सोमवार, 3 अक्तूबर 2011

बी - 6

1234 और 5 से आगे ...

गर्मियों के दिन थे। सालाना छुट्टियाँ होने वाली थीं। ऐसे में एक दिन छुट्टी के बाद जब मैं तरो ताज़ा हो बी के यहाँ खाना खाने पहुँचा तो देखा कि आम तले निखहरे खटिया तन्नी अपने बड़े लड़के पास लेटी थी जब कि गोद के बच्चे को उसने ओसौनी के झूले में सुला रखा था। छाँव खुशगवार थी। मुझे देखते ही वह भीतर खाना लाने चली गई और मैं पीढ़े पर बैठा उसके बच्चे के काजल लगे सुहावने मुख को निरखने लगा।
“क्या देख रहे हैं बाबूजान?... आप मूरख न होते तो वहाँ आप का बच्चा होता।“
उसने थाली सामने रख दी और करीब ही बैठ कर पंखा झलने लगी। मेरे चेहरे की नागवारी और इधर उधर ढूँढ़ती नज़र को ताड़ कर उसने मुस्कुराते हुये जोड़ा – आज आप को बचाने को अम्मी नहीं हैं। अब्बू भी नहीं हैं। असलम मियाँ कारखाने में और बहुरिया ... उसने नाक को चढ़ा कर बिना आवाज निकाले खर्राटे का अभिनय किया और हाथों से यह भी बता दिया कि उसके कमरे की कुंडी भीतर से बन्द थी।
वह और पास खिसक आई और राज भरे आवाज में बोली – सच बताऊँ? आप मुझे भगा ले गये रहते तो कम से कम अम्मीजान तो खुश होतीं। मैंने पहला ग्रास ही लिया था, सरक गया। गले में फँसे अन्न के कारण मेरी हालत खराब हो गई।
“हाय अल्ला! मैंने पानी भी नहीं दिया!” – वह भाग कर पानी ले आई। पानी पीने के बाद सामान्य हो कर मैंने कहा – तुम्हें नौटंकी में होना चाहिये था ... बी आज किधर चली गईं?
उसने उसी रौ में जवाब दिया,”नौटंकी नहीं बाबूजान, सच कह रही हूँ। कुछ बातें छिपाये नहीं छिपतीं, सामने वाला अन्धा हो तो क्या कीजे?”
हाथ चमकाते हुये उसने आगे जोड़ा - आप के बी और मियाँजनाब आप के गाँव गये हैं, आप के घर और आप की घरैतिन का दीदार करने। आप, आप, आप...बाप रे बाप! मैंने कहा था न कि बुढ़िया चौखट तोड़ कर ही मानेगी? बी को बुढ़िया कहने पर उसने दाँतों तले जीभ दबाई और बोली – अच्छा है, रानी जी यहाँ आयेंगी तो उनके दरसन होंगे। राजा तो सामने भकोस ही रहे हैं।
उसे नहीं पता था कि मेरे पेट में उथल पुथल हो रही थी। बी भी न ! बिना बताये वहाँ जाने की क्या जरूरत थी?
मैं बात फेरने को कुछ कहने ही वाला था कि उसने फिर पूछा  - भागने की बात पर आप ने कुछ नहीं कहा? गो कि हर बात पर जवाब जरूरी था।  
आम में मोजर लगी थी, धीमी बयार के साथ भीनी खुशबू और दुपहर का सन्नाटा। पहली बार मैंने उसकी बात पर उस लिहाज से ध्यान दिया जिससे वह कह रही थी। उसके सुन्दर मुख पर कुँआरपन की लुनाई अब भी वैसी ही थी। बरनावाली की खूबसूरती में राजपूती ठसक थी लेकिन तन्नी ... सिर को झटक मैंने हास्य का सहारा लिया – तन्नी, तुम्हारे तीनों भाई और मियाँ मेरी देह के इतने टुकड़े करते कि कल्लन कसाई मुसलमानी कत्तई नहीं कर पाता।
वह खिलखिला कर हँस पड़ी। हँसते हुये ही भीतर गई और अपना पासपोर्ट साइज का फोटो ला मेरी जेब में रख दिया – आरिफ के अब्बू खिंचवाये थे। आप अपनी फोटो साथ रख कर मिलाइयेगा। हमारी कितनी अच्छी जोड़ी होती।                    आम मोजरों की गन्ध हवा में फैल चुकी थी। मैं बोल पड़ा – तुम्हें इस नज़र से कभी नहीं देखा और न अब देख पा रहा हूँ। 
पैर के नाखूनों से जमीं कुरेदती तन्नी ने आह भर कर कहा – आन्हर मनई क्या देखे? ...बात देखने की नहीं मन की होती है बाबूजान!
मेरे मन में जाने क्या आया, पूछ बैठा – अपनी भाभी को तुमने नहीं देखा? तुम्हारे मामा के गाँव से ही तो है! बी ने बताया नहीं?
तन्नी का चेहरा वाकई गम्भीर हो गया – छोड़िये बाबूजान, फिर कभी... 

...शाम बी की थी। दुआर का नीम, कोने का पीपल, धूप में चौंध मारता मरमरी मकान, खिरकी, छत से नज़र आते पट्टीदारों के आँगन, गोंयड़े की बारी में लगे कलमी आम के पौधे, पहलवान, ब्रह्मचारी, बमड़ी, चरकहू पट्टीदार ...बी की जुबान को लगाम नहीं थी और सब मुँह बाये सुन रहे थे, सुल्तान मियाँ भी। मैं कुढ़ता हुआ बैठा था कि एकांत हो तो बी की खबर लूँ!
खाना खाने के बाद अपने क्वार्टर जाने लगा तो बी साथ हो लीं – बेटा, मुँह फुलाने की जरूरत नहीं। समझना कि पतोहा के नैहर से बहुरवत ले कर गई थी। फर्ज होता है।
मैं पूछ पड़ा – इतने दिन बाद?
बी ने जवाब दिया – तुम्हारा नया घर भी देखना था न? सुन्नरसिंघ सच ही कहते हैं – तुम्हारा घर बोलता है बेटा!...
मैंने पूछा - उन लोगों ने स्वागत ठीक से किया कि नहीं?
बेटा! तुम्हारे काका स्वागत क्या करते? बेटी के यहाँ का पानी तक हराम, खाना तो दूर हम दोनों तो पानी तक साथ ले गये थे।
कभी बेटी, कभी पतोहू! कभी रुपये की बात न करना तो कभी हर महीने मेरे पास जमा करना! मेरे मन में सुल्तान मियाँ की लाहौल बिला गूँज उठी और हँस पड़ा।
वापस होने से पहले बी ने सधे स्वर में कहा – बेटा! समझदारी इसी में होती है कि दूसरों की नासमझी समझी जाय। ...रंगीबाबू! भविस्स अभी नहीं बना।
दिन में तन्नी का रहस्यमय ‘छोड़िये बाबूजान, फिर कभी ...’ और अब बी की भविष्य की चिंता; रात को सोते समय मैं हैरान था। हैरान था कि बी ने अपनी बेटी पतोहू के बारे में कुछ नहीं कहा था।

छोटकूसिंह की शादी के लिये देखनहरू आने लगे थे लेकिन काका की फिक्र बमड़ी बीना के बियाह की थी। हम पाँचो धुँआधार खोजाई में लग गये। काका कहीं जाते तो बमड़ी के रूप की चर्चा करते, बताते कि घर के काम काज में कुशल है लेकिन साथ ही यह जोड़ना न भूलते कि थोड़ी...। नतीजा टाँय टाँय फिस्स। पट्टीदार बोली बोलते – क्या झिंगुरी! कहीं ऐसे बियाह होता है? झूठ साँच बोलना पड़ता है। भगवान तक कह गये हैं कि लड़की की शादी के लिये झूठ बोलना झूठ नहीं होता।  काका चिढ़ कर कहते – आखिरी औलाद है। मुझे उसे भगवान भरोसे नहीं ढकेलना।
थक हार कर हम लोग किराहे आम यानि कि दोषवाले वरों पर भी आजमाइश करने लगे लेकिन काने, लंगड़े, चरकहा, घटिहा को कोई अपनी फूल सी बेटी कैसे सौंप देता? आखिरकार छोटे का ही विवाह पहले करना पड़ा। कीरतपुर सम्बन्ध करना हमारे घर की सबसे बड़ी भूल साबित हुई। जैसी लड़ाकू बहुरिया वैसे ही खड़जंगी उसके नैहर वाले। तीन महीनों में ही बरनावाली का जीना मुहाल हो गया। मैं परिवार की एकता का नाम ले बस समझाता रहता। बी की बातें बताता और उनकी समझ वाली बात पर सोचता रहता। प्राइवेट बी ए पूरा कर लिया था। घर के झगड़े से ऊब के कारण प्राइमरी की मास्टरी से छुट्टी लेकर बी एड ज्वाइन कर लिया। पत्नी को नैहर भेज दिया।
 बी बहुत खुश हुईं लेकिन उन्हों ने क्वार्टर खाली नहीं करने दिया – साल भर की ही बात है, फिर आना ही होगा। हॉस्टल से घर आता जाता रहता। जहर फैलता जा रहा था। काका तक कहने लगे कि मैंने जानबूझ कर ऐसा किया। नई नवेली को कितनी परेशानी हो रही थी! मैं हैरान था कि इन लोगों को बरनावाली के नवेलेपन पर रहम क्यों नहीं आया? तनाव बढ़ता देख चार महीनों के बाद ही पत्नी को वापस बुला लाया और वह बाकी दिन उस नारकीय माहौल को अकेले झेलती रही। बी ने तो उसके बारे में बात करना ही छोड़ दिया था। मुझसे बहुत खफा थीं।

बमड़ी आँगन की तुलसी नहीं वनतुलसा थी। रात में महकने वाली बेला नहीं, मेंड़ पर फूलने वाली वह भाँटिन थी जिसे झाँख झखोड़ा ही समझा जाता है, उसके फूल रूप और सुगन्ध के बावजूद मन्दिर में नहीं चढ़ते। बमड़ी कुछ भी पहने, भले झोंटा फैलाई रहे, भाटिन के फूलों सी दमकती रहती। नवकी भौजी से उसकी एक नहीं बनती थी। जब तब दोनों में झोंटा झोंटौवल हो जाता। उसके बाद बमड़ी सरेह को भागती और घर के लोग पकड़ कर वापस ले आते। काका असमय ही बूढ़े हो चले। बहुत कठिनाई के बाद एक अमीर परिवार में बमड़ी का बियाह तय हुआ। वर उससे करीब बीस वर्ष बड़ा दुहाजू था। उसमें और कोई दोष नहीं था। इस कारण और काका की कुछ अधिक ही सत्यवादिता के कारण दहेज की माँग बढ़ गई थी। बेटी के लिये गहने की बात आई तो काका ने तय किया कि दोनों घर की बहुयें अपने कुछ गहने दे दें,  कर्जा पताई से मुक्त होने के बाद फिर से बनवा दिया जायेगा। नवकी नहीं मानी। नैहर सन्देश भेज भाइयों को बुलवा लिया। अच्छी खासी पंचायत हो गई।          
मेरी पत्नी के कुछ गहने और कुछ खरीद से मिला कर जैसे तैसे बमड़ी का विवाह सम्पन्न हुआ। बरनावाली बी की दुलारी अब अपनी देवरानी के सीधे निशाने पर थी। आखिरी झगड़ा छोटा ही था – नवकी ने अपने चढ़उवा बर्तन अँवासने से साफ मना कर दिया और बी की दुलारी ने भी इनकार कर दिया। जाने किस झोंक में काका ने बँटवारे की बात की और मैंने हाँ कर दी।
पवना घंटे में ही बँटवारा खत्म हो गया। दुआर पर ही जमीन पर खाका खींच खींच मैंने सारे खेत बाँट दिये और अंत में जब आँगन बँटा तो काका फूट फूट कर रो पड़े – बेटा, दीवार नहीं चलेगी। पट्टीदार बहुत हँसेंगे। पट्टीदार अब कितना हँसते? फिर भी मैंने काका की बात का मान रखा, आँगन वैसे ही रहा।
उस रात दोनों नये घरों में उपास हुआ। बी की याद आती रही – भविस्स अभी नहीं बना। अल्लसुबह उन्हें बताने गया तो उनके मुँह से बस हाय अल्ला! ही सुना लेकिन बाकी दिन की उनकी चहलकदमी ने बता दिया कि वह बहुत खुश थीं।

प्राइमरी की नौकरी छोड़ मैंने सवा सौ रुपये महीने पर वही कॉलेज ज्वाइन कर लिया जिससे कभी हाईस्कूल किया था। वही क़स्बा, वही सड़कें , वही लोग, वही बी और वही क़्वार्टर। बी तो जैसे आसमान पर सवार थीं लेकिन मेरे सामने खेतों का प्रश्न पहाड़ सा खड़ा था। यहाँ रहूँ कि गाँव में?
बी ने राह सुझाई – बेटा, अब तुम वहाँ नहीं रह पाओगे। जनमधरती है लेकिन जितना तुम्हें जानती हूँ, उसी घर में रहना तुम्हारे वश का नहीं। नया घर बनवाने का कोई मतलब नहीं। गाँव है ही कितना दूर? चार कोस भर। गाँव से नाता न तोड़ो। हर हफ्ते आते जाते रहो। जितनी हो पाये खुद कराओ, बकिया हुंडी पर दे दो। इतने खेत भी नहीं कि सब छोड़ आदमी उन्हीं में लगा रहे और तरक्की भी कर पाये, सब एक में थे तो और बात थी। अपने ससुर से कह कर बरना में भी कुछ आदमी बनाओ कि गाँव और ससुराल मिला कर खेती बारी चलती रहे। आखिर में उन्हों ने अपने सवारथ की भी बात की – पतोहा के साथ वक़्त गुजारना चाहती हूँ। जिन्दगी का क्या भरोसा ?
मैं बोल पड़ा – बी, अभी से आप ज़िन्दगी की बातें क्यों करने लगीं? राजरानी की आँखों में बस सन्नाटा था। मुँह में पान दबा वह भीतर चली गईं।  
मैंने बीच वाला रास्ता चुना। दूर के मौजे के बिखरे खेत बटाई पर उठा दिये। बाकी खुद के जिम्मे रखा। सीजन और गर्मी की छुट्टियों में गाँव पर रहना, बाकी समय क़स्बे में।

जिस दिन परिवार ले कर कस्बे आया, गली में जश्न का माहौल था। बी की बेटी पतोहू आ रही थी, कोई मजाक नहीं था। बी ने रास्ते किनारे चूना छिड़कवाया। आँगन में करखानी पंडित को रामायण पाठ  पर लगा दिया जब कि जजमान ही लापता था! रात में सबका खाना बी के यहाँ था और दिन में वह सब रस्में जो कि बहू के पहली बार ससुराल आने पर होती हैं। हथबोरनी बरहोबीजन रसोई के लिये महराज बुला लिये गये थे और ... तन्नी भी आई थी!
दुआर छेक कर तन्नी हम दोनों के आगे खड़ी हो गई - दप दप रूप।
‘बाबूजान, गाँठ तो जोड़ लेते। लग रहा है कि अभी शादी हो रही है। अम्मीजान पागल हो गई हैं।‘
बी उसके हाथ में आरती वाली थाली पकड़ा खुद पीछे हो लीं। मेरी पत्नी यानि बरनावाले बिसेनों की बेटी मेरे आगे थी। उसके चेहरे पर क्या था, नहीं देख पाया लेकिन तन्नी जाने किस लोक में थी। आँखों की गगरियाँ छ्लकने बस से रुकी हुई थीं और चेहरे पर वही मोहिनी मुस्कान थी जैसे पूछ पड़ेगी - बाबूजान, आप की मुसलमानी कब होगी? बहुत मुश्किल से मैंने खुद को जज्ब किया।
आरती के बाद उसने बाकायदा सलाम किया और सलामकराई लेने को अड़ गई। इक्कीस रुपये ऐंठ कर द्वार छोड़ा तो बरनावाली ने चुहुल करने की भूल कर दी – आप ने अपने बाबूजान से कुछ नहीं माँगा?
उसकी आँखें टपक पड़ीं – भाभीजान, इस जनम उधारी रहेगी। अल्ला मियाँ की मर्जी... क़यामत के बाद उतरेगी।...भीतर आइये।
बी ने बेटी पतोहू को गले लगा लिया था। (अगला भाग)                   

6 टिप्‍पणियां:

  1. ग्राम परिवेश पर आधारित बढिया कहानी चल रही है। सब पढा आया हूँ, आगे की पोस्टों का इंतजार है। आभार

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  2. सामाजिक ढाँचे की रोचकता परिलक्षित हो रही है कथाक्रम में।

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  3. वैसे विवरण इतना स्वयं पूर्ण है कि हर अंक अपने में समाप्त लगता है ...मगर यह है तो क्रमशः ही ....उपन्यासिका लग रही है अब !

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  4. अक्सर ही आपकी लड़कियाँ अधिक मुखर होती है ,लड़के बिचारे तो...!

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  5. @भाभीजान, इस जनम उधारी रहेगी। अल्ला मियाँ की मर्जी... क़यामत के बाद उतरेगी।

    ग्रामीण भारतीय परिवेश - कैसी कैसी चाहतें - क्या-क्या हक़ीकतें! दिल भला किस तरह उदास न हो?

    पिछली कड़ियों की तरह यह भी बहुत सुन्दर और रोचक रही। आगे पढने की जिज्ञासा बढती जा रही है।

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