बुधवार, 11 अप्रैल 2012

लंठ महाचर्चा : बाऊ और नेबुआ के झाँखी - 16

पिछले भाग से जारी....

...एक भटकता औघड़ है जिसके आधे चेहरे चाँदनी बरसती है और आधा काजल पुता  है। दुनिया जो भी कहे, उसे सब स्वीकार है। वह तो रहता ही अँधेरी गुफा में है जिसकी भीतों पर भी कालिख पुती है ... वह जाने क्या क्या बकता रहता है। खुदाई कसौटी दूजों को कसता रहता है!...   

बिन ओसारा घर की घरदुआरी पर बैठी भउजी किसी और ही दुनिया में थी, उसने ध्यान ही नहीं दिया कि सोहित लौट आया है। बाहर झींसा पड़ रहा था और मन भीग रहा था। कन्हैया आयेंगे कभी इस घर? आसमान में बादल नहीं, पुरखे उमड़ पड़े थे –उनकी शिकायतें साफ थीं लेकिन मुये देवर को समझ आये तब न? किसी बुजरी को भगा कर ही घर में रख लेता तो बात बनती! दुनिया तो बाद में भूल भाल कर स्वीकार ही लेती है। बाभन हो कर भी खदेरन चमइन से औलाद पैदा कर सीने से लगाये पड़े हैं। जाति बाहर होने से कौन सा नुकसान हो गया? बंस तो नहीं बूड़ेगा! भगवान! मेरी कोख में अंकुर उठ गया होता तब सामी को अपने पास बुलाये होते! – भउजी की आँखों से शांत लोर बह निकली।
कोख में अंकुर! भउजी बाहरी संसार में वापस लौटी तो देवर दिखा। गहरी साँस ले भउजी उठ गई। मुड़ते हुये उसके चेहरे पर निर्णय की विकृत मुस्कान थी – यही सही। इस तरह जीने से क्या फायदा?
बखारि वाली पलानी में लेटे सोहित की आँखें भीतर जाती भउजी का पीछा करने के बाद बन्द हो गईं। वह सपनों की दुनिया में था...      
... अष्टमी के बिहान खदेरन ने पत्रा देखा। बारिश से राहत की कोई सम्भावना नहीं थी। दिन खुला था लेकिन पुरुवा बह रही थी और आसमान में चहुँओर बादल थे। खदेरन बुदबुदा उठे:
तीतर पंखी बादरी, विधवा काजर रेख।
वह बरसै ऊ घर करै, कहें घाघ सब देख।
दुपहर से झड़ी लग गई। व्रत का समय ज्यों ज्यों बढ़ता गया, पानी घिरता गया, आँधी चढ़ती गयी। तिजहर को सग्गर सिंघ के दुआरे चमटोली के भीगते सँवाग खड़े थे - कई फुसऊ घर गिर गये थे। घर में खाने को कुछ नहीं बचा। सग्गर कुछ कहते इसके पहले ही जुग्गुल की बही खुल गई और गिरधरिया की दलाली। छूँछा भरोसा पा  चमटोली वापस लौट गई।
ऐसी रात कन्हैया के लिये कीर्तन कौन गाये? झाल, ढोल निकले तो लेकिन उनमें वह बात कहाँ?
सोहिता लेटा रहा, कहीं नहीं गया।   
(म)
भउजी को जर (ज्वर) चढ़ गया है। दिन में भीग गई थी नागिन! जिन्दगी में पहली बार मानुख बीमारी चढ़ी है, ऐसे  नहीं जायेगी।
“बबुना सुति गइलऽ का”? (बबुना! सो गये क्या?)
ठरक त नइखे परत। (खर्राटे तो नहीं पड़ रहे हैं।)
“तेवहार ह बबुना। कन्हैया के जनमले से पहिले काहें सुति गइल? असुभ हे, जागऽ बबुना, जागऽऽ ... ऽऽ“। (त्यौहार है बबुना! कन्हैया के जन्म से पहले ही क्यों सो गये? अशुभ है, जागो बबुना! जागो ...)  
चिहुक कर सोहिता जागा। उसने भउजी का हाथ थामा तो उपासी देह गोंड़साइन सी दहकती लगी।
वह चीख पड़ा,“भउजी!” कुछ कर पाता इसके पहले ही भउजी भहराने लगी। बारिश थम चली थी। अन्धेरे में साँसों को सँभालते भउजी को सहारा देते भीतर ले आया । पलँगरी पर लिटा कर एक बार माथा छुआ तो अंगुलियों से होता हुआ दाहा दिमाग तक दौड़ चला। कुछ न सूझा तो भाग कर रसोई से तेल ला सिर में लगाने चला। भउजी की सूनी माँग उघर गई और सिरहाने की ढेबरी लपलपा उठी।
भउजी बुदबुदाई,”...बबुना!...देवर माने दोहर हक।“
करवट फेरती भउजी के हाथ से लग ढेबरी गिर पड़ी। भभकती रोशनी! लाल लाल आँखें!! उघार माथा, उघार अँचरा। ढेबरी आखिरी बार लहकी और अन्धेरा हो गया।
दहकती साँसों का बहाव। शुभ अशुभ लापता। नाता पाता सब बेकार। भादो की उस रात दोनों केवल स्त्री पुरुष रह गये। आधी रात जब कन्हैया के जन्म पर औरतें सोहर गा रही थीं, एक अभिशप्त घर में दो जन निढाल पड़े थे। खालीपन लिये पसीना पसीना तृप्ति। ज्वर जाने कहाँ था?
उस समय शंख बजाते अपने घर से बाहर निकलते खदेरन ने आश्चर्य से देखा कि आसमान एकदम साफ था। कुम्भ उड़ेलते उड़ेलते खाली हो गया था और दमकती आकाशगंगा बढ़ियाई लग रही थी।
उन्हें नहीं पता था कि पाप ने घटित होने के लिये तिनजोन्हिया के उगने और गुड़ेरवा के उत्पात मचाने की प्रतीक्षा नहीं की। उन्हें नहीं पता था कि जिस जोड़ी ने धर्म की छाँह देने के उनके प्रस्ताव को लोकलाज वश ठुकरा दिया था, उसने आदिम बहाव में बह कर सब भ्रष्ट कर दिया था, सब कुछ!
काश! खदेरन और सोहित उस समय उतान लेटी भउजी के होठों की अन्धेरी मुस्कान देख पाये होते! भउजी ने बिना धर्म बिना सहारे राह निकाल ली थी...
बाहर निकलते सोहित के सिर पर जैसे टन टन घन की वार पड़ रही थी। जमीन पर लेट जाने की आज उसकी बारी थी। 
(य)
दिन चढ़े तक सोते सोहिता को जब इसरभर ने जगाया तो उसे गालियाँ और मार मिली। ऐसा उसके साथ पहली  बार हुआ था। मारे डर के वह अपने घर भाग गया। तिजहर को जब सोहिता को सुध आई तो लगा कि दिमाग फट जायेगा। उसे केवल खदेरन दिख रहे थे। भीतर गया तो भउजी का कोई सुनगुन न पा खुद कपड़े निकाला, नहाया और खदेरन पंडित के यहाँ पहुँच गया।
कुशा की बिठई बनाते खदेरन आसनी के विस्तार पर सोचते हुये गुनगुनाये जा रहे थे - त्वया जगन्ति पुण्यानि त्वय्यपुण्या जनोक्त्यः, नाथवन्तस्त्वया लोकास्त्वमनाथा विपत्स्यसे, कि सोहिता ने आ कर पयलग्गी की। अनाहूतो प्रविशति, खदेरन मन ही मन भुनभुनाये लेकिन  आशीर्वाद दे बैठने का संकेत कर दिये।
अगल बगल देख कर सोहिता फुसफुसाया  – बाबा! लगन के कौनो साइत देखीं न! (बाबा, विवाह का कोई मुहुर्त देखिये न!)  ... और चुप हो गया। संकेत स्पष्ट और पर्याप्त था। खदेरन की आँखें फैल गईं – अचानक!... जुग्गुल के साथ का असर है या कोई चाल? बाईं आँख फड़की और प्रकट में उन्हों ने वैसे ही उत्तर दिया – साइत त मिल जाई लेकिन ए कार खातिर कवनो दूसर उपरोहित खोजि ल बाबू! हमसे अब नाहिं होई। (मुहुर्त तो मिल जायेगा लेकिन इस काम के लिये कोई दूसरा पुरोहित ढूँढ़ लो बाबू! मुझसे अब नहीं होगा।)
सोहिता को काटो तो खून नहीं, सम्बोधन बदल गया – कक्का! रउरे जानतनी, अइसन कार केहू दूसर नाहिं कराई। (काका! आप तो जानते हैं, ऐसा काम कोई दूसरा नहीं करायेगा।)  खदेरन की फुसफुसाहट कर्कश हो उठी – सगरी पातक के हम साही लिखवले बानी का? (समस्त पातक कर्म का मैंने ठीका ले रखा है क्या?)  
सोहिता के पैरों तले से जमीन खिसक गई -  पातक! खुद प्रस्ताव किये तो धर्म था और मैं कहूँ तो पातक!!
उठते सोहिता की दशा उस नेवचा गाछ (शिशु पौधे) सी थी जिस पर किसी मवेशी ने पहला झटका मारा हो।
घर में फिर से सन्नाटा पसर गया। इसरभर तो था नहीं, सोहिता सारा काम खुद निपटाता, भोजन के समय चुपचाप रसोई के बाहर बैठ जाता और उसके सामने थाली सरका दी जाती। भउजी की घटल बढ़ल पूछ का उत्तर हाँ हूँ में देता और खाना खा बाहर आ जाता। जिस सोहित ने भोग के बाद की परिणति की कभी परवाह नहीं की, वह अब चौबीस घंटे आशंका से जूझ रहा था – कुछु हो गइल त हमार कवन बाति बा लेकिन भउजी? (कुछ हो गया तो मुझे क्या होना? लेकिन भौजी?) इस प्रश्न के आगे खानदान की नहीं, उस विधवा भउजी की बदनामी की परवाह थी जिसके अपमान के प्रतिकार वश वह इतना बुरा बन बैठा, जिसे उसने नैहर नहीं जाने दिया ...वह भीतर भीतर टूटने लगा, फिर से पुराना ‘सोहित सिंह’ हो चला...                        

...एकाध महीने भी नहीं झेल पाया। एक दिन जब कातिक की दुपहर थी और पिल्ले रार नाधे हुये थे, वह जुग्गुल के पास जा पहुँचा। उस लंगड़े को लगभग खींचते हुये बारी में ले गया। किरहवा आम के पेंड़ के नीचे सोहित जुग्गुल का पैर पकड़ फूट फूट कर रो पड़ा। उस रात की अनर्थ गाथा सुन एकबारगी जुग्गुल भी सन्न रह गया,  फिर उसके राक्षसी मन में बवंडर उठने शुरू हो गये। उसने जाने कितने समीकरण बना लिये। किसी और से कुछ न कहने की सीख दे सोहित को वहीं छोड़ जुग्गुल इसरभर के यहाँ गया।
उसकी पढ़ाई पट्टी से इसरभर वापस आ गया और धीरे धीरे जीवन फिर से पुरानी लीक चल पड़ा जैसे कुछ हुआ ही न हो। जुग्गुल की समझावन मान सोहिता ने इंतजार करना सही माना कि कुछु होई त बतइबे करी (कुछ होगा तो बतायेगी ही)। जुग्गुल के लिये बस एक अवांछित बात हुई – उसका ‘लाँड़’ श्रेणी का मित्र अब सदाचारी था। सब घटिहाई बन्द!  
 किंतु शापितों के इतने भाग्य कहाँ? भउजी को हमल रह गया था और वह प्रसन्न थी। बच्चे के जन्म तक ही अन्धेरा था, उसके आगे तो शापित जीवन से मुक्ति थी और खानदान में उजाला ही उजाला, बहुत उजाला। छरहरी देह सब छिपा सकती थी और सँभाल भी ...आगे खदेरन बाबा, मतवा सब सँभाल लेंगे, बस बबुना उन तक बात पहुँचा दे! हाय रे खुद को छलना!!
ग्रह ग्रहीत पुनि बात बस तेहि पुनि बीछी मार
तेहि पिआइअ बारुनी कहहु काह उपचार।
खदेरन! तूने खानदानों के बाढ़ को कैसी लीक दिखाई! ...उस दिन पीछे क्यों हट गये?  (जारी)  

11 टिप्‍पणियां:

  1. Disturbing hai yah. nahin pasand aya. ap love story achchi likhate ho wahi likho.

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  2. bahut khub! paap charam par hai,awtaar ke liye urwara bhoomi tyaar ho rahi hai.main to mugdh hoon,aur haan ....yes ,u r right ,i m in love...deep in love ...jeewan main bahut kam chizon ke prati aasakt hoon ..lekin aap ke lekhan ko lekar main ek dum deewana hoon. Ref..There is one whom I don’t know. He’ll comment anonymously with oft repeated requests to delete without publishing. I suspect he is in his twenties and is madly in love with some beauty.hahahaha. Aur aapke sandeh ko jad se meeta dena chahta hoon ...i m not in my twenties....i m 48 yrs old...shayad isiliye purani chizon main meri rchi jyada hai ...nostalgic ho jaata hoon.Sach to ye hai ki main hi asli aalsi hoon ,aaj tak ek ID bhi nahin bana saka hoon ...aaj kal karte hue maamle ko taal de raha hoon. vidai ke geet mujhe rula dete hain,aaj fir roya hoon geet suun kar.chahta hoon aur koshish bhi karta hoon ki vidai ke samay kahin chhoop jaun ,lekin hamesha aisa nahin hota.ek baar to munhboli bahan ki shadi main hotel ke bathroom main ghus kar chhoop gaya tha ,lekin us bahin ne rote rote aasmaan sar par utha liya ki bhaiya ko bulao,aansuon ko chhupane ko liye chehra dho kar nikla fir bhi dil to rota hi raha .rahi baat kucch comment ko na chhapne ke request ki, hum jisko samagrata main ,sampurnata main dekhte hain uski kamjori,galti jagjahir nahin karte...aapki beemari,vakya vinyas main chook aadi baate sab ke saamne kyon aayen....ye meri soch hai.aap ke lekhan par ab kuchh nahin kahnga..shabd hi nahi rahe hain ...main yehi kahna chahta hoon ki jab bhi internet use karta hoon ...chahe jaroori mail bhejana ho ha padhna ho ...main sabse pahle ek baar ek aalsi ka chittha hi padhta hoon.

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    1. आप का कृतज्ञ हूँ। इस बात से बहुत बल मिलता है कि ब्लॉगरों के अतिरिक्त भी आप जैसे सजग लोग पढ़ रहे हैं। अपनी प्रतिकियाओं से अवगत कराते रहिये, शब्द कभी कम नहीं होते :)
      आप के बारे में थोड़ा और जानना अच्छा लगा।

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  3. एह लिखाई के कवनो तुलना नाहीं मिली
    न भूतो न भविष्यति श्रेणी कै रचना बा ई तो

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  4. सच्चे और जीवंत पात्र -क्रेडिट रचनाकार को !
    श्रेष्ठ रचनाएं कालजयी ही नहीं काल विशेष की साक्षी भी बनती है
    अब आगे ....

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  5. @सगरी पातक के हम साही लिखवले बानी का?
    - वाह खदेरन बाबा! सारा इतिहास तुमने ही बदला, अब शिकायत क्यों?

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  6. भाई मुझे भाग 11 12 एवं 13 नहीं मिल रहा है ।कृपया मदद करे ।

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