महापंडित राहुल सांकृत्यायन
(1 अप्रैल,1893 - 14 अप्रैल,1963)
महापंडित पर विस्तृत सामग्री विकिपिडिया हिन्दी पर उपलब्ध है। इस लेख के लिये सामग्री वहाँ से भी ली गई है जिसके लिये मैं आभार व्यक्त करता हूँ।
'हिन्दी' के लिये आजीवन समर्पित इस घुमक्कड़ ने वर्तमान हिन्दी के लिये 'खड़ी बोली' शब्द का प्रयोग किया। उत्तर प्रदेश के ग्राम पन्दहा, जिला आज़मगढ़ में जन्मे महापंडित अपनी 'भोजपुरी' के लिये भी समर्पित थे। उन्हों ने भोजपुरी में 'राहुल बाबा' नाम से नाटकों की रचना की। बेटा और बेटी के भेदभाव पर कही गई ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं -
'एके माई बापता से एक ही उदवा में दूनों में जनमवाँ भइल रे पुरखवा,
पूत के जनमवाँ में नाच और सोहर होला बेटी जनम धरे सोग रे पुरखवा।' |
राहुल सांकृत्यायन के जीवन का मूलमंत्र ही घुमक्कड़ी यानी गतिशीलता रही है। आधुनिक हिन्दी साहित्य में राहुल सांकृत्यायन एक यात्राकार, इतिहासविद्, तत्वान्वेषी और साहित्यकार के रूप में जाने जाते हैं। |
आज महापंडित की पुण्यतिथि है। आधुनिक हिन्दी में अध्ययनशीलता और घनघोर रचनाकर्म के बारे में सोचने पर मेरे मन में दो नाम प्रमुखता से आते हैं - राहुल सांकृत्यायन और रामविलास शर्मा। दोनों मार्क्सवादी विचार रखते थे और आधुनिक काल के 'ऋषि' कहे जा सकते हैं। महापंडित की भारत की जातीय-संस्कृति संबंधी मान्यता, उर्दू को हिन्दी (खड़ी बोली हिन्दी) से अलग मानने का विचार तथा आर्यों से 'वोल्गा से गंगा' की ओर कराई गई यात्रा के पीछे रहने वाली उनकी धारणा का डॉक्टर रामविलास शर्मा ने तर्कसम्मत खंडन किया है।
महापंडित स्वभावत: विद्रोही थे। बचपन में ही ब्याह दिये गये। ज्ञानपिपासा और अल्पवय विवाह के विरोध में 14 वर्षों की अल्पायु में ही घर छोड़ दिये और पचास वर्ष के हो जाने के बाद ही अपनी जन्मधरा पर पग रखे। उन्हों ने संन्यासी, वेदान्ती, आर्यसमाजी, किसान नेता, बौद्ध भिक्षु से होते हुये साम्यवादी चिन्तक तक का लम्बा सफर तय किया। कहना नहीं होगा कि उनके मत बदलते रहे लेकिन हिन्दी के प्रति समर्पण स्थायी रहा। बौद्ध ग्रंथों के संकलन हेतु तिब्बत और श्रीलंका की यात्रा किये तो साम्यवादी हो जाने के बाद सोवियत रूस की, जहाँ उनका दूसरा विवाह हुआ जिससे एक पुत्र भी हुआ। उन्हों ने तीसरा विवाह नैनीताल में आयु ढल जाने पर किया। पुरातात्विक उत्खननों में भी वे बहुत सक्रिय रहे और अनेकों पुरावशेषों, पकी मिट्टी के टेबलेट अभिलेखों की खोज के कारण बने।
मैंने उन्हें अधिक नहीं पढ़ा है लेकिन नेट पर ढूँढ़ते हुये http://rahulstribute.webs.com पर सोवियत तानाशाह जोसेफ स्टालिन को 1946 में लिखे गये उनके पत्र का अंग्रेजी प्रतिरूप हाथ लग गया। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के निर्णायक दौर में लिखे गये उस पत्र से कई बातों की ओर संकेत जाता है। उसका हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत है, पहले सरल भाषा में कुछ समझ लें:
मार्क्सवाद के अनुसार पूँजीवादी समाज के वर्ग हैं - बुर्जुआ(bourgeoisie) और सर्वहारा (proletariat)। इनका आपसी संघर्ष वर्ग संघर्ष कहलाता है जिसमें अंतत: सर्वहारा की विजय के साथ 'सर्वहारा का अधिनायकत्त्व' स्थापित होता है, जो 'वर्गविहीन समाज' की स्थापना करता है। इसे क्रांति कहते हैं।
बुर्जुआ वह सामाजिक वर्ग है जो उत्पादन के संसाधनों पर काबिज है। समाज का यह उच्च वर्ग मजदूरों के श्रम का खरीददार होता है और 'लाभ' के रूप में पूँजी बनाता हुआ उस पर अपना स्वामित्त्व कायम रखता है।
इसके उलट सर्वहारा समाज का वह वर्ग है जिसके पास उत्पादन के संसाधनों का स्वामित्त्व नहीं होता और जीवनयापन के लिये अपनी श्रमशक्ति को 'मजदूरी' के रूप में बेंचने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता। |
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Tkachei 28 gt. I0 Leningrad
30 अगस्त 1946.
हमारे प्रिय गुरु कॉमरेड स्टालिन,
आप का बहुमूल्य समय ले रहा हूँ, इसके लिये मुझे क्षमा करें लेकिन आप पायेंगे कि यह एक महत्त्वपूर्ण पार्टी कार्य से सम्बन्धित है।
ढेरों परेशानियों और अपनी पत्नी और पुत्र से मिलनप्रयोजन के निवेदन के पश्चात सोवियत संघ आने के लिये मुझे भारत सरकार से 1945 के जून माह में पासपोर्ट मिला। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने मुझे सोवियत मध्य एशिया (कजाकिस्तान, किरग़िजिया, उज़बेकिस्तान, तुर्कमेनिया और ताजिकिस्तान नामधारी पाँच गणराज्य) के बारे में एक पुस्तक लिखने का महत्त्वपूर्ण दायित्त्व सौंपा है। इस पुस्तक में यह दर्शाना है कि कैसे सोवियत सत्ता (कम्युनिस्ट तंत्र) ने इस क्षेत्र में युगों पुरानी समस्याओं को हल कर दिया है और जारशाही के दास रहे इन उपनिवेशों को स्वतंत्र, समृद्ध और सुसंस्कृत सोवियत गणतंत्रों में परिवर्तित कर दिया है।
यह पुस्तक एक बहुत उपयोगी उद्देश्य की पूर्ति करेगी क्यों कि भारत के वर्तमान एवं क्रांति पूर्व मध्य एशिया की राजनैतिक-आर्थिक एवं सामाजिक-धार्मिक समस्याओं में बहुत नजदीकी समानतायें हैं।
युद्ध के सबसे निराशाजनक दिनों में जब कि भारत की ब्रिटिश सरकार भी सोवियत संघ के प्रति सहानुभूतिपूर्ण थी, भारत के बड़े बुर्जुआ सोवियतविरोधी बने रहे। युद्ध की समाप्ति और अंग्रेजी-अमेरिकी साम्राज्यवाद की बदली प्रवृत्ति के मद्देनजर भारतीय बुर्जुआ प्रेस और संगठन न केवल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी पर जोर शोर से हमला कर रहे हैं बल्कि सोवियत-विरोधी झूठी बातों को फैलाने में अग्रणी हैं।
भारत का बड़ा बुर्जुआ वर्ग –भारतीय कांग्रेस हाईकमान जिसका भोंपू है – अब अमेरिकी पूँजीपतियों से प्रगाढ़ मैत्री में है और इसीलिये ब्रिटिश साम्राज्यवादी भारतीय बुर्जुआ को और अधिक राजनैतिक छूटें देने को बाध्य हुये हैं।
भारत को पूर्ण स्वतंत्रता के साथ ब्रिटिश साम्राज्य से अलग होने का अधिकार देने का ब्रिटिश प्रस्ताव वास्तव में केवल एक प्रचार ट्रिक भर है। ऐसा कैसे सच हो सकता है जब कि ब्रिटेन सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी सामंती रजवाडों को यथावत रखना चाहता है?
ब्रिटिश सरकार बड़े, अतिविशाल गैरमुस्लिम भूभागों को भी मुस्लिम साम्प्रदायिक शक्तियों के शासन को सौंप रही है जो कि एक स्थायी गृहकलह का कारण होगा और इसलिये ब्रिटिश साम्राज्यवाद के लिये लाभकारी होगा। इनके अलावा ब्रिटेन की सोच में बलूचिस्तान खानाते और असम के नागा क्षेत्रों को ट्रांस-जॉर्डन की तर्ज पर दूसरे और तीसरे सैन्य बेस बनाने की योजना भी है।
लेकिन एक बात स्पष्ट है, ब्रिटिश-अमेरिकी साम्राज्यवाद अपने साम्राज्यवादी उद्देश्यों की पूर्ति हेतु भारतीय बुर्जुआ को भारत के प्राकृतिक संसाधनों एवं जनबल के पूर्ण शोषण के लिये इस्तेमाल करने को और भारत को सोवियत संघ के विरुद्ध सह-श्रमिकदाता बनाने को उसी तरह दृढ़संकल्पित है जैसे कि अमेरिका चीन के साथ करने की कोशिश कर रहा है। इन परिस्थितियों में, ऐसी पुस्तक की चरम आवश्यकता है।
मैंने पुस्तक को तीन भागों में लिखने की योजना बनायी थी – पहला भाग मध्यएशियाई राष्ट्रीयताओं के आदिम युग से लेकर लेनिनवादी-स्टालिनवादी मार्गनिर्देश के तहत ज़ारशाही शोषण से अंतत: मुक्ति और उपलब्धियों तक के ऐतिहासिक विकास और उनके संघर्ष से सम्बन्धित है। इस भाग की बहुतेरी सामग्री का मैं पहले ही संग्रह कर चुका हूँ। लेकिन इस पुस्तक के सबसे महत्त्वपूर्ण भाग दूसरे और तीसरे हैं जो लोगों के जीवन के स्पष्ट विवरण देने की योजना से सम्बन्धित हैं। क्षेत्रीय जीवन के सारे पहलू – फलते फूलते कोल्होज़ और सोवकोज़, कारखानों और औद्योगिक उद्यमों से परिपूर्ण उनके शहर, उनकी नहरें, खदानें, जलविद्युत स्टेशन, उनकी सांस्कृतिक उपलब्धियाँ, शैक्षिक संस्थान, विश्वविद्यालय और अकादमियाँ; सभी समाहित होंगे।
मेरे द्वारा संग्रह की गई सामग्रियों और कार्ययोजनाओं की प्रशंसा यहाँ विश्वविद्यालय और पार्टी के मास्को स्थित कॉमरेडों, दोनों द्वारा की गई। लेकिन बाद के दोनों भागों के योग्य सामग्री का संग्रहण केवल मध्य एशिया में ही हो सकता है, जिसके लिये मुझे वहाँ जाने की आवश्यकता थी। आवश्यक अनुमति प्राप्त करने और प्रारम्भ करने के लिये पिछ्ले अप्रैल में मैं मास्को गया। पार्टी के कॉमरेडों ने इसके लिये प्रयास किया और VOKS* मेरी सहायता के लिये तैयार भी थे लेकिन विदेशी मामलों के मंत्रालय ने मुझे अनुमति प्रदान करने में अपनी असमर्थता जताई। सम्भवत: ऐसे निर्णय के पीछे अंतर्राष्ट्रीय परिस्थियाँ कारण थीं लेकिन उन्हीं परिस्थितियों के कारण ऐसी पुस्तक की तत्काल आवश्यकता भी है। यह भी द्रष्टव्य है कि मैं बिना किसी रोक छेक के प्रत्येक और सभी स्थानों पर जाना भी नहीं चाहता था। आधिकारिक गाइड के साथ चुने हुये स्थानों पर की गई यात्राओं से ही मेरे उद्देश्य की पूर्ति हो जाती। मैं लिखने और ससन्दर्भ व्याख्या योग्य सामग्री अश्काबाद, मर्व, स्टेलिनाबाद, लेनिनग्राद, बोखारा, समरकन्द, ताशकन्द क़ीव, फ्रुंज़, इयाम्बुल, अलमा-अता, कारगन्दा जैसे शहरों और इनके पास के गाँवों की यात्रा से जुटा सकता था।
मामला वहीं का वहीं रहा जब जून के महीने में कम्युनिस्ट पार्टी के भारतीय केन्द्र से मुझे यह निर्देश मिला (16 फरवरी 1946) “यद्यपि हम सभी आपको अपने बीच देखना चाहते हैं लेकिन हममें से किसी की यह इच्छा नहीं है कि आप अपना मिशन पूरा किये बिना लौटें।“
हमारे महानतम नेता, इसलिये मैं आप को यह पत्र इस निवेदन के साथ लिख रहा हूँ कि मुझे आवश्यक सामग्री एकत्र करने हेतु 6 महीने (या जितना भी समय लगे) के लिये मध्य एशिया जाने की अनुमति प्रदान की जाय और आवश्यक सुविधायें मुहैया कराई जाँय।
सर्वोच्च सम्मान सहित, आप के करोड़ों अनुयाइयों में से एक,
हस्ताक्षर - राहुल सांकृत्यायन
(पत्र लेखक)
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सदस्य, भूतपूर्व अध्यक्ष - अखिल भारतीय कृषक सम्मेलन 1940, वर्तमान में लेनिनग्राद विश्वविद्यालय में संस्कृत आचार्य।
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* एक सोवियत सांस्कृतिक संगठन
यह पत्र भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा सोवियत मध्य एशिया पर पुस्तक लिखने के लिये राहुल जी को दिये गये निर्देश से सम्बन्धित है। उन्हें आवश्यक सामग्री जुटाने हेतु उन क्षेत्रों में जाने के लिये अनुमति सोवियत विदेश मंत्रालय ने नहीं दी। इसी सन्दर्भ में जोसेफ स्टालिन को उन्हों ने यह पत्र लिखा। उन्हों ने वह पुस्तक 'मध्य एशिया का इतिहास' हिन्दी में लिखी जिसका 1956-7 में प्रकाशन हुआ। इसके पहले उस क्षेत्र का सम्पूर्ण इतिहास संसार की किसी भाषा में उपलब्ध नहीं था। ध्यातव्य है कि औपचारिक शिक्षा के नाम पर महापंडित के हिस्से लगभग शून्य ही था लेकिन वह लेनिनग्राद विश्वविद्यालय में संस्कृत प्रोफेसर नियुक्त किये गये थे। उनकी कृतियाँ उनकी मेधा और प्रतिभा की ज्वलंत प्रमाण हैं।
इस पत्र में स्टालिन के प्रति उनका भक्तिभाव स्पष्ट है। सम्भव है कि पार्टी में इस तरह के सम्बोधन आम हों लेकिन इस बात की पुष्टि हो ही जाती है कि कम्युनिस्ट पार्टी की चाभी रूसी आकाओं के पास ही रहती थी। जोसेफ स्टालिन को पत्र लिखने के बावजूद भी राहुल जी को अनुमति नहीं मिली और तीन भागों की प्रस्तावित पुस्तक दो भागों में सिमट कर रह गई जिसमें से 'समकालीन सोवियत मध्य एशिया' का भाग लगभग ग़ायब ही हो गया।
महापंडित की मर्मभेदिनी दृष्टि आज़ादी आन्दोलन के दौरान सुविधापरस्त वर्ग की मक्कारियों से लेकर मुस्लिम साम्प्रदायिकता के खतरों और साम्राज्यवादियों द्वारा उनके पोषण, उनके आगे समर्पण तक जाती है। राहुल जी जिस तरह से लक्ष्यप्राप्ति हेतु अपने पक्ष को व्यापक कम्युनिस्ट तंत्र से जोड़ते हैं, दर्शनीय है। साथ ही पार्टी के कार्यकर्ताओं से जिस तरह काम लिया जाता था, उस पर भी प्रकाश पड़ता है। हर पक्ष का अपना प्रचार तंत्र था जिसका प्रयोग बहुत योजनाबद्ध तरीके से किया जाता था [16-02-1946, कॉमरेड पृथ्वी सिंह उवाच - शांति और अहिंसा के देवदूत गान्धी के भक्त अनुयायी पट्टाभि सीतारमैया ने एक खुला वक्तव्य दिया है कि कम्युनिस्टों को लाठी से पीटना हिंसा नहीं है।]
राहुल जी अपनी निर्भीक विचारदृढ़ता के लिये जाने जाते थे। वेदान्त के अध्ययन के पश्चात जब उन्होंने मंदिरों में बलि चढ़ाने की परम्परा के विरूद्ध व्याख्यान दिया तो अयोध्या के सनातनी पुरोहित उन पर लाठी लेकर टूट पड़े। बौद्ध धर्म स्वीकार करने के बावजूद वह इसके ‘पुनर्जन्मवाद’ को नहीं स्वीकार पाए। बाद में जब वे मार्क्सवाद की ओर उन्मुख हुए तो उन्होंने तत्कालीन सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी में घुसे सत्तालोलुप सुविधापरस्तों की तीखी आलोचना की और उन्हें आन्दोलन के नष्ट होने का कारण बताया। सन् 1947 में अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष रूप में उन्होंने पहले से छपे भाषण को बोलने से मना कर दिया एवं जो भाषण दिया, वह अल्पसंख्यक संस्कृति एवं भाषाई सवाल पर कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों के विपरीत था। नतीजन पार्टी की सदस्यता से उन्हें वंचित होना पड़ा। सन् 1953-4 के दौरान पुन: एक बार वे कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बनाये गये।
ऐसा प्रतीत होता है कि 'सर्वोच्च महानतम महाधिनायक जोसेफ स्टालिन' के खुफिया तंत्र ने राहुल जी की विदोही प्रकृति के मद्देनज़र ही अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों की आड़ ले उन्हें सोवियत मध्य एशियाई क्षेत्रों की यात्रा करने की अनुमति मिलने में टाँग अड़ा दिया होगा।
इन क्षेत्रों के संसाधनों का उपयोग सोवियत रूस ने उपनिवेशी शासकों की तरह ही किया जिसकी परिणति बाद में इन क्षेत्रों के रूसी प्रभुत्त्व से मुक्त होकर पुन: स्वतंत्र राष्ट्रों के रूप में विश्व मानचित्र पर उभरने से हुई।
मजे की बात यह है कि पत्र में राहुल जी उपनिवेशी ब्रिटिश सत्ता की शिकायत जोसेफ स्टालिन जैसे व्यक्ति से करते हैं। उन्हों ने इस परिणति के बारे में कभी नहीं सोचा होगा। ऐसा होना सामान्य ही है। आज हम भी कहाँ इतनी दूर तक देख सुन पा रहे हैं?
टी एस इलियट के एक कथन का भाव याद आ रहा है - वर्तमान के कारण भूत भी बदलता है।
महापंडित को श्रद्धांजलि!