गुरुवार, 28 जुलाई 2011

तिब्बत - चीखते अक्षर (15)

पूर्ववर्ती: 

आतंक का नया दौर

अगस्त 1983 के अंत में चीनियों ने दमन की नयी पारी शुरू की। शिगात्से (27/9/83) और ल्हासा (30/9/83 और 1/10/83) में मृत्युदंड देने की घटनायें हुईं। इसके पश्चात कांज़े में मृत्युदंड दिये गये साथ ही चाम्डो और ग्यात्से में और लोग बन्दी बनाये गये। चीनी बन्दी बनाये गये और मृत्युदंड दिये गये लोगों का वर्गीकरण अपराधी, समाज विरोधी तत्त्व आदि के रूप में करते हैं लेकिन प्रतीत होता है कि वर्गीकरण चीनियों का अभिप्सित मनवाने के लिये किया गया है और उसमें विशेष रूप से वे लोग सम्मिलित हैं जिन्हों ने आवाज़ उठाई या बौद्ध धर्म के प्रत्यक्ष अनुसरण के प्रयास किये और राजनीतिक गतिविधियों में सम्मिलित हुये और जिन्हों ने तिब्बती स्वतंत्रता के पक्ष में तर्क रखे जैसे कि गेशे लोब्सांग वांग्चुक (जिसने माओत्से तुंग के लेखन के सन्दर्भ देते हुये ऐसा किया)। 1984 के अन्त में सांग्यिप जेल से हटाये जाने के पश्चात वह अब भयावह द्राप्ची जेल में है। उसके मामले की एमनेस्टी इंटरनेशनल द्वारा सक्रिय रूप से जाँच जारी है और उसके 1985 के रिपोर्ट में उसे सम्मिलित किया गया है। बहुत से तिब्बती ल्हासा के निकट कुख्यात सांग्यिप और द्राप्ची  जेलों में बन्दी हैं, जिनमें से कुछ को जंजीरों से बाँध कर तथा हथकड़ी लगा कर रखा गया है और एकांतिक कक्षों में बन्द रखा। 13/9/83 के दिन लगभग 370 भिक्षु चीनियों द्वारा ध्वस्त किये गये गादेन मठ के कुछ भाग के पुनर्निर्माण का प्रयास कर रहे थे कि उन्हें 1000 की संख्या में सैनिकों ने घेर लिया, पीटा और ट्रकों में ठूँस दिया। एक वृद्ध भिक्षु और पुराने मठमुखिया को पीटते पीटते मार डाला गया। ऐसा प्रतीत होता है कि बन्दी बनाये लोगों में कई (कुल संख्या सम्भवत: हजारों में हो) को तिब्बत के उत्तर में स्थित लेबर कैम्पों में भेज दिया गया है जहाँ से सम्भावित है कि बहुतेरे नहीं लौटेंगे। जैसा कि वांग्दक नामक भिक्षु के साथ हुआ, भारत से अपने परिवार से मिलने गये तिब्बती शरणार्थी भी बन्दी बनाये गये हैं। एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी कल्संग त्सेरिंग की गिरफ्तारी की सूचना दी है, जिसका साक्षात्कार पत्रकारों ने द्रेपुंग मठ में लिया और जिसे 26/8/83 को बन्दी बना लिया गया।
1983 में सामूहिक गिरफ्तारियाँ हुईं और सार्वजनिक रूप से मृत्युदंड दिये गये। 
 समूचा तिब्बत अब आतंक की स्थिति में घरों के दरवाजों पर खटखटाहट की प्रतीक्षा कर रहा है। जैसा कि पहले प्राय: घटित हुआ है, सार्वजनिक रूप से मृत्युदंड पाने वालों के परिवार जनों को अपने सबसे अच्छे कपड़ों में वहाँ सम्मिलित होने को बाध्य किया जाता है और ‘समाजविरोधी प्रतिक्रियावादी तत्त्वों’ को समाप्त करने के लिये चीनियों को सार्वजनिक धन्यवाद ज्ञापन के लिये मजबूर किया जाता है। इस बात की सूचना है कि अंतिम समय में मृत्युदंड पाये  लोग कुछ कह न सकें, इसके लिये चीनी सांस्कृतिक क्रांति के दौर में प्रचलित स्वर तंतुओं (vocal chord) को काट देने की पुरानी परिपाटी पर लौट आये हैं। और अधिक सूचनायें बताती हैं कि ल्हासा में मृत्युदंड देने के पश्चात शवों को उनके सम्बन्धियों के यहाँ भेज दिया गया और व्यक्ति को मारने के लिये प्रयुक्त गोलियों के बदले 25 स्टर्लिंग प्रति गोली की दर से उनसे हर्जाना वसूला गया। 1983 के अंतिम और 1984 के प्रारम्भिक काल के दौरान मृत्युदंड जारी रहे। हालाँकि मानवाधिकार संगठनों, भारत और अन्य देशों में फैले तिब्बतियों, पश्चिमी बौद्धों सहित धार्मिक संगठनों के विश्वव्यापी विरोध और वृहदस्तरीय मीडिया आलोचनाओं के परिणामस्वरूप चीनी अपनी दमन नीति में संशोधन कर रहे हैं और उदारीकरण की नीति की ओर लौटने के लिये कुछ प्रयास किये जा रहे हैं।

स्वायत्तता का झूठ

यदि कोई यह मान बैठे कि इस रिपोर्ट में दिये गये बहुतेरे तथ्य ‘तिब्बत स्वायत्तशासी क्षेत्र’ की संज्ञा को झुठलाते हैं तो वह क्षम्य है। तिब्बत में लगभग 5 लाख चीनी सैनिकों की उपस्थिति ही तिब्बती स्वायत्तता जैसी किसी संज्ञा के विरुद्ध एक अकेली प्रबल तर्क साबित होगी। सीमा क्षेत्रों जैसे पेमाको और मेतोक द्ज़ोंग में सैन्य जमावड़े के साथ साथ हर सैन्य जिले में बड़े सैन्य गैरिसन हैं जिनकी पकड़ तिब्बती युद्ध के दौरान चीनियों के लिये अति उपयोगी साबित हुये सैन्य मार्गों के कारण सुदृढ़ है। तिब्बत में अब चीनियों के पास नौ सैन्य वायुक्षेत्र, ग्यारह रडार केन्द्र और तीन आणविक बेस हैं। 1950 तक 3200 किलोमीटर लम्बी भारत तिब्बत सीमा पर यदा कदा सीमा पुलिस के जवान दिखते थे। 1962 में हुये युद्ध और सीमा पर चीनियों के जमावड़े को देखते हुये भारतीय प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप दोनों ओर तैनात सैनिकों की संख्या अब लाखों में प्रतीत होती है। चीन ने तिब्बत में अंतर्महाद्वीपीय बैलिस्टिक प्रक्षेपास्त्र लगा रखे हैं जो भारत की जनसंख्या और उद्योगों के प्रमुख केन्द्रों पर अपना निशाना साधे हुये हैं और कुछ हिन्द महासागर के विस्तृत क्षेत्र की ओर हैं और दूसरे सोवियत संघ पर केन्द्रित हैं (सम्भवत: 'चेतावनी पर प्रक्षेपण' तंत्र से जुड़े हुये हैं)।
तिब्बत सरकार में दो सबसे महत्त्वपूर्ण आनुसांगिक कम्युनिस्ट पार्टी समिति और जन सरकार (People’s Government) हैं जिनके सभी शीर्षस्थ व्यक्ति चीनी हैं। विपरीत छाप छोड़ने के लिये वे तथ्य का चाहे जितना खंडन करें, प्रशासनिक प्राधिकरण और राजनीतिक नियुक्तियों की शक्ति पूर्ण रूप से चीनियों के हाथ में है।

उपसंहार

पिछले 36 वर्षों के दौरान जारी रही तिब्बत की दु:खद गाथा के बारे में कोई मैक्डफ के इन शब्दों को दुहराने के सिवाय क्या कह सकता है: ‘आतंक, आतंक, आतंक! न तो हृदय अनुमान लगा सकता है और न जीभ बयाँ कर सकती है’। इसे कभी भी घटित नहीं होना था। एक प्रसिद्ध तिब्बतशास्त्री ने एक बार कहा था कि तिब्बत की स्वतंत्रता के पक्ष विपक्ष के तर्कों या हाथ से जा चुके पूर्वी प्रांतों के मुद्दे के रहते हुये भी चीनी तिब्बत को धीरे धीरे बीसवीं शताब्दी जैसी स्थिति में लाने की आदर्श स्थिति में थे। इसके बजाय जिसे ‘आधुनिक काल में अक्षुण्ण जीवित रही एकमात्र संस्कृति’ कहा जाता है, वह नाज़ियों जैसी डरावनी क्रूरता के प्रयोग द्वारा धरा से मिटाई जा चुकी है। इस रिपोर्ट से ये बिन्दु उठते हैं:

(1)   1950 से आगे चीनियों के हाथों लगभग दस लाख तिब्बती मारे जा चुके हैं। ऐसी क्रूरता अस्वीकार्य है। यह उद्घाटित होता है कि जितना सामान्यत: स्वीकारा जाता है, सशस्त्र प्रतिरोध, मृत्युदंड, लेबर कैम्पों और जेलों में मृत्यु, भूख के कारण मृत्यु और यातना उससे कहीं बहुत अधिक रहे हैं। यह सब चीनियों को तिब्बत में मानवाधिकार हनन के विकट दोषी ठहराते हैं।
(2)   यह पूर्णत: सत्य है कि आधिकारिक रूप से ‘स्वायत्तशासी क्षेत्र’ कहे जाने पर भी तिब्बत को स्वायत्त रूप से काम काज करने की अनुमति नहीं है। प्रशासन में सभी स्तरों पर चीनियों का प्रभुत्त्व है और लगभग 5 लाख की संख्या में चीनी सेना ‘तिब्बत स्वायत्तशासी क्षेत्र’ में बनी हुई है। 1950 से आगे यदि तिब्बतियों को अधिक स्वायत्त रूप से काम करने दिया गया होता तो यह सारा भयानक रक्तपात सम्भवत: अघटित रह जाता। धीमे सुधार तिब्बत को बीसवीं शताब्दी जैसी स्थिति में ला सके होते। 1950 से जो भी घटित हुआ है उसके प्रकाश में संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में जनमतसंग्रह की तिब्बतियों की माँग पर, जिसमें कि तिब्बती चीन से स्वतंत्र होने के मुद्दे पर मत दे सकें, गम्भीरतापूर्वक विचार होना चाहिये।
(3)   तिब्बती बौद्धों पर जाति आधारित अत्याचार लगभग अकल्पनीय आयामों में से एक है और उन लोगों ने मनोवैज्ञानिक उत्पीड़न को उस गहराई तक झेला है जो ऑर्वेल की रचना ‘1984’ से असामान्य समानता रखती है। यह सब तब घटित हुआ जब कि चीनी संविधान धार्मिक स्वतंत्रता की कुछ सीमा तक अनुमति देता है और वास्तव में तिब्बतियों को इसके लिये उस ’17 सूत्री समझौते’ में वादा किया गया था जिस पर उन्हें जबरन हस्ताक्षर करने पड़े थे।
(4)   तिब्बती राष्ट्रीय पहचान को मिटाने के निरंतर प्रयास के चलते तिब्बत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत व्यवहारत: नष्ट हो चुकी है। इसके परिणामस्वरूप अब तिब्बती सांस्कृतिक जातिसंहार का सामना कर रहे हैं। बहुत शीघ्र वे उन सबसे महरूम हो जायेंगे जो उन्हें चीनियों से अलग पहचान देते थे और वे चीनी नागरिकों और सैनिकों की आती बाढ़ में डूब रहे हैं। भीतरी मंगोलिया और सिंकियांग के लोगों के साथ भी ऐसी ही तबाहियाँ घटित हुई हैं। उनकी संस्कृतियाँ भी भौतिक रूप में नष्ट की जा रही हैं।
(5)   पारिस्थितिक संतुलन की घोर उपेक्षा करते हुये तिब्बत के प्राकृतिक संसाधनों का आपराधिक कुप्रबन्धन हुआ है जो पूँजीवाद के सबसे बर्बर और उच्छृंखल रूप की ओर ध्यान दिलाता है। पिछले 36 वर्षों के अकाल और अर्थव्यवस्था की पूर्ण तबाही अपरिहार्य रूप से 19 वीं सदी के मध्य में ब्रिटिश शासन के दौरान आयरिश लोगों की दुर्दशा से तुलना करने को उकसाते हैं। जिस तरह से उपनिवेशी शक्तियों ने वहाँ अपने शिकार के प्राकृतिक संसाधनों को चूस कर सुखा डाला उसी तरह से चीनी तिब्बत में खनिज, लकड़ी आदि का दोहन कर रहे हैं और उन्हें चीन के दूसरे भागों में भेज रहे हैं। यह समझ पाना कठिन है कि यह सब किसी भी तरह से ‘मुक्ति’ जैसी अवधारणा को प्रदर्शित कर सकते हैं।

हम यह माँग करेंगे कि तिब्बती लोगों को मौलिक मानवाधिकारों से वंचित रखने की इस स्थिति में संयुक्त राष्ट्र के एक प्रतिवेदक को तिब्बत जाने की अनुमति दी जाय, उसे निर्बाध रूप से उपनगरों, देहाती जिलों, जेलों, लेबर कैम्पों आदि में जाने दिया जाय और उसे अपने जाँच परिणामों पर रिपोर्ट देने को कहा जाय।
(समाप्त)
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नोट: 

 तिब्बत पर सन् 1984 तक हुये भीषण अत्याचारों की यह रिपोर्ट आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। आज चीन एक महाशक्ति है। शक्ति और अंतरराष्ट्रीय़ पकड़ का प्रयोग करते हुये वह अपने एजेंडा पर और जोर शोर से लगा हुआ है। प्रमाण स्वरूप इस शृंखला के बीच में ही उद्धृत क्षेपक को देखा जा सकता है।
यह दु:संयोग है कि जॉर्ज ऑरवेल के उपन्यास ‘1984’ में वर्णित जाने कितनी ‘कल्पनायें’ तिब्बतियों के लिये 1984 तक वास्तविक हो चुकी थीं और अभी भी जारी हैं। आश्चर्य नहीं कि उपन्यास का उल्लेख कई बार किया गया है।
दुर्भाग्य से राष्ट्रों और नृवंशों की जीवन रेखायें सदियों में फैली होती हैं और सुख की तरह ही दुख का काल भी कई पीढ़ियों तक अपना प्रसार रखता है। यहूदियों और पारसियों को शरण दे उनकी संस्कृति को बचाये रखने में उदार भारत ने सहायता की और तिब्बतियों के साथ भी ऐसा ही किया। हर चरित्र का एक कृष्ण पक्ष भी होता है। भारत की उदारता का कृष्ण पक्ष यह है कि कश्मीरी अपने ही देश में शरणार्थी बना दिये गये और यह देश चुपचाप तमाशा देखते गलाबाजी में व्यस्त रहा और आज भी है।
इन सब के होते हुये भी आशा और मुक्ति की सनातन मानवीयता पर भरोसा करना ही होगा। दुख को शाश्वत और उससे जुड़ी सचाइयों को आर्यसत्यों की श्रेणी में रखने वाली बौद्ध संस्कृति दुख निदान और उसके मार्ग को अपना मूल जीवन दर्शन मानती है और यह मान्यता ही उन्हें चुप नहीं बैठने देगी। एक दिन, एक दिन तिब्बत में वे अवश्य पुनर्स्थापित होंगे।
मानव जीवन में श्वेत श्याम जैसा स्पष्ट विभाजन नहीं होता। जो खल हैं वे धूसर में कालेपन को बढ़ाने को जीते हैं और सज्जन सफेदी को। सभ्यताओं के साथ भी ऐसा ही है। ऐसे में आर्ष वाणी ‘सर्वेऽपि सुखिन: संतुसर्वे संतु निरामया’ या शांति पाठ के स्थान पर घनघोर जिजीविषा को बयाँ करती दो डायरियों से उद्धृत करना अधिक उपयुक्त होगा क्यों कि उन्हों ने अत्याचार, आतंक और दिन ब दिन आती मृत्यु को प्रत्यक्ष झेलते हुये भी अपने श्वेत पक्ष को न केवल बनाये रखा बल्कि उन्हें सहज सनातन अभिव्यक्ति दी। इन्हें दो किशोरियों का भावुक बचपना नहीं, सम्पूर्ण मानवता की अभिव्यक्ति समझें और समझें कि लाखों मूक तिब्बतियों के स्वर भी इनमें सम्मिलित हैं क्यों कि साम्यवाद के अत्याचार वे भी झेल रहे हैं:

(1)    एक सोवियत छात्रा की डायरी (1932-37) - नीना लुगोव्स्काया

(कम्युनिस्ट सोवियत संघ में स्तालिन के शासन काल में एक बोल्शेविक क्रांतिकारी की पुत्री। डायरी में लिखी बातों को प्रतिक्रांतिकारी माना गया और समूचे परिवार को बन्दी बना लिया गया। वह कोल्यमा कैम्प में चार-पाँच वर्ष बन्दी रही और सात वर्षों तक निर्वासित रही।)

“... उक्रेन... इसे क्या हो गया है? यह पहचान में नहीं आता। मृत शांत स्तेपी (घास के बड़े मैदान)... बोल्शेविक इस तबाही के लिये तैयार थे। वसंत में बोये जाने वाले छोटे छोते खेत अब लाल सेना द्वारा बोये काटे जा रहे हैं जिन्हें इस उद्देश्य के लिये ही वहाँ भेजा गया था...”  
“... मैं रोने लगी, कोसते हुये कमरे में इधर उधर दौड़ने लगी और इस निष्कर्ष पर पहुँची कि इस भीड़ को अवश्य ही मार दिया जाना चाहिये। कई दिनों तक मैं शामों को बिस्तर में पड़ी सोचती रही कि मुझे ही इस व्यक्ति(स्तालिन) को मार देना चाहिये। और यह तानाशाह और अधिक वादे करता है, यह नरपशु, यह घामड़, यह दुष्ट जार्जियाई जो रूस को तबाह कर रहा है। यह कैसे हुआ कि महान रूस, महान रूसी लोग ठगों के हाथ लग गये? क्रोध में पागल हो मैंने अपनी मुठ्ठियाँ कसीं। जितनी जल्दी हो सके उसे मार दूँ! अपने और अपने पिता पर हुये अत्याचारों का बदला लूँ...“
“...मैं घुटन भरे कमरे के लिये नहीं बनी, और न (ऐसी) भीड़ के लिये। स्वतंत्रता! मेरा हृदय स्वतंत्रता की माँग करता है। मैं प्रकृति में मिल जाना चाहती हूँ, स्वतंत्र हवाओं के साथ पृथ्वी के ऊपर ऊँची उड़ान भरना चाहती हूँ और दूर उड़ जाना चाहती हूँ ... दूर अनजाने देशों की ओर..”

(2)   एक किशोरी की डायरी – अन्ने फ्रैंक

(एक यहूदी लड़की जिसे हिटलर के सैनिकों ने परिवार सहित बन्दी बना कर यातना कैम्प में भेज दिया। वह वहीं मर गई। बन्दी होने के पहले लगभग दो वर्षों तक वे लोग छिप कर रहे जहाँ उन्हें बाहरी संसार में किये जा रहे अत्याचारों और यहूदियों पर मृत्यु के कसते शिकंजों की खबरें मिलती रहीं। 4 अगस्त 1944 को गिरफ्तार होने के पहले 15 जुलाई 1944 को उसने डायरी में यह लिखा)।    

“... हम लोग इन समस्याओं से निपटने के लिये बहुत छोटे हैं लेकिन बड़े लोग हम पर अपनी बात तब तक थोपते रहते हैं जब तक अंतत: हम एक हल सोचने को बाध्य नहीं हो जाते, यद्यपि अधिकांश मौकों पर हमारे निदान सचाई का सामना होते ही बिखर जाते हैं। ऐसे समय में यह कठिन है: आदर्श, सपने और प्रिय आशायें हमारे भीतर उठती हैं और नग्न यथार्थ के आगे कुचली जाती हैं। यह आश्चर्य ही है कि मैंने अपने सारे आदर्श नहीं छोड़े हैं, वे अव्यावहारिक और मूर्खतापूर्ण लगते हैं। फिर भी मैं उनसे चिपकी रहती हूँ क्यों कि मैं अब भी भरोसा करती हूँ कि सब के बावजूद, लोग सच में दिल से अच्छे होते हैं... मैं आने वाले तूफान को सुन सकती हूँ जो एक दिन हमें भी नष्ट कर देगा, मैं लाखों लोगों के दुख का अनुभव करती हूँ। फिर भी ... मैं अनुभव करती हूँ कि एक दिन क्रूरता का भी अंत होगा...” 


और अंत में ... बौद्ध करुणा



बुधवार, 27 जुलाई 2011

सँभल के...

कल कारगिल विजय दिवस था: उस दिन पाकी घुसपैठियों को  हमने मार भगाया था। 

पाक ने इस मौके पर अब एक हसीन चेहरा भेजा है। किसी भी बात के पहले उसका कश्मीरी अलगाववादियों से मिलना उसकी मंशा साफ कर देता है। सँभल के रहना रे बाबा! 


इस  हसीं, मासूम और पाकी चेहरे के पीछे भेंड़िये छिपे हुये हैं। ऐसी अदाओं पर न लुभ जाना। कारगिल को याद रखना। 

रविवार, 24 जुलाई 2011

तिब्बत - चीखते अक्षर (14)

पूर्ववर्ती: 
तिब्बत - चीखते अक्षर : अपनी बात 
तिब्बत - चीखते अक्षर : प्राक्कथन 
तिब्बत – क्षेपक 
तिब्बत-चीखते अक्षर:(1),(2),(3),(4),(5),(6),(7),(8),(9),(10),(11),(12),
(13)
अब आगे ...


उद्योग


1976 तक तिब्बत में उद्योगों की संख्या 272 बताई जाती थी। उनमें एक डेरी प्लांट जिसमें डिब्बाबन्द सुखाये गये दूध का उत्पादन होता है, चमड़े के कारखाने और ऊन की मिलें सम्मिलित हैं। हालाँकि, जैसा कि दूसरे उद्योगों के साथ होता है, उत्पादित की गई सामग्री तिब्बत से बाहर चीन, हांगकांग और नेपाल ले जाई जाती है। आधिकारिक रूप से यह बताया जाता है कि उत्पाद ‘राज्य को अर्पित किये गये’। कार्मिकों का अधिकांश (75-80% या अधिक) चीनी है और समस्त महत्त्वपूर्ण पदों पर वही बैठे हैं। तिब्बत में कोयले का उत्खनन, विशेषकर फेन्पो क्षेत्र में, वृहद स्तर पर होता है और दिसम्बर 1977 के दौरान उत्पादन 87400 टन था। सोने की खुदाई त्सोना क्षेत्र में होती है जब कि लौह अयस्क जांग क्षेत्र से निकाला जाता है। शरणार्थी वृहद स्तर पर खनिज उत्खनन, उन्हें चीन भेजे जाने और क्रोम की खदानों में तिब्बतियों से काम लिये जाने की बातें बताते हैं। ल्हासा रेडियो ने सूचना दी कि ल्हासा में एक बड़े भूवैज्ञानिक सम्मेलन का आयोजन हुआ जिसमें तिब्बती पठार में पाये जाने वाले विभिन्न प्रकार के 36 खनिजों का विश्लेषण किया गया जिनमें से कुछ बहुत अत्यल्प मात्रा में मिलते हैं और उनमें यूरेनियम तथा प्लूटोनियम सम्मिलित हैं।
        
उदारीकरण और धार्मिक स्वतंत्रता

तिब्बती आँसू - सत्यशोधक प्रतिनिधिमंडल का स्वागत 
 1979/80 में तिब्बत में एक बहुप्रचारित उदारीकरण कार्यक्रम का प्रारम्भ हुआ। परंतु ऐसा नहीं प्रतीत होता कि इसका बहुत प्रभाव पड़ा और सम्भवत: यह इस वास्तविकता पर हताशा भरी प्रतिक्रिया थी कि यह सिद्ध हो गया था कि तिब्बत से बौद्ध धर्म का निर्मूलन असम्भव था। चीनी निस्सन्देह रूप से आशान्वित थे कि प्रतीतमान सुधारों को देखते हुये दलाई लामा लौट आयेंगे। वह चीनियों के लिये एक मूल्यवान परिसम्पत्ति की तरह होंगे क्यों कि तिब्बती लोग उनके प्रति बहुत असाधारण आदर की भावना रखते हैं। पूरे तिब्बत में झुंड के झुंड तिब्बती सत्यशोधक प्रतिनिधिमंडलों को देखने को इकठ्ठे हुये क्यों कि वे जानते थे कि उन्हें दलाई लामा ने भेजा था और बहुत सी बड़ी बैठकों का फिल्मांकन हुआ। अक्सर लोगों ने प्रतिनिधियों तक पहुँचने और उन्हें छूने के प्रयास अपने बच्चों को तिब्बती नाम देने की प्रार्थना के साथ किये। कई बच्चे और युवा हाथों में फूल लिये उन तक यह कहने के लिये पहुँचे कि ‘बुद्ध की शिक्षाओं का सूरज एक दिन पुन: उदित हो’। सर्वाइवल इन्टरनेशनल के स्टीफेन कोरी ने जिसे ‘तीस वर्षीय विकृत हिंसक दमन’ कहा है, बौद्ध धर्म उससे बचने में सफल हुआ जिससे पुराने दौर के शासन के दौरान इसके कथित दमनकारी स्वभाव का चीनी दावा झूठा साबित होता है।       
यह एक असंदिग्ध सत्य है कि उत्तर भारत में दलाई लामा की निर्वासित सरकार चीनियों के लिये एक नित वर्धमान उलझन का एक ऐसे समय कारण बनी हुई है जब कि चीनी तकनीकी विशेषज्ञता और ज्ञान हासिल करने के प्रयास में अंतरराष्ट्रीय समाज के सामने एक निष्पाप रुख प्रस्तुत करने के लिये संघर्षरत हैं। प्रतीत होता है कि उदारीकरण के इस काल में कुछ करों को समाप्त कर दिया गया लेकिन ऐसा कुछ समय के लिये ही था। तिब्बत के कुछ भागों में अस्थायी रूप से भले कुछ कम्यूनों को भंग कर दिया गया होगा लेकिन किसी को निश्चित रूप से यह पता नहीं है कि वास्तविक नीति क्या है। तिब्बतियों को भारत अपने सम्बन्धियों से मिलने जाने के लिये अनुमति दी गई लेकिन उनके परिवार तिब्बत में ही रहे ताकि गये लोगों की सुरक्षित वापसी सुनिश्चित रहे। धार्मिक स्वतंत्रता में कुछ बढ़ोत्तरी की गई लेकिन तिब्बती तब भी दलाई लामा के चित्र रखने के लिये बन्दी बनाये जा सकते थे क्यों कि चीनी यह आरोप लगा देते थे कि उसका राजनैतिक महत्त्व था। यह भी है कि तिब्बतियों के धार्मिक रंग लिये खुले आयोजनों जैसे प्रार्थना ध्वजारोहण, साष्टांग प्रार्थना, अगरबत्तियाँ जलाने और प्रदक्षिणा (जिन्हें पर्यटक देख सकते हैं) पर चीनी ध्यान नहीं देते लेकिन धर्म के वास्तविक अनुगमन को वे प्रतिबन्धित करते हैं। अक्सर सम्वाददाता धार्मिक उत्साह के ऐसे खुले प्रदर्शनों की रिपोर्टिंग उनके पीछे छिपी वास्तविकताओं की अपर्याप्त समझ के साथ करते हैं। चीनियों ने यह स्पष्ट रूप से कह रखा है कि कोई भी व्यक्तिगत स्तर पर पूजा करने के लिये स्वतंत्र है लेकिन वह दूसरों को धर्मपालन हेतु प्रभावित नहीं कर सकता – इसका अर्थ यह हुआ कि वृद्ध लोग नई पीढ़ी को शिक्षित नहीं कर सकते। यह एक तथ्य ही यह भंडाफोड़ कर देता है कि तिब्बत में धार्मिक स्वतंत्रता का पूरा बाह्यावरण शेष संसार को धोखा देने के अलावा कुछ नहीं है।
इसके अतिरिक्त, वे अवतारी लामाओं की खोज और पहचान का निषेध करते हैं। उन्हों ने यह घोषणा कर रखी है कि अठ्ठारह वर्ष से कम आयु का कोई भी व्यक्ति भिक्षु नहीं बन सकता; यह भी कि जो लोग भिक्षु जीवन चुनते हैं उन्हें अपने लिये स्वयं व्यवस्था करनी चाहिये और वे लोग अपने परिवार पर आश्रित नहीं रह सकते; धार्मिक उद्देश्यों के लिये चन्दा नहीं माँगा जा सकता और माता पिता अपने बच्चों को धार्मिक समारोहों में नहीं ले जा सकते। यह सब इसे स्पष्ट कर देता है कि चीनियों की वास्तविक नीति तिब्बत जैसे बलात कब्जा किये क्षेत्रों के साथ चीन के सभी भागों से धर्म का उन्मूलन बनी हुई है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति का वैचारिक मुखपत्र ‘लाल ध्वज’ इस नीति को पूर्ण रूप से स्पष्ट कर देता है 1। तथापि तिब्बतियों ने अपने धर्म को छोड़ना स्वीकार नहीं किया है।
सत्यशोधक प्रतिनिधिमंडल के आगे विह्वल रोती
इस तिब्बती स्त्री ने जाने कितनी यातनायें सही होंगी।  
साधारणतया यह संज्ञान में नहीं लिया जाता कि उदारीकरण के दौर में भी यातना और पिटाई व्यापक रूप से जारी थे जब कि चीनी मुख्य रूप से, उनके अनुसार सांस्कृतिक क्रांति के दौरान, की गई ‘ग़लतियों’ को स्वयं स्वीकार रहे थे। उदाहरण के लिये, तिब्बती स्त्री त्सेरिंग ल्हामो को 1979 में पहले सत्यशोधक प्रतिनिधिमंडल के दौरे के दौरान चीन-विरुद्ध नारे लगाने के लिये बिजली के झटकों द्वारा यातना देकर पागल बना दिया गया। वैज्ञानिक बौद्ध संगठन और तिब्बती बौद्ध संस्थायें उसका मामला एमनेस्टी इंटरनेशनल तक ले गईं और इस बात की सूचना मिली कि उसे मई 1982 में मुक्त किया गया। उसका पुत्र लोब्सांग चोडाग भी गिरफ्तार हुआ था और इस बात का पता चला है कि उसकी पिटाई होती रही है जिससे सम्भवत: उसका जबड़ा भी टूट गया है। कुछ रिपोर्टें यह भी सुझाती हैं कि त्सेरिंग ल्हामो को हाल ही में पुन: बन्दी बना लिया गया होगा लेकिन इस समय उसके बारे में और सूचना नहीं है। उदारीकरण के उस दौर में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की समिति के तत्कालीन प्रथम सचिव यिन फटांग ने 1981 में ल्हासा में हुये पार्टी प्रतिनिधि सम्मेलन में यह सूचना दी कि ‘तिब्बत में आम जन समर्थित प्रतिरोध के साथ गम्भीर उपद्रव और तोड़ फोड़  व्यापक स्तर पर फूट पड़े हैं’। मई 1982 में तिब्बती उपनगर शिगात्से में 115 लोगों को प्रकट रूप से ह्रासोन्मुख पश्चिमी तौर तरीकों जैसे लम्बे केश रखने आदि में लिप्त होने के आरोप में गिरफ्तार किया गया (उन्हें राजनैतिक आरोपों के आधार पर गिरफ्तार नहीं किया गया, चीनी अब उनका प्रयोग यदा कदा ही करते हैं)। बहुतों को बुरी तरह से पीटा गया।
यह सब उदारीकरण के दौर में घटित हुये जब कि चीनियों ने दूसरे सत्यशोधक प्रतिनिधिमंडल के दौरे में एकदम प्रारम्भ में ही कतर ब्योंत कर दी क्यों कि तिब्बतियों की एक भारी भीड़ ने दलाई लामा के समर्थन में एक प्रदर्शन किया जो स्पष्टतया प्रतिनिधियों को चीनी शासन के बारे में अपनी भावनाओं से अवगत कराना चाह रही थी। चीनियों ने बलपूर्वक बहुत से उपस्थित सम्वाददाताओं को प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों से प्रश्न पूछने से रोका और विश्व प्रेस में इस घटना की व्यापक रिपोर्टिंग हुई। (जारी)
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'लाल ध्वज The Red Flag' के दिनांक 16/06/1983 के सम्पादकीय अंश का अंग्रेजी पाठ इस प्रकार है:
'.... under the guise of protecting freedom of religious belief, we greatly develop the socialist economy, culture, science and technology.... so as to gradually eliminate the social and cognitive sources that have given rise to religion and enable it to exist'. 
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आगे भाग (15)
आतंक का नया दौर
स्वायत्तता का झूठ
और
उपसंहार   

शनिवार, 23 जुलाई 2011

तिब्बत - चीखते अक्षर (13)

पूर्ववर्ती: 
तिब्बत - चीखते अक्षर : अपनी बात 
तिब्बत - चीखते अक्षर : प्राक्कथन 
तिब्बत – क्षेपक 
तिब्बत-चीखते अक्षर:(1),(2),(3),(4),(5),(6),(7),(8),(9),(10),(11),(12)
अब आगे ...

जातीय भेदभाव

सात वर्ष की अवस्था से तिब्बती बच्चे चीनियों के हाथों संस्थागत भेदभाव झेलते हैं। अगर वे विद्यालय में जाते हैं तो वे पाते हैं कि जरा से बहाने से उन्हें निष्कासित कर दिया जाता है जब कि चीनी बच्चों को हमेशा ही प्रोत्साहित किया जाता है। 
किसी भी व्यक्ति का ‘वर्ग’ उसके नाम, जन्मतिथि और जन्मस्थान के साथ उसके राशन कार्ड पर अंकित करना होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि आठ वर्ष का एक बच्चे को एक या दूसरे ‘वर्ग’ में श्रेणीबद्ध करना होता है। जीवन में प्रगति करने और ऑफिसर होने की योग्यतायें ‘सही वर्ग’ और ‘सही प्रवृत्ति’ हैं। न तो प्रशासनिक क्षमता को देखा जाता है और न ही या शैक्षिक योग्यता को। जहाँ तक काम का प्रश्न है, तिब्बतियों को ‘दक्षिण अफ्रीकी रंगभेद नीति’ जैसा झेलना पड़ता है। युवा लोग शीघ्र ही यह पाते हैं कि वे चाहे जो काम पायें, वे हमेशा एक चीनी के अधीनस्थ रहते हैं और चीनियों को सेवायोजन की किसी भी प्रतियोगिता में वरीयता दी जाती है। उन्हें कार्यालयों के सर्वोत्तम काम दिये जाते हैं और दक्षिण तिब्बत के फल बागानों की देखभाल भी चीनी ही करते हैं। कारखानों और खेतों में या सड़क पर अकुशल श्रम हमेशा तिब्बतियों के हिस्से आता है जिन्हें उन परिस्थितियों में काम करना होता है जो बेगारी के समतुल्य होती हैं।    
चीनियों का भोजन अलग होता है और वे अधिक वेतन या मज़दूरी पाते हैं। नवनिर्मित आवास परिसर चीनी और तिब्बती अधिकारियों के लिये सुरक्षित होते हैं और तिब्बत में अधिकतर घर दीर्घकाल से खस्ताहाल हैं। उन राज्य नियंत्रित दुकानों के माध्यम से जहाँ अधिकतर वस्तुयें इतनी महँगी हैं कि तिब्बती उन्हें खरीद नहीं सकते, चीनी अधिकारियों का व्यापार पर एकाधिकार है।  तिब्बती संगीत और नृत्य, जिनके उद्गम काल की गहराइयों में खो चुके हैं, लुप्तप्राय हैं। 
चीनी अपनी सांस्कृतिक श्रेष्ठताबोध को लेकर अटल हैं और चीन में पढ़ रहे अफ्रीकी विद्यार्थी अक्सर असभ्यतम जातीय दुर्व्यवहार की शिकायतें करते हैं। चीनीकरण के पीछे संस्क़ृति के श्रेष्ठतर होने की अवधारणा है जो चीनी मनोलोक में इतनी गहरी धसी हुई है कि उनका जातिगत श्रेष्ठताबोध की कगार तक पहुँचा संरक्षण भाव अधिकतर सहज सा है और इसलिये किसी सुधार के प्रति अति प्रतिरोधी है। अब चीनी घुसपैठियों की लहरें तिब्बत पर छाती जा रही हैं। उनमें से सभी कथित ‘विशेषज्ञ’ हैं जो तिब्बत के विकास में सहायता करने आये हैं। पहले ही ऐसे कई दसियो हजार ‘विशेषज्ञ’ तिब्बत में बस चुके हैं और ढेर सारे रास्ते में हैं। वास्तव में ये सर्वोत्तम नौकरियों पर कब्जा कर और उन्हें उनके पारम्परिक व्यवसायों से वंचित कर तिब्बती लोगों के लिये कठिन समस्यायें उत्पन्न कर रहे हैं। जब इन चीनी घुसपैठियों को तिब्बत भेजा गया तो उनकी समझ में यह बैठा दिया गया था कि उन्हें वरीयता मिलेगी और वे उस परिस्थिति का लाभ उठाने से नहीं हिचकिचाते जिसकी रचना तिब्बतियों के प्रति भेदभाव करने के लिये की गई है। और अधिक कहें तो चीनी घुसपैठियों का विराट प्रवाह तिब्बतियों के अस्तित्त्व के ऊपर सादृश्यीकरण और अवशोषण के द्वारा उनके पूर्ण विनाश का खतरा बन मँडरा रहा है। मुख्य उपनगरों और नगरों में पहले से ही चीनियों की संख्या तिब्बतियों से अधिक पहुँच चुकी है। शीघ्र ही तिब्बती जन अपने ही देश में अल्पसंख्यक बन जायेंगे। यह जान कर बहुत आश्चर्य नहीं होता कि एशिया के बड़े भाग में तिब्बत को चीन का ‘गहन दक्षिण (deep south)’ कहा जाता है।

पारिस्थितिक तबाही

चीनियों ने तिब्बत के बड़े भागों में जंगलों का समूल विनाश कर दिया है। न्गापा और देचेन क्षेत्रों में 65000 से ऊपर की संख्या में लोगों को काष्ठ उद्योग में लगाया गया है। कई वर्षों से जारी इस धन्धे में सारी की सारी लकड़ियाँ नदी मार्ग से दक्षिण और मध्य चीन को भेज दी गई हैं जिनकी कुल कीमत नि:सन्देह रूप से अरबों डॉलर है। बहुत बड़े बड़े भूभागों को तबाह कर दिया गया है और उनका पर्यावरण बरबाद कर दिया गया है। कृषि और पशुचारण के चीनी कुप्रबन्धन के कारण घास के मैदानों को जोत दिया गया जो तीव्र तिब्बती वायु वेग को न झेल पाने के कारण अब धूल के मैदान हो रहे हैं और पशुचारण की अति तथा याक के गोबर के पारम्परिक प्रयोग के स्थान पर झाड़ियों को उखाड़ कर जलावन के रूप में उपयोग करने के कारण भूमि का आवरण नष्ट हो चुका है।
कभी फलता फूलता वनजीवन चीनियों के हाथों लगभग समाप्त हो गया प्रतीत होता है। कभी इस क्षेत्र में भालू, भेंड़िये, जंगली मुर्गाबियाँ, बतखें, कृष्णग्रीव सारस, मत्स्य बाज और कुररी, तिब्बती नील भेंड़ों के समूह, जंगली याक, हिरन और बारहसिंघे पाये जाते थे। उनमें से अधिकांश अब लुप्तप्राय प्रतीत होते हैं, जिन्हें चीनियों की क्षुधा पूर्ति के लिये अधिकतर जीप पर लगी मशीनगनों के द्वारा मारा जाता रहा है। 
इससे भी आगे बढ़ कर चीनियों ने लॉप नॉर क्षेत्र में आणविक परीक्षण कर पर्यावरण को खतरनाक क्षति पहुँचाई है और चीनी वातावरण में व्याप्त भयावह विकिरण विषाक्तता को स्वीकारते हैं। बहुत ही जल्दबाजी में इस क्षेत्र में रह रहे तिब्बतियों को पीकिंग (बीजिंग) भेजना पड़ गया। (जारी)
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आगे के भाग:



(15)
आतंक का नया दौर
स्वायत्तता का झूठ
उपसंहार  

रविवार, 17 जुलाई 2011

तिब्बत - चीखते अक्षर (12)


पूर्ववर्ती:
तिब्बत - चीखते अक्षर : अपनी बात 
तिब्बत - चीखते अक्षर : प्राक्कथन 
तिब्बत – क्षेपक 
तिब्बत - चीखते अक्षर (1)(2)(3)(4)(5)(6)(7),(8),(9),(10), (11) 
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स्वास्थ्य

क्रिस मुल्लिन लिखते है‍ कि सामान्य प्रे़क्षक को भी यह स्पष्ट हो जाता है कि तिब्बत में  स्वास्थ्य सुविधाओं का स्तर बाकी चीन की तुलना में बहुत गिरा हुआ है। चीनियों ने बहुत कम तिब्बतियो‍ को चिकित्सा कर्म में प्रशिक्षित किया है और दावा त्सेरिंग(पहले के भाग में वर्णित) ने पाया कि ‘समाजवादी’ तिब्बत में सामान्य जन को चिकित्सा सुविधाओं के लिये भुगतान करना पड़ता है। 
1979 में दलाई लामा द्वारा तिब्बत भेजे गये पहले प्रतिनिधिमंडल के स्वागत को
केन्द्रीय मठ परिसर में तिब्बतियों की भारी भीड़ उमड़ी 
विपन्न(पाँवों में जूते तक नहीं) डॉक्टरों को अत्यल्प प्रशिक्षण मिला था और दूसरे प्रतिनिधिमंडल के साथ गये दुभाषिये को दोषपूर्ण निदान और ग़लत दवाओं के कारण बहुत भयानक तौर पर झेलना पड़ा। मिलती जुलती परिस्थितियों में बहुत से तिब्बतियों की मृत्यु हो गई और दूसरे कई अन्धपन के शिकार हुये। जब दूसरे सत्यशोधक प्रतिनिधिमंडल ने तिब्बत का दौरा किया तो अस्पतालों में तिब्बती मुख्य रूप से रीढ़ के रोगों और गुर्दे की समस्याओं से ग्रसित पाये गये जिसका कारण सम्भवत: भयानक ठंड में बिना पर्याप्त कपड़ों के कई घंटों तक लगातार कठिन श्रमपूर्ण काम करना था (तिब्बत में कपड़े बहुत महँगे हैं और बहुत से तिब्बतियों को चकती या थगली लगे कपड़ों से काम चलाना पड़ता है)। 1979 के पहले तक बहुतेरे तिब्बतियों को सप्ताह के सातो दिन काम करना पड़ता था और इसके कुप्रभाव से तिब्बतियों के सामान्य स्वास्थ्य में गिरावट हुई होगी। हाल में तिब्बत गये दूसरे यात्रियों ने पाया कि भयानक पिटाई के परिणाम स्वरूप प्राय: लोग आंशिक रूप से बहरे हो गये थे, साथ ही बहुत से तिब्बतियों के मुँह में ,जिनमें युवा भी सम्मिलित हैं, या तो दाँत नहीं थे या न के बराबर बचे थे जिसका प्रधान कारण भयानक अकालों के दौरान घटित शरीर में विटामिन की कमी थी। 
यह तथ्य भी दहलाने वाला है कि बहुत से तिब्बती अपने जीवन के अधिकांश भाग में लगभग स्थायी आतंक की स्थिति में लगातार रहने के कारण स्नायु तंत्र की गड़बड़ियों से ग्रसित हैं। उन्हें यह भय लगा रहता है कि कभी भी उनके घरों की तलाशी ली जा सकती है (जैसा कि तिब्बत में प्राय: होता है।) या उन्हें बन्दी बनाया जा सकता है, यातना दी जा सकती है या हत्या की जा सकती है। तिब्बतियों में स्नायु तंत्र की गड़बड़ियों की बारम्बारता एक बलिष्ठ और हँसोड़ जाति की उनकी पुरानी पहचान के ठीक उलट बैठती है।

खाद्य उत्पादन और उसका बँटवारा
                    
मई 1980 में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति के महासचिव हु याओ बैंग ने वादा किया कि तीन वर्षों के भीतर तिब्बती अर्थव्यवस्था को ‘1959 पूर्व के स्तर’ तक लाया जायेगा – इसका अर्थ यह है कि अर्थव्यवस्था को चीनियों के समूचे तिब्बत में अपने प्रभाव का विस्तार करने के पहले के स्तर तक लाना था। वह बयान इस मायने में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था कि उससे तिब्बत में चीनी नीतियों की सम्पूर्ण विफलता पर प्रकाश पड़ता था। वादा पूरा नहीं किया गया और ऐसे संकेत हैं कि तिब्बती पुन: खाद्य पदार्थों की कमी झेल रहे हैं। प्रयोग के प्रारम्भिक दिनों में कम्यून तंत्र तबाही के स्तर तक विफल रहा। हाल की कुछ सफलताओं के कारण उत्पादकता बढ़ी है लेकिन तिब्बती ,अगर कभी अवसर आया तो भी, शायद ही इससे लाभान्वित होते हैं।
अधिकांश तिब्बतियों को भुगतान मुद्रा रूप में न कर अन्न दे कर किया जाता है। उन्हें एक राशन कार्ड दिया जाता है जिस पर उन्हें मिलने वाले अन्न की मात्रा वर्णित रहती है और इस अन्न से ही उन्हें अपने जीवन की अधिकांश आवश्यकताओं का क्रय करना होता है। किसी श्रमिक को मिलने वाले अन्न की मात्रा उसके कार्य प्रदर्शन पर निर्भर करती है और उसके ‘वर्क प्वाइंट’ कार्ड पर रिकॉर्ड किये जाते हैं। सामान्यत: अन्न को तिमाही किस्तों में दिया जाता है जब कि वर्क प्वाइंट प्रत्येक कार्यदिवस के अंत में दिये जाते हैं। इस तंत्र के फलस्वरूप वृद्ध और अशक्त प्राय: भूखे रह जाते हैं और लोग बिना कभी यह जाने कि उन्हें या उनके परिवारों को खाद्य पदार्थ और अन्य आवश्यकताओं को खरीदने भर को अन्न मिलेगा या नहीं, अंतहीन दोषदर्शी प्रतिबन्धों के दायरे में खटते रहते हैं।
साम्यवादी चीन के शासन में तिब्बत में बाल मज़दूरी 
सत्यशोधक प्रतिनिधिमंडलों ने लोगों को खेतों में प्रात: 6 बजे से शाम 8 बजे तक काम करते देखा जिनमें से कुछ बहुत कम आयु के बच्चे भी थे जिनके हाथ छिल हुये थे और उनमें गाँठें पड़ गई थीं। ऐसे बहुत से बच्चों को अपने परिवार की आवश्यकता पूर्ति लायक वर्क प्वाइंट अर्जित करने हेतु काम करना पड़ता है और कोई भी आश्चर्य में पड़ सकता है कि ये बच्चे पढ़ते लिखते क्या होंगे! दूसरे प्रतिनिधिमंडल को भोजन की तलाश में देहातों में घूमते बच्चे भी मिले। उनके माँ बाप इस लायक नहीं बचे थे कि उन्हें खिला पिला सकें और उन्हें घर छोड़ कर जाने को कह दिया गया था।
 90% तिब्बती गाँवों में रहते हैं और स्थिति बिगड़ती जा रही है क्यों कि लगता है कि कुछ समय से वर्क प्वाइंट का अन्न मूल्य नहीं बढ़ाया गया है जब कि उसके लिये आवश्यक काम को पिछ्ले दो तीन वर्षों में लगभग 50% बढ़ा दिया गया है। इस बढ़ोत्तरी के पहले ही परिस्थितियाँ बहुत बुरी थीं। विशिष्ट औपनिवेशिक रीतियों की तरह ही कम्यूनों द्वारा किये गये उत्पादन का अधिकांश चीनियों द्वारा हड़प लिया जाता है। उदाहरण के लिये देखें तो उत्पाद के  आधे भाग को राज्य द्वारा ‘अतिरिक्त अन्न विक्रय’ के तौर पर बहुत ही सस्ते दाम में ले लिया जाता है। इसके पश्चात दूसरी कटौतियाँ जैसे ‘राष्ट्र प्रेम कर’ आदि की जाती हैं और तिब्बती जीविका राशन के लिये बहुत ही कड़ा श्रम करते हैं। मांस, मक्खन और चीज तिब्बतियों के लिये अत्यल्प ही उपलब्ध हो पाते हैं जब कि चीनी तिब्बत में उत्पादित खाद्य पदार्थों के अधिकांश का निर्यात कर देते हैं और साथ ही साथ भोजन, ऊन, दुग्ध उत्पाद आदि को चीन को भेज देते हैं। यह अनुमान लगाया गया कि 1980 में एक तिब्बती किसान परिवार की प्रति व्यक्ति आय 62 डॉलर वार्षिक से भी कम थी। तुलनात्मक रूप से देखें तो 1978 के भारत में यह आँकड़ा 180 डॉलर था जो हाल में बढ़ कर औसतन 300 डॉलर के ऊपर पहुँच गया है(#)। ये आँकड़े तिब्बत को इस ग्रह के सर्वाधिक निर्धन जनों में से एक साबित करते हैं। (जारी)        
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(#) वर्ष 1983-4

शनिवार, 16 जुलाई 2011

तिब्बत - चीखते अक्षर (11)

पूर्ववर्ती:
तिब्बत - चीखते अक्षर : अपनी बात 
तिब्बत - चीखते अक्षर : प्राक्कथन 
तिब्बत – क्षेपक 
तिब्बत - चीखते अक्षर (1)(2)(3)(4)(5)(6)(7),(8),(9),(10) 
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(7) संयुक्त राष्ट्र के निवेदन

हालाँकि 1950 में संयुक्त राष्ट्र से किये गये प्रारम्भिक तिब्बती निवेदनों को सीमित प्रतिसाद मिला लेकिन चीनी अत्याचार इतने बुरे हो गये कि संयुक्त राष्ट्र ने 1959, ’61 और ’65 में तीन प्रस्ताव पारित किये जिनमें से अंतिम में यह माँग की गई थी कि ऐसी समस्त कार्यप्रणालियों को समाप्त किया जाय जो तिब्बतियों को मानवाधिकारों और उन मौलिक स्वतंत्रताओं  से वंचित करती हैं जो उन्हें हमेशा उपलब्ध रहे। तिब्बत की वर्तमान परिस्थिति ऊपर चर्चित घटनाओं (1-6) से जुड़ कर यह सुझाती है कि आइ सी जे (अंतरराष्ट्रीय न्यायालय)  की दो रिपोर्टों में चीनियों पर जातिसंहार में संलिप्त होने के आरोप और यह कथन कि ‘तिब्बतियों का एक धार्मिक समूह के रूप में विनाश करने हेतु       तिब्बत में जातिसंहार के कृत्य किये गये हैं’ अपने तर्कों की मुख्य निष्पत्तियों के रूप में सही हैं। उनमें मानवाधिकारों के उल्लंघन के दूसरे आरोप भी उल्लिखित हुये जिनमें हत्या, बलात्कार, यातना, पारिवारिक जीवन का विनाश और निर्वासन सम्मिलित थे।   इन दोनों रिपोर्टों के मुख्य निष्कर्षों के अधिकांश की अब दूसरे बहुत से स्रोतों से पर्याप्त रूप से पुष्टि हो चुकी है जिनमें से कुछ यहाँ सम्मिलित किये गये हैं। सबूत जोर देकर यह जतलाते हैं कि तिब्बतियों की संख्या तेजी से घट रही है, उनकी संस्कृति तेजी से विलुप्त हो रही है और वे चीनी घुसपैठियों की बाढ़ में डूब रहे हैं। स्पष्टतया चीनियों द्वारा संयुक्त राष्ट्र जातिसंहार सन्धि (11 दिसम्बर 1946 को हस्ताक्षरित) की धारा 2 का उल्लंघन हो रहा है जिसमें जातिसंहार को ‘एक राष्ट्रीय, जातीय, नृवंशीय या धार्मिक समूह का पूर्ण या आंशिक रूप से विनाश करने के उद्देश्य से किये गये अपराध’ कह कर परिभाषित किया गया है। भारी मात्रा में मिले प्रमाण बहुत सरल तरीके से यह सुझा देते हैं कि तिब्बती चीनियों के हाथों जातीय संहार का सामना कर रहे हैं। एकाधिक पीढ़ियों के पश्चात एक जातीय/धार्मिक समूह के रूप में जिसकी अपनी भाषा, संस्कृति और राष्ट्रीय पहचान हो, उनका अस्तित्त्व समाप्त हो जायेगा।

आज का तिब्बत #
आगे के अंश वर्तमान में तिब्बत की परिस्थितियों पर कुछ प्रकाश डालेंगे। ये तथ्य मुख्यत: चीनी सरकार के अनुरोध पर वहाँ गये तीन सत्यशोधक प्रतिनिधिमंडलों द्वारा उद्घाटित किये गये जिन्हों ने 1979-83 के दौरान तिब्बत की यात्रायें की। ये तिब्बती लोगों की दुर्दशा को स्पष्टतया इंगित करते हैं। पीछे के समस्त भागों के अधिकांश तथ्य और आगे आने वाले तथ्य भी बिन्दुवार रूप में वैज्ञानिक बौद्ध संगठन द्वारा चीन के अग्रणी तिब्बती विशेषज्ञ प्रोफेसर वांग याओ को एक खुले पत्र के रूप में सम्बोधित किये गये। जहाँ तक ज्ञात है, उन्हों ने अभी तक हमारे किसी भी बिन्दु का उत्तर नहीं दिया है।

शिक्षा और भाषा

तिब्बत में शिक्षा का मुख्य उद्देश्य तिब्बती जनसंख्या का चीनीकरण और उन पर  हठधर्मी राजनैतिक विचारधारा का आरोपण प्रतीत होता है। लिखित भाषा लगभग लुप्त हो चुकी है और बहुत से भागों में मौखिक तिब्बती भाषा नहीं समझी जा सकती। बहुत से स्थानों के नाम चीनी हैं और माँ बाप को अपने बच्चों के तिब्बती नाम रखने की अनुमति नहीं है। उदाहरण के लिये, सत्यशोधक प्रतिनिधिमंडल ने पाया कि बहुत से बच्चों के नाम उनके भार या जन्म के समय उनके पिता की आयु पर रखे गये थे जैसे ‘7½’ या ‘42’। यह जानना रोचक है कि ‘तिब्बत’, ‘तिब्बती’, ‘चीनी’, ‘राजा’ और ‘इतिहास’ के लिये प्रयुक्त तिब्बती शब्द दबा दिये गये हैं और उन शब्दों से प्रतिस्थापित कर दिये गये हैं जो तिब्बत के पृथक अस्तित्त्वभाव को महत्त्वहीन बनाते हैं। अपरिहार्य रूप से ऑरवेल के ‘न्यूजस्पीक’ की स्मृति हो आती है जिसमें पार्टी को अस्वीकार्य अवधारणाओं का क्रमिक निर्मूलन किया जाता है।

कम्युनिस्ट  प्राइमरी - तिब्बती बच्चे के हाथ में चीनी वर्णमाला की पुस्तक  
अपनी शैक्षिक उपलब्धियों के बखान हेतु चीनी प्राय: आँकड़ों को बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत करते हैं जैसे जन द्वारा प्रारम्भ किये गये 2000 विद्यालय जिनमें 200000 विद्यार्थी पढ़ते हैं आदि। जब कि तिब्बत गये सत्यशोधक प्रतिनिधिमंडल  में सम्मिलित शैक्षिक विशेषज्ञों ने 85 विद्यालयों के दौरों में जो देखा उससे निराश और संत्रस्त हुये। बहुत से स्थानों पर उन्हें सूचित किया गया कि विद्यालय ग्रीष्म ऋतु के कारण बन्द थे। एक स्कूल प्रात: 10 बजे ‘दुपहर के भोजन के लिये बन्द’ था और उसकी सभी कक्षाओं में इमारती लकड़ी के बोटों के चट्टे लगे हुये थे। स्वयं ल्हासा रेडियो ने तिब्बत में शिक्षा के घटिया स्तर की घोषणा की थी। दौरा किये गये विद्यालयों के आधिकारिक आँकड़े भी यह दर्शाते थे कि बच्चों में केवल 44% तिब्बती तथा बाकी चीनी थे। शिक्षकों में 70% चीनी थे। तिब्बत में अधिकांश समाचारपत्र, पुस्तक और पत्र पत्रिकायें चीनी भाषा में छपते हैं। तिब्बत के कई भागों में तिब्बती एकदम नहीं पढ़ाई जाती और मध्य तिब्बत में इसे केवल 3 वर्षों तक पढ़ाया जाता है और उसके बाद केवल कम्युनिस्ट किचारधारा के प्रचारवाहन के तौर पर पढ़ाया जाता है। दावा त्सेरिंग मार्क्सवाद/ल्रेनिनवाद की विदेश में शिक्षा प्राप्त एक तिब्बती था जो स्वेच्छा से तिब्बत लौटा और लन्दॉउ अल्पसंख्यक संस्थान में अध्ययन किया। उसने पाया कि वहाँ तिब्बतियों का बहुसंख्य मात्र चीनी पढ़ रहा कैडर था और विज्ञान संकाय पूर्ण रूप से चीनियों के लिये आरक्षित था। उसे इतनी घृणा हुई कि उसने तिब्बत छोड़ दिया। अंत में यह बता दें कि सत्यशोधक प्रतिनिधिमंडल को एक भी तिब्बती ऐसा नहीं मिला जिसने विश्वविद्यालयीय शिक्षा पाई हो।  (जारी)                  
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 # वर्ष 1983-84  

नोट: 

सातवीं सदी के मध्य में तिब्बती राजा सोंग्त्सेन गाम्पो (569-649) के आदेश पर उसके मंत्री थोन्मी साम्भोता ने भारत का दौरा 'लेखन कला' को जानने के लिये किया।
लौट कर उसने तत्कालीन भारतीय लिपि ब्राह्मी पर आधारित तिब्बती लिपि का विकास किया। आज की भारतीय और प्राचीन ब्राह्मी लिपियों से तिब्बती लिपि की साम्यता देखें।
आभार : विकिपीडिया 
  चीनी लिपि अति प्राचीन और हजारो संकेतों वाली जटिल लिपि है जिसकी प्रकृति तिब्बतियों की ब्राह्मी आधारित सरल लिपि के एकदम उलट है। चीनी कम्युनिस्टों द्वारा तिब्बती बच्चों के शिक्षा माध्यम के रूप में चीनी के उपयोग के साथ साथ चीनी लिपि को भी उनके ऊपर थोपा जा चुका है। 
जहाँ सत्ता में नहीं हैं वहाँ भाषिक और सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों के पक्ष में भोंपू बजाने वाले कम्युनिस्टों की साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का दोगलापन तिब्बत में नग्न हो जाता है।