायण में वाल्मीकि द्वारा उच्चरित प्रथम श्लोक में भी है।

उसने मानुषी सुंदर रूप धारण किया एवं भीम से कहा कि मेरा भाई तुम सबको मारना चाहता है किंतु मैं तुम पर अनुरक्त हूँ, मेरा चित्त एवं मेरे अङ्ग कामपीड़ित हो गये हैं, मुझे स्वीकार कर मेरे साथ भोग करें। मैं अपने राक्षस भाई से तुम सबकी रक्षा करूँगी। मैं अंतरिक्षचरी हूँ, मेरे साथ भ्रमण करते हुये अतुल्य प्रसन्नता प्राप्त करें। 

भीम ने उत्तर दिया कि ज्येष्ठ भ्राता एवं माता को सोता हुआ तज तुम्हारे साथ आनंद विहार को चल दूँ? मुझ जैसा पुरुष कामार्त हो भाइयों एवं माता को राक्षस का भोजन बना विहार को जायेगा? 
हिडिम्बा ने कहा कि आप इन सबको जगा दें, मैं उस राक्षस से सबको छुड़ा लूँगी। भीम को लग गई, बोले कि तुम्हारे भाई के भय से इन थके सोये बंधुओं को नहीं जगाऊँगा। मैं अपना बल जानता हूँ। तुम रहो या जाओ, जैसी इच्छा हो करो, चाहो तो अपने भाई को ही भेज दे (देख लेता हूँ) - गच्छ वा तिष्ठ वा भद्रे यद्वापीच्छसि तत्कुरु। तं वा प्रेषय तन्वङ्गि भ्रातरं पुरुषादकम्॥ 
... 
[यहाँ बड़े भाई के अविवाहित रहते हुये कनिष्ठ के विवाह की समस्या का सङ्केत दाक्षिणात्य पाठ में मिलता है जोकि न तो उत्तरी पाठ में है, न ही निम्नतर आलोचना पद्धति द्वारा शोधित भण्डारकर मानक पाठ में। वह श्लोक इस प्रकार है: 
एष ज्येष्ठो मम भ्राता मान्य: परमको गुरु:। 
अनिविष्टश्च तन्माहं परिविद्यां कथञ्चन॥ 
ये मेरे ज्येष्ठ भ्राता हैं जो परम सम्माननीय गुरु हैं। इनका अभी विवाह नहीं हुआ है, ऐसे में तुमसे विवाह कर मैं परिवेत्ता क्यों बनूँ? 
बड़े भाई में ऐसा कोई दोष नहीं हो जिसके कारण उसका विवाह करना अनुमन्य न हो तो उसके अविवाहित रहते हुये विवाह करने वाला कनिष्ठ भाई परिवेत्ता कहलाता है। शास्त्रों के अनुसार यह निंदनीय है।] 

(ग) 
हिडिम्ब पाण्डवों के साथ हिडिम्बा को भी मारने को झपटा। भीम ने रोका - मुझे मार! हिडिम्बा स्त्री है, अवध्य, विशेषत: तब जब कि उसने कोई अपराध नहीं किया है। तेरा अपराधी तो मैं हूँ। यह तो कामपीड़ित हो अपने वश में नहीं, मुझे पति बनाना चाहती है। मेरे रहते हुये तुम इस स्त्री को नहीं मार सकते। 
स्वर से सोते हुये बंधु जाग न जायें, यह सोच भीम उसे दूर खींच ले गये किंतु युद्ध के स्वर से पाण्डव एवं माता जाग ही गये। मानुषी वेश बनायी हिडिम्बा का अद्भुत रूप देख कर चकित हो गये प्रबुद्धास्ते हिडिम्बाया रूपं दृष्ट्वातिमानुषम्। 

कुंती ने हिडिम्बा से जो पूछा, उससे भी उसके रूप का पता चलता है: 
कस्य त्वं सुरगर्भाभे का चासि वरवर्णिनि
केन कार्येण सुश्रोणि कुतश्चागमनं तव 
यदि वास्य वनस्यासि देवता यदि वाप्सराः

सुर कन्याओं के समान आभा वाली, वरवर्णिनी, उत्तम जघनस्थल वाली, देवता हो या अप्सरा? यहाँ क्या कर रही हो? 
हिडिम्बा ने सब कुछ सुनाया तथा यह भी कहा कि आप के जो वे पुत्र दूर मेरे भाई से लड़ रहे हैं, काम के वश में हो मैंने उन महाबली का वरण कर लिया है - 
चोदिता तव पुत्रस्य मन्मथेन वशानुगा
ततो वृतो मया भर्ता तव पुत्रो महाबलः

सभी भाई वहाँ भाग कर पहुँचे। भीम ने उनसे उदासीन रहने को कहा। अर्जुन ने कहा कि शीघ्र इसका वध करो, पूरब दिशा में लाली का आभास हो रहा है, संध्याकाल का रौद्र मुहूर्त है जिसमें राक्षस बली हो जाते हैं। 
पुरा संरज्यते प्राची पुरा संध्या प्रवर्तते
रौद्रे मुहूर्ते रक्षांसि प्रबलानि भवन्ति च

अर्थात हिडिम्ब वध काण्ड रात्रि के अंतिम प्रहर में आरम्भ हो प्रात:काल के पूर्व सम्पन्न हुआ। 
भाई के मारे जाने पर हिडिम्बा ने भीम से अनुरोध किया, तुम्हारा पराक्रम भी देख लिया, मैं तुम्हारी हो तुम्हारे बली गात्र की शुश्रूषा करना चाहती हूँ। 
भीम ने कहा - राक्षस मोहिनी माया का आश्रय ले बहुत दिनों तक वैर भाव का स्मरण रखते हैं। तू भी अपने भाई की दशा को प्राप्त हो!
युधिष्ठिर ने हिडिम्बा के वध को तत्पर भाई को रोका - क्रोध में भर कर स्त्री का वध न करो - मा स्म स्त्रियं वधी:। शरीर की रक्षा की अपेक्षा अधिक तत्परता से धर्म की रक्षा करो - शरीरगुप्त्याभ्यधिकं धर्मं गोपय पाण्डव। 
रक्षा के लिये 'गोपय' शब्द का प्रयोग देखें। रक्षा गोपनीयता है। गुप्तांग शब्द में मात्र सभ्य व्यवहार की अपेक्षा नहीं, प्रजनन सम्बंधित कोमल अंगों की सुरक्षा का भी भाव है। 
हिडिम्बा ने कुंती के आगे हाथ जोड़ लिये - आर्ये! स्त्री होने के कारण एक स्त्री की कामजनित पीड़ा आप जानती ही हैं - आर्ये जानासि यद्दुःखमिह स्त्रीणामनङ्गजम्। मैंने आप के पुत्र का वरण अपने भाई का परित्याग करके किया है। मुझ पर कृपा करें। यदि आप या भीमसेन मेरी प्रार्थना ठुकरा देंगे तो मैं प्राण त्याग दूँगी। सत्य कहती हूँ। 
मैंने जिन्हें चुना है, आप के उन पुत्र के साथ मेरा संयोग हो, ऐसा अवसर प्रदान करें - भर्त्रानेन महाभागे संयोजय सुतेन ते। मैं इन्हें ले कर अभीष्ट स्थान पर जाऊँगी, उद्देश्य पूरा होने (गर्भ धारण कर लेने) पर पुन: आप के समीप ले आऊँगी। शुभे! मेरा विश्वास करें - पुनश्चैवागमिष्यामि विश्रम्भं कुरु मे शुभे। 
आप सब लोग मुझ पर कृपा करें ताकि भीमसेन मुझे स्वीकार कर लें - यूयं प्रसादं कुरुत भीमसेनो भजेत माम्। 
आपदस्तरणे प्राणान्धारयेद्येन येन हि
सर्वमादृत्य कर्तव्यं तद्धर्ममनुवर्तता
आपत्सु यो धारयति धर्मं धर्मविदुत्तमः
व्यसनं ह्येव धर्मस्य धर्मिणामापदुच्यते
पुण्यं प्राणान्धारयति पुण्यं प्राणदमुच्यते
येन येनाचरेद्धर्मं तस्मिन्गर्हा न विद्यते

जिस उपाय से भी आपदा से छुटकारा मिले, प्राणों की रक्षा हो सके, धर्मानुसरण करने वालों को वह सब स्वीकार कर वैसा करना चाहिये। जो आपदाकाल में धर्म को धारण करता है वही धर्मात्माओं में श्रेष्ठ है। धर्मपालन में सङ्कट उपस्थित होना ही धर्मात्माओं के लिये आपदा कही जाती है। पुण्य ही प्राणों को धारण करता है, इस कारण पुण्य प्राणदाता कहलाता है, अत: जिस उपाय से धर्म का आचरण हो सके, उसे करने में कोई निंदा की बात नहीं है। 
... 
बड़े भाई के अविवाहित रहते हुये छोटे के विवाह से होने वाले लोकापवाद का यह समाधान हिडिम्बा ने दिया। 
दाक्षिणात्य पाठ में उसने अपना नाम सालकटङ्कटी बताया है, साथ ही यह भी कि मैं राक्षस जाति की सुशीला कन्या हूँ, न तो यातुधानी हूँ, न ही निशाचरी। मेरी देह देवोपम है। 
दाक्षिणात्य पाठ में ही कुंती युधिष्ठिर से अनुमति लेती हैं कि यह अपनी वाणी से उत्तम धर्म का प्रतिपादन करती है। यदि दूषित भाव भी रखती हो तो भीम का क्या बिगाड़ सकती है? यदि तुम्हारी इच्छा हो तो यह वीर पाण्डव भीम के साथ सन्तान प्राप्ति हेतु भोग करे - भजतां पाण्डवं वीरमपत्यार्थे यदीच्छसि
... 
युधिष्ठिर ने अनुमति दी कि प्रतिदिन भीम जब नित्यकर्म, संध्यादि से निवृत्त हो माङ्गलिक वेश धारण कर लें तब से दिन डूबने तक उनके साथ भोग करो किंतु रात को सदा ही भीमसेन को हमारे पास पहुँचा देना - अयं त्वानयितव्यस्ते भीमसेन: सदा निशि।
हिडिम्बा ने कहा कि ऐसा ही हो एवं भीमसेन को साथ ले कर उड़ चली! 
तथेति तत्प्रतिज्ञाय हिडिम्बा राक्षसी तदा
भीमसेनमुपादाय ऊर्ध्वमाचक्रमे ततः

कुछ दिनों तक रमण के पश्चात वह गर्भवती हुई, भीम को हिडिम्बा से विकट महाबली महाकाय पुत्र की प्राप्ति हुई। माता ने कहा कि इसका घट (सिर) उत्कच अर्थात केश रहित है अत: यह घटोत्कच कहलायेगा। 
रमयन्ती तथा भीमं तत्र तत्र मनोजवा
प्रजज्ञे राक्षसी पुत्रं भीमसेनान्महाबलम्
विरूपाक्षं महावक्त्रं शङ्कुकर्णं विभीषणम्
भीमरूपं सुताम्रोष्ठं तीक्ष्णदंष्ट्रं महाबलम्
महेष्वासं महावीर्यं महासत्त्वं महाभुजम्
महाजवं महाकायं महामायमरिंदमम्
अमानुषं मानुषजं भीमवेगं महाबलम्
यः पिशाचानतीवान्यान्बभूवाति स मानुषान्
बालोऽपि यौवनं प्राप्तो मानुषेषु विशां पते
सर्वास्त्रेषु परं वीरः प्रकर्षमगमद्बली
सद्यो हि गर्भं राक्षस्यो लभन्ते प्रसवन्ति च
कामरूपधराश्चैव भवन्ति बहुरूपिणः
प्रणम्य विकचः पादावगृह्णात्स पितुस्तदा
मातुश्च परमेष्वासस्तौ च नामास्य चक्रतुः
घटभासोत्कच इति मातरं सोऽभ्यभाषत
अभवत्तेन नामास्य घटोत्कच इति स्म ह
अनुरक्तश्च तानासीत्पाण्डवान्स घटोत्कचः
तेषां च दयितो नित्यमात्मभूतो बभूव सः

.... 
हिडिम्बा एवं भीम के विधिवत विवाह का उल्लेख नहीं है।
उस संक्रमणशील समय में विवाह संस्कार के साथ साथ प्राचीन रीतियाँ भी प्रचलन में थीं। महाभारत में ही विवाह संस्था के स्थापित होने की कथा भी है। 
एक दिन श्वेतकेतु ऋषि अपने आश्रम में थे। उसी समय एक अन्य वहाँ पहुँचे एवं श्वेतकेतु की माता को रमण हेतु ले कर चले गये। श्वेतकेतु ने इसका विरोध किया। तब उद्दालक ऋषि ने अपने पुत्र को समझाते हुए कहा कि अत्यंत प्राचीन काल से यही होता चला आ रहा है। संसार में सभी स्त्रियाँ इस विषय में स्वाधीन हैं। किंतु श्वेतकेतु ने इसे स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कहा कि यह पाशव प्रवृत्ति है। उन्होंने विवाह सम्बन्‍धी नियम बनाये। उन्होंने कहा कि जो स्त्री अपने पति को छोड़ कर अन्य पुरुष के साथ संसर्ग करेगी उसे घोर पाप लगेगा। जो पुरुष पतिव्रता स्त्री को छोड़ कर अन्य स्त्रियों के साथ रमण करेगा उसे घोर पाप लगेगा।
यहाँ कालखण्ड महत्वपूर्ण नहीं, यह महत्वपूर्ण है कि किसी सभ्यता ने इस तथ्य को सँजो कर रखा है। आदरणीय ऋषियों के नाम के साथ सँजो कर रखा है, वहाँ रखा है जिसे पञ्चम वेद तक की मान्यता है। यह भी महत्वपूर्ण है कि श्वेतकेतु के विधान को सबने स्वीकार कर लिया। क्यों कर लिया? क्योंकि समय की माँग थी, जीवन जटिल होता जा रहा था। आज भी वनवासी समाज में यौन सम्‍बन्‍धों के विधान उतने जटिल नहीं जितने नागर या ग्राम समाज के हैं किन्‍तु नागर या ग्राम समाज पश्चाभिगमन नहीं कर सकता। बहुत कुछ टूट जायेगा। 
हिडिम्बा प्रकरण को ले कर लिव-इन पर प्रश्न आया, एक मैंने भी किया था कि हिडिम्बा को अनुमति क्यों दी गई? अनुमति के साथ भीम को आदेश भी कि उसे तृप्त करो! 
आप सबने सुना होगा - when in Rome, do what Romans do! वन वन भटकते पाण्डव परिवार के पास विकल्प नहीं था, अपना धर्म भी देखना था जिसमें स्त्री की कामेच्छा पूर्ति निषेधों के साथ धर्म का अङ्ग बतायी गयी थी। राक्षस समाज में जो प्रिय लगे उसके साथ शयन कर संतान प्राप्त करना प्रचलित रीति थी। दो अपरिचित समाज टकराहटों में कैसे समाधान निकाल बन्धु हो सकते हैं, यह उदाहरण है। हिडिम्बा एवं भीम ने अग्नि प्रदक्षिणा कर विवाह नहीं किया, कुरुवंश को अंतर नहीं पड़ना था। हिडिम्बा किसी की व्याहता भी नहीं थी जो व्यभिचार का दोष लगता। हिडिम्बा की प्रार्थना उसके समाज के अनुकूल थी कि एक बली संतान हो सके जिसके लिये बली पुरुष से संसर्ग आवश्यक था। काम आकर्षण तो अपने स्थान पर था ही। जाने कितनों के प्रति हम आकर्षण का अनुभव करते हैं किंतु सबसे यौन सम्बंध ही तो नहीं बनाने लगते! विवाह कर्मकाण्ड यदि कुरुवंशी चाहते तो वह पूरी कर भी देती किन्‍तु उसका उसके लिये क्या महत्व होता? अर्जुन का उलूपी एवं चित्रांगदा से विवाह/सम्‍बंध भी ऐसे ही देखना होगा। 
आज के लिव-इन के समांतर देखें तो यह ध्यान में रखना होगा कि हिडिम्बा संतान प्राप्ति तक ही भीम को माँगती है। राक्षसी है किन्‍तु अपनी मर्यादाओं से बँधी भी है - ज्येष्ठ जन से भीम को माँगती है, अनुनय करती है। यौन सुख के साथ साथ सन्‍तान की प्राप्ति उसका उद्देश्य है। लिव-इन में ऐसा है क्या? लिव-इन किसी जोड़े का एक प्रकार से संतति के दायित्वों से स्वार्थी पलायन है जिसकी जड़ जटिल होती नागर व्यवस्था में है। ऐसे प्रकरण वृत्त की परिधि पर स्पर्शी रेखा की भाँति होते हैं, परिधि में घिरे क्षेत्र में नहीं आते। उनका उतना ही महत्व है, उतनी ही प्रासंगिकता है। यौन व्यवहार का नियमन सभ्यता की आवश्यकता है। उससे सम्‍बंधित व्यवस्थायें दोषपूर्ण हो सकती हैं किन्‍तु उनका विधायी प्रभाव, समाज को स्थिर उपद्रवहीन कर विकास की दिशा में बढ़ने हेतु समय, संसाधन इत्यादि की उपलब्धता सुनिश्चित कराना, स्थायित्त्व इत्यादि को मिला कर समग्रता में देखना होगा। विवाह संस्था का कोई उपयुक्त विकल्प इस जटिल समाज के पास सहस्राब्दियों पहले से ही नहीं रहा, आगे भी नहीं होना। अपवाद तो हर समय में रहे, परिपक्व समाज उनको सुन्‍दर ग्राह्य विधियों से स्थान भी देता रहा। यदि कोई पुरातन घटना का उदाहरण आधुनिक समय पर लगा कर माँग करे तो विकृतियाँ होनी ही हैं। बहुत पहले भाई बहन, माता पुत्र, पिता पुत्री के यौन सम्‍बन्‍ध होते रहे होंगे, पशुओं में अंत:प्रजनन अब भी होता है। उनका उदाहरण दे हम इस काल में तो वैसे नहीं चल सकते न! 
युधिष्ठिर द्वारा हिडिम्बा-भीम संसर्ग का केवल दिन में अनुमति देना तथा प्रत्येक रात भीम पर बंधुओं के पास आ जाने का अनुशासन उनकी सावधानी को दर्शाता है। राक्षसी है, रात में भीम के सोते हुये घात लगा जाने क्या कर बैठे? उसका क्या, कभी भी मानव मांस की लिप्सा सिर उठा सकती है, भीम तो उसकी दृष्टि स्वादिष्ट होंगे ही। रात में राक्षसों का बल बढ़ भी जाता है। दिन में भीम से पार पाना असम्भव है! अस्तु।

शनिवार, 21 अप्रैल 2018

अरण्यकाण्ड का एक श्लोक : कोयष्टि टिट्टिभ, टिटहरी, कठफोड़वा, कीचक, कीरक

अरण्यकाण्ड का एक श्लोक है:  
कोयष्टिभिश्चार्जुनकैः शतपत्रैश्च कीच(र)कैः। 
एतैश्चान्यैश्च विविधैर्नादितं तद्वनं महत् ॥ 

यह महत्वपूर्ण श्लोक है। पहला अर्द्धांश तोड़ते हैं: 
कोयष्टि+भि / कोयष्टिभि: 
च 
अर्जुनक+ ऐ (मात्रा बहुवचन हेतु) 
शतपत्र + ऐ (मात्रा बहुवचन हेतु) 
कीचक + ऐ (मात्रा बहुवचन हेतु)/ पाठभेद कीरक+ऐ 
... 
संदर्भ है जब पम्पा सरोवर तक पहुँचने से पूर्व राम लक्ष्मण गहन वन प्रांतर में होते हैं जोकि भाँति भाँति के वृक्षों से भरा हुआ है, विविध प्रकार के पक्षियों का कोलाहल है। 
... 
कोयष्टि का अर्थ होता है तन्वी लकड़ी की भाँति शाखा / पाँव वाला। भि: बहुवचन के लिये भी प्रयुक्त हो सकता है एवं संज्ञा का अंग भी हो सकता है। विद्वानों ने दो अर्थ किये - ऐसा वृक्ष जिसकी टहनियाँ बहुत पतली होती हैं, भोजपुरी में कहें तो छरका। 
दूसरा अर्थ टिभि से आया - टिट्टिभि - टिटहरी। इसके स्वर से तो आप परिचित ही होंगे। आजकल सुनाई दे तो कहते हैं सूखा पड़ेगा। गँवई घर की महिलायें सुनते ही आँगन में दो तीन बाल्टी पानी उड़ेल देती हैं - टोटका। 
विविधै: नादितं - विविध प्रकार के खग रव से जोड़ कर देखें तो यह अर्थ उचित लगता है किंतु प्रसंग में वानस्पतिक विविधता का ऐसा वर्णन मिलता है कि पहला अर्थ भी ठीक प्रतीत होता है। 
आगे बढ़ें अर्जुनक - पुन: समस्या, अर्जुन(क) वृक्ष भी होता है तथा अर्जुनक कठफोड़वे को भी कहते हैं, अर्जुन के वृक्ष सम्भवत: उसे अधिक प्रिय होते हों। खट खट की ध्वनि होती है जब चोंच मारता है - विविधैर्नादितं तद्वनं महत्! 
अगला शब्द - शतपत्र, पुन: समस्या। शतपर्णी वृक्ष होता है तथा मोर को भी शतपत्र कहते हैं। नाचते नर मोर के पंख ऐसे लगते हैं कि नहीं कि सैकड़ो पत्तों का घाघरा पहन नाच रहा हो! 
कीचक - एक प्रकार का पोला लम्बा छरहरा बाँस। इसके वन की विशेषता होती है कि जब इससे होकर वायु प्रवाह होता है तो कई प्रकार से सीटियों के बजने सी ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं। प्रसंग से तथा विविध नाद से यह शब्द उपयुक्त है - विविधैर्नादितं तद्वनं महत्। 
ठहरिये! एक पाठ कीरक भी तो है! 
कीरक कहते हैं तोते को। बहुत से तोते एक साथ हों तो जो कोलाहल करते हैं, उसे तो आप जानते ही हैं - विविधैर्नादितं तद्वनं महत्। 
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काव्यकर्म इसे कहते हैं जो आप को चेतना के अनेक आयामों का स्पर्श करा दे। इसे वही लिख सकता है जो वन वन का साथी रहा हो, यायावर हो, प्रेक्षक हो। 
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रामायण एवं महाभारत आख्यान कहे गये हैं। आख्यान अर्थात जो घटित हुआ उसका गान। सहस्राब्दियों तक कुशीलव एवं सूत गायकों ने इन्हें लोक में जीवित रखा। दिक्काल भेद से इनमें परिवर्तन भी हुये, परिवर्द्धन भी किंतु सतर्क सावधान पाठ से मूल तक अधिकांशत: पहुँचा जा सकता है जिसके लिये दो विधियाँ अपनायी जाती हैं - निम्न समीक्षा, उच्च समीक्षा - Lower Criticism, Higher Criticism. 
विशेषज्ञों का काम है। आप को मात्र यह ध्यान रखना है कि इन महाकाव्यों में प्राचीन भारत की समृद्धि को लिख कर संरक्षित कर दिया गया है, यह काम सहस्राब्दियों तक होता रहा।
रामायण काव्य एवं रामायण घटना - इन दो में अन्तर सम्भव हैं जिनके लिये लज्जित होने की आवश्यकता नहीं है अपितु गर्वित होने की आवश्यकता है कि हमारे पास ऐसा तंत्र था जिसने जाने कितनी आपदाओं के होते हुये भी समृद्धि को आगे की पीढ़ियों तक पहुँचाना सुनिश्चित किया। आप को पढ़ना है, मनन करना है, समझना है एवं आगे बढ़ना है। पुन: कह दूँ, आगे बढ़ना है। 
वैष्णवों! रामायण में मदिरा या मांस के प्रकरणों से मुँह चुराने की आवश्यकता नहीं है। उसे इतिहास कहा गया है, संदर्भ एवं प्रसंग के अनुसार पढ़ें। सातत्य का ध्यान रखें, क्षेपक होगा तो पता चल ही जायेगा। विविध प्रकार की मदिरा वही सभ्यता बना एवं उनका सभ्य अनुप्रयोग कर सकती है जो अति उन्नत हो। आसव, अरिष्ट, रस, रसायन तो आयुर्वेद के अंग हैं। यही बात विविध प्रकार के खाद्य के लिये भी सच है। 
दृष्टि ठीक रखिये, हीनता से मुक्ति मिलेगी। 
... पवित्रात्माओं! इसका अर्थ यह नहीं कि मैं दारूबाजी एवं मांस भक्षण का प्रचार कर रहा हूँ। यदि आप को ऐसा प्रतीयमान है तो मेरी असफलता। 
... 
शुभमस्तु।

रविवार, 15 अप्रैल 2018

वर्षा+शरद, हेमन्‍त+शिशिर

By Meinolf Wewel [CC BY 3.0 (https://creativecommons.org/licenses/by/3.0)], from Wikimedia Commons
जमदग्नि एवं ऋग्वैदिक ऋचा 'य॒ज्ञाय॑ज्ञा वो अ॒ग्नये॑ गि॒रागि॑रा च॒ दक्ष॑से । प्रप्र॑ व॒यम॒मृतं॑ जा॒तवे॑दसं प्रि॒यं मि॒त्रं न शं॑सिषम् ॥' पर विचरते आगे बढ़ा तो उसी सूक्त में मुझसे एक खोई हुई कड़ी मिल गयी। शिशिर के पश्चात बसंत ऋतु आती है। शिशिर में पत्ते झड़ने आरम्भ होते हैं तो बसंत तक वृक्ष वसन वस्त्र हीन हो पुन: नये धारण करने लगते हैं, संक्रमण काल होता है नवरसा का। उस सूक्त की आठवीं ऋचा रोचक है: विश्वा॑सां गृ॒हप॑तिर्वि॒शाम॑सि॒ त्वम॑ग्ने॒ मानु॑षीणाम् । श॒तं पू॒र्भिर्य॑विष्ठ पा॒ह्यंह॑सः समे॒द्धारं॑ श॒तं हिमा॑: स्तो॒तृभ्यो॒ ये च॒ दद॑ति ॥ शत शरद जीने के आशीर्वाद तो आप ने बहुत देखे होंगे। वर्षा के पश्चात शरद ऋतु आती है। वर्षा नवजीवन हेतु सृष्टि को समर्थ बनाती है किंतु उसके साथ बहुत कुछ अवांछित भी रहता है। उसका अंत देख एक और सुखदायी शरद देखने की कामना में उस आशीर्वाद का मूल है। किंतु इस ऋचा में शतं हिमा की बात की गयी है। विद्वानों ने इसे शत हेमंत बताया है। हेमंत, हिम का अंत जिसके आगे कड़ाके की ठण्ड वाला शिशिर होता है। हेमंत ऋतु वर्ष की सबसे 'स्वास्थ्यकर' ऋतु है। स्वभाव से ही क्षयी शरीर इस ऋतु में पुष्ट हो विस्तारी देह बनती है। जठराग्नि प्रदीप्त होती है त्वमग्ने मानुषीणां को शतं हिमा से मिला कर देखें तो इस आशीर्वाद में स्वस्थ जीवन बिताते हुये एक और पुष्टिकारक ऋतु तक जी लेने की कामना छिपी हुई है। नवप्रवालोद्रमसस्यरम्यः प्रफुल्लोध्रः परिपक्वशालिः। विलीनपद्म प्रपतत्तुषारोः हेमंतकालः समुपागता-यम्‌॥ (कालिदास, ऋतुसंहार) ब्राह्मण ग्रंथों को देखें तो रोचक तथ्य दिखते हैं। शतपथ में वर्षा एवं शरद को मिला कर पाँच ऋतुओं की बात की गयी है:
लोको॑वसन्त॑ऋतुर्य॑दूर्ध्व॑मस्मा॑ल्लोका॑दर्वाची॑नमन्त॑रिक्षात्त॑द्द्विती॑यम॑हस्त॑द्वस्याग्रीष्म॑ऋतु॑रन्त॑रिक्षमेवा॒स्य मध्यमम॑हरन्त॑रिक्षमस्य वर्षाशर॑दावृतू य॑दूर्ध्व॑म्न्त॑रिक्षादर्वाची॑नं दिवस्त॑च्चतुर्थम॑हस्त॑द्वस्य हेमन्त॑ऋतुर्द्यउ॑रेवा॒स्य पञ्चमम॑हर्द्यउ॑रस्य शि॑शिर ऋतुरि॑त्यधिदेवतम्।
शतपथ के पुरुषमेध का प्रारम्भ पाँव से होता है और पाँव है ऋतुओं में सर्वश्रेष्ठ बसंत! शतपथ का वर्षा और शरद को मिलाना उस ऋग्वैदिक कूट कथ्य से भी जुड़ता है जिसमें इन्द्र वृत्र को मार कर सूर्य और वर्षा दोनों को नया जीवन देते हैं। पुरुषमेध में यह देह का केन्द्रीय भाग अर्थात कटि है। ऐसा क्यों? इसमें उस समय की स्मृति है जब वर्ष का आरम्भ वर्षा से था। शरद मिला देने पर शरद विषुव जोकि वसंत विषुव से छ: महीने के अंतर पर पड़ता है, वर्षा के साथ आ जाता है, नाक्षत्रिक एवं ऋत्विक प्रेक्षणों के सम्मिलन से सुविधा हो जाती है।
ऐतरेय ब्राह्मण में हेमंत एवं शिशिर को मिला दिया गया है: हेमन्‍तशिशिरयो: समासेन तावान्‍संवत्सर: संवत्सर: प्रजापति: प्रजापत्यायतनाभिरेवाभी राध्नोति य एवं वेद। आजकल के आधे कार्त्तिक से आधे फाल्गुन तक के इस कालखण्‍ड में माघ महीना पड़ता है जो कभी संवत्सर का आरम्भ मास था, वही शीत अयनांत वाली उत्तरायण अवधि जिसे अब लोग संक्रांति के रूप में मनाते हैं। पुन: ऐतरेय ब्राह्मण वाला अंश पढ़ें तो! ... शेष पुन: कभी। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारी मान्यताओं में जाने कितनी सहस्राब्दियों के अवशेष छिपे हुये हैं। डूबने की आवश्यकता है।

शुक्रवार, 13 अप्रैल 2018

~ बिहने सतुवानि ह ‍~ बैसाखी, सौर नववर्ष

भारत में पञ्चाङ्गों की बड़ी समृद्ध परम्परा रही। एक साथ सौर एवं सौर-चंद्र तथा शीत अयनान्त एवं बसन्‍त विषुव के साथ आरम्भ होने वाले पञ्चाङ्ग प्रचलित रहे। जन सामान्य में चंद्र आधारित महीने यथा चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ इत्यादि ही प्रचलित रहे जोकि पूर्णिमा के दिन चंद्रमा की नक्षत्र विशेष के साथ संगति पर आधारित थे, यथा चैत्र में चित्रा पर, वैशाख में विशाखा पर। चंद्र की घटती बढ़ती कलाओं से बीतते दिनों की गिनती में सुविधा रहती थी। सौर आधारित महीने मधु, माधव इत्यादि मुख्यत: श्रौत सत्र आधारित गतिविधियों में प्रचलित रहे जिनकी चंद्र आधारित महीनों से संगति जन सामान्य में भी प्रचलित थी यथा चैत्र का महीना मधु है। तुलसीदास ने लिखा - नवमी तिथि मधुमास। ग्रेगरी का प्रचलित कैलेण्डर सौर गति आधारित है जिसका चंद्र कलाओं से कोई सम्बंध नहीं। आप के यहाँ जो अब संक्रांतियाँ मनाई जाती हैं, वे भी सूर्य गति से सम्बंधित हैं जिनका चंद्र कलाओं से कोई सम्बंध नहीं। इस कारण ही मकर संक्रांति प्रति वर्ष 14/15 जनवरी को ही पड़ती है तथा मेष संक्रांति 13/14 अप्रैल को। मेषादि राशिमाला का प्रथम बिंदु होने से यह सौर नव वर्ष होता है जिसे सतुवानि के रूप में भोजपुरी क्षेत्र में मनाया जाता है तो तमिलनाडु में नववर्ष के रूप में। पञ्जाब में बैसाखी के रूप में मनाया जाता है। रबी की सस्य के अन्न से जुड़े इस पर्व में जौ, चना इत्यादि का सत्तू ग्रहण करने का पूरब में प्रचलन है। अब आप पूछेंगे कि तब युगादि वर्ष प्रतिपदा क्या थी? नाम से ही स्पष्ट है - चंद्र मास का पहला दिन अर्थात वह नववर्ष चंद्र-सौर पञ्चांग से है। दोनों में क्या समानता है या दोनों कैसे सम्बंधित हैं? उत्तर है कि दोनों वसंत विषुव के दिन के निकट हैं जब कि सूर्य ठीक पूरब में उग कर ठीक पश्चिम में अस्त होते हैं। यह 20 मार्च को पड़ता है, उसके निकट की पूर्णिमा को चंद्र चित्रा पर होते हैं तो चैत्र शुक्ल प्रतिपदा चंद्र-पञ्जाङ्ग से नववर्ष होती है। 20/21 मार्च से 13/14 अप्रैल के बीच ~ 24 दिनों का अंतर है तो शीत अयनांत 21/22 दिसम्बर से 14/15 जनवरी के बीच भी इतने ही दिनों का। ऐसा क्यों है? वास्तव में हमलोग उत्तरायण मनाते थे, उसे सूर्य के अधिकतम दक्षिणी झुकाव से उत्तर के दिन से मानने का प्रचलन था तो वासंती विषुव के सम दिन से उत्तर की ओर बढ़ने का दिनांक भी महत्त्वपूर्ण था। जब 27 नक्षत्र आधारित गणना पद्धति में 12 राशि आधारित गणना पद्धति का प्रवेश हुआ तो उस समय मकर संक्रांति एवं मेष संक्रांतियाँ क्रमश: शीत अयनांत 21/22 दिसम्बर एवं वसंत विषुव 20/21 मार्च की सम्पाती थीं अर्थात सम्बंधित संक्रांति, अयन, विषुव एक ही दिन पड़ते थे। 12 राशियों में सूर्य की आभासी गति का प्रेक्षण 27 की अपेक्षा सरल था जिसे तत्कालीन ज्योतिषियों ने बढ़ावा भी दिया। सदियों में लोकस्मृति में संक्रांतियाँ ही रह गयीं, उत्तरायण को लोग उनसे ही जानते लगे किंतु धरती की धुरी की एक विशिष्ट गति के कारण सम्पात क्रमश: हटता जा रहा है। अब अंतर ~24 दिनों का हो गया है जो आगे बढ़ता ही जायेगा। ... गणित हो गया, अब प्रेक्षण।
कल सतुवान के दिन प्रात: साढ़े चार बजे उठ कर पूर्व उत्तर दिशा में देखें। तीन चमकते तारे दिखेंगे - सबसे ऊपर अभिजित, नीचे हंस एवं गरुड़ नक्षत्र मण्डल के सबसे चमकीले तारे। इन तीनों को मिला कर जो त्रिभुज बनता है उसे 'ग्रीष्म त्रिभुज' कहते हैं। अप्रैल आधा बीत गया। मई जून की झुलसाती धूप तो आने वाली है न, बैसाख जेठ की तपन के पश्चात आषाढ़ सावन भादो की झड़ी भी आयेगी।
वर्ष को वर्षा से ही नाम मिला। किसी विश्वामित्र के पत्रे में 21 जून से नववर्ष मिल जाय तो आश्चर्य चकित न हों, उस दिन ग्रीष्म अयनांत होता है, सूर्य देव अधिकतम उत्तरी झुकाव से दक्षिण की यात्रा आरम्भ करते हैं अर्थात घनघोर बरसते पर्जन्य की भूमिका। मानसून कब प्रबल होता है? वर्षा न हो तो धरा कैसे तृप्त हो? स्थावर जङ्गम को जीवन कैसे मिले? हरियाली कैसे हो? 21 जून से नववर्ष मनाने की तुक तो है ही, देखें तो उसके निकट कौन सी संक्रांति है? कहीं मनायी जाती है क्या?