जब से पंचतारांकित चिकित्सक महोदय की बात मान प्रात: प्रतिदिन एक डेढ़ घंटा टहलना शुरू किया हूँ, ब्लॉग लिखने के मेरे प्राइम टाइम का कबाड़ा हो गया है। स्थिति एकदम असंतुलित हो भयावह हो गई है। बाउ कुलबुला रहे हैं, लेंठड़ा नोच रहा है - कुछ लिखो लेकिन आलसी तो टहल रहा है - स्वास्थ्य रक्षा परमो धर्म: (स्मार्ट इंडियन जी संस्कृत के ऐसे प्रयोग के लिए क्षमा करें।)
अन्ना भी आजकल चुप्पी साधे बैठे हैं। सिद्धार्थ बाबू पुस्तक की बाइण्डिंग कैसे खोली जाय मतलब कि लोकार्पण कैसे हो इसके गुंताड़ (ताड़ के पेंड़ के आकार के गुणों का प्रयोग) में लगे हैं। तो अरविन्द जी भी लिखना छोड़ ऐसी टिप्पणियों में लगे हैं जिनसे लोगों को स्वतंत्र पोस्ट लिखने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है। ओझवा रह रह के बिदेसिया हो जाता है (शादी के लिए कन्या नहीं मिल रही !) पता नहीं लौटा कि नहीं ?
नियमित तो बस भाऊ, झा जी और चचा हैं या के. एम. मिश्रा जी (वैसे भी उनकी पोस्ट करने की फ्रीक्वेंसी ज्यादा कम ही है)। हिमांशु भैया नारी और वृक्ष सन्धान में लगे हुए हैं लेकिन पोस्ट है कि ठिल नहीं पा रही....मतबल ( मत का बल) यह कि हमरे टोले स्थिति असंतुलित हो गई है। आज अनुराग जी और अरविन्द जी से बात के बाद बहुत दु:खी हो गया सो रात के 1200 बजे यह पोस्ट लिख रहा हूँ क्यों कि तय किया है कि पोस्ट कर के ही छोड़ेंगे। ...
क्या लिखूँ - इस सोच में था कि विद्युत कौंधी ! टिप्पणियाँ !! इमरजेंसी स्टॉक !!!
इन टिप्पणियों की कई श्रेणियाँ हैं। आलसी के पास सॉलिड बहाना है इन्हें ऐसे ही बेतरतीब ठेल देने का:
- प्रथम श्रेणी उन टिप्पणियों की है जिन्हें साशय सहेज लिया कि देख देख के अपनी प्रतिभा (?, वो वाली नहीं ! गर्ल फ्रेण्डई की उमर अब खत्म हो गई, डाक्टर टहलने को बोला) पर अकेले में प्रसन्न होते रहेंगे।
- दूसरी श्रेणी उन टिप्पणियों की है जिन्हें बस भाई साहब नहीं लगता (BSNL) के अति परिष्कृत इंटरनेट सेवा से भयाक्रांत हो सँभाल लिया था। जाहिर है वो कहाँ की गई थीं - लिंक नदारद हैं। रात को इस बेला तो मैं नेट खँगालने से रहा।
-तीसरी श्रेणी उनकी है जो पोस्ट की तो गईं लेकिन ग़ायब हो गईं। कभी भाई साहब की कृपा से तो कभी ब्लॉगर बन्धुओं की कृपा से ।
- एक श्रेणी उनकी भी है जो कभी की ही नहीं गईं !@#$%
- एक श्रेणी उनकी भी है कि ठेलते समय सम्पादित हो बदल गईं। हे हे हे, लंठई !
तो पेश हैं चुनिन्दा टिप्पणियाँ, समय गुरु से एकलव्यी प्रेरणा पा कर। बहुत दिनों के बाद उन्हों ने आज फिर कुछ दार्शनिक सा जटिल लिख मारा है।
इनमें किसी की निन्दा हो तो क्षमा करिएगा। परिस्थिति की जटिलता आप समझ सकते हैं। वैसे भी चुनिन्दा में 'चुन कर निन्दा ' करने का भाव नहीं है सो सब कुछ क्षम्य है। ढेर सारे इसलिए दे रहा हूँ कि आप लोगों को पढ़ने, गुनने और उसके बाद भुनभुनाने में समय लगे और उस दरम्यान हम संतुलित हो जाँय। लम्बी छोड़ने का ठेका शुकुल बाबा ने ही नहीं ले रखा है - हम भी अब हाथ मारेंगे।
इनमें किसी की निन्दा हो तो क्षमा करिएगा। परिस्थिति की जटिलता आप समझ सकते हैं। वैसे भी चुनिन्दा में 'चुन कर निन्दा ' करने का भाव नहीं है सो सब कुछ क्षम्य है। ढेर सारे इसलिए दे रहा हूँ कि आप लोगों को पढ़ने, गुनने और उसके बाद भुनभुनाने में समय लगे और उस दरम्यान हम संतुलित हो जाँय। लम्बी छोड़ने का ठेका शुकुल बाबा ने ही नहीं ले रखा है - हम भी अब हाथ मारेंगे।
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मेरे डाक्टर साढ़ू ने भरी जवानी में भी मुझे टाँग उठाने टाइप के व्यायाम बताए हैं। मैंने अपने बढ़ते पेट के बारे में पूछा तो बहुत ही हिकारत से बोले मैं ऑर्थोपीडिक सर्जन हूँ, बाल रोग विशेषज्ञ नहीं।
लेकिन मुझे एक बड़ा अचूक उपाय मिल गया है। ताऊ के पोस्ट पढ़ो, पेट पकड़ कर हँसो और तोंद घटाओ। बाबा रामदेव को भी यह नुस्खा भेज रहा हूँ। हरिद्वार से निमंत्रण के लिए तैयार रहिए।
'रसीली' को अपनाने के लिए धन्यवाद। फोटो बहुत जँचे। अपने फोटोग्रॉफर का पता बताइए।
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वृक्षारोपण शब्द रूढ़ हो चुका है, लेकिन इसे पौधारोपण कहना चाहिए। शहर में जगह नहीं और देहातों में यह प्रवृत्ति ढलान पर है, टेंसन लेना नहीं चाहते । एक पौधे को जिला कर जवान बनाना तप है। थोड़ा sensitisation हो इसीलिए मैंने अपने ब्लॉग पर पौधों के बारे में लेख देना प्रारम्भ किया।
लिट्टी चोखा के साथ दाल की आवश्यकता नहीं है यह भी बताइए। इससे 'प्राकृतिक' स्वाद 'सांस्कृतिक' हो जाता है, मतलब की dilute हो जाता है।
यहाँ आना हमेशा एक सुखद अनुभव होता है। जैसे अपने गाँव के खलिहान के पाकड़ पेड़ों की छाया में आ गए हों।
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संवेदना के एक अछूते आयाम से रूबरू कराता लेख।थोड़े शब्दों में कही गई बड़ी बात।
साधुवाद।
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आप के बारे में कुछ लिखना सूरज को दिया दिखाने जैसा है।
आप नए जमाने के 'ऋषि' हैं। मुंशी रचित 'महामुनि वेदव्यास' में अथर्वण परम्परा द्वारा वनस्पतियों के प्रयोग का चित्रण याद आ गया। लगे रहिए। आप जैसे बहुत कम लोग हैं।
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अगर वाकई वह भूमि मस्जिद के लिए आवंटित है तो उस पर उसे बनाने पर बवाल करना बेशक निन्दा और क़ानूनी कार्यवाही योग्य है। वैसे आप की पोस्ट एकतरफा है। दैनिक मुस्लिम आतंकवाद, जुमे के दिन सड़कों पर नमाज पढ़न, मोहर्र्म चेहल्ल्म के दिन सरे आम स्यापा करने , छाती पीट जुलूस निकालने और रोज पाँच दफे 'अल्ला हो अकबर' का उद्घोष सुनने से बहुसंख्यकों को कितनी परेशानी होती है, कभी आप ने सोचा है?
मुसलमान अल्पसंख्यक नहीं है। यह अब मान लें। 20 करोड़ से उपर की आबादी हो चुकी है इनकी।
हिन्दू और मुसलमान दोनों को मन्दिर मस्जिद नहीं, किसी और बात की आवश्यकता है। मुसलमानों को खास कर ये बात न समझा कर बुद्धिजीवी वर्ग उनका अहित ही कर रहा है।
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ये अच्छी बहस छेड़ी आप ने। विधिक व्यवसाय का एक मूलभूत सिद्धांत है जिसमें पहली ही मुलाक़ात में मुवक्किल को अपने वकील को सच और सिर्फ सच बताना होता है। कहा जाता है कि इससे केस को समझने और लड़ने में सहूलियत होती है।
यहीं वह नैतिक प्रश्न उठता है कि मुवक्किल यदि वास्तव में अपराधी है और उसने वकील महोदय को सच बता दिया है, तो वकील क्या करे? पिछ्ली पोस्ट में कहीं गांधी की चर्चा हुई थी। व्यवसायिक और नैतिक द्वन्द्व के दौरान उन्हों ने सामान्य नैतिकता को प्राथमिकता दी थी। चलिए यह मान लेते हैं कि हर वकील नैतिकता को प्राथमिकता देगा और इसलिए कोई भी ऐसा केस नहीं लड़ेगा जहाँ मुवक्किल वास्तव में दोषी होगा यानि कि वकील साहब को यह बताएगा - वह भी पहली भेंट में। ऐसी स्थिति में दो पक्ष बनते हैं:
(1) समाज आदर्श हो जाएगा। दोषी को कोई बचाव नहीं होने से वह बहुत शीघ्र दण्डित होगा।
(2) नं. 1 आदर्श स्थिति है जो कभी नहीं होगी। जैसे ही ऐसा होना शुरू होगा, अपराधी या दोषी वकील से भी वैसे ही झूठ बोलेंगे जैसे कोर्ट में बोलते हैं। जटिलता बढ़ेगी। पहले बेचारे वकील को खुद समझना होगा कि उसका मुवक्किल वाकई दोषी है। समझते समझते जब वह डिफेंस छोड़ने को मन बनाएगा तब तक कोर्ट में केस ऐसे स्टेज में पहुँच चुका होगा कि 'भइ गति साँप छ्छुन्दर केरी'।
इसलिए प्रोफेसनल होना ही बेहतर है। हर व्यक्ति के नैतिकता के अपने मानदण्ड होते हैं। उन मानदण्डों के अनुसार वह निर्णय ले और ऐसे केस हाथ में ले या न ले। इतनी स्वतंत्रता तो हमें वकील को देनी ही होगी। लेकिन यदि केस इतना स्पष्ट है कि आम जन को अपराधी स्वयंसिद्ध सा दिखता है, तो वकील साहब को आलोचना झेलने और उसकी स्वतंत्रता देने के लिए भी तैयार भी रहना होगा।
हाँ, कसाब का केस एकदम अलग है और मैं अपना मत इससे पहले की पोस्ट में दे चुका हूँ।
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इतने देर तक लंठ की टिप्पणी को झेलने के लिए धन्यवाद ;)
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अमाँ यार आप तो बेबात टिप्पणी करने लगे। मैंने आप के पक्ष को गलत तो नहीं कहा बस दूसरा पक्ष भी रख दिया। मिर्ची क्यों लगी? बर्र काटने जैसा बनबनाने के बजाय उस पर विचार करें।
संघी या जमाते इस्लामी या नक्सली की आप जानें। हमें इनसे कुछ नहीं लेना देना। कोई भी सच सिर्फ इसलिए झुठलाया नहीं जा सकता कि वह तथाकथित बहुसंख्यकों से सम्बद्ध है। मेरिट देखें हुजूर, केस का मेरिट देखिए। मुहर्रम के दिन स्यापा ही किया जाता है, अपने किसी मुसलमान मित्र से पूछ लें। किस तरह से किया जाता है, समझाने के लिए कहिए तो एकाध फोटो भेज दूँ।
रही बात संख्या की तो आप के यह मानने से कि 2001 के बाद 8 सालों तक मुसलमानों की संख्या स्थैतिक ही है, कुछ फरक नहीं पड़ता। संख्या बढ़ कर 20 करोड़ हो चुकी है, इसे मुसलमान भी मानता है।
अल्पसंख्यता आप तब तक मानें जब तक कोई समुदाय 50% से एक भी कम रहे, मानते रहें। उससे भी कोई फर्क नहीं पड़्ता। लोग अब इस पाखण्डी पॉलीटिक्स को समझने और उसके विरुद्ध कहने भी लगे हैं। बहुत शीघ्र अल्पसंख्यत्त्व absolute संख्या के आधार पर परिभाषित होगा। अब आप उसे मानें या न मानें।
अधिक कह दिया हो तो टिप्पणियाँ हटा दें।
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मिस्र के पिरामिडों से कुछ लेख मिले हैं, 4000 साल पहले भी इसी टाइप की समस्याएँ गिनाई गई हैं और पतनशील समाज का रोना रोया गया है।
ऐसा कहने का उद्देश्य यह है कि कि आप अपनी प्रतिभा को समुचित अभिव्यक्ति दें। समाज की अंतर्निहित गतिशीलता को पहचानें और उसे स्वर दें। शुभकामनाएं और धन्यवाद।
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आज लखनऊ में भी फुहारें पड़ी हैं। उमस बढ़ी है। हो सकता है कि मानसून बाबा आ ही गए हों..
शायद पहली बार यहाँ आया। विविधता देख कर मस्त हो गया हूँ।
"7.बूंद पसीने की चली, अटकी भौहों के पास,
बढ़ने की हिम्मत नहीं ,बहुत गर्म है सांस!"
मजा आ गया। इसमें चश्मा पहनने वालों को भी लपेटना था। पसीना जब चश्में के सहारे आँखों घुस जाता है तो बहुत परेशान करता है।
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मजा आ गया। इसमें चश्मा पहनने वालों को भी लपेटना था। पसीना जब चश्में के सहारे आँखों घुस जाता है तो बहुत परेशान करता है।
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स्पष्टीकरण के लिए धन्यवाद।इस नए शब्द की सूचना अजित वडनेरकर को दे दें।;)
आप के व्यंग्य से(पर मत समझिएगा, बहुत शानदार लेख है) रोना आ रहा है। क्या लिखूँ समझ में नहीं आ रहा है।
जो चल रहा है, चलने दें और देख कर सिर धुनते रहें। केश मुड़वा लीजिए नहीं तो जिस तरह आप बाल नोच रहे हैं, गंजे हो जाएंगे। छिपकली की जान न लें, बड़ा बवाल हो जाएगा - इंटरनेशनल। कसबवा तो दाल पी मर जाएगा लेकिन हमारी सेकुलरी सरकार को कटघरे में खड़ा कर जाएगा। मुआमला तुरंत टर्न ले अल्पसंख्यक उत्पीड़न का बन जाएगा। आखिर वह इस देश का संख्या में 'सबसे कम'वाला अल्पसंख्यक है।
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एक तरफ रीठेल, टेंसनात्मक, धमकात्मक. . . जैसे शब्दों की रचना तो दूसरी तरफ इतनी सतर्कता कि वर्तनी दोष पर संकेत !
इतना जीवंत और नवोन्मेषी जगत है यह। यह अगर साहित्य नहीं है तो साहित्य की परिभाषा बदलनी पड़ेगी। साहित्य तो 'सहित' शब्द से बनता है। सबको समाहित करे और सबके लिए हितकारी हो, साहित्य तो इसी को कहते हैं। अब चाहे वह ब्लॉग में दिखे या वाराणसी स्टेशन पर रात में होने वाले हरि कीर्तन में! :)
साहित्य माध्यम का मुहताज नहीं।
June 28, 2009
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यदि यह मान भी लें कि प्राचीन भारतीयों के उर्वर मस्तिष्क की हर परिकल्पना सिद्धांत, नियम और ठोस संरचना में घनीभूत होने योग्य है तो उससे क्या हासिल होगा?हम वर्तमान के उन्नत होते विज्ञान का सहारा लें या लुप्त हो चुके ज्ञान और परम्परा को दुबारा 'खोजने' के भगीरथ तप में लगें?मुझे तो पहली राह ही ठीक लगती है।
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बकवास जी, पहले तो झण्डा सबसे उपर करिए। जय हिन्द।
अब नरेगा। हम बहुत पहले से टिप्पणियों में चिल्लाय रहे हैं लेकिन लोग खुसुर पुसुर सुनने में ज्यादा यकीन रखते रहे। अब आप फुल फ्लेज्ड लेख ही लिख दिए हैं तो शायद आप की बकवास पर ध्यान जाए।
रही बात गड्ढा/मिट्टी खोदने और पाटने की तो कुछ काम तो होते ही रहना चाहिए। नहीं होगा तो बिकास कैसे होगा? दारू और मुर्गा रोज शाम को चाहिए तो बिकास बहुत जरूरी है।
और ये हगने हगाने की बात मत करिए। गन्दी बात।
रामलाल जी का पता दीजिए उनसे प्राइबेट में बात करनी है। बहुत काम की थिउरी दिए हैं। अमर्त्य सेन के बाद अब नोबल का बल ऐसा ही कोई गुदड़ी का लाल तोड़ेगा।
हम बकवास ज्यास्ते ही कर दिए। अब जान लीजिए कि ब्लॉग जगत में बकवास करने वाले आप अकेले नहीं हैं। हाँ SS
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रस अगर आराम करते हुए मिल जाय तो आदमी 'रसाराम' हो जाता है। हम अभी वही हैं।
किताबों से बात करना सीख लिए हो अच्छी बात है। अगली बार नखलौ आना तो हमें भी सिखाना। चालू रखो तब तक तो जो कहोगे उसी में से रस चुराना पड़ेगा।
आयत ओयत पर कम लिखो। बवाल का पूरा चांस रहता है। कहीं ऐसा न हो कि नव वेदमार्गियों की तरह लोग तुम्हें लेकर बहम पाल लें। आज कल बक्त नाजुक चल रहा है - सँभल कर लिखो।
वैसे किताबों से 'सुअरा' के बारे में भी बात करना । कुछ काम की लगे तो पहले अपने अरविन्द भैया को बताना । आज कल उसे लेकर बड़े मानसिक कष्ट में हैं बेचारे। मुझे cc मार्क कर देना ताकि ताजी प्रगति पर मैं भी 'नमूँदार' रहूँ। 'नमूँदार' का सही प्रयोग किया न ?
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देखिए ये जो सुअरा रोग है, वह आराम करने से ठीक हो जाता है। इसका उल्टा भी सच है। मतलब आराम करते रहने से सुअरा नहीं होता है।
राजनीति और आराम में 36 का सम्बन्ध है। इसलिए थोड़े दिन गोली दागने, मेरा मतलब शूटिंग करने से दूर ही रहें तो बेहतर है।
सूअर बहुत कमीना जीव होता है। इसकी चर्चा ब्लॉग जगत में शायद कल ही शुरू हुई है। लिहाजा सुअरा की सम्भावना 'कमीने' में भी होगी। इसलिए फिल्म देखना भी मुल्तवी रखें। कमीने इस संसार में हमेशा मिलेंगे। फिल्म तो बहुत छोटी चीज है उसकी फिकर न करें।
अब अगर मेरी सलाह मान कर आराम करना सोच ही लिए हैं तो आराम को और 'आरामप्रद' कैसे बनाया जाय, इसके लिए मेरे ब्लॉग पर आएँ। मध्यम वर्गी हिट फॉर्मूला मिलेगा। थोड़ा अदल बदल कर आप भी आराम की मात्रा बढ़ा लीजिएगा। मेरे यहाँ कमेंट करना कोई जरूरी नहीं है सो आने से न घबराएँ।
'बाप से बाप' है कि 'बाप रे बाप'?बाप से बाप शायद आप की अगली फिल्म का नाम है। अग्रिम प्रचार का बड़ा ओरज्नल आयडिया लगाए हैं। मान गए वस्ताद।
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अच्छी जगह लगती है। आना पड़ेगा।
'हिन्दू लड़कियाँ और नमाज'का मुद्दा यहाँ अप्रासंगिक और भटकाव लाने वाला है। वैसा ही जैसा नववेदवार्ता,कल्कि,मैत्रेय आदि वाले मंचों पर होता है।
नमाज मुख्यत: सामूहिक उपासना होती है। यदि सार्वजनिक रूप से सामूहिक नमाज पढ़नी है तो पहले मुसलमान होना पड़ेगा। सराहना और आलोचना के प्रश्न तो गौड़ हो जाएंगे। विषय और चर्चे के जज्बे को देखें। वन्दे मातरम को बुतपरस्ती से जोड़ने के तर्क जैसी ही यह दलील है।
सुखद है कि गाड़ी हिंचकोले खाते हुए भी पटरी से उतर नहीं है।
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चच्चा, धो दिए सबको ! अरे बुढ़पन को इत्ता सीरियसली ले लिए। एक साथ ब्लॉग जगत की कई विधाओं पर हाथ मार कर जैसे जवानी का प्रमाण पटक बैठे ! मन बाग बाग हो गया। इतना ललित लेखन ! साहित्य का नाम लूँगा तो बौराय जाओगे सो खारिज. .
मेरे गाँव में मुझसे डेढ़े उमर के 'बच्चे' भी मुझे 'बाबा' मतलब मॉडर्न समय की शब्दावली का दादाजी कहते हैं। रिश्ते का पद ही ऐसा है। दशहरे में पैर छूते हैं तो बड़ा अजीब लगता है। क्या करूँ ? आप की तरह सेंटी होकर खर्र्रा लिखने बैठ जाऊँ। वैसे यह अच्छा ही हुआ, नहीं तो इतनी अच्छी पोस्ट कहाँ देखने को मिलती !
पोस्ट ही बता रही है कि 'बुढ़ऊ ' बहुत जवान हैं । उस गाने पर एक पोस्ट दीजिए ना ,"अभी तो मैं जवान हूँ..." ;)
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18. आप के केश बड़े काले हैं। इन्हें साबुन से न छुआएँ, सुफेद हो जाएँगे।
;) मसखरी थी।
माताएँ होती ही ऐसी हैं। मिलने के समय फूल जाती हैं और आप फुला जाते हैं। विछोह होते आँसू रोक आप की जेब में शमी का पत्ता रखती हैं। यात्रा में आप की रक्षा करेगा । उस दिन रोती नहीं - रोना अशुभ होता है।
अगले दिन खूब रोती हैं। आप भी सेंटी हो जाते हैं और दुनिया चलती रहती है।
आप की पोस्ट से वाशिंग मशीन में धुलने के बाद भी मेरी जेब से निकलते शमी के पत्ते याद आ गए ! आप ने एक लेख का सामान दे दिया।
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हम तो आप के 'पंखे' हो गए! फिल्मी गीतों में छिपे साहित्य और सौन्दर्य को परत दर परत उजागर कर दिया आप ने। जैसे की कपड़े की दुकान पर सेल्समैन थान दर थान दिखा रहा हो !
" ढैन टै णे टेणे टेणे …." के प्रयोग को मेरे घर में सबसे पहले मेरी बेटी ने पकड़ा था। नवीं में पढ़ती किशोरी ! 'पापा ये खलनायकी धुन का कैसा प्रयोग किया है !'..तब मैंने सुनी अनसुनी कर दी थी। बड़ी होती बेटियाँ शंकालु बनाती हैं।....
लेकिन उसने तो सौन्दर्य को पहचाना था।
आभार, इसलिए और कि अब मैं अपनी बेटी को गम्भीरता से सुनूँगा।
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दिन ब दिन जटिल होती जा रही जिन्दगी में संवाद के नए तरीके ढूढ़ने पड़ेंगे। मुझे इस प्रयास में बुराई नहीं दिखती।
छोटी छोटी आम जीवन की बातें और रेडियो पर सुनने को तैयार एंकर! कितना खुल सा जाता है आदमी। इस चैनल ने तो बस एक नई धार पकड़ी है।
इसे इस नज़रिए से देखें न ।
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21. भाषिक आतंकवाद' और 'भाषा के शुद्ध प्रयोग के आग्रह' की विभाजन रेखा बहुत सूक्ष्म है। अनुवाद और शब्दों की उत्पत्ति आदि विषयों पर लिखते समय यह हमेशा ध्यान रखना होता है कि ' भाषा बहता नीर'। भाषा के प्रवाह और सरलता के मुद्दे सीधे आम जन से जुड़्ते हैं। अपने चिट्ठों में आप ने इन मुद्दों का ध्यान रखा है इसलिए ही आप का यह ब्लॉग इतना पॉपुलर है - विशेषज्ञों में भी और हम जैसे नादानों में भी।
रही बात इधर उधर से आती कुछ बेसुरी आवाजों की तो उन्हें मक्खी की भनभनाहट से ज्यादा महत्त्व न दें और अपने काम में लगे रहें। मक्खी का काम ही गन्दगी पर बैठना और भनभनाना होता है। अब विधाता की इस व्यवस्था से हम आप कैसे जूझ सकते हैं? एकमात्र उपाय है - उपेक्षा ।
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22. 'वर्णसंकरता' और रक्त पवित्रता की 'यूरोपियन' अवधारणा भारतीय सन्दर्भों में लागू करने पर भ्रांतियाँ होती है। गीता में अर्जुन जब वर्ण संकरता के प्रश्न उठाता है तो कृष्ण ऐसा कुछ नहीं कहते जिससे उसकी वर्णसंकरता जाहिर होती हो।
वर्ण संकरता की इस कसौटी पर वशिष्ठ, अगस्त्य वगैरह जाने कितने ऋषि वर्णसंकर कहलाएंगें। इस प्रसंग में सत्यकाम जाबाल की कथा का स्मरण भी आवश्यक है।
संस्कार और ऋषि परम्परा की सहमति से कोई भी ब्राह्मण या क्षत्रिय हो सकता था। परवर्ती मध्य काल में भी विदेशी और देसी लड़ाकू जातियों का शोधन कर उन्हें क्षत्रिय राजपूत बनाने के प्रमाण मिलते हैं। ध्यातव्य है कि ये भी अपने गोत्रों को ऋषि परंपरा से जोड़ते हैं।
ब्राह्मणों के एक वर्ग जिन्हें 'सकलदीपी' कहा जाता है का भी उदाहरण लिया जा सकता है।
रक्त की शुद्धता और त्वचा की शुभ्रता की विदेशी अवधारणा की तुलना जब वृहदारण्यक उपनिषद के Content से करते हैं तो और स्पष्टीकरण होता है। उसमें 'श्याम वर्ण' के वेदज्ञाता पुत्र की प्राप्ति हेतु मंत्र बताए गए हैं।
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23. उ हूँ, फिर वही कंफ्यूजन!अरे भाई मसाला मकोका लगने में है कि उतरने में? समाचार इस पर भी निर्भर करता है कि मसाला किस पर लगता है? कुछ इतने भाग्यशाली हैं कि उन पर चढ़ना उतरना दोनों समाचार हो जाते हैं। कुछ बेचारे तो बिंना मसाले के ही समाचार में सिसियाहट फैलाए रहते हैं। सब कुछ सापेक्ष है। जिसके सापेक्ष है वह सापेक्ष रूप से निरपेक्ष है। निरपेक्ष के उपर सापेक्षिकता का सिद्धांत नहीं लगता। वह सापेक्ष होते हुए भी निरपेक्ष कहलाता है।समझ में नहीं आया? दो चार बार मनन के साथ अध्ययन करें। पूरा हिन्दुस्तान जिसके सापेक्ष अपने को दिखाना चाहता है, वह इतना सरल कैसे हो सकता है?
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24. अन्ना, लिखने को एकदम 'अभिधा' में ले लिए।
लगे हाथ महाभारत के 24000 श्लोकों से शतसहस्री संहिता (100000 श्लोक) में परिवर्तित होने के चरणों को भी लिख देते तो अच्छा होता। मैंने बहुत पहले पढ़ा था। भूल सा गया हूँ। नहीं तो टिप्पणी में ही लगा देता।
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मेरी श्रीमती जी हैरान थीं कि लैप टॉप के उपर नजर गड़ाए मैं ही ही, हे हे , हा हा, हु हु क्यों कर रहा हूँ?
मज़बूरन बताना पड़ा। बहुत दिनों के बाद इस तरह हँसा हूँ। मान गए वस्ताद !
मेरा एक दढ़ियल कनपुरिया दोस्त हुआ करता था, उसकी याद दिला दी आप ने। चन्द्र टरै सूरज टरै .. की तर्ज़ पर उसने कभी दाढ़ी नहीं कटाई। न जाने कहाँ है वह आज कल? आप दढ़ियल तो नहीं ?
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26. wordpress पर मैं पहले से ही हूँ और माइग्रेशन की सारी तैयारी कर चुका हूँ। लेकिन उसके पहले कुछ बातें:
(1) फ्री वर्ड प्रेस पर ब्लॉगवाणी अग्रीगेटर काम नहीं करता। किसी को पता हो तो सूचित करे। यदि ऐसा नहीं है तो भी बताए। मुझे यह समस्या आ रही है।
(2) यह एक अच्छी पहल है| कुछ व्यवहारिक पक्ष हैं। आज हिन्दी में करीब 10000 ब्लॉगर हैं। इसलिए हम सबकी जिम्मेदारी बनती है कि अपनी बात अपने परिचितों को बताएँ। duplication न हो इसके लिए
किसी एक ब्लॉग पर यह सूचना प्राप्त ब्लॉगरों की सूची लगे जिसे वे स्वयं अपडेट कर सकें।
(3) जो भी हो गूगल ने अब तक सबको मुफ्त सुविधाएँ दी हैं। उन्हें एक अवसर देना चाहिए। क्या कुछ ऐसा किया जा सकता है कि एक स्थान पर मेमोरेंडम हो और ब्लॉगर अपना विरोध, नक्शा सही करने का अनुरोध और न होने की स्थिति में ब्लॉग हटाने की बात इकठ्ठी कर सामूहिक रूप से गूगल को भेज सकें ? इससे गूगल को भी अवसर मिलेगा और हमें भी तैयारी का मौका मिल जाएगा। यह सुनिश्चित करना होगा कि गूगल के पास यह अनुरोध जाने के पहले सभी ब्लॉगर अपना ब्लॉग wordpress या कहीं और जगह माइग्रेट कर लें। अगर गूगल ब्लॉग लॉक करने की कार्यवाही करता है तो भी सुरक्षा रहेगी।
(4) कल को वर्ड प्रेस पर भी कुछ ऐसा हो गया तो ?
तकनीकी रूप से सक्षम ब्लॉगर इसमें सहयोग करें।
धन्यवाद,
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शुद्ध संख्या आधारित लोकतंत्र के विरोधाभाषों को पहले समझें फिर इस तरह की विवेचना में पड़ें। गरीब लड़की चोरी कर सकती है। कोई भी कर सकता है। समस्या उस मानसिकता है की है जिसने ऐसा जघन्य 'दण्ड' दिया। किसने उसे यह अधिकार दिया? इस तंत्र ने।
यह 'राय' कोई भी हो सकता है - ब्राह्मण, ठाकुर, हरिजन, यादव . .. यह अर्थतंत्र का जाल है| यह नए 'सामंत' उत्पन्न करता है और उसे पोषित करता है। अपने तर्क देखिए, अभी भी उसी जाति व्यवस्था को केन्द्र बना कर चल रहे हैं।
दलित की बेटी सामंत होकर अगड़ों से पैर छुआने लगती है और वे सहर्ष छूते हैं। कुछ समझ में आ रहा है? लूट की बन्दरबाँट में जाति बस एक मोहरा भर है।
बादशाह तो कोई और है।
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28. मैं अंग्रेजी और हिन्दी को एक दूसरे का पूरक मानता हूँ। भाषाएँ नहीं भाषाई पूर्वग्रह समस्या उत्पन्न करते हैं। अंग्रेजीदाँ लोग जब कॉम्प्लेक्स वाली बातें करते हैं तो मैं हिन्दी, वह भी चालू किस्म की हिन्दी में शुरू हो जाता हूँ। कोई भोजपुरिया पास हो तो बल्ले बल्ले।
मेरे इलाके के कभी सी बी आर आई के निदेशक हुआ करते थे। जब मिलें तो चाचा कहीं भी भोजपुरी में ऐसे शुरू होते थे कि आस पास के लोग चौंक जाते थे। विडम्बना ! उनके लड़के भोजपुरी नहीं बोल पाते।
बहुत जटिल मामला है। लेकिन यदि हिन्दी वाले पूर्वग्रह से मुक्त हों तो अंग्रेजी से हिन्दी को समृद्ध किया जा सकता है। काम चल ही रहा है।
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हँस रहा हूँ। सीरियस हो रहा हूँ। फिर हँस रहा हूँ कि ब्रेक ! सीरियस हो रहा हूँ . .इसे कहते हैं पाठक को नचाना। कितनी दूर से डोर हाथ लिए बैठे हो !
गनीमत है मलिकाइन नहीं हैं आस पास में। नाहीं तो मेरी दिमागी हालत पर हलकान हो जातीं।
वैसे ही बड़ी परीशान हैं बेचारी। कल रात में मुझे दस्त लगे थे और वो सोए सोए कह रही थीं,”रहने भी दीजिए। इतनी रात गए लिखना बन्द क्यों नहीं कर देते।”
!!@#$
लम्बा लिखने को सोचा था लेकिन आप खुदे इतनी लम्बी हाँक दिए हैं कि हिम्मत डोल गई।
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सब लोग इतना कह दिए हैं कि समझ में नहीं आता क्या कहूँ ?
शहर की पूरी रूमानियत लिए पोस्ट। बधाई।
इस लण्ठ को एक ही पक्ष मिस हुआ लगता है। पार्क में घुस आए गाय, सांढ़, आवारा और पालतू कुत्ते, कोनें में निठ्ठल्ले पड़े नशेड़ी। अमिताभ की कोई फिल्म थी शायद जिसमें डल झील के सौन्दर्य वर्णन का वह एंटी थिसिस प्रस्तुत करता है।
बुरा न मानिएगा। यह भी सराहना ही है। एण्टी थिसिस को रचने के लिए थिसिस तो चाहिए ही।
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हम भी आप की ही तरह सोचते हैं। लेकिन उससे क्या होने वाला है?
मुलाहजा फरमाएँ, अर्ज किया है:
"जिन्दों की कोई कीमत नहीं यहाँ,
आप तो कब्रों की बात करते हैं ।"
वाह ! वाह!! सुभानअल्ला ।
चर्चा जारी रखिए। हम भी आप ही से सीखें हैं कि कैसे ऐसी जगह "...जारी" लिखो कि पब्लिक ऐंठ कर रह जाय ।
August 15, 2009 7:48 PM
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मुझे आज भी वह दिन याद है जब मैंने ब्लॉग संसार में कदम ही रखा था कि आप की उक्त टिप्पणी के दर्शन हुए। एक परिचित पुराने ब्लॉगर से पूछा तो उन्हों ने इसके मायने, अर्थ और उपयोगिता पर प्रकाश डाला। उसके बाद आप की ये पंक्तियाँ देखता रहा हूँ और मन ही मन सराहता रहा हूँ कि चलो कोई तो है. . .
'स्वागत है।' पंक्ति का मैंने खुद कई बार नए ब्लॉगरों के लिए प्रयोग किया है। टिप्पणियों में चन्द लोगों ने इसे भी बुरा माना है। कोई बात नहीं। अब कम कर दिया है क्यों कि अपने काम से ही फुरसत नहीं है। यहीं पर आप के 'कट पेस्ट' का महत्त्व पता चलता है। 'कट पेस्ट' करना भी समय और सरसरी निगाह से ही सही विवेचन तो माँगता ही है। आप कर रही हैं - साधुवाद की पात्र हैं।
हिन्दी ब्लॉगरी में केंकड़ा मनोवृत्ति कुछ अधिक ही है। इसे स्वीकारें। स्वीकार से समाधान मिलता है। आप की पोस्ट से पता भी चलता है।
रही बात 'प्रतिष्ठा' की तो इस शब्द का 'ठा' अंश बहुत बवालकारी है। भाऊ (अजित वडनेरकर) मानें न मानें, इसकी उत्पत्ति 'ठसक' शब्द के 'ठ' धातु से हुई है। :)
उसे किनारे रखें तथा ब्लॉगरी और शोध के 'प्रति =प्रतिष्ठा-ठा' वैसे ही समर्पित भाव से लगी रहें। मेरा तो यही अनुरोध है। आप ने नशा कभी किया ही नहीं तो उतरने की बात करना व्यर्थ है।
'केंकड़ों' पर एक नई कथामाला प्रारम्भ की है। वहाँ अवश्य आएँ और 'बहुत सुन्दर शुभकामनाओं' के साथ आशीष दें। मुझे इसकी बहुत आवश्यकता है क्यों कि एक ऐसे क्षेत्र में पैठने जा रहा हूँ जो अति कठिन है।
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"सेल्फ प्रोक्लेम्ड नसीहताचार्यों से खुन्दक"चचा को नसीहत देने की महाभूल किसने की? जल्दी बताएँ।
आप 'उच्छिष्ट' की जगह 'उच्छृंखल' लिखना चाह रहे थे क्या?
'अहो-रूपम-अहो-ध्वनि की परस्पर टिप्पणी' के ब्याज से ब्लॉग के जीवित पूर्वज 'प्रिण्ट' पर क्यों ताना कस रहे हैं? वहाँ भी ' विशुद्ध मनमौजियत'वाले पाए जाते हैं। बेचारों को मौज करने दीजिए।
" और जब लोग यह कहते हैं कि नेट पर ८०-९० प्रतिशत कूड़ा है तो या तो वे उस उच्छिष्ट सामग्री की बात करते हैं, जो पर्याप्त है और जिसमें रचनात्मकता/प्रयोगधर्मिता अंशमात्र भी नहीं है; या फिर वे शेष को कूड़ा बता कर (अपने को विशिष्ट जनाने के लिये) अपने व्यक्तित्व पर चैरीब्लॉसम पालिश लगा रहे होते हैं। " यह प्रिंट मीडिया का भी सच है।
सुबह सुबह क्रोध अच्छा नहीं होता। 'अतवार' के दिन तो हरगिज नहीं ! भतीजे दहशत में आ जाते हैं, उनका ख्याल रखिए।
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34.
पूरे दो दिन हैरान करने के बाद लगता है नेट इस टिप्पणी के लिए ही ठीक हुआ है।
सत्यनारायण या उस जैसी कथाओं, स्मृतियों और पुराणों में भय पक्ष का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप मिलता है। उल्लेखनीय है कि वेदों और आरण्यकों में दूसरे के उपर अनिष्ट करने के विधान तो मिलते हैं लेकिन अनिष्ट की सम्भावना जता कर भयदोहन या शोषण के विधान नहीं मिलते।
समाज जैसे जैसे विकसित हुआ, जटिलताएँ भी बढ़ती चलीं गईं। सबसे बड़ी जटिलता आई नारी पुरुष सम्बन्धों में। नारी घर के भीतर सिमटती चली गई। सम्पति बनती गई। जननी के उपर यौन शुचिता का बन्धन इतना कसा गया कि उसका स्वतंत्र अस्तित्त्व ही समाप्त हो गया। उसके मन को हमेशा भ्रमित रखने और शोषण को एक संस्था बनाने के लिए इस तरह के व्रतों के आविष्कार हुए।
परम्परा से यह सब इतना रूढ़ हो चुका है कि आज आप अपनी पत्नी को यह सब बता कर भी अगर व्रत न रखने को कहिए तो सम्भवत: बात न मानी जाए। लेकिन धीरे धीरे ही सही परिवर्तन हो रहे हैं। अब 24 घंटे निर्जल व्रत बहुत कम महिलाएँ रखती हैं। स्वास्थ्य आदि कारणों से बंक भी मार देती हैं तो कोई बुरा नहीं मानता। धीरे धीरे शहरीकरण के प्रसार और नारी के स्वावलम्बी होने से यह सब स्वत: समाप्त हो जाएगा। कमजोर आधार पर बनी इमारत ढहेगी ही- देरी भले लगे। हाँ यदि यह सब अगर एकदम जुदा कोई स्वस्थ रूप ले ले तो बात और है।
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35. कूदो या न कूदो, च्वायस व्यक्तिगत है।लेकिन लिखते अवश्य रहिएगा, यह जनता की च्वायस है। (हमरे उपी के वासी जैसे कुछ की आशा में आया था लेकिन यहाँ तो अलग ही माजरा मिला, सो बड़बड़ा रहा हूँ। अन्यथा न लें)
ज्ञान का कूदने से कोई सम्बन्ध नहीं है। ऐसा होता तो सारे बन्दर ज्ञानी कहाते।
कुत्ते को ऐसे ही लात मारने की इच्छा का सम्बन्ध 'दिमागी कुकरौछी' से है। यह प्राय: हर निठल्ले के मन की खोह में अंगड़ाइयाँ लेती रहती है। इसका इलाज है कि व्यस्त रहिए, चाहे उसके लिए आँगन में बाँस गाड़ कर चढ़्ने उतरने की अनवरत क्रिया ही क्यों न करनी पड़े।
हाँ, यह पोस्ट घरवालों को न दिखाइएगा। स्वस्थ व्यक्ति के लिए मानसिक रुग्णालय बहुत यातनाकारी होता है।
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मुझे तो यह सीख बहुत जमी
“. . .सच बोलते समय अपनी हार्ट बीट्स और सांस पर नियंत्रण रखना है, चेहरे पर घबराने के भाव नहीं आने चाहिये, बिल्कुल रिलेक्स रहें और मुस्कुराते रहें । फिर बगैर सीरियस हुये वह बात जिसे आप छिपाना चाहिते हैं मज़ाक बना कर सबके सामने कह दीजिये । इससे सुनने वाले पर मनोवैज्ञानिक दबाव पड़ता है और वह उस बात को मानने से इंकार कर देता है । आप पर झूठ बोलने का पाप भी नहीं चढ़ेगा, दिमाग तरोताजा रहेगा कि आपने कुछ छिपाया नहीं ।”
देनदारी वाली बात से इत्तेफाक नहीं है क्यों कि ब्लॉगरी में मुफ्त का चलन है। मुफत में सलाह, प्रशंसा,वन्दना, गुरू चेलवाई, समर्थन और कमर्थन, गालियाँ और जूते, सहानुभूति, गोलबन्दी, वाट लगाना या लगवाना, दूसरे की न सुनते अपनी ही जोतते रहना, ग़लत लिख कर वर्तनी से लेकर व्याकरण तक के बारे में शिक्षा पाना, सेंटी हो जाना, दूसरों को सेंटी कर देना, बेनामी टिपियाना फिर उसका दूसरे बेनामी बन कर खंडन करना; फिर जूतम पैजार ….लम्बी लॉण्ड्री लिस्ट एकदम मुफ्त !
आप की इस सलाह में ऐसा क्या है कि एक लाख का प्रिमियम लगाए बैठे हैं? ससुरा सच तो वैसे ही सदाकाली दलिद्दर है।
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37. और अंत में वह टिप्पणी जो किसी वामपंथी ब्लॉग पर उदय प्रकाश वाले काण्ड के बाद किया था, दसएक मिनट दिखने के बाद लुप्त हो गई ! टाइप कर सेव नहीं किया था ऐसे ही लिख दिया था। याददाश्त के सहारे दुबारा लिख रहा हूँ:
" योगी आदित्यनाथ से ऐसे ऐसे लोग डरते हैं, इतने सारे ! कमाल है। हमारे इलाके में योगी जी आते रहते हैं, कभी मिले तो अवश्य बताऊँगा।
ये जनवादी लोग भी अजीब होते हैं। किसी को उपर उठाना हो तो _ड़ में बाँस कर के भी उठाना पड़े तो करेंगे। किसी को धँसाना हो तो ऐसा भेड़ियाधसान फैलाएँगे कि बस्स पूछो मत। अरे बख्श भी दो, बहुत हो गया।
"
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चलते चलते . .
इस पोस्ट पर सोनिया अम्मा के नैहर से सन्देशा (15 वें नम्बर पर है) क्यों आया ? ब्लॉग जगत के इंस्पेक्टर लोग बुद्धि भिड़ाएँ।
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चलते चलते . .
इस पोस्ट पर सोनिया अम्मा के नैहर से सन्देशा (15 वें नम्बर पर है) क्यों आया ? ब्लॉग जगत के इंस्पेक्टर लोग बुद्धि भिड़ाएँ।