____________________________________
मेरे पात्र बैताल की भाँति,
चढ़ जाते हैं सिर और कंधे पर, पूछते हैं हजार प्रश्न।
मुझमें इतना कहाँ विक्रम जो दे सकूँ उत्तर?
... नित दिन मेरा सिर हजार टुकड़े होता है।
____________________________________
(क)
घर पहुँचते पहुँचते फेंकरनी का करेजा काँकर (कँकड़ी) की तरह फट पड़ा। सोई हुई माई के ऊपर ढह गई और अहक अहक रो पड़ी। बहुत चुप कराने के बाद जब बोलना शुरू किया तो सब कुछ बताती चली गई।
“अरे ए मुँहझौंसी! गवने के पाँच बरिस बादि तोर जोबन जागल हे रे! कुलछनी ई का क देहले?” (अरे कलमूँही! गवना के पाँच साल बाद तुम्हारी जवानी जागी है! कुलक्षणी! यह क्या कर दी?) माई बस गालियाँ देती गई और रोती गई। चमटोली के किनारे बसी झोंपड़ी को कोई मानुख सुनने वाला नहीं था, मगर माई धिया बाहर आतीं तो उन्हें गुड़ेरवा विराजमान दिखता।
रोते रोते खदेरनी माई की गोद में सिर रख सो गई और माई तो बस सोचती रही। सलोनी रूपा धिया पर जाने कितना दुलार उमड़ रहा था। बिधना! अइसन धीया के नामरद दिहलss? (हे विधि! ऐसी बेटी को नामर्द दे दिए?) और डर ने सिर उठाया। कौन रहा होगा जो जबरदस्ती करना चाह रहा था? बाबू बाबा खानदानों का ही कोई हरामी होगा। काना हो गया, सुबह खैर नहीं। बाहर आई ,भुरकुआ (भोर का तारा) दिखा तो जी में टीस सी उठी और फिर राह मिल गई – रामकिसुन। बचने का अब एक ही रास्ता था, फेंकरनी की ससुराल वाला।
जल्दी जल्दी कपड़े लत्ते समेटे और बिसखरिया माई को गोहराते हुए फेंकरनी को जगाया।
“ऊ लोग का कही रे माई! एतना बरिस बाद? ऊहो तोरे साथे?”(वह लोग क्या कहेंगे माई? इतने वर्षों के बाद? वह भी तुम्हारे साथ वहाँ?)
“पंडितवा के आगे सुतलका के पहिले सोचले रहते नगरनचिनी! चलु अब, तिरिया चलित्तर महतारी के जनि देखाऊ। तोके कुछ नाहीं होई। अबहिन हम जीयतनीss”...(पंडित के आगे सोने से पहले सोची रहती कुलटा! चलो अब, माँ के आगे त्रिया चरित्र न दिखाओ। तुमको कुछ नहीं होगा। अभी मैं जी रही हूँ।)
“माई रे! हम गिराइब नाहीं।“ (माई! मैं गर्भ नहीं गिराऊँगी।)
“अरे पहिले हमल रहे त दे। ... वोहि खातिर गइल अउर ज़रूरी बा।“ (पहले ठहरने तो दे ...उसी के लिए जाना ज़रूरी है)
...दो औरतें चल पड़ीं। जिन्हों ने जाने कितनी मानुख औलादों को धरती पर उतारा, खुद उनकी बारी के शुरुआत में पाँव के नीचे से धरती ही खिसक पड़ी थी।
(ख)
अपने ही रचे श्मशान से भागते खदेरन पंडित।
गुरू का कहा मन में अब भी उठ रहा था – साधना में भैरवी असंतुष्ट न होने पाये। निपट निरक्षरा फेंकरनी को कैसे पता था? खूब लाभ उठाया! लेकिन जब अपने मन की सोचते तो सिहर जाते। संतान की चोर चाह और बन्ध्या मतवा। पिता के दूसरे विवाह के लिए रचे गए चंडी चाचा के षड़यंत्र ने दूसरे विवाह के प्रति मन में घृणा भर दी थी लेकिन आज? ...मतवा को कैसे भुला बैठे? वेद, शास्त्र, स्मृति, नीति, पुराण, इतिहास सब वामाचार। स्वाहा! स्वाहा!! मन में बसे चोर ने जो चाहा करवा लिया। कहीं अपने नि:संतान होने के कारण ही चंडी चाचा के खानदान का भी नाश तो नहीं चाहते थे वह? मृत माँ का दु:ख और अपमान तो बस आड़, मन के छलावे?
हाहाकार असह्य हो गया। मदिरा का कोई प्रभाव नहीं लेकिन आग और धधक उठी। चाल तेज हो गई। लाठी का सहारा लेना पड़ा। और अचानक ही सौन्दर्य लहरी उठी:
..स्त्वमेका नैवासि प्रकटितवराभीत्यभिनया। भयात्त्रातुं दातुं फलमपि च वाञ्छासमधिकं, शरण्ये लोकानां तव हि चरणावेव निपुणौ। ... मैं आ रहा हूँ माँ! तुमसे ही पूछूँगा।
कामरूप कामाख्या। त्रिपुर सुन्दरी! मैं आ रहा हूँ। तब तक जीवित रहूँगा ...
...दिन प्रतिदिन सूरज कुछ जल्दी उगता रहा। पथ पर एक दीन, हीन, मलीन पागल को जाते देखता रहा।
कितनी ही बार क्षुधा और प्यास से विकल हो अचेत हुए लेकिन वाह रे खदेरन! चलना नहीं छोड़ा। कुत्ते, गाँव के बच्चे पीछे पड़ते लेकिन कोई न कोई देह पर ब्राह्मण चिह्न देख कुछ दे ही देता। कभी खेतों में घुस कर कच्ची तरकारी, फल, फूल ही चबा जाते ...चलते रहे। संध्याकाल बस्ती के पास ही रहते और आग माँग लाते। अग्निहोत्र नहीं छूटा। धधकती अग्नि। त्रिनेत्र नहीं माँ! मैं आ रहा हूँ। ... पथ पर भस्म के चिह्न छूटते रहे।
(ग)
फेंकरनी की ससुराल पहुँच माई ने जो लीला की, उसे कहना कठिन।
छाती पीटती रामकिसुन के बाप के गोड़े गिर पड़ी। रामकिसुन, उसका भाई सोहन, महतारी और कुछ पट्टीदार इकठ्ठे, हक्के बक्के।
“अरे हो बिसखरिया माई! पहुँच गइलीं। बखिस दss अब। ...राति बिसखरिया माई दरसन दे सरापे लगली। धीया घरमें बइठवले बाड़े। ले जो ससुरे नाहीं त दुन्नू खनदान नाश!”(बिसखरिया माई रे! मैं पहुँच गई। बख्श दो अब। ... रात बिसखरिया माई ने दर्शन दिये और शाप देने लगी। बेटी को घर में बैठाई हो। ससुराल ले जाओ नहीं तो दोनों खानदानों का नाश हो जाएगा।)
घर का बड़ा बेटा घोषित नामर्द – जिसे गवने के अगले ही दिन मेहरारू छोड़ भाग गई। छोटके का गवना न हो, जब रिश्तेदार आएँ पट्टीदार कुछ उल्टा सीधा टीप दें। पंचायत बैठी तो थी लेकिन कोई राह नहीं निकली। टोला भर खोबसता रहता। रामकिसुन की महतारी ने पाँच साल कठिन काटे। झगरही मशहूर हो गई। अब चमटोली में झगड़ा टंटा कोई नई बात तो थी नहीं? महतारी का करेजा जार बेजार रोता रहा।
ऐसे में फेंकरनी की वापसी किसी चमत्कार से कम नहीं थी। फेंकरनी ने दुबारा बियाह भी तो नहीं किया था हालाँकि जात रवायत के हिसाब से कर सकती थी। कोई मरद रख सकती थी। सुन्दर बहू को दुबारा पा महतारी निहाल हो गई।
बेटी को ससुरा में जमा कर जब सतवरिए (सातवें दिन) माई लौटी तो उसकी मड़ैया का अता पता नहीं था।
दुआर दुआर गिड़गिड़ाती रही लेकिन गाँव खुद खभार में पड़ा हुआ था, उसकी सुध कौन ले? थक हार खदेरन के दुआरे पहुँची। दु:खी मतवा शायद शरण दें दे। पीर ने पीर को समझा और गोंयड़े के खेत में पलानी डाल रहने की अनुमति मिल गई। मतवा के आँसू थमते न थे। माई अपने जियरा में बात छिपाए रही। कैसे बताए?
फेंकरनी रम गई लेकिन फेंकरनी कैसी जिसे चैन से रहने दिया जाय? नामर्द की बीवी, ऊपर से उफनती जवानी। अलग अलग बहानों से लखेरों के चक्कर लगने शुरू हो गए। और रामकिसुन? रात को कोशिश करे लेकिन बस हाँफ, पसीना, लत्थ पत्थ ... फेंकरनी जागती ही रह जाती। ... रामकिसुन ...पंडित हो! का होईss?
सोहना की रेख सी निकल रही थी हालाँकि अभी सोलहवाँ ही लगा था। भउजी मिली तो निहाल हो गया। आगे पीछे घूमता रहता। किसी भी बहाने से मज़दूरी से भाग कर आ जाता बस भउजी को देखने और भउजी भी जान छिड़कती। घर के चक्कर लगाते लखेरे, भीतर लहुरा देवर और खुद बेजान! बहानों से रामकिसुन पहले परेशान हुआ फिर फेंकरनी का हँसी ठठ्ठा देख मन में मैल जमने लगी। कुंठा ने बढ़ते बढ़ते आसुरी आकार ले लिया। रोज झगड़े। रोज मार पीट। एक दिन जब दीन दुनिया से बेखबर देवर भौजाई चुहुल कर रहे थे, देवर के बालों में तेल लगाती भउजी बहुरिया का नाम ले सोहना को चिढ़ा रही थी; रामकिसुन की मर्दानगी जाग उठी। गालियाँ बकते, हाथ लात चलाते भरे उजाले फेंकरनी को दुआरे खींच लाया। सीधा आरोप!
“दुन्नूँ साथे सुतल रहले हँ सों, दिनवे।“ (दोनों साथ सोये थे, दिन में ही!)
बगल का सँवरुआ डकार लेते हेहनाने लगा – अरे तोसे नाहीं सम्हरतीया तो ऊहे सँभारताsss! तोरा के त खुश होखे के चाहीं (अरे तुमसे नहीं सँभल रही है तो वही सँभाल रहा है। तुमको तो खुश होना चाहिए।)
सोहना सँवरुआ को पटक कर पीटने लगा। उसके बाप ने देखा और फैसला सुना दिया – “घर छोड़ दे फेंकरनी! तें नाहीं रहले त हमन के सुखी रहलीं।“ (घर छोड़ दो फेंकरनी! तुम नहीं थी तो हमलोग सुखी थे।)
महतारी ने विरोध किया तो उसे भी मारपीट मिली।
...अकेली वापस पैदल लौटती फेंकरनी को रास्ते भर उल्टियाँ होती रहीं। खदेरन का बीज पनप उठा था। रूदन और वमन। किस लिए रोना फेंकरनी? यह तो होना ही था। ... झूलहु हो लाल झूलहु! ... लाल आ रहे हैं और चन्दन गाछ का पता ही नहीं। लाल किस डाल झूलेंगे?
खदेरन के गोंयड़े के खेत में तीन जन हो गए – दो धरती पर और एक कोख में।
...आदम जात के सुख दु:ख को अगर कोई समझ सकता है तो वह भगवान है।
(घ)
युगल किशोर सिंघ। रामसनेही का चचेरा भतीजा, गाँव के लिए जुग्गुल। कुछ ऐसा लंगड़ा कि सही सलामत पैर वालों के तीन पग के बराबर उसका एक पग होता। चलता तो लंगड़े दाहिने पैर के सहारे बायाँ पेंग भरता और जब जमीन पर पड़ता तो जुग्गुल तीन कदम आगे होता। गाँव में उसका दम और पकड़ मशहूर। बात केवल रामसनेही सिंघ की मानता और उनकी घरैतिन को पूजता। बाकी स्त्रियों को शय्याशायी से अधिक मानना उसके वश में नहीं था। आहार भी अलग सा - केवल रोटी, भुनी लाल मिर्च, लहसुन और नमक की चटनी जिनके सही अनुपात बस रामसनेही की घरैतिन को पता थे। ऊपर से लोटा भर दूध या माठा। कभी कभी अगहनी भैंसालोट, चनाय चावल को पिसवा कर उसकी रोटी भी खाता। पिसाई की बारीकी किसको पता? रामसनेही की घरैतिन यानि उनकी चाची को। जुग्गुल की दुनिया बस रामसनेही और चाची। बाकी सब मसान।
उस दिन जब पूरा गाँव बदहवास सा समझने की कोशिश कर रहा था, जुग्गुल के दिमाग में एक काम तुरंत कर देने का विचार आया – फेंकरनी की मड़ैया का दहन। घटनाओं को जोड़ घटा कर उसके खुराफाती दिमाग में तत्काल यही समझ में आया। चमटोली से किसी ने विरोध नहीं किया। बात ही कुछ ऐसी थी।
... वक़्त भागता रहा और सूरज खदेरन को कामाख्या की दिशा दिखाता रहा। त्रिपुर सुन्दरी, विलासिनी, संहारिणी, माँ – मैं आ रहा हूँ!...
खदेरन जिस समय कामाख्या मन्दिर मण्डप के आगे पहुँचे, दिन एक बाँस ऊपर आ चुका था। फटे वस्त्र। बढ़े उलझे बाल, दाढ़ी। कंकाल सरीखे खदेरन लाठी के सहारे खुद को सँभालने की कोशिश किए लेकिन पहुँचने के उछाह को शरीर सँभाल नहीं सका। भहराए और अचेत हो गए। ... (जारी)
ज़बर्दस्त! लग रहा है जैसे एक एक क्षण का हाल आंखों देखा हो। अगली कडी कहाँ है? इंतज़ार कैसे हो?
जवाब देंहटाएंबिसखरिया माई, रामसनेही सिंघवा.....खदेरन पंडित....फेंकरनी....ओह
जवाब देंहटाएंयही है 'विहंगम साहित्य'.....यही है ।
अपने सामने किसी उत्कृष्ट साहित्यिक रचना की पांडुलिपीयों को रचते बनते देखने का सुख ही अलग होता है मित्र।
इंतजार है अगली कड़ी का।
देर करोगे तो भी चलेगा.....लेकिन क्वालिटी येईच मंगता है :)
भदेस भारत..... Rocks :)
@वेद, शास्त्र, स्मृति, नीति, पुराण, इतिहास सब वामाचार। स्वाहा! स्वाहा!!
जवाब देंहटाएंऔर इस बीच गाँव दिहात की राजनीति और समाज का चित्रण करती बेहतरीन पोस्ट.
आज भी ऐसी कहानिया लिखी जा रही हैं, इस हर्ष को शब्दों में बाँध किस भांति अभिव्यक्त करूँ..एकदम समझ नहीं पड़ रहा..
जवाब देंहटाएंकथा का प्रभाव बताऊँ -
लगा जैसे अपने संग बांधकर ले गयी और घटनास्थल के एक कोने में दर्शक बना खड़ा कर दिया....कोने में खड़े हो सबकुछ घटित होते देखते रहे हम..आत्मविस्मृत कर दिया पूरा का पूरा..
इतने दिन तक इस ब्लॉग से बेखबर रही,इसे अपना दुर्भाग्य कहूँ या इस ब्लॉग पर आने का रास्ता मिला इसे सौभाग्य ठहराऊं ???
आपकी लेखनी को नमन !!!
नीला अनुवाद आने के बाद पुनः पढ़ा। सजीवता शब्दों के माध्यम से उतार लाये हैं हमारे मन में।
जवाब देंहटाएंकंकर -ककड़ी या कंकड़ी ?दोनों का मतलब अलग अलग है ! कलेजा तो ककडी की तरह फट सकता है कंकड़ी की तरह नहीं !
जवाब देंहटाएंजय हो... हम आये थे प्रेम पत्र का अनुरोध लेकर. और ये देखकर कन्फ्यूज हो गया हूँ किसका रिक्वेस्ट भेजा जाय.
जवाब देंहटाएंकाम जारी रहे. ब्रह्ममुहूर्त में उठा कीजिये कोई डिस्टर्बेंस हो तो समुचित उपाय करें. और धकाधक छापिये. कुछ यूँ कहने का मन हो रहा है... यही समय है मनु घिस दो अपने को रेखाएँ तो बाद में चमकेंगी ही :)
.
जवाब देंहटाएं@ घर पहुँचते पहुँचते फेंकरनी का करेजा काँकर (कँकड़ी) की तरह फट पड़ा।
--' काँकर ' का प्रयोग मुझे एकदम नहीं खटक रहा . अवध के हिस्से में भी इसे काँकर बोलते हैं , जिसे खड़ी बोली क्षेत्र में 'फूट' बोलते हैं . सादर !!
.
टीप क्या करूँ , ऐसे लेखन पर ..
स्मार्ट इन्डियन जी ने जिस जीवन्तता का जिक्र किया , वह जीवन्तता मौजूद !
सतीश जी जिस गुणवत्ता पर रीझ कर विलम्ब की परवाह न करने पर उतर आये , वह गुणवत्ता मौजूद !
दीपक बाबा जी ने राजनीति और समाज के महीन रेशे देखा , वह कुशलता मौजूद !
रंजना जी ने जिस 'अद्वितीयता' की भूरी भूरी सराहना की , वह अद्वितीयता मौजूद !
.
ऐसे संयोग कम बनते हैं ! आभार , आर्य !
@ अरविन्द जी,
जवाब देंहटाएंयहाँ कँकड़ी का अर्थ 'फूट' से लेना चाहिए। हमारी तरफ इसे काँकरि या काँकर कहा जाता है, जिसे समझाने के लिए मैंने 'कँकड़ी' कहा। मुझे 'फूट' नया, कृत्रिम और अजनबी सा लगता है।
अनुनासिक ध्वनि 'ँ' भी ध्यातव्य है। सरलीकरण के आग्रह से 'ँ'के'ं' में परिवर्तन ने देसज का बहुत अहित किया है।
आप के यहाँ अवधी में सम्भव है ककड़ी कहा जाता हो या कुछ जगहों की भोजपुरी में भी ऐसा हो (कोस कोस पर पानी बदले, पाँच कोस पर बानी)सो आप की बात से इनकार नहीं। समझने के लिए 'फूट' का सहारा लिया जा सकता है।
पात्र तो मेरी नजरों के आगे घूम रहे हैं...........
जवाब देंहटाएंnarrative skill का उत्कृष्ट प्रदर्शन!
अगली कड़ी शीघ्रता से दें ...........
सादर
बात अवधि और भोजपुरी की हो रही है........ संभवत हिंदी का विकास यहीं कहीं हुआ होगा........ पर मुझ जैसे 'कठमगज' इन शब्दों का सही अर्थ नहीं निकाल पाते ......... मात्र भाव ही समझते हैं......... और नीले शब्दों का भी इस्तेमाल जहां जरूरी हो वहीँ करना चाहते हैं........ कि प्रवाह नहीं टूटे..........
जवाब देंहटाएंबस.......
क्या है कि मेरे पूर्वज पश्तों जबान बोलते थे...... जो धीरे धीरे पंजाबी के संपर्क में आती आती अपनी ही अलग भाषा बन गई....... जैसा की रिश्ता जो अवधी और भोजपुरी में है........
बढिया है....
शाम से दूसरी बार पढ़ रहा हूँ। कुछ नया नहीं है कहने को, अमरेन्द्र की टिप्पणी और सतीश पंचम जी की टिप्पणी के बाद वैसे भी टीपना मात्र हाजिरी लगाने वाली बात है। हम सब साक्षी हैं एक उत्कॄष्ट साहित्यिक रचना के खंड-दर-खंड लेखन के।
जवाब देंहटाएं@ग्रियर्सन ऐसे ही अवध की किसी गली में घूम रहा था तभी उसके कानों में ये मधुर शब्द गूँज उठे ..
जवाब देंहटाएंमाई रे ,सांकरी गली में मोहें कांकरी गरत है ...
कंकड़ कंकड़ी ....शब्द हमारे यहाँ ज्यादा प्रचलित है -बाकी फल वाली ककरी/ककडी है कंकरी नहीं!
अमरेन्द्र के फूट वाले उदाहरण से बात कुछ ज्यादा स्पष्ट हुयी नहीं तो मैं गेस वर्क से ही कम चला लेता !
आंचलिक बोलियों की विपुल विविधता /अगम्यता को देखकर कभी कभी लगता है खड़ी बोली ही अब संवाद का माध्यम बने तो ठीक है ........
लगभग सब कुछ पढने को बाकी है यहाँ, बस ये चारों भाग आज दिन भर पढ़े लेकिन टीपने को कुछ नहीं सूझा।
जवाब देंहटाएंमुग्धता बहुत कम कर देती है शब्दों के संग्रह को।
पर अब अमरेन्द्र जी के कहने के बाद आसानी ये हो गई है कि "हूबहू" का इस्तेमाल किया जा सकता है।
यह उत्कॄष्ट लेखन गतिमान रहे, सतत अनवरत।
विरल चरित्र-योजना -ऊपर से ,गँवार ,अनपढ़ ऊबड़-खाबड़ लगनेवाले पर मानवीय गरिमा से युक्त ,ये पात्र अपने परिवेश के साथ जीवन्त हो उठे हैं . कटु सामाजिक यथार्थ के साथ-साथ चलता व्यक्ति के नैतिक मूल्यों का संयोजन इसे दीप्ति प्रदान कर रहा है .
जवाब देंहटाएंलिखे जाइये !
@ अरविन्द जी,
जवाब देंहटाएं:) यह बात मेरे हिन्दी अध्यापक ने भी बताई थी लेकिन ब्रज के पक्ष में। इसे साझा करने के लिए धन्यवाद। उन्हों ने बताया कि ब्रज की गलियों में भटकते उसने यह सुना -
'माइ री मोहें साँकरी गरी में काँकरी गरत हौ'
लगे हाथ यह भी जोड़ गए कि वह इतना मुग्ध हुआ कि ब्रज की गलियों का ही होकर रह गया। :) सही बातें लोक में ऐसे ही कहावतों में बदल जाती हैं।
अब यहाँ भोजपुरी की काँकरि और काँकरी में बस मात्राभेद है जब कि एक का अर्थ फूट तो दूजे का अर्थ कंकड़।
@ओह ,स्मृति भी कैसी हिचकोले खाने लगी है :)
जवाब देंहटाएंमेरी तो मात्र हाजिरी ही है पढ कर निहाल हुई जा रही हूँ बस । शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंकेत्ता भाग चले हो? काहे कि पढ़बै त एक संघे प्रिण्ट-आउट लै क!
जवाब देंहटाएंjai bhades.....jai bharat
जवाब देंहटाएंpranam.
बस पढ़ते जा रहें हैं...और आनंद उठा रहें हैं, टिप्पणियों से भी काफी ज्ञानवर्द्धन हो रहा है....
जवाब देंहटाएंjhutte kakari aur kankari ke pher main log bag pade hai bahut dimag par jor dane ke baad samajh main aayage aglee kadi ka intijar hai----------.
जवाब देंहटाएंअरविन्द जी आपकी स्मृति जब हिचकोले खाना बंद करे तो बताइयेगा ! फिलहाल हम तो कंकड़ी का अर्थ फूट लेने से लेते हुए गिरिजेश जी को बिना टीप दिए फूट ले रहे हैं :)
जवाब देंहटाएं.
जवाब देंहटाएं.
.
जल्दी-जल्दी में पहली बार पढ़ा, आनंदित हुऐ देव... दोबारा फिर पढ़ेंगे... अभी काफी कुछ समझना रह गया है...
...
...अद्भुत।
जवाब देंहटाएं