शनिवार, 30 अप्रैल 2011

जोरू से बिगड़ी बात, हुये जाति से बाहर

बहुत दिनों पहले किसी पुरवे में एक आदमी रहता था। वह अपनी जाति पंचायत का मुखिया था। बहुत अनुशासनप्रिय था और निर्मम दंड देने के लिये जाना जाता था। एक दिन उसे कुलदेवी का सपना आया - तुम दंड देने में बहुत निर्मम हो गये हो। यह ठीक नहीं। अपने को सुधारो। 
सबेरे उसने अपनी पत्नी को बात बताई तो उस भली महिला ने उसे राह सुझाई - दंड ऐसा दो कि लोग बहुत दुखी न हों और भय भी बना रहे। 
मुखिया झुँझलाया - अपने पुओं की तरह नीरस गोलगाल बातें न करो। साफ साफ कहो। 
उसकी पत्नी ने समझाया कि मेंड़ डाड़ पर गोरू के मुँह मारने जैसी शिकायतों पर कुछ न करो, समझा दिया करो। बाकी जहाँ चार पैसे जुर्माना लगाते हो उसे एक पैसा कर दो। 
वह मान गया और कुछ दिन मामला ठीक चला लेकिन उसे यह लगने लगा कि लोगों ने उसे भाव देना बन्द कर दिया है। और जातियों के मुखिया उसकी खिल्ली उड़ाने लगे। पंचायत में धन की कमी हो गई लिहाजा उस वर्ष कुलदेवी की पूजा भी ठीक से नहीं हुई। लोग नाराज़ हो गये क्यों कि उन्हें तो धूम धड़ाके की आदत पड़ चुकी थी।
पत्नी ने कहा - इस तरह पूजा पाठ करना बेकार है। अगली बार मुझे पियरी ला देना। हम औरतें यह काम कर लेंगी। मुखिया को बात बुरी लगी और उसने अपनी पत्नी को खूब खरी खोटी सुनाई।    
कुछ दिनों में उसके दाहिने हाथ ने काँप पकड़ ली। कुलदेवी ने फिर दर्शन दिया - पैसे का दंड लगाना छोड़ दो हाथ ठीक हो जायेगा। उसने वैसा ही किया। हाथ ठीक होता गया और उसकी इज़्ज़त और कम होती गई। 
दूसरे साल की पूजा उसे अपने धन से करानी पड़ी। उसे इसका दुख नहीं था लेकिन दिन ब दिन घटती प्रतिष्ठा से वह बहुत परेशान हो गया। अब देवी ने भी दर्शन देना बन्द कर दिया था जैसे उन्हें उसकी इज़्ज़त से कुछ लेना देना ही नहीं! 
उसने अपनी पत्नी से फिर सलाह लिया। उसकी पत्नी ने कहा - अपनी इज़्ज़त अपने हाथ। 
उसे फिर समझ में नहीं आया। पूछने पर उत्तर मिला - इतनी सीधी बात नहीं समझ सकते तो जाति के मुखिया क्यों बने बैठे हो? छोड़ दो। 
छोड़ने की बात करती है!  उसे अपनी जोरू जबर लगी। उसने बात नहीं मानी, झुँझलाया भी कि इज़्ज़त के चक्कर में हाथ काँपना फिर से न शुरू हो जाय। लेकिन उसे एक बात समझ में आ गई कि उसे ही कुछ करना पड़ेगा। उसने यह भी तय किया कि अपनी पत्नी से सलाह लेना बन्द कर देगा। 
अब वह अपने पुराने ढर्रे पर लौट आया। हाथ काँपने के डर से पैसे का दंड लगाना तो बन्द रखा लेकिन बात बेबात लोगों को जाति बाहर करने लगा। कुछ ऐसे जैसे बकरी दूसरे के खेत में गई - परिवार जाति बाहर!
कुछ दिन बीते और उसे महसूस होने लगा कि खोई इज़्ज़त वापस आने लगी थी। एक दिन कुलदेवी ने सपने में फिर दर्शन दिये - तुमने अपनी हरकत नहीं सुधारी तो मैं तुम्हें छोड़ जाऊँगी। 
उसे कुलदेवी की धमकी समझ में नहीं आई। छोड़ने से क्या मतलब? मारे ज़िद के अपनी पत्नी से भी नहीं पूछा। 
कुछ दिन और बीते। 
एक सुबह उसके द्वारे उसकी बिरादरी वाले आये। एक ने आगे बढ़ कर कहा - हम तुम्हें विदाई देने आये हैं। जाति से विदाई।
मुखिया ने पूछा - इसका क्या मतलब? 
उसे उत्तर मिला - तुम निरे मूरख हो। तुम्हारी लोगों को जाति बाहर करने की आदत के कारण अब सिवाय तुम पति पत्नी के कोई और जाति में बचा ही नहीं। हम जातिबाहर लोगों ने मिल कर खुद को जाति में शामिल कर लिया है और तुम्हें जाति बाहर। 
बात यूँ बिगड़ी देख वह घर में घुसा कि पत्नी से सलाह ले, वह वहाँ नहीं थी। भीड़ में से एक बूढ़े ने बताया - वह तुम्हें छोड़ गई। कह रही थी कि उसने तुम्हें आगाह भी किया था लेकिन तुम नहीं माने। 
वह सिर पकड़ कर बैठ गया। उसे सब समझ में आने लगा। 
     
              

गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

तिब्बत - क्षेपक


पहले के भाग:
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अब आगे यह क्षेपक जिसे पोस्ट करना मुझे ज़रूरी लगा : 

उतर गया उफक से सूरज उफ उफ करते
उमसा दिन बीता बाँचते चीखते अक्षर
लिखूँ क्या इस शाम को नज़्म कोई
जो दे दिल को सुकूँ और समा को आराम
चलता रहेगा खुदी का खुदमुख्तार चक्कर
चढ़े कभी उतरे, अजीयत धिक चीख धिक।
सोचता रह गया कि उट्ठे गुनाह आली
रंग चमके बहसें हुईं बजी ताली पर ताली
पकने लगे तन्दूर-ए-जश्न दिलों के मुर्ग
मुझे बदबू लगे उन्हें खुशबू हवाली
धुयें निकलते हैं सुनहरी चिमनियों से
फुँक रहे मसवरे, प्रार्थनायें और सदायें। 

कालिखों की राह में दौड़ते नूर के टुकड़े
बहसियाने रंग बिरंगे चमकते बुझते
उनके साथ हूँ जो रुके टिमटिमाते सुनते
चिल्ल पों में फुसफुसाते आगे सरकते
गोया कि हैं अभिशप्त पीछे छूटने को
इनका काम बस आह भरना औ' सरकना।

करूँ क्या जो नाकाफी बस अच्छे काम
करूँ क्या जो दिखती है रंगों में कालिख
करूँ क्या जो लगते हैं फलसफे नालिश -
बुतों, बुतशिकन, साकार, निराकार से
करूँ क्या जो नज़र जाती है रह रह भीतर -
मसाइल हैं बाहरी और सुलहें अन्दरूनी
करूँ क्या जो ख्वाहिशें जुम्बिशें अग़लात?
करूँ क्या कि उनके पास हैं सजायें- 
उन ग़ुनाहों की जो न हुये, न किये गये 
करूँ क्या जो लिख जाते हैं इलजाम- 
इसके पहले कि आब-ए-चश्म सूखें 
करूँ क्या जो खोयें शब्द चीखें अर्थ अपना
मेरी जुबाँ से बस उनके कान तक जाने में? 
करूँ क्या कि आशिक बदल देते हैं रोजनामचा- 
भूलता जाता हूँ रोज मैं नाम अपना।
 (गिरिजेश राव)
  
(शब्दार्थ: उफक - क्षितिज; समा - समय; अजीयत - यंत्रणा; आली - भव्य, सखी; बुतशिकन - मूर्तिभंजक; अग़लात - ग़लतियाँ; आब-ए-चश्म - आँसू) 

तिब्बत में माओवादी कम्युनिस्टों की हरकतें देख ऐसा लगता है जैसे वे कह रहे हों: 
तुम्हारे हर उस  काम के लिये जो कि हमारे अनुकूल नहीं है, हमारे पास एक गरिष्ठ 'गाली' है। 
हम तुम्हें इतना कोसेंगे कि तुम अपनी ही आत्मा से डरने लगोगे। 
हम जो कहते हैं बस वही सच है, बाकी सब झूठ है। 
हमें झुठलाओगे तो हम तुम्हारी आत्मा और देह दोनों को मार देंगे।

तिब्बत आधारित लेखों को पढ़ने के बाद 27 अप्रैल को किसी ने मेल भेजा। अंग्रेजी की उस मेल का मुख्य अंश ज्यों का त्यों प्रस्तुत है। सरल अंग्रेजी है, आप लोग समझ जायेंगे। बस एक टर्म को समझा देता हूँ (इससे यह भी पता चलेगा कि 'गरिष्ठ बातों' और 'क्रांतिदर्शना शब्दावली' के पीछे सच किस तरह छिपाया जाता है और उसकी ऐसी तैसी कैसे की जाती है)

Patriotic–re-education (राष्ट्रवादी पुनर्शिक्षण): (अनुवाद में हुई किसी चूक के लिये कम्युनिस्ट और राष्ट्रवादी जन क्षमा करें और अपने हिसाब से जो सही लगे, समझ लें। सरल शब्दों में इसे ब्रेन वाशिंग भी कहा जा सकता है।) 

तिब्बत में आयोजित राष्ट्रवादी पुनर्शिक्षण बौद्ध मठों पर केन्द्रित एक अभियान है जो चीन की सरकार द्वारा चलाया जा रहा है। इसका उद्देश्य तिब्बती आस्था के मूल तत्वों में बदलाव है। सामान्यत: इसे 'अपने धर्म से प्यार करो, अपने देश से प्यार करो' द्वारा सन्दर्भित किया जाता रहा है लेकिन हाल ही में इसे 'विधिक शिक्षा' के रूप में री-ब्रांड किया गया है। इस अनिवार्य कार्यक्रम में, तिब्बती बौद्ध अपने आध्यात्मिक गुरु दलाई लामा को त्याग कर चीन और कम्युनिस्ट पार्टी में अपनी आस्था और जुड़ाव जताने के लिये बाध्य किये जाते हैं। यह कुकर्म उनकी आस्था और श्रद्धा (कम्युनिस्टों के लिये बुर्जुआ सामंती अवधारणायें) के विरुद्ध है और उनके लिये अत्यंत पीड़ादायी है। जो इन अभियानों का साथ नहीं देते उन्हें बर्बर यातना और पिटाई झेलनी पड़ती है। अगर वे भिक्षु/भिक्षुणी हुये तो उन्हें मठों से बाहर निकाल कर बन्धक बना लिया जाता है या जेल में सड़ने के लिये छोड़ दिया जाता है। 
यह धूर्त अभियान आस्था और विश्वास की स्वतंत्रता, विवेक और धार्मिक आस्था के अधिकारों के विरुद्ध है। यह क्रूर, अमानवीय और अपमानी अभियान निष्ठा और गरिमामय जीवन के मौलिक मानवीय अधिकारों का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन है।    
अब उस मेल के अंश जो तिब्बत के कृति मठ में जारी राष्ट्रवादी पुनर्शिक्षण अभियान की प्रक्रिया का 16 मार्च 2011 से 22 अप्रैल 2011 तक के समय का नंगा सच बताते हैं (अभियान अभी भी जारी है)।

As of present, Tibetans are still languishing under the dire state of Chinese brutality and forceful occupation. More than five decades had passed, but still the Tibetans in Tibet are suffering tremendously with the deprivation of fundamental human rights. Since March, Tibetans in Ngaba, Amdo, eastern part of Tibet and the monks of Kriti Monastery are facing a strict crackdown with the detention of around 300 monks and the killing of 2 Tibetans. Large contingent of Chinese armed personals have condoned the areas to limit the movement and also to crush the freedom struggle of Tibetan people. 

For more information, here is the chronology of the events which is taking place since March 2011.

Time-line of recent events in Ngaba:

March 16, 2011

•    20-year old Phuntsok Jarutsang's self-immolation sparks a major protest by monks and lay people in Ngaba, marking 3 years since Chinese security forces opened fire on a group of peaceful protesters, killing at least 10 people.

March 17, 2011

•    Phuntsok died at approximately 3am local time in Ngaba

•    Hunger strike staged by Upper Middle School students

March 19, 2011

•    Security intensified in-and-around Ngaba

March 20, 2011

•    Security Intensified in- and-around Ngaba

•    Monk officials at Kirti Monastery community leaders in-and-around Ngaba County were instructed to make sure no Tibetans in the region celebrated the March 20th, 2011 Tibetan Elections-in-Exile by lighting fireworks, burning incense, or throwing of windhorse prayer flags in the air.

March 21, 2011

•    Patriotic re-education campaign launched at Kirti Monastery, Ngaba.

March 22, 2011

•    Four Tibetans detained over suspicion of their involvement in Phuntsok’s protest including: 
Phuntsok’s brother Lobsang Tseten, 19, a monk from Kirti Monastery; Phuntsok’s maternal uncle Lobsang;
Tsundue Samdrup, a monk from Kirti monastery belonging to division 2 of Me’uruma township;
Lobsang Jamyang, 16, was arrested from his home in Upper Tawa, Ngaba County between 12 and 1 am.

March 23, 2011

•    Kirti Monks ordered by Chinese officials to improve their awareness of Chinese law and regulations.

•    Monks were issued copies of three handbooks 1) on the constitution of the P.R.C., 2) on the law concerning (respect for) the PRC flag and 3) PRC regulations on the mediation of public disputes.

March 24, 2011


•    Several Tibetans arrested in-and-around Ngaba including:
- Police took Lobsang Choemphel, 24, monk from Kirti Monastery away from the monastery compound. The reason for his arrest and other details are unknown.
- Lobsang Ngodup, 32, a monk at Kirti Monastery's Tantric College from upper Chukle in Cha Township, Ngaba County was arrested. The reason for his arrest is unknown.
•    Local authorities called public meetings in upper Tawa and Gapma villages in Ngaba County, and instructed people to report for security duty at Kirti monastery in order to prevent further protests by the monks. Anyone failing to do so would be fined 30 yuan per day of non-attendance.

March 25, 2011

•    Further Arrests: Lobsang Tsepak, 27, a Kirti monk and student at Beijing Minorities University was arrested around 6pm. Reasons for arrest and other details are unknown.

April 1, 2011
•    Security crackdown intensifies: Large numbers of Chinese armed troops sent to reinforce the blockade surrounding Kirti Monastery. The troops entered the compound and prevented the monks from moving freely, including a 70 years old monk. It is now feared that if this blockade continues, the monks will face problems obtaining daily essentials.

April 8, 2011

•    Crackdown at Kirti Monastery continues. Lobsang Gelek (MONK?), approximately 27 years old, a native of Meu Ruma was arrested; reason for arrest unknown.

April 11, 2011

•    Further Arrests at the Kirti Monastery: Lobsang Dhargyal, 31, was arrested from the Monastery; again reasons for unrest unknown.

April 12, 2011

•    Tibetans fearing Chinese authorities were planning to storm Kirti Monastery and forcibly remove all monks between the ages 18 and 40 into local prisons where they would be subjected to repressive “political reeducation", blockaded the inner entrance to the monastery. Armed police and soldiers tried to break through the crowd by beating the Tibetans and setting police dogs on them.

April 13, 2011

•    The stand-off continues with hundreds of lay-people remaining on duty at the entrance of the monastery. Monks were ordered not to leave the monastery premise until government officials completed the “patriotic reeducation” campaign.

April 14, 2011

•    A meeting was held with senior monks from Kirti Monastery and representatives of Beijing’s United Front Work Department. The monks raised grave concern over the closing of the monastic school but the United Front Work Department ministers failed to respond.

April 15, 2011

•    Police restrictions of any form of gathering or expression of protest were reinforced in Ngaba County and particularly at the Kirti Monastery.

•    Arrests at Kirti Monastery were made but names of those arrested could not be confirmed.

•    The “patriotic reeducation”campaign in Kirti Monastery was made mandatory for government staff and school children to attend. Government officials from nearby Zogye County were also forced to join the “patriotic reeducation” sessions at Kirti Monastery.

April 16, 2011

•    The intensive “patriotic reeducation” campaign continues as security forces threaten monks that failure to comply will result in closure of the monastery.

April 17, 2011

•    China’s “patriotic reeducation” campaign continues at Kirti Monastery.

•    Students at Ngaba’s Upper Middle School were restricted from leaving the premise. The students had staged a hunger strike on March 17 to show solidarity with Phuntsok’s self-immolation.

•    A large number of army arrived in nomadic areas of Meu Ruma, Upper and Lower Chukley, Raru, Naktsangma and Chashang. Nomads were summoned to Raru Ghar and forced to sign a an order that was not translated or explained to them.

April 18, 2011

•    China’s “patriotic reeducation” campaign continues at Kirti Monastery.

•    Military and police officials search conduct house-to-house raids in Jeleb Division, Ngaba County.

 April 19, 2011

•    During the “patriotic reeducation” sessions, a high-ranked Chinese official threatened the monks, saying that if the they did not behave, he had the power and ability to destroy their very way of life.

•    In the evening, groups of around 10 security forces, including police, army and government officials patrolled the monastery, interrogating the monks. Several monks were severely beaten for not responding correctly.

•    A number of neighbouring monasteries were also warned and their monks’ movements restricted.

•    Around 200 lay people, mostly those between 60- 70 years of age continued their sit-in outside Kirti Monastery to prevent security forces from forcibly removing monks from the monastery.

 April 20, 2011

•    Around 800 Chinese government officials from neighboring provinces arrived at the monastery to forcibly quell unrest and opposition.

•    Officials, armed forces and police entered each monastic quarter, 10 officials at a time. Monks who did not comply with their forced questioning were severely beaten and tortured; including being tied to a tree for many hours.

•    At the same time, officials staged propaganda news broadcasts at the monastery to cover up the crackdown. 



April 21, 2011

•    All telephone networks were shutdown.

•    Between 9pm – 4am Chinese military, police and members of the People’s Armed Police, arrested more than 300 monks from the Kirti Monastery.

•    Around 200 lay people – many of them over 60-years old – tried to stop the armed forces and the police from arresting the monks. The protesters were severely beaten and two people unjustly killed.

•    The unjustly killed were 60-year old Donko of Upper Tawa and 65-year old Sherkyi of the Rako Tsang house in Naktsangma.

•    An unknown number of people were also taken away in military trucks to camps in undisclosed locations. 



April 22, 2011

•    All vehicles – except military and police vehicles were restricted from coming in on the main road. market Most lay people arrested the previous night were released around 9am. The younger prisoners, however, remained in custody.

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वर्तमान व्यवस्था के मोहभंगी कुहासे में अपने ही घर फूँकने वाली माओवादी मशालों को हम क्रांति की वाहक न समझें तो ही भला।                                      (अगला भाग) 

रविवार, 24 अप्रैल 2011

तिब्बत- चीखते अक्षर : प्राक्कथन


चीनी कम्युनिस्ट शक्तियों द्वारा तिब्बत पर सशस्त्र क़ब्जा और एक प्राचीन बौद्ध संस्कृति का विनाश आधुनिक समय की सबसे भयानक त्रासदियों में से एक है। पिछ्ले कुछ वर्षों में विभिन्न क्षेत्रों से तिब्बत समस्या को पर्याप्त प्रचार प्रसार मिला है और यह समस्या बहुत तेजी से अंतरराष्ट्रीय समस्या बनती जा रही है। इसे जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार आयोग के आगे प्रस्तुत किया गया है।

तिब्बत की समस्या तत्काल ध्यान माँगती है क्यों कि हजार के हजार चीनी तिब्बत में प्रवेश कर रहे हैं और तिब्बतियों की विशिष्ट ‘जन, संस्कृति और धर्म समूह’ पहचान के ऊपर विलीन होने और पूर्णत: नष्ट हो जाने का अभूतपूर्व खतरा मँडरा रहा है।

बहुत पहले 1959 में ही, विधिवेत्ताओं के अंतरराष्ट्रीय आयोग ने अपनी रिपोर्ट ‘तिब्बत और विधि-शासन के प्रश्न’ में उल्लिखित किया कि वहाँ जातिसंहार (genocide) के आपराधिक वृत्ति प्रयोजन ( mens rea) और आपराधिक कदाचार (actus reus), दोनों प्रमाण पाये गये।  इस रिपोर्ट के अनुभाग ‘जातिसंहार का प्रश्न’ के अंतिम अनुच्छेद में यह लिखा गया: ... इसलिये यह आयोग आग्रहपूर्ण आशा करता है कि यह मामला संयुक्त राष्ट्र संगठन द्वारा तत्काल उठाया जायेगा। क्यों कि इस समय जो जातिसंहार के प्रयास की तरह लग रहा है वह तत्काल और पर्याप्त कार्यवाही के अभाव में पूर्ण जातिसंहार के कृत्य में बदल जायेगा। तिब्बत का अस्तित्त्व और तिब्बतियों का जीवन दोनों दाँव पर लगे हैं और विश्व के सर्वोच्च अंतर्राष्ट्रीय संगठन के मार्फत सच का खुलासा करने योग्य पर्याप्त नैतिक शक्ति शक्ति संसार में कहीं न कहीं अवश्य बची होगी।

चीनी लेबर कैम्प में  बँधुआ/बेगार तिब्बती मज़दूर 
यह दुखद है कि तिब्बती लोगों के लिये आयोग द्वारा व्यक्त की गई आशंका लगभग भविष्यवाणी ही साबित हुई क्यों कि चीन ने एक क्रूर और सुनियोजित कार्यक्रम के तहत पूरे तिब्बत में फैले हजारो बौद्ध मठों को लूटा और नष्ट कर दिया, छोटे बच्चों को जबरन चीन की ओर निर्वासित किया, बोदे बहाने बना कर अंधाधुन्ध बड़े नरसंहार किये और स्त्रियों पुरुषों दोनों के जबरन बन्ध्याकरण किये। इस अभियान में मुख्य निशाना धार्मिक व्यक्तित्त्वों जैसे भिक्षु, भिक्षुणी और नाग्पा (तांत्रिक) आदि पर था। जिनकी हत्या कर दी गई उनमें सर्वोत्तम विद्वान भी सम्मिलित थे और छ्ठे और प्रारम्भिक सातवें दशक में एक समय ऐसा आया कि पूरे तिब्बत में कहीं एक भी भिक्षु नहीं दिखता था। तिब्बत के धार्मिक समुदाय का विनाश कम्पूचिया के पोल पॉट शासन की याद दिलाने वाली क्रूरता और सम्पूर्णता के साथ किया गया।

हालाँकि तीन अलग अलग अवसरों पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने तिब्बत में मानवाधिकार हनन के बारे में अपनी गहरी चिंता जताई लेकिन उस समय इसके आगे जाने में असमर्थ रहा। फिर भी, हम यह तर्कसंगत विश्वास रखते हैं कि चूँकि तिब्बत का प्रश्न एक बार पुन: अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महत्त्वपूर्ण हो रहा है और चीनी तिब्बतियों का सांस्कृतिक जातिसंहार कर रहे हैं; इसके सदस्य राष्ट्र चीन के ऊपर प्रतिबन्ध को लेकर सामने आयेंगे जैसा कि दक्षिण अफ्रीका के साथ अक्सर किया गया है।

जातिसंहार के रोकथाम और दण्ड के लिये सम्मेलन (9 दिसम्बर 1948) में, जो कि संयुक्त राष्ट्र की आम महासभा के संकल्प 96(1) दिनांक 11 दिसम्बर 1946 के अनुसरण में हुआ था, जातिसंहार को समस्त राष्ट्रों के क़ानून के विरुद्ध अपराध की संज्ञा दी गई है। जिन राष्ट्रों ने वहाँ हस्ताक्षर किये उन्हों ने जातिसंहार के रोकथाम और उसे दंडित करने का प्रण लिया। इसलिये, प्रत्येक उस राष्ट्र का जिसने कि हस्ताक्षर किये, यह नैतिक दायित्त्व बनता है कि वह जातिसंहारक कृत्यों के विरुद्ध कार्यवाही करे।

तिब्बत में चीनी रहवासियों के विशाल पैमाने पर हो रहे घुसपैठ के कारण तिब्बतियों द्वारा अपनी राष्ट्रीय पहचान खो देने का खतरा पहले के मुकाबले आज कहीं अधिक है। संयुक्त राष्ट्र इससे अनजान नहीं रह सकता। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग के लिये एक अराजनैतिक संस्था वैज्ञानिक बौद्ध संगठन (Scientific Buddhist Association) द्वारा एक वृहद रिपोर्ट ‘Tibet : The Facts’ तैयार की गई। यह रिपोर्ट तिब्बत की परिस्थिति का सम्पूर्ण और वस्तुनिष्ठ आकलन प्रस्तुत करती है। यह रिपोर्ट चीन से तिब्बत की स्वतंत्रता के पक्ष या विपक्ष में तर्क नहीं रखती और अपनी वस्तुनिष्ठता और तथ्यगत परिशुद्धता के लिये व्यापक रूप से सराही गयी है। यह रिपोर्ट तिब्बत समस्या को समझने के लिये स्पष्ट खाका प्रदान करती है और चीनी अधिकारियों द्वारा तिब्बत में सन् 1950 से किये गये भीषण मानवाधिकार हननों का लेखा जोखा प्रस्तुत करती है।

तिब्बत के बारे में हाल ही में उपलब्ध हुये नये तथ्यों और सामग्रियों के उपयोग द्वारा वैज्ञानिक बौद्ध संगठन ने इस रिपोर्ट को अद्यतन किया है और हम उन्हें इस रिपोर्ट की पुनर्प्रस्तुति के लिये दी गई अनुमति के लिये धन्यवाद देते हैं। हम अद्यतन रिपोर्ट का पाठ उपलब्ध कराने के लिये श्री पॉल इंग्राम को विशेष रूप से धन्यवाद देते हैं।

7 अक्टूबर 1986                                                              सोनाम नोर्बु दैग्पो
                                                                                             चेयरमैन
                                                                                   तिब्बती युवा बौद्ध संगठन
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मूल (Original) : TIBET : THE FACTS
Copy Right : Scientific Buddhist Association, London, 1984
First Revised Edition : The Tibet Young Buddhist Association, Dharamsala, India with Permission of SBA.

प्रस्तुत हिन्दी अनुवाद ऊपर उल्लिखित अंग्रेजी मूल से किया गया है। इसका उद्देश्य मात्र चेतना और ज्ञान प्रसार है, किसी भी तरह का व्यवसायिक या आर्थिक लाभ नहीं। विभेद की स्थिति में अंग्रेजी पाठ ही मान्य होगा। 

पोल पॉट(खमेर रूज) पर हिन्दी में सामग्री यहाँ और अंग्रेजी में यहाँ उपलब्ध है। (अगला भाग)          

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

चिरकुट चर्चा और थोड़ी सी हलकटई

शेयर मार्केट जैसे सॉफिस्टिकेटेड क्षेत्र में 'चिरकुट'!
अनिल रघुराज को मेल कर एक 'सर्वहारा शब्द' को 'पूँजीवादी क्षेत्र' में स्थान देने के लिये बधाई दिया जिसे उन्हों ने सहर्ष स्वीकार किया। (यह अलंकारिक भाषा शैली है, वाकई ऐसा होने की गारंटी नहीं है।)
मन में चिरकुटई जोर मारने लगी - यार! इस शब्द का उत्स क्या है? फेसबुक पर मित्रों के लिये यह सन्देश पठाया (जाहिर है कि चिंतन में चिरकुटई कर गया। फेसबुक पर 'फेस वैल्यू' टाइप सन्देश!)
चिर = हमेशा, लम्बी अवधि का।
कुट = घर, गृह, दुर्ग, गढ़, पत्थर तोड़ने का हथौड़ा, कलश, पहाड़, वृक्ष।
तो
चिरकुट = ????
इसे आर्जव ने पसन्द किया। चिरकुटों का बन्धुत्व!
नीरज बसलियाल ने प्रयास किया:
"लम्बी अवधि का पत्थर तोड़ने का हथौड़ा" 
इससे यह स्पष्ट हो गया कि वह मेरे टाइप के विद्वान हैं। मुझे पसन्द भी हैं क्यों कि अपने कुछ हमउम्र मित्रों के इस ताने के बावजूद कि तुम फालतू बुढ्ढों की दोस्ती में बोरिंग होते जा रहे हो, वह मुझे भाव देना और मेरी अहमकाना बातों को सुनना (listen या hear तो वही जानें) नहीं छोड़ते। बाकी किसी ने ज़हमत नहीं उठाई। निष्कर्ष यह कि उन्हें छोड़ कर फेसबुक की मेरी बाकी मित्रमंडली चिरकुटई में विश्वास नहीं रखती।
सुबह चिरकुट मामला गम्भीर हुआ तो थोड़ा जोर लगाया और यह बात ध्यान में आई:
चिरकुट कपड़े के बेकार छोटे पुराने भद्दे टुकड़े को कहते हैं। वस्त्र को 'चीर' भी कहा जाता था। यही लोकबोली में उस समय चिर हुआ होगा जब टुकड़े की क्षुद्रता दिखाने के लिये साथ में प्रत्यय जोड़ा गया होगा। 'कुट' का उत्स भी देसज ही है लेकिन स्पष्ट नहीं हो पा रहा।
अब किसे कहाँ चिपकाया जाय? अचानक ही शब्द चर्चा ग्रुप मन में कुलबुलाया जहाँ बहुत से विद्वान चिरकुट पंजीकृत हैं और शब्दों को लेकर आयँ, सायँ, बायँ, दायँ करते रहते हैं। वहाँ पोस्ट किया और दिनेशराय द्विवेदी का पहला उत्तर आया:
हाड़ौती में कपड़े के बेकार छोटे पुराने भद्दे टुकड़े को 'छींतरा' कहते हैं।
दूसरे उत्तर में ही निर्मलानन्द अभय तिवारी ने मुझे इन सुघर शब्दों में मुझे चेताया:
गिरजेश('इ' की मात्रा 'र' से मिसिंग!) भाई, इस पर पहले चर्चा हो चुकी है, देखिये इसे: https://groups.google.com/group/shabdcharcha/browse_thread/thread/76e286a932b0e5ad/dd94a25cdb6db169?hl=en&lnk=gst&q=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%9F#dd94a25cdb6db169
और अजित भाई के अनुसार यह  चिरकुट शब्द चीर+कृतं से बना है। उनका विश्लेषण विस्तार से पढ़ने के लिए यहाँ देखें: http://shabdavali.blogspot.com/2008/10/blog-post_10.html
उन शब्दों में अंतर्निहित हड़क तत्त्व से मैं पानी पानी हो गया - यार! ‘चिरकुट’ शब्द पर मसाला ढूँढ़ने में इतना मेहनत करने के पहले तुम्हें ब्लॉग जगत के ये दो धुरन्धर क्यों ध्यान में नहीं आये?
अनूप शुक्ल और अजित वडनेरकर। अजित वडनेरकर ने चिरकुट पर विद्वता का प्रदर्शन किया है तो आशा के अनुरूप ही अनूप शुक्ल ने चिरकुट से अधिक चिरकुटई पर फुरसतई की है (लिंक आगे है)।
आप लोग इन विद्वानों के ये लेख अवश्य पढ़ें।
अभय तिवारी को मैंने यह ज्ञापन दिया:
धन्यवाद।
मुझे भी पहले ही सोच और ढूँढ़ लेना चाहिये था कि इस 'लोकप्रिय दिव्य'
शब्द पर चर्चा हो चुकी है या नहीं? चिरकुटई से बाज नहीं आया मैं ;)
ज्ञान प्रसार हेतु क्या यह चर्चा लिंक देकर अपने ब्लॉग पर डाल सकता हूँ?
जिसका अनुमोदन उन्हों ने 'बेशक' कर दिया। लिहाजा शब्द चर्चा की चिरकुटई भी यहाँ कॉपी पेस्ट कर रहा हूँ:
_____________________________
बनारस और अन्य इलाकों में यह गाली बहुतायत प्रयोग की जाती है। इसका क्या
इतिहास-भूगोल है ?
चिरकुट का अर्थ पुराना, स्थान स्थान से फटा कपड़ा है।
मुझे नहीं पता था कि चिरकुट कोई गाली है।
यह "शैतान" या "हरकती" या "नटखट" के अर्थ में किसी व्यक्ति के लिए प्रयोग किया जाने
वाला शब्द है।
वैसे जबसे ओरकुट आया है तब से उसकी साइट की कोडिंग में अनेकों त्रुटियों के कारण ओरकुट का नाम हमने मज़ाक में चिरकुट रख दिया है।
कृपया बताएँ कि यदि यह गाली है तो इसका अर्थ क्या है। यदि यह गाली है तो मुझे इसका
प्रयोग नहीं करना चाहिए।
रावत
चिरकुट गाली नहीं है.
आपने ऑर्कूट को चिरकुट कहा होगा मगर चिरकुट.कॉम सचमुच में एक साइट थी जो अब
बन्द हो गई है शायद.
चिरकुट "लघुता" दर्शाने के लिए भी उपयोग में लिया जाता है, मगर चिरकुटाई के तहत
ही.
एक चिरकुट चिंतन कभी किया था हमने देखिये यहां
http://hindini.com/fursatiya/archives/446
अनूप शुक्ल
मेरे एक सहयोगी मित्र रमेश सहाय इस समय मेरे सामने बैठे हैं और बता रहे हैं कि चिरकुट शब्द कुर्कुट से आया है । कुर्कुट का मतलब मुर्गा होता है । अंग्रेज़ी में चिर्प (Chirp) का मतलब चें चें करना होता है । तो अपने कालेज के दिनों में जब वे लखनऊ में हास्टल में रहते थे, तब वे लड़कों को कुर्कुट कहा करते थे ।
लड़कियों के लिए उन्होंने और उनके दोस्तों ने यह चिरकुट शब्द बनाया था। यानी चेंचें कर ने वाली । अंग्रेज़ी के चिर्प और हिन्दी के कुर्कुट को कुट लेकर ।
इनका कहना है कि तब पचास साल पहले जब ये शब्द इन लोगों ने बनाया था, इन्होंने यह नहीं सोचा था कि त्यह शब्द इतना लोकप्रिय हो जाएगा कि हिन्दी भाषा का एक शब्द ही बन जाएगा और उसका लोग विभिन्न अर्थों में इस्तेमाल किया करेंगे ।
रमेश सहाय जी ने अभी बताया कि हलकट शब्द भी अंग्रेज़ी के ’हेलकैट’ शब्द से ही आया है। अंग्रेज़ी में हेलकैट का मतलब होता है डायन । इसी से हिन्दी में हलकट शब्द बन गया  और फिर भिन्न अर्थों में उसका उपयोग होने लगा।
कृपया हमारी ये वेबसाइट देखें
www.kavitakosh.org
www.gadyakosh.org
1936 में संपादित रसाल जी के शब्दकोष में चिरकुट का अर्थ दिया है,
चिरकुट(चिर+-कुट= काटना) फटा पुराना कपड़ा, चिथड़ा, गूद़ड़।
अबक्या रमेश रहाय जी ने 1936 में कालेज की पढ़ाई पूरी कर ली थी
क्या रसाल जी ने सहाय जी से लेकर यह शब्द अपने कोष में रखा।
धन्यवाद आभा जी! मैंने रमेश जी को आपकी बात बता दी है। वे बगलें झाँक रहे हैं
और कह रहे हैं कि हो सकता है पहले भी इस तरह का कोई शब्द रहा हो ।
धन्यवाद भाई
सहाय जी को हलकट के बारे में भी बता दें
हलक के माने अरबी में गला होता है
जो गला काटे वह हलकट होगा....
यानी हलकट गरकटवा है
अनूप जी ,आप की पोस्ट -चिरकुट शब्द देखते ही याद आई...,।
मुझे नहीं लगता कि हलकट को गला काटने वाले के अर्थ में प्रयोग करते हैं। ये तो मुन्नाभाई
प्रकार की भाषा है, गुण्डे लोग किसी को चमकाने के लिए इस शब्द का प्रयोग करते हैं, अबे
ओ हलकट। अब, जो गला काटने वाला है, उससे लोग डरेंगे, उसके लिए इस तरह से इस शब्द
का प्रयोग कैसे करेंगे वरना उनका ही गला कट जाएगा।
कृपया इसके और अर्थ बताएँ।
रावत
चिरकुट का इतिवृत्त जानिए यहां-
एनडीटीवी में चिरकुट चर्चा
<
http://shabdavali.blogspot.com/2008/10/blog-post_10.html>
शुभकामनाओं सहित
अजित
गुरु ग्रन्थ में कबीर का फुरमान है;
कहै कबीरु सुनहु रे संतहु मेरी मेरी झूठी,
चिरगट फारि चटारा लै गइओ तरी तागरी छूटी
यहाँ चिरगट का अर्थ पिंजरा किया जाता है. क्या यह चिरकुट ही तो नहीं?
Baljit Basi
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इस चर्चा के बहाने अपनी अपनी चिरकुटई लेकर ढेरों चिरकुट यहाँ इकठ्ठे हो गये हैं। मैं निश्चिंत हूँ कि 'चिरकुट' या 'चिरकुटई' पर सन्दर्भ के लिये भविष्य में लोगों को अन्यत्र नहीं जाना पड़ेगा।  

बुधवार, 20 अप्रैल 2011

तिब्बत- चीखते अक्षर : अपनी बात

  
Picture 14
साम्यवादी चीन में तिब्बती बच्चे 
मार्क्सवाद चिंतन की एक द्वन्द्ववादी, भौतिकवादी पद्धति है जिसका उद्देश्य सामंतवाद-पूँजीवाद-समाजवाद से आगे साम्यवादी समाज की स्थापना है जहाँ ‘सब बराबर’ होते हैं। अपनी सुव्यवस्थित, निर्मम और बराबरी की रोमान्टिक अवधारणा के कारण मार्क्सवाद सदा से ही युवा वर्ग को आकर्षित करता रहा है और रहेगा। भाववादी चिंतन के विपरीत यह मनुष्य के विकास और कल्याण के लिये मनुष्य को ही पर्याप्त मानता है, ईश्वर को नकारता है और धर्म को अफीम की संज्ञा देता है जो सोचने की तार्किक क्षमता को कुन्द कर देता है। वर्गसंघर्ष और क्रांति मार्क्सवाद के उद्देश्यप्राप्ति हेतु अस्त्र हैं।
 मार्क्स के अलावा ऐसे चिंतन के और भी ‘वैरियेंट’ रहे हैं, जैसे – 'बन्दूक की बैरल से क्रांति उगलता' माओवाद, उत्तर कोरिया में किम-इल-सुंग की 'चुच्चे (juche)' चिन्तन पद्धति आदि। कुछ लोग पहली क्रांति (रूस, सोवियत संघ) के जनक के नाम से लेनिनवाद को भी कुछ अंतरों के कारण अलग मानते हैं। सर्वहारा(उत्पादन के स्रोतों से वंचित और श्रम को बेच कर जीने वाला वर्ग) की निरंकुशता का प्रतिपादन करने वाले इस चिन्तन ने इतिहास में दो बड़ी क्रांतियाँ कीं - रूस की क्रांति और चीन की क्रांति। राज्य के शोषण, दमन और निरंकुशता के विरुद्ध खड़ा यह स्वघोषित ‘लोकतांत्रिक’ आन्दोलन जब सत्ता में आया तो कई गुना दमनकारी हो गया। सोवियत संघ में स्टालिन ने हिटलर से भी अधिक लोगों को लम्बी यातनायें देकर मरवा दिया। चीन के साम्राज्यवादी कारनामें और दमन तो जग जाहिर हैं ही।

ईश्वर को पूर्णत: नकारने वाले और मानव मेधा की वकालत करने वाले मार्क्सवादियों के लिये मार्क्स या माओवादियों के लिये माओ स्वयं किसी ईश्वर से कम नहीं। अन्धानुसरण से वैचारिक असहिष्णुता आती है जिसकी चरम परिणति उसी जन के दमन में होती है जिसके कल्याण के लिये क्रांतियाँ की जाती हैं। वैचारिक अतिवाद कितना घातक हो सकता है, इसका ज्वलंत उदाहरण है – तिब्बत। माओ के लालों ने तिब्बत में यातना, दमन, विनाश और हत्याओं का जो नंगा नाच किया वह छिपा नहीं है। फिर भी अन्धसमर्थक और मस्तिष्क को  मार्क्स/माओ जैसे 'ईश्वरों' के यहाँ गिरवी रखे लोग चीन के तंत्र को ‘राज्य नियंत्रित पूँजीवाद’ और सोवियत तंत्र को ‘सुविधाभोगी समझौतावादियों का तंत्र’ बता कर जनता को उन क्षेत्रों में मूर्ख बनाते रहे हैं जहाँ तथाकथित ‘क्रांतियाँ’ नहीं हुई हैं लेकिन उसकी सम्भावनायें पूँजीवादी शोषण तंत्र के कारण परिपक्व हैं। इनके हर तंत्र जनविरोधी साबित हुये हैं फिर भी ये बराबरी के ‘स्वर्णयुग’ के सब्जबाग दिखाने में लगे हुये हैं। वे इस तथ्य को भुला चुके हैं कि प्रगति की मौलिक शर्त है - वैचारिक कार्मिक स्वतंत्रता। व्यक्ति, समाज और परिवेश के आपसी आदान प्रदान और द्वन्द्व की स्थिति में विचार स्थैतिक नहीं रह सकते। अगर रहेंगे तो अन्तत: निरंकुश क्रूर दमन को ही जन्म देंगे चाहे उनके कारक सामंतवादी हों, पूँजीवादी हों या साम्यवादी हों। पिसेगा मनुष्य ही।
 तिब्बत केन्द्रित प्रस्तुत अनुवाद अलग किस्म के इन मठाधीशों की करनी को उजागर करता है। एक पूरी सभ्यता को माओवादियों ने न केवल नष्ट भ्रष्ट कर दिया बल्कि अपार जनहानियाँ भी कीं। ‘स्वर्णिम युग’ के लिये भारत के जंगलों और गाँवों में क्रांति के नाम पर लूट और भयदोहन करने वाले मानवता के अपराधी सत्ता हाथ में आने पर कितने नीचे गिर सकते हैं, यह दस्तावेज उसकी झाँकी है।

मानव मस्तिष्क में सच जीवित रहे इसलिये उसे बार बार बताना पड़ता है। ‘बिनायकी’ हो हल्ले के जमाने में सतर्क ‘वाणी’ को बोलना ही चाहिये। इस लोकतंत्र में इसकी स्वतंत्रता तो है!
अगले अंक से अनुवाद प्रस्तुत करूँगा। (अगला भाग)

गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

महापंडित का पत्र महाधिनायक के नाम


Rahul_Sankrityayan_(1893-1963) महापंडित राहुल सांकृत्यायन
(1 अप्रैल,1893 - 14 अप्रैल,1963) 
 
 
महापंडित पर विस्तृत सामग्री विकिपिडिया हिन्दी पर उपलब्ध है। इस लेख के लिये सामग्री वहाँ से भी ली गई है जिसके लिये मैं आभार व्यक्त करता हूँ।
'हिन्दी' के लिये आजीवन समर्पित इस घुमक्कड़ ने वर्तमान हिन्दी के लिये 'खड़ी बोली' शब्द का प्रयोग किया। उत्तर प्रदेश के ग्राम पन्दहा, जिला आज़मगढ़ में जन्मे महापंडित अपनी 'भोजपुरी' के लिये भी समर्पित थे। उन्हों ने भोजपुरी में 'राहुल बाबा' नाम से नाटकों की रचना की। बेटा और बेटी के भेदभाव पर कही गई ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं -
'एके माई बापता से एक ही उदवा में दूनों में जनमवाँ भइल रे पुरखवा,
पूत के जनमवाँ में नाच और सोहर होला बेटी जनम धरे सोग रे पुरखवा।'
राहुल सांकृत्यायन के जीवन का मूलमंत्र ही घुमक्कड़ी यानी गतिशीलता रही है। आधुनिक हिन्दी साहित्य में राहुल सांकृत्यायन एक यात्राकार, इतिहासविद्, तत्वान्वेषी और साहित्यकार के रूप में जाने जाते हैं।
आज महापंडित की पुण्यतिथि है। आधुनिक हिन्दी में अध्ययनशीलता और घनघोर रचनाकर्म के बारे में सोचने पर मेरे मन में दो नाम प्रमुखता से आते हैं - राहुल सांकृत्यायन और रामविलास शर्मा। दोनों मार्क्सवादी विचार रखते थे और आधुनिक काल के 'ऋषि' कहे जा सकते हैं। महापंडित की भारत की जातीय-संस्कृति संबंधी मान्यता, उर्दू को हिन्दी (खड़ी बोली हिन्दी) से अलग मानने का विचार तथा आर्यों से 'वोल्गा से गंगा' की ओर कराई गई यात्रा के पीछे रहने वाली उनकी धारणा का डॉक्टर रामविलास शर्मा ने तर्कसम्मत खंडन किया है।
महापंडित स्वभावत: विद्रोही थे। बचपन में ही ब्याह दिये गये। ज्ञानपिपासा और अल्पवय विवाह के विरोध में 14 वर्षों की अल्पायु में ही घर छोड़ दिये और पचास वर्ष के हो जाने के बाद ही अपनी जन्मधरा पर पग रखे। उन्हों ने संन्यासी, वेदान्ती, आर्यसमाजी, किसान नेता, बौद्ध भिक्षु से होते हुये साम्यवादी चिन्तक तक का लम्बा सफर तय किया।  कहना नहीं होगा कि उनके मत बदलते रहे लेकिन हिन्दी के प्रति समर्पण स्थायी रहा। बौद्ध ग्रंथों के संकलन हेतु तिब्बत और श्रीलंका की यात्रा किये तो साम्यवादी हो जाने के बाद सोवियत रूस की, जहाँ उनका दूसरा विवाह हुआ जिससे एक पुत्र भी हुआ। उन्हों ने तीसरा विवाह नैनीताल में आयु ढल जाने पर किया। पुरातात्विक उत्खननों में भी वे बहुत सक्रिय रहे और अनेकों पुरावशेषों, पकी मिट्टी के टेबलेट अभिलेखों की खोज के कारण बने।
मैंने उन्हें अधिक नहीं पढ़ा है लेकिन नेट पर ढूँढ़ते हुये http://rahulstribute.webs.com पर सोवियत तानाशाह जोसेफ स्टालिन को 1946 में लिखे गये उनके पत्र का अंग्रेजी प्रतिरूप हाथ लग गया। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के निर्णायक दौर में लिखे गये उस पत्र से कई बातों की ओर संकेत जाता है। उसका हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत है, पहले सरल भाषा में कुछ समझ लें:
मार्क्सवाद के अनुसार पूँजीवादी समाज के वर्ग हैं - बुर्जुआ(bourgeoisie) और सर्वहारा (proletariat)। इनका आपसी संघर्ष वर्ग संघर्ष कहलाता है जिसमें अंतत: सर्वहारा की विजय के साथ 'सर्वहारा का अधिनायकत्त्व' स्थापित होता है, जो 'वर्गविहीन समाज' की स्थापना करता है। इसे क्रांति कहते हैं।
बुर्जुआ वह सामाजिक वर्ग है जो उत्पादन के संसाधनों पर काबिज है। समाज का यह उच्च वर्ग मजदूरों के श्रम का खरीददार होता है और 'लाभ' के रूप में पूँजी बनाता हुआ उस पर अपना स्वामित्त्व कायम रखता है।
इसके उलट सर्वहारा समाज का वह वर्ग है जिसके पास उत्पादन के संसाधनों का स्वामित्त्व नहीं होता और जीवनयापन के लिये अपनी श्रमशक्ति को 'मजदूरी' के रूप में बेंचने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता।
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Tkachei 28 gt. I0 Leningrad
30 अगस्त 1946.
हमारे प्रिय गुरु कॉमरेड स्टालिन,
आप का बहुमूल्य समय ले रहा हूँ, इसके लिये मुझे क्षमा करें लेकिन आप पायेंगे कि यह एक महत्त्वपूर्ण पार्टी कार्य से सम्बन्धित है।
ढेरों परेशानियों और अपनी पत्नी और पुत्र से मिलनप्रयोजन के निवेदन के पश्चात सोवियत संघ आने के लिये मुझे भारत सरकार से 1945 के जून माह में पासपोर्ट मिला। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने मुझे सोवियत मध्य एशिया (कजाकिस्तान, किरग़िजिया, उज़बेकिस्तान, तुर्कमेनिया और ताजिकिस्तान नामधारी पाँच गणराज्य) के बारे में एक पुस्तक लिखने का महत्त्वपूर्ण दायित्त्व सौंपा है। इस पुस्तक में यह दर्शाना है कि कैसे सोवियत सत्ता (कम्युनिस्ट तंत्र) ने इस क्षेत्र में युगों पुरानी समस्याओं को हल कर दिया है और जारशाही के दास रहे इन उपनिवेशों को स्वतंत्र, समृद्ध और सुसंस्कृत सोवियत गणतंत्रों में परिवर्तित कर दिया है।
यह पुस्तक एक बहुत उपयोगी उद्देश्य की पूर्ति करेगी क्यों कि भारत के वर्तमान एवं क्रांति पूर्व मध्य एशिया की राजनैतिक-आर्थिक एवं सामाजिक-धार्मिक समस्याओं में बहुत नजदीकी समानतायें हैं।
युद्ध के सबसे निराशाजनक दिनों में जब कि भारत की ब्रिटिश सरकार भी सोवियत संघ के प्रति सहानुभूतिपूर्ण थी, भारत के बड़े बुर्जुआ सोवियतविरोधी बने रहे। युद्ध की समाप्ति और अंग्रेजी-अमेरिकी साम्राज्यवाद की बदली प्रवृत्ति के मद्देनजर भारतीय बुर्जुआ प्रेस और संगठन न केवल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी पर जोर शोर से हमला कर रहे हैं बल्कि सोवियत-विरोधी झूठी बातों को फैलाने में अग्रणी हैं।
भारत का बड़ा बुर्जुआ वर्ग –भारतीय कांग्रेस हाईकमान जिसका भोंपू है – अब अमेरिकी पूँजीपतियों से प्रगाढ़ मैत्री में है और इसीलिये ब्रिटिश साम्राज्यवादी भारतीय बुर्जुआ को और अधिक राजनैतिक छूटें देने को बाध्य हुये हैं।
भारत को पूर्ण स्वतंत्रता के साथ ब्रिटिश साम्राज्य से अलग होने का अधिकार देने का ब्रिटिश प्रस्ताव वास्तव में केवल एक प्रचार ट्रिक भर है। ऐसा कैसे सच हो सकता है जब कि ब्रिटेन सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी सामंती रजवाडों को यथावत रखना चाहता है?
 ब्रिटिश सरकार बड़े, अतिविशाल गैरमुस्लिम भूभागों को भी मुस्लिम साम्प्रदायिक शक्तियों के शासन को सौंप रही है जो कि एक स्थायी गृहकलह का कारण होगा और इसलिये ब्रिटिश साम्राज्यवाद के लिये लाभकारी होगा। इनके अलावा ब्रिटेन की सोच में बलूचिस्तान खानाते और असम के नागा क्षेत्रों को ट्रांस-जॉर्डन की तर्ज पर दूसरे और तीसरे सैन्य बेस बनाने की योजना भी है।
लेकिन एक बात स्पष्ट है, ब्रिटिश-अमेरिकी साम्राज्यवाद अपने साम्राज्यवादी उद्देश्यों की पूर्ति हेतु भारतीय बुर्जुआ को भारत के प्राकृतिक संसाधनों एवं जनबल के पूर्ण शोषण के लिये इस्तेमाल करने को और भारत को सोवियत संघ के विरुद्ध सह-श्रमिकदाता बनाने को उसी तरह दृढ़संकल्पित है जैसे कि अमेरिका चीन के साथ करने की कोशिश कर रहा है। इन परिस्थितियों में, ऐसी पुस्तक की चरम आवश्यकता है।
मैंने पुस्तक को तीन भागों में लिखने की योजना बनायी थी – पहला भाग मध्यएशियाई राष्ट्रीयताओं के आदिम युग से लेकर लेनिनवादी-स्टालिनवादी मार्गनिर्देश के तहत ज़ारशाही शोषण से अंतत: मुक्ति और उपलब्धियों तक के ऐतिहासिक विकास और उनके संघर्ष से सम्बन्धित है। इस भाग की बहुतेरी सामग्री का मैं पहले ही संग्रह कर चुका हूँ। लेकिन इस पुस्तक के सबसे महत्त्वपूर्ण भाग दूसरे और तीसरे हैं जो लोगों के जीवन के स्पष्ट विवरण देने की योजना से सम्बन्धित हैं। क्षेत्रीय जीवन के सारे पहलू – फलते फूलते कोल्होज़ और सोवकोज़, कारखानों और औद्योगिक उद्यमों से परिपूर्ण उनके शहर, उनकी नहरें, खदानें, जलविद्युत स्टेशन, उनकी सांस्कृतिक उपलब्धियाँ, शैक्षिक संस्थान, विश्वविद्यालय और अकादमियाँ; सभी समाहित होंगे।
मेरे द्वारा संग्रह की गई सामग्रियों और कार्ययोजनाओं की प्रशंसा यहाँ विश्वविद्यालय और पार्टी के मास्को स्थित कॉमरेडों, दोनों द्वारा की गई। लेकिन बाद के दोनों भागों के योग्य सामग्री का संग्रहण केवल मध्य एशिया में ही हो सकता है, जिसके लिये मुझे वहाँ जाने की आवश्यकता थी। आवश्यक अनुमति प्राप्त करने और प्रारम्भ करने के लिये पिछ्ले अप्रैल में मैं मास्को गया। पार्टी के कॉमरेडों ने इसके लिये प्रयास किया और VOKS* मेरी सहायता के लिये तैयार भी थे लेकिन विदेशी मामलों के मंत्रालय ने मुझे अनुमति प्रदान करने में अपनी असमर्थता जताई। सम्भवत: ऐसे निर्णय के पीछे अंतर्राष्ट्रीय परिस्थियाँ कारण थीं लेकिन उन्हीं परिस्थितियों के कारण ऐसी पुस्तक की तत्काल आवश्यकता भी है। यह भी द्रष्टव्य है कि मैं बिना किसी रोक छेक के प्रत्येक और सभी स्थानों पर जाना भी नहीं चाहता था। आधिकारिक गाइड के साथ चुने हुये स्थानों पर की गई यात्राओं से ही मेरे उद्देश्य की पूर्ति हो जाती। मैं लिखने और ससन्दर्भ व्याख्या योग्य सामग्री अश्काबाद, मर्व, स्टेलिनाबाद, लेनिनग्राद, बोखारा, समरकन्द, ताशकन्द क़ीव, फ्रुंज़, इयाम्बुल, अलमा-अता, कारगन्दा जैसे शहरों और इनके पास के गाँवों की यात्रा से जुटा सकता था।
मामला वहीं का वहीं रहा जब जून के महीने में कम्युनिस्ट पार्टी के भारतीय केन्द्र से मुझे यह निर्देश मिला (16 फरवरी 1946) “यद्यपि हम सभी आपको अपने बीच देखना चाहते हैं लेकिन हममें से किसी की यह इच्छा नहीं है कि आप अपना मिशन पूरा किये बिना लौटें।
हमारे महानतम नेता, इसलिये मैं आप को यह पत्र इस निवेदन के साथ लिख रहा हूँ कि मुझे आवश्यक सामग्री एकत्र करने हेतु 6 महीने (या जितना भी समय लगे) के लिये मध्य एशिया जाने की अनुमति प्रदान की जाय और आवश्यक सुविधायें मुहैया कराई जाँय।
सर्वोच्च सम्मान सहित, आप के करोड़ों अनुयाइयों में से एक,

हस्ताक्षर - राहुल सांकृत्यायन
(पत्र लेखक)
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सदस्य, भूतपूर्व अध्यक्ष - अखिल भारतीय कृषक सम्मेलन 1940, वर्तमान में लेनिनग्राद विश्वविद्यालय में संस्कृत आचार्य।
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* एक सोवियत सांस्कृतिक संगठन

यह पत्र भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा सोवियत मध्य एशिया पर  पुस्तक लिखने के लिये राहुल जी को दिये गये निर्देश से सम्बन्धित है। उन्हें आवश्यक सामग्री जुटाने हेतु उन क्षेत्रों में जाने के लिये अनुमति सोवियत विदेश मंत्रालय ने नहीं दी। इसी सन्दर्भ में जोसेफ स्टालिन को उन्हों ने यह पत्र लिखा। उन्हों ने वह पुस्तक 'मध्य एशिया का इतिहास' हिन्दी में लिखी जिसका 1956-7 में प्रकाशन हुआ। इसके पहले उस क्षेत्र का सम्पूर्ण इतिहास संसार की किसी भाषा में उपलब्ध नहीं था। ध्यातव्य है कि औपचारिक शिक्षा के नाम पर महापंडित के हिस्से लगभग शून्य ही था लेकिन वह लेनिनग्राद विश्वविद्यालय में संस्कृत प्रोफेसर नियुक्त किये गये थे। उनकी कृतियाँ उनकी मेधा और प्रतिभा की ज्वलंत प्रमाण हैं।
इस पत्र में स्टालिन के प्रति उनका भक्तिभाव स्पष्ट है। सम्भव है कि पार्टी में इस तरह के सम्बोधन आम हों लेकिन इस बात की पुष्टि हो ही जाती है कि कम्युनिस्ट पार्टी की चाभी रूसी आकाओं के पास ही रहती थी। जोसेफ स्टालिन को पत्र लिखने के बावजूद भी राहुल जी को अनुमति नहीं मिली और तीन भागों की प्रस्तावित पुस्तक दो भागों में सिमट कर रह गई जिसमें से 'समकालीन सोवियत मध्य एशिया' का भाग लगभग ग़ायब ही हो गया।  
महापंडित की मर्मभेदिनी दृष्टि आज़ादी आन्दोलन के दौरान सुविधापरस्त वर्ग की मक्कारियों से लेकर मुस्लिम साम्प्रदायिकता के खतरों और साम्राज्यवादियों द्वारा उनके पोषण, उनके आगे समर्पण तक जाती है। राहुल जी जिस तरह से लक्ष्यप्राप्ति हेतु अपने पक्ष को व्यापक कम्युनिस्ट तंत्र से जोड़ते हैं, दर्शनीय है। साथ ही पार्टी के कार्यकर्ताओं से जिस तरह काम लिया जाता था, उस पर भी प्रकाश पड़ता है। हर पक्ष का अपना प्रचार तंत्र था जिसका प्रयोग बहुत योजनाबद्ध तरीके से किया जाता था [16-02-1946, कॉमरेड पृथ्वी सिंह उवाच - शांति और अहिंसा के देवदूत गान्धी के भक्त अनुयायी पट्टाभि सीतारमैया ने एक खुला वक्तव्य दिया है कि कम्युनिस्टों को लाठी से पीटना हिंसा नहीं है।] 
राहुल जी अपनी निर्भीक विचारदृढ़ता के लिये जाने जाते थे। वेदान्त के अध्ययन के पश्चात जब उन्होंने मंदिरों में बलि चढ़ाने की परम्परा के विरूद्ध व्याख्यान दिया तो अयोध्या के सनातनी पुरोहित उन पर लाठी लेकर टूट पड़े। बौद्ध धर्म स्वीकार करने के बावजूद वह इसके ‘पुनर्जन्मवाद’ को नहीं स्वीकार पाए। बाद में जब वे मार्क्सवाद की ओर उन्मुख हुए तो उन्होंने तत्कालीन सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी में घुसे सत्तालोलुप सुविधापरस्तों की तीखी आलोचना की और उन्हें आन्दोलन के नष्ट होने का कारण बताया। सन् 1947 में अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष रूप में उन्होंने पहले से छपे भाषण को बोलने से मना कर दिया एवं जो भाषण दिया, वह अल्पसंख्यक संस्कृति एवं भाषाई सवाल पर कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों के विपरीत था। नतीजन पार्टी की सदस्यता से उन्हें वंचित होना पड़ा। सन् 1953-4 के दौरान पुन: एक बार वे कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बनाये गये।
ऐसा प्रतीत होता है कि 'सर्वोच्च महानतम महाधिनायक जोसेफ स्टालिन' के खुफिया तंत्र ने राहुल जी की विदोही प्रकृति के मद्देनज़र ही अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों की आड़ ले उन्हें सोवियत मध्य एशियाई क्षेत्रों की यात्रा करने की अनुमति मिलने में टाँग अड़ा दिया होगा।
इन क्षेत्रों के संसाधनों का उपयोग सोवियत रूस ने उपनिवेशी शासकों की तरह ही किया जिसकी परिणति बाद में इन क्षेत्रों के रूसी प्रभुत्त्व से मुक्त होकर पुन: स्वतंत्र राष्ट्रों के रूप में विश्व मानचित्र पर उभरने से हुई।
मजे की बात यह है कि पत्र में राहुल जी उपनिवेशी ब्रिटिश सत्ता की शिकायत जोसेफ स्टालिन जैसे व्यक्ति से करते हैं। उन्हों ने इस परिणति के बारे में कभी नहीं सोचा होगा। ऐसा होना सामान्य ही है। आज हम भी कहाँ इतनी दूर तक देख सुन पा रहे हैं?
टी एस इलियट के एक कथन का भाव याद आ रहा है - वर्तमान के कारण भूत भी बदलता है।
महापंडित को श्रद्धांजलि!