रविवार, 25 जुलाई 2010

आवारा हूँ ...

आवारगी हमेशा बुरी नहीं होती। तब जब ब्लॉग जगत में यूँ ही निरुद्देश्य घूमा जाय तो यह बहुत अच्छी हो जाती है। हिन्दी सिनेमा को मैं निरर्थक मनोरंजन की एक विधा मानता था। पूर्वग्रह जब मस्तिष्क पर काई सा बैठ जाय और पसरता हुआ जड़ जमा जाय तो घातक रोग में तब्दील हो जाता है।
लगभग साल भर पहले की बात है। हिन्दी सिनेमा घृणा का घातक रोग लिए ब्लॉगरी के शुरू के दिनों में यूँ ही भटक रहा था  कि आवारा हूँ के इस लेख पर पहुँच गया।
... लगा कि जैसे राजदरी देवदरी प्रपातों के नीचे खड़ा हूँ - झर झर झर 
और सब कुछ धुलता चला गया। ...
हाँ, लिखा जा सकता है - किसी पर भी।हर किसी में कुछ न कुछ सार्थक होता है । सिनेमा तो कला है। सुख-दु:ख-जीवन की अभिव्यक्ति है! उस पर तो जाने कितने पन्ने रँगे जा सकते हैं !
मिहिर पण्ड्या अपने इस ब्लॉग पर अनवरत रचना संसार सृजित कर रहे हैं। सेल्यूलाइड पर अमर कर दिए गए दृश्य, ध्वनियाँ, गीत, संगीत, भावनाएँ, प्रकाश, अन्धकार .... सबको बहुत बारीकी से विश्लेषित करते हैं और तह दर तह खोलते जाते हैं। 

लाइट, कैमरा, ऐक्शन !!
ये तीन शब्द जो रचते हैं, उस पर बहुत कुछ रचा जा सकता है। ज़रा देखिए तो सही । बस समीक्षा नहीं, साहित्य भी मिलेगा।  
नेट की धीमी गति के कारण अब मैं यहाँ बहुत कम जा पाता हूँ लेकिन मेरा दावा है - आप निराश नहीं होंगे।   

बुधवार, 21 जुलाई 2010

लैंगिक अनुपात - कुछ उमड़ते प्रश्न

आज इन आँकड़ों पर दृष्टि पड़ी । जन्म के समय, दुहरा रहा हूँ जन्म के समय प्रति हजार बालकों पर बालिकाओं की राज्यवार संख्या इस प्रकार है। इसमें सारे राज्य नहीं दिखाए गए हैं। महाराष्ट्र , आन्ध्रप्रदेश, मध्य प्रदेश और तमिलनाडु को छोड़ दें तो लैंगिक अनुपात में सुधार दिख रहा है लेकिन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत आदर्श अनुपात 950 या उससे अधिक से भारत का वर्तमान लैंगिक अनुपात 904 अभी बहुत पीछे है।
राज्य सन् 2006-08 सन् 2001-03
पंजाब 836 776
हरयाणा 847 807
जम्मू कश्मीर 862 816
राजस्थान 870 855
दिल्ली 877 835
उत्तर प्रदेश 877 853
महाराष्ट्र 884 887
गुजरात 898 862
बिहार 914 861
आन्ध्र प्रदेश 917 932
मध्य प्रदेश 919 922
झारखण्ड 922 865
असम 933 904
तमिलनाडु 936 953
हिमाचल प्रदेश 938 803
पश्चिम बंगाल 941 937
केरल 964 892
छत्तीसगढ़ 975 964
स्थिति की जटिलता को और जटिल दर्शाता हुआ एक और आँकड़ा है जिसके अनुसार जन्म पूर्व गर्भ परीक्षण और उसके बाद गर्भसमापन की प्रक्रिया प्रति दिन 1600 बालिकाओं की जन्म पूर्व बलि ले रही है।
मन में कुछ प्रश्न उठ रहे हैं:
(1) कहीं ऐसा तो नहीं कि प्रकृति लैंगिक अनुपात को बालकों के पक्ष में रखना चाहती है? नवजात बालिकाओं में बालकों की तुलना में प्रतिरोध क्षमता अधिक होती है इसलिए उनके जीवित बचने की सम्भावना भी अधिक होती है।
(2) भारत की कुल जनसंख्या के कितने भाग की जन्म पूर्व गर्भ परीक्षण की तकनीक तक पहुँच है? उसमें से कितने इसके प्रयोग को सही मानते हैं या इसका वास्तव में प्रयोग करते हैं?
(3) भारत की कितनी जनसंख्या आर्थिक रूप से इतनी सक्षम है कि इन महँगे परीक्षणों का व्यय उठा सके? कहना न होगा कि ग़ैर क़ानूनी होने के कारण ये परीक्षण महँगे हैं।
(4) मनुष्य की सोच और अवचेतन का सामूहिक प्रभाव बहुत व्यापक होता है। मैं यह कहना चाह रहा हूँ कि लोग नर संतान चाहते हैं , उसके प्रति पक्षपाती हैं । इस प्रबल सामूहिक विचार की नकारात्मकता का ही तो प्रभाव नहीं है कि बालिकाओं की संख्या अपेक्षतया कम है? इस नकारात्मक सोच का प्रभाव निषेचन और गर्भ में लिंग निर्धारण की प्रक्रिया पर भी तो नहीं पड़ता ? 
(5) सांस्कृतिक और पारम्परिक रूप से कुछ राज्यों में बालिकाओं के प्रति द्वेष कमतर रहा है, जैसे - पश्चिम बंगाल, केरल, छतीसगढ़, झारखण्ड आदि। इन राज्यों की सामाजिक गढ़न नारी के लिए बेहतर रही है। इनमें से केरल और छत्तीसगढ़ दो राज्य ऐसे हैं जहाँ अनुपात 950 से भी अधिक है।
वनवासी या ग्रामीण, जिन अर्थव्यवस्थाओं में नारी की सक्रिय और बराबरी की भागीदारी रही है, वहाँ अनुपात बालिकाओं के पक्ष में रहा है। स्वतंत्रता के बाद हुए तेजी से हुई अनियोजित प्रगति का बुरा प्रभाव भी लैंगिक अनुपात में परिलक्षित होता है। पुत्र की सनातन कामना पिछड़ी कृषि आधारित अर्थव्यवस्था में थी तो लेकिन कृषि कार्य में नारी की सक्रिय भागीदारी ने उसकी स्थिति को 'स्वीकार्य' रखा। मशीनों के अभाव में हाथों का महत्त्व अधिक था - नर के हों या नारी के, अधिक अंतर नहीं पड़ता था। तकनीक तो थी ही नहीं कि भ्रूण परीक्षण हों और भ्रूण हत्या हो। अन्धविश्वास और संकीर्णता नारी के विरोधी तो थे लेकिन इतने प्रबल नहीं कि लैंगिक अनुपात पर घातक प्रभाव डाल सकें ।
अब स्थिति भयावह हो चली है। कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था होते हुए भी हरयाणा, पश्चिमी उत्तरप्रदेश और पंजाब जैसे भागों में हुए कृषि के मशीनीकरण और तकनीकी के प्रयोग ने समाज की सामंतवादी सोच को भी फलने फूलने के नए अवसर दिए हैं। पुरुष वर्चस्ववादी समाज आर्थिक रूप से चाहे कितना भी आगे बढ़ जाय, स्वस्थ और सुखी समाज की चन्द मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के मामले में पीछे ही रहेगा।  

शनिवार, 17 जुलाई 2010

हिन्दी ब्लॉगरी का सर्वश्रेष्ठ व्यंगबाज

सामान्यत: मैं सुपरलेटिव में बात करने से बचता हूँ। क्यों कि पग पग, रोज रोज औसत दर्जे का अभ्यस्त हूँ। अत्युत्तम लिखने के लिए बड़ी मेहनत करनी पड़ती है जो मुझ आलसी से कम ही हो पाती है। जब जब अत्युत्तम लिखता हूँ तो नियमित स्मार्ट भैया, सतीश पंचम और अरविन्द मिश्र जैसों का साथ देने अनूप शुक्ल और डा. अनुराग जैसे जन आ ही जाते हैं। लिखा हुआ अत्युत्तम है - यह निर्णय करने की मेरी तमीज नहीं, मैं तो बस इन लोगों के आ जाने से ही कयास लगा लेता हूँ। साथ ही यह भी समझ जाता हूँ कि अधिक मेहनत कर दिया और अब स्वास्थ्य का ध्यान रखते हुए दस पन्द्रह पोस्टों तक मेहनत स्थगित करना ठीक रहेगा (लिख तो दिया लेकिन अब स्मार्ट भैया वगैरह भी मुँह बिचका कर भाव न दिखाने लगें -  यह डर लग रहा है। ) 
बहुधा ऐसे मौकों पर समीर जी ग़ायब हो जाते हैं। यह समीकरण मुझे रोचक लगता है। आज कल हिमांशु जी, अदा जी और ज्ञान जी टाइप के लोग ग़ायब रहने लगे हैं। कोई  भगवान जैसा होता हो तो उन्हें कुशल मंगल से रखे। 
 खैर, टिप्पणियों के अलग अलग रंग देखने का मजा ही अलग है। रंग से याद आया - एक होते हैं 'रंगकार' और एक होते हैं 'रंगबाज'। उसी तर्ज पर एक होते हैं व्यंगकार और एक होते हैं व्यंगबाज । कार चाहे दुमछल्ला शब्द हो या चलने वाली - इसके लिए श्रम अपेक्षित है। रगडघिस्स किए बिना कोई 'कारवान' नहीं हो सकता। वैसे ही जैसे खान कुमार को अभिनय करने के लिए बड़ी और कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी - उन्हें मेहनत की ऐसी आदत लगी कि अंतिम फिल्म तक भी मेहनत कर कर के अभिनय करते रहे। अभिनय कर कर के अभिनय करते रहे। और कुछ न सूझा तो फ्रेम से जानी टाइपों  का थोबड़ा भी हटवाते रहे।
 'बाज' टाइपों के लिए सब कुछ सहज ही होता है। हो जाता है। आ जाता है। कभी बाज को आप ने हवा में उड़ते देखा है ? परम वैज्ञानिक डा.अरविन्द मिश्र जी की जुबान में कहें तो उनके जीन में कुछ अधिक ही मोड़ सोड़, वजन वगैरह होते हैं
अब तक आप लोग मेरी फालतू की भूमिका से तंग आ चुके होंगे। देखिए, बात यह है कि आज कल श्रेष्ठता का जमाना है। रोज रोज श्रेष्ठ लोगों को कान खींच कर सामने लाया जा रहा है। हिन्दी ब्लॉगरी में इतने श्रेष्ठ जन हैं, यह पता ही न चलता अगर यह अभियान न चलता। वैसे ही जैसे हर दसवे साल जनगणना होने पर ही हमें पता चलता है कि हम इतने ढेर सारे हैं और होते जा रहे हैं, बाकी समय तो हमलोग ढेरों ढेर लगाने में ही व्यस्त रहते हैं। आप लोगों को भी अपनी श्रेष्ठता के बारे में जानना हो, दूसरों की श्रेष्ठता से जलना हो और अपना नाम न देख कर इंतजार करना हो या सिर पीटना हो तो अभियान के सक्रिय पाठक बन कर लाभ ले सकते हैं।  
प्रेरणा भी अजीब होती है। वो वाली नहीं भावना वाली। भावना भी वो वाली नहीं भावना वाली (अमाँ मैं भटक रहा हूँ, खुदे समझ लीजिए)। ... तो अपन को भी कुछ अनूठा करने की खुजली हो रही थी, ठीक वैसे ही जैसे कभी रानी के डंडे को लेकर हो रही थी। आज भटकता हुआ अपने पुराने मुरीद के इस लेख पर पहुँचा तो खुजलाने को मन कर बैठा। 
कृष्ण मोहन मिश्र जी को मैं हिन्दी ब्लॉगरी का सर्वश्रेष्ठ व्यंगबाज मानता हूँ। कारें तो बहुत हैं लेकिन बाज एक ही है। वाकई सुदर्शन हैं । उनकी कोई फोटो मेरे पास नहीं है और उनसे अपील है कि कभी घूमते घामते यहाँ आएँ तो (उम्मीद कम ही है।) अपना सुदर्शनी फोटो मुझे मेल करें ताकि यहाँ लगा सकूँ।  {फोटो मिल गई, लग गई।} 
उनके  बारे में इतना पता है कि प्रयाग में उस पेशे में है जिससे बचने की प्रार्थना मुझ जैसे नास्तिक भी करते हैं - भाई साहब वकील हैं। न देखने से लगते हैं और न बातचीत से। कभी कभी लगता है कि मुझसे सुनने में भूल हुई होगी। स्पष्टीकरण भी उन्हीं के जिम्मे। 
 'मैला आँचल' नाटक में अभिनय भी किए थे। मुझे निर्माता की परख से ईर्ष्या होती है - मुझसे पहले ही ताड़ जो गया!  
... बात बहुत हो गयी । अब आप लोग जल्दी से यहाँ पहुँचें और बाजगीरी का मज़ा लें।     

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

रानी का डंडा - अंत

पिछले भाग से जारी .... 
(2)
गोरकी असल में एक भूतपूर्व एथलीट थी जिसका खेल जगत में योगदान भारत की फुटबाल टीम से कम नहीं था। घटित के तेज बहाव से निज़ात पाकर उसने अपने को ट्रैक्टर की चाल पर लुढ़कता पाया। संतुलन के लिए उसे कभी पाँड़े तो कभी रजुआ की देह का सहारा लेना पड़ रहा था। रजुआ मन ही मन भैया जी को गरियाए जा रहा था – कौन ज़रूरत रहे चिक्कन सड़क बनववले के ? सड़क खराब होती तो हचका जोर होता और सहारा देने के बहाने जाने कितनी बार गोरकी को अँकवार में ले चुका होता! ड्राइवर ने गेयर बदला और एक्सीलेटर चाँपा। पुराने आयशर के इंजन ने रेस लगाई – फट, फट , फट , फट .......... फट, फट,फट...... । डांस के प्रोग्राम के बारे में सोचता पाँड़े चिल्लाया,”बहानचो, अजुए सब कलाकारी देखइबे? एकदम सिलो चलाउ।“ सहारा लेती गोरकी ने कुछ संतुलन पाया तो आखिरी मदद के तौर मोबाइल निकाला हालाँकि उसे उम्मीद कम ही थी। पाँड़े ने देखा तो फिस्स से हँस दिया और अपनी जान में गोरकी को समझ आए उस तरह से बोला,”मैडम जी, इहाँ इसका नेटवरक नहीं चलेगा। बात करने के लिए उँचास छत पर जाए के परी...”। पाँड़े ने अपना चमचमाता चाइना मोबाइल निकाला तो गोरकी दंग रह गई। पाँड़े ने फुल वाल्यूम में गाना लगाया – “चोरबजारी दो नयनों की ...“
नाचsss रानी! अरे नाचsss!! गोरकी को यह आदमी अट्रैक्टिव लगने लगा था । भरी भींड़, सरकारी अधिकारी, पुलिस – इन सबके बीच पाँड़े द्वारा अपहरण कमाल प्रभावकारी था ही। यह सोच कि – लेट हैव फन, गोरकी ने पहला ठुमका लगाया तो भींड़ पगला उठी। पाँड़े के इशारे से ट्रैक्टर बन्द हो गया और रजुआ, बहोरना, पाँड़े, गोरकी ट्रॉली पर अजीबोग़रीब बेताल ताल हीन नाच में जुट हो गए।
लाला ने सफारी सूट पहने एक अधिकारी के सामने ठुमकना शुरू किया तो एक कार्यकर्ता ने अधिकारी का हाथ पकड़ उसे नचाना शुरू कर दिया। समाँ बँध गया। ट्रॉली पर गीत की धुन पर नाचते लोग तो नीचे जमीन पर तोंद लड़ाते लाला, अधिकारी, कार्यकर्ता ... पाँड़े के हाथ में रानी का डंडा रह रह ऊँचा उछ्ल रहा था। सोनमतिया की माई गुलगुल हो हँसे जा रही थी। बाकी औरतें लीन थीं – धन धन रानी !
(3)
ट्रैक्टर पहुँचने में देर होता जान भैया जी ने ह्विस्की का एक घूँट निगला और लखटकिया मोटरसाइकिल पर सवार हो चले। सड़क का काम खत्म होने के तुरंत बाद बड़े शौक से यह मोटरसाइकिल दिल्ली से मँगाए थे और उसे बहुत कम ही निकालते थे। रास्ते में ही जो नज़ारा दिखा उसकी कल्पना उन्हें भी नहीं थी।
पाँड़े होनहार था। उससे सतर्क भी रहना पड़ेगा। ऐसे पालतू कटहे बनने में देर नहीं लगाते।
मोटरसाइकिल को ट्रॉली के बगल में खड़ी कर भैया जी दहाड़े,”बन्द कीजिए यह भड़ैती।“ नाच को ब्रेक लग गया। पाँड़े सकपका कर नीचे उतर कर रानी का डंडा उनके हाथ में देने लगा। गोरकी तो ऑ स्ट्रक! अभी तक जिसे हीरो समझ रही थी वह तो प्यादा निकला! ये कौन आया? स्मार्टी। थंडरबर्ड बाइक ! वाव !!
रानी के डंडे को हाथ में ले उस पर उपेक्षा की एक दृष्टि डाल भैया जी अधिकारी सम्बोधन मुद्रा में आ गए,”इतने पावन अवसर पर आप लोगों को मसखरी सूझ रही है? भारत के किसी गाँव में पहली बार यह .. यह .... आया है। शर्म कीजिए आप लोग। इज़्ज़त बख्शने के बजाय नौटंकी? इंस्पेक्टर साहब ! अच्छा हुआ कि आप एस्कार्ट में हैं नहीं तो ये लोग तो इसका, इसका ... पीछे से लाला फुसफुसाए- बेटन... हाँ, बेटन की बेइज्जती ही कर डालते! चलिए आप लोग। वहाँ बेटन का विधि विधान से स्वागत होगा।” बाइक स्टार्ट करते भैया जी ने लाला पर कृतज्ञ दृष्टि डाली। रानी के डंडे को डंडा कहना पड़ता ! कितनी बेशर्मी होती !! लाला ने बचा लिया। उन्हें नाम भूल कैसे गया था?       
    
जुलूस चुपचाप चल पड़ा। घर के बगल से गुजरा तो रमपतिया भी लाठी ठेगता पीछे पीछे चल पड़ा। मार गई फसल लिए कोई किसान खलिहान जा रहा था क्या?   
(4)
भैया जी ने लव मैरेज किया था। दिल्ली की सरदारन जब दुलहिन होकर आई थी तो लड्डू तो बाद में बँटे, प्रायश्चित स्वरूप गाय का गुह मूत पहले ग्रहण करना पड़ा। जाति बिरादरी से बाहर करने के बजाय इसी पाँड़े के बाप ने यह रास्ता निकाला था। वक़्त के साथ दुलहिन ने अपने को ऐसा बदला कि लोग बाग सन्न हो गए। साड़ी पहने आधा सिर ढके जब दुलहिन तुलसी चौरा पर पयकरमा करती थीं तो लगता जैसे सछात देवी हों ! घर बाहर सब सँभालती दुलहिन आदमी जन की ‘दुलहिन भैया’ हो गई। आज कोठी के रजदुआरे पर दुलहिन आरती थाल सजाए खड़ी थीं।
भैया जी मोटरसाइकिल पर आते सबसे आगे दिखे पीछे टट्टर टाली पर गोरकी समेत सभी लोग। अगल बगल मोटरसाइकिलें, टाली के पीछे कारें और सबसे पीछे टीवी वाले। उनकी महतारी ने देखा तो उन्हें लगा कि टी वी वाले किशन कन्हैया महभारत में रथ दौड़ा रहे हों! जेवनार फेवनार भाखने लगीं।       
  
दुलहिन ने बुदबुदाते हुए रानी के डण्डे की आरती उतारने को दीप बालना ही चाहा कि भैया जी ने रोक दिया। पाँड़े को इशारा मिला और तुरत फुरत टी वी वाले कैमरा सैमरा तान कर तैयार हो गए। भैया जी ने फिटर्रे के कान में फुसफुसी की – लाइव और रिकार्डिंग दोनों । उसने सहमति में सिर हिलाया ही था कि दो अधिकारी आ कर भैया जी के आगे गिड़गिड़ाने लगे,”सर ! अब तक ठीक था लेकिन टेलीकास्ट हुआ तो ग़जब हो जाएगा। हम कहीं के न रहेंगे।“
भैया जी ने प्रेमिल स्वर में कृपा की वर्षा की,” अगर टेलीकास्ट नहीं हुआ तो आप लोग यहीं के हो के रह जाएँगे।“
शांति छा गई।
भैया जी डण्डे को लिए थंडरबर्ड पर सवार हो गए। बगल में गोरकी ओठ निपोरे आ सटी। दुलहिन ने दीप जला डण्डे को तिलक लगाया और आरती उतारने लगीं। पुरोहित जी ने स्वस्तिवाचन प्रारम्भ किया,” स्वस्ति नो इन्द्रो ..स्वस्ति नो पूषा...”।
फिटर्रे मनई ने माइक ले गद्गगद स्वरों में जोर जोर से रोदन सा पाठ शुरू किया,”दिव्य है यह दृश्य! ऐसा भारत के गाँव में ही सम्भव है। इतनी सरलता, इतनी आत्मीयता, इतना प्रेम और कहीं देखने को नहीं मिला। मैं भाव विह्वल हो रहा हूँ। राष्ट्रकवि की पंक्तियाँ याद आ रही हैं – अहो ! ग्राम्य जीवन ..... “
सबसे पीछे खड़ा रमपतिया आँखें पोछता बुदबुदाया,”अब बस अखबार में ही आस है।“

सारे तमाशे का अंत जब शंख ध्वनि से हुआ तो वापस लौटते तमाशबीनों में रमपतिया दूर सबसे आगे हो गया। ढलते सूरज के कारण लाठी ठेगते रमपतिया का साया राह पर कुछ अधिक ही लम्बा लग रहा था। सरकारी गाड़ियों ने लौटने में जो तेजी दिखाई वैसी तेजी अगर आज़ादी के बाद काम करने में दिखाई गई होती तो आज ....
हाइवे पर पहुँच कर अम्बेसडरों में मोबाइल पर बिन पूछे जाने किन किनको सफाई दी जा रही थी। जो चुप थे वे ट्रांसफर और सस्पेंसन से बचने की राह जोह रहे थे। गोरकी ने राह में उछ्लते छौने को देख ड्राइवर को कोंचा,” इट वाज ए रियल फन!” और आँख मार कर हँसते हुए गोद में पड़े बेटन को सहलाने लगी। भैया जी ...   
(5)
घर पहुँचते पहुँचते रमपतिया की तबियत खराब हो गई। खाँसी को किसी तरह काबू कर वह लेटा तो जो आँख लगी वह अधराति खुली। बाहर आया और अचानक दिन का देखा सुना नए नए अर्थ ले उसके दिमाग में घुमड़ने लगा। जब गाँव में यह हाल है तो शहरों में क्या होगा? निज़ाम, प्यादे, खिलाड़ी, समूची सरकारी मशीनरी, प्राइवेट पूँजीपति सभी बेटन बेटन ... उसने गिना। अखबार पढ़े हुए तीन महीने छ: दिन हो गए थे। करिखही रात को घूरते हुए तय किया कि आज अखबार लाएगा, पढ़ेगा और पढ़ाएगा। साइकिल तो अब चलने चलाने से रही। पैदल ही लक्ष्मीपुर स्टेशन को चल पड़ा। गाड़ी आने तक तो पहुँच ही जाएगा।

टेसन पर चाय पानी की तैयारी में जुटे मिसिर की दुकान पर ताजे और पुराने अखबारों को पढ़ कर वह तरो ताज़ा हो गया। मिसिर के बहुत रोकने पर भी वह अखबार हाथ में लिए गाँव को वापस हो लिया। आसमान में घनी बदरी छाई हुई थी। सुबह सुबह बला की उमस थी।

(6)
रजुआ ने घर घर घूम रमपतिया का सन्देशा पहुँचा दिया और दस बजते बजते एक छोटी भीड़ उसके दरवाजे पर इकठ्ठी हो गई। चौकी पर लेटे लेटे ही रमपतिया ने कहना शुरू किया,” अंत आ पहुँचा है। आप सब से भेंट करना था और अपना फर्ज अदा करना था सो बुला लिया। बड़ छोट सब माफ कर दें। महीनों के बाद आप को अखबार सुनाना अच्छा लगेगा। इस बार खबर नहीं, खबर का अर्क बाटूँगा।  कल जो रानी का डण्डा आया था वह साधारण नहीं था। गए ज़माने की रानी, सात समन्दर पार की अब की रानी, अपने देश की रानी और इस प्रदेश की रानी और उनके निज़ाम ....” खाँसी आई तो मुँह से खून निकल पड़ा... रुक कर पोंछते हुए उसने पूरा किया ,”सब एक ही थैले के चट्टे बट्टे। डंडे की माया सभत्तर है। यह डंडा मन्दिर में शीश नवाता है और लाइन में लगे लोगों की जेबें भी साफ करता है। कॉमनवेल्थ का प्रतीक है यह। कॉमन माने सबका और वेल्थ माने धन – सबका धन। घूम घूम कर खेल खेल में सन्देश फैला रहा है। धन तो सबका है। चाहे यहाँ रहे या वहाँ, क्या फर्क पड़ता है? बहोरना की जेब का हजार और बाहर देश के खाते में हजार करोड़ सब बराबर हैं। सबके हैं – इधर उधर से क्या?  बिधायक का टट्टर, लाला का लोन, सोनमतिया की माँ का पेंशन, गन्ने का पेमेंट ... यह सब छोटी बाते हैं। या तो मिलते नहीं, जो मिलें तो हजार बन्दिशें ! सरकार की माली हालत दुरुश्त है। बाहर साख मज़बूत हुई है। हम अब धनी कहाने लगे हैं। देखिए न, नरेगा के नाम पर सरकार आप सबकी दारू बोटी का जुगाड़ भी तो कर रही है!मालिक लोग खाते खाते कुत्तों के आगे भी तो फेंक देते हैं ! है कि नहीं? ” रुक कर उसने पानी पिया और मुँह से आते खून को फिर पोंछ दिया।
“स्कूल में बँटते खाने को किसी ने चखा कभी? पढ़ाई लिखाई फैलाने के लिए रानी ने जो धन यहाँ भेजा था उससे लोगो ने एसी, टीवी और जाने क्या क्या खरीद डाले! 2400 करोड़ रूपए के भ्रष्टाचार का खुलासा हुआ है। रानी के प्रधानमंत्री ने तो कह दिया है कि इस बार अनुदान में भारी कटौती होगी। भारत के धनी लोग ग़रीबों की मदद करें। ...ग़रीबों की मदद में उसने यहाँ डण्डा भेज दिया है। पूरा देश पगलाया स्वागत में जमींदोज हो रहा है और उधर दिल्ली खुदी पड़ी है। उसके गड्ढों में रोज करोड़ो डाले जा रहे हैं। गड्ढे हैं कि भर ही नहीं रहे।  जिन ताल पोखरों की गहराई बढ़ा कर, बन्धा बना कर आप लोग गुलगुल हैं, उनमें पानी कहाँ से आएगा? इसके लिए पैसा आ कहाँ से रहा है? कभी सोचा? .... कौन यहाँ ग़रीब नहीं है? धनिक भी बिखरे पड़े हैं - अफरात लेकिन उनसे मदद मिलेगी आप को?” उसकी आँखों की चमक दुगुनी हो चली थी जैसे भभकता दिया बुझने की तैयारी में हो!
“... माया से निकलिए। डंडे की मार को समझिए। दिल्ली तो फिर सज सँवर जाएगी, नौटंकी भी खत्म हो जाएगी। लेकिन डण्डे के झंडाबरदारों ने आप की जो हालत हमेशा के लिए गढ़ कर फाइलों में रख दी है, उसका क्या ? ....” चुप हुआ और मुँह खुल गया।           
अखबार के पन्ने हवा से इधर उधर उड़ने लगे। रमपतिया ने हिचकी ली, उसका मुँह और खुल गया। पास खड़े लोगों ने देखा खुले गले में खून का भभका उपराया और फिर भीतर चला गया। बात बेबात दाँत चियारने वालों की तरह उसकी बतीसी उभर आई। आँखों की चमक आसमान ताकती रह गई और सिर अकड़ गया जैसे किसी भदेस मजाक पर मज़ा लेते आदमी को फ्रेम कर दिया गया हो। भैया जी के कार्यकर्ता ने उसके चेहरे पर अपना गमछा डाल दिया। गुमुन्द बदरी से टपाटप बूँदे गिरने लगी थीं।        
दूर राजधानी में तीखी धूप में ही अचानक बारिश शुरू हो गई। गोरकी ने रानी के डंडे को भीगने से बचाने के लिए रंग बिरंगी छतरी तान काला चश्मा चढ़ाया और दूरस्थ कैमरे के लिए बेपरवा पोज देने में व्यस्त हो गई।
 
... मुँह में गमछा ठूँसे भीगता बहोरना सोचे जा रहा था,”इस देश को एड्स हो गया है। जुलूस निकलते रहेंगे कभी बैनरों के साथ और कभी डंडे के साथ। बीमारी वैसी की वैसी रहेगी। ... भगवान रमपतिया जैसी मौत किसी को न दे।“ (समाप्त)          

मंगलवार, 13 जुलाई 2010

रानी का डंडा

(1) 
मिडिल स्कूल के फील्ड में रानी का डंडा आने वाला था। गाँव भर जोशो खरोश में होश खो तैयार हो रहा था।
सोनमतिया बेटी के केश सँवार रही थी। उसने बेटी को एक धौल लगाया,” मोछिउखरनी, कहेलीं कि साबुन नाहीं बा त रोज काँचे पानी से सलवार समीज धो देहलि करु। कैसन महकता। लोगवा का कही रे ?” danda
बेटी ने जवाब दिया,” माइ रे, तोर मोछि कहाँ बा जो उखरी?”
धत्त! कह कर सोनमतिया पहले हँसी और फिर नम हो गई आँखें पोंछने लगी। उसके मरद को मरे तीन साल होने को आ रहे थे।
लाला अपने दुआरे बहोरना के साथ गम्भीर विमर्श में व्यस्त थे। “रानी के डंटा के मतलब का ? आखिर ई आवता काहें हो?”
पछिमही बोली में बहोरना बोला,” लाला, सात समन्दर पार से कभी एक रानी हम पर राज करती रही। उहे अंग्रेज राज के अब के रानी डंटा भेजिस है। पहिले तो वो सब डंटा मार मार पीठ की खाल उधेड़ राज किए अब खेल खेल में उसकी याद दिला रहे हैं। राजदंड तो सुनै होगा। एक तरह से वही समझ लो। बड़ी इज्जत है उसकी। सुना है बड़े बड़े लोग लुगाई उसके साथ चल रहे हैं। सिक्योरिटी एक्दम टैट है।“
लाला बुदबुदाए,”बड़वार लोग मजा लेवे खातिर भी डंटे ले घूमेला।“

दोनों मिडिल स्कूल के फील्ड की ओर चल दिए। वहाँ लोगों का जुटान अभी शुरू हो रहा था। बहोरन को लगा कि एक हरमुनिया की कमी है नहीं तो अभी लौडस्कीपर पर बजती तो कितने लोग जुट जाते। फिर उसने खुद को कोसा, “अरे, हरमुनिया क्यों बजेगी? कोई नौटंकी थोड़े हो रही है?” मन के किसी कोने ने सरगोशी की – ये नौटंकी ही तो है। बात बढ़ाने की गरज से नए पीपल के नीचे लाला को ले पहुँचा जहाँ दो तीन और खड़े थे।
बहोरना बोला, "अरे, सुना है कि रानी के डंडा बहुत दिन से घूम रहा है, हम्में कौनो खबरे नाइँ!"
रजुआ ने खबर की अखर को आगे बढ़ाया,
"खबर का लंड होई! बिसवरिया से बिजली नपत्ता बा। टीवी चलते नैखे। रेडियो त घर घर बिगड़ल धइल बा।"
लाला कब चुप रहने वाले थे, बोल पड़े "अरे, आवेले - राति के एगारे बजे अउर बिहाने चारे बजे फुर्र! उहो रेगुलर नाहीं।"
"त लाला, दुन्नू परानी रतजग्गा करss जा।"
"हे बुरधुधुर, लोग का कही रे? सगर गाँव सुत्ता परि गे अउर लाला ललाइन जागल का करता? उहो ए उमिर में!"
इस बात पर सब लोग पिहिक पिहिक हँसने लगे। लाला जारी रहे,
"वैसे ई बाति हम ललाइन से कहले रहलीं त ऊ कहली कि लनटेम बारि के बिजली अगोरले से का होई? राम जाने आई कि नाहीं। माटी के तेल जरी अलगे से। नज़र सेंकले के शौक बा त बैटरी के जोगाड़ करss"
रजुआ ने याद दिलाया कि बिधायक के यहाँ छोटा टी वी था जो ट्रैक्टर की बैटरी से चलता था। बहोरना ने याद पर वर्तमान का लवना लगाया," का रजुआ, जानते हुए भी अनजान बन रहै हो। मज़ा लेना कोई तुमसे सीखे। अरे लोन नाहीं जमा किए रहे सो बैंक वाले ट्रैक्टर खिंचवा ले गए।"
" हँ, बिधायक सोचलें कि वोहू के कर्ज़ा माफ हो जाई।"
बेचारे बिधायक का बस नाम ही विधायक। सो उसका सारा विधि विधान पब्लिक के उल्टा पुरान का अंग बन गया था।
"भाई, कल पुरजा के चीज में माफी नाहीं चलेले।
सरकारो बड़ी चँलाक हो गइल बा। कल-पुर्जा एहि से दिन रात बढ़ावतिया। अब बैंकवे में देख sss। कारड डार। बटन दबाव ss। कड़कड़ौवा नोट हाथे में। कुछ दिन के बादि कर्जा वसूलियो एहि तरे होई। कड़कड़ौवा नोट लेके मशीन में डारे के परी। कौनो माफी नाहीं। सरकार कही कि कल पुर्जा के बात में कउनो छूट नाहीं मिली।"
बात मजाक की थी लेकिन कई लोगों के दिलों में धुकधुकी होने लगी। मामला गम्भीर होते देख बहोरना ने शांति पाठ किया," अरे मशीन चलेगी तब न ss। बैंक में हमेशा तो खराब रहती है। खजांची बाबू खुदे नहीं चलने देंगे। बहाना एकदम टंच। बिजली नहीं रहती और बड़े जनरेटर का पुर्जा मिल नहीं रहा। मतलब कि कल पुर्जा की काट भी कल पुर्जे से। कर्जा माफी होती रहेगी, निश्चिंत रहें।"
लोगों की धुकधुकी फिर कच्ची लीक चलने लगी। अटकी साँसें सामान्य हो चलीं।
रानी के डंडे की बात सुन कर 'दिल्ली रिटर्न' रमपतिया अखबार वाले से भी नहीं रहा गया। लाठी ठेगते वह भी पहुँचा जहाँ की चौकड़ी अब दहाई हो रही थी। साँवला चेहरा काला पड़ गया था। देह के नाम पर ठठरी लेकिन आँखें बत्ती की तरह रोशन। देख के डर लगता था। उसे देख सब लोग दूरी बनाने लगे। उसने चर्चा का सूत्र पकड़ा," अखबार नहीं रहने से सूचनाएँ नहीं मिलतीं। मैं ठीक रहता तो अखबार से सूचना मिल गई होती। अब मोबाइल थोड़े रानी के डंडे के बारे में बताएगा!"
रमपतिया पिछले तीन महीने से बिस्तर पकड़े हुए है। ठीक था तो लक्ष्मीपुर टेसन से जाकर भोरहरे अखबार ले आता था। गाँव में दो तीन ग्राहक थे, बाकी कुछ गिने चुने लोग उधरिया एक दिन की बासी खबर पढ़ते थे, देश दुनिया की खबर से लेकर नरेगा के घपलों तक से वाकिफ रहते थे। सबसे बड़ी अचरज की बात यह थी कि क़स्बे गए लोग अखबार पढ़ आते थे लेकिन बस लोकल खबर। फ्रंट पेज की खबरें जब तक कोई विवेचित न करे, उनकी समझ में न आती थीं और न ही वे कोई रुचि ही रखते थे। पढ़ी हुई बातें भी छिपा कर रखी जातीं और ऐसी जुटानों में चटकारेदार मनोरंजन का सामान बनतीं।
ऐसे में रमपतिया की महत्त्वपूर्ण भूमिका उसकी बीमारी के कारण समाप्त हो चली थी। गाँव में अब सहज हो चली उदासीनता के कारण उसका एक तरह से लुप्त हो जाना भी किसी को नहीं अखरता था।
रजुआ ने उसे कोंचा," त भैया कैसे बेराम परि गइल? टी बी हे का ??"
रमपतिया की बीमारी के बारे में तरह तरह की बातें गाँव में प्रचलन में थीं, बात साफ करने के लिए रजुआ ने मौके का फायदा उठाते हुए यह प्रश्न किया था।
रमपतिया की आँखों में गर्वीली चमक आई और खाँसते हुए उसने बताया,"मुझे एड्स हो गया है।"
रजुआ ने इस बीमारी के बारे में सुना भर था। जान बूझ कर बनाते हुए बोला," अँड़ास? ई कौन बेमारी हे?"
रमपतिया की खाँसी खामोश हो गई। उसने डाँटते से स्वर में जवाब दिया," अनपढ़ तो हो ही, कान भी खराब हो गए हैं क्या? एड्स कहा एड्स। बहुत भारी बीमारी है। एक्के दुक्के को ही होती है लेकिन इसके लिए प्रधानमंत्री से लेकर फिल्मी हिरोइनें तक फाइव स्टार होटलों में मीटिंग करते हैं। भरी दुपहरी पोस्टर बना जुलूस निकालते हैं। जिसे कभी साक्षात न देख पाओ उसे इन जुलूसों में देख लो। बस बम्बई, दिल्ली जाने की ज़रूरत है। अँड़ास ! हुँह"
लोगों को भौंचक करने के बाद रमपतिया लाठी ठेगते चल दिया।
बीमारी का इतना घमंड ! लोगों के अचरज पर बहोरना ने मुलम्मा चढ़ा कर उसे सामान्य करने का प्रयास किया," ये बीमारी कई लोगों से देंहजी सम्बन्ध बनाने से होती है। हमको हमेशा शक था कि अखबार के बहाने ये भिंसारे क्या करने जाता है? सारी कमाई टेसन के बगल में उड़ा आता होगा। भिंसारे कुकर्म! छि:"
लोगों ने इशारे समझे और बहोरना की कल्पनाशक्ति पर शक करें कि शोर उठा," डंटा आ गइल! बेटहनी डंटा आ गइल!!"
लाला को हँसी आ गई,"बेटन बेटहनी हो गइल। ई रजुआ के खेला हे। सारे घूम घूम के कलिहें से बतावता।"

रानी का डंडा बड़ी शानदार कार से उतरा। उसे हाथ में लिए काला चश्मा लगाए जो नार निकली वह बिटिहनी थी की औरत? पता नहीं चल रहा था। लाला ने यह भी नोटिस किया कि वह थी तो देसवाली लेकिन अंग्रेजन सी दमक रही थी। ब्लाउज जैसा जो कुछ उसने पहन रखा था वह खतरनाक स्तर तक नीचे की ओर कटा हुआ था। लाला को सनसनी होने लगी लेकिन फिर ललाइन की सोचे तो सनसनी शांत हो गई। उन्हों ने बहोरना के कान में फुसफुसी की – गोरकी के देख! मस्त माल !!
कार के साथ इतनी गाड़ियाँ की पूछो मत – जीप पर पुलिस वाले। अम्बेसडर से उतरे तोंदू लोग। कई मोटरसाइकिलों पर लखेरे और एक बड़ी सी वैन में ऊपर छाता ताने टी वी वाले। इंतजाम एकदम पोख्ता था।
गाँव के कुत्ते इकठ्ठे हो जोर जोर से भोंकते इधर उधर भागने लगे और लोग घेर कर तमाशा देखने लगे । रजुआ बेटहनी डंटा ली हुई बिटिहनी को घूरे जा रहा था। बहोरना ने सब छोड़ डंडे पर ध्यान केन्द्रित किया। बे सूल साल का डंडा - न किसी को मार सको, न डरवा सको और न पड़रू हाँक सको ! ऊपर से डिजायन बना उसे भी जनाना बना दिए थे। ठीक है, आदमी हाँकने के लिए डंटा अउर तरह का होना चाहिए। उसे भैया जी और उनके आदमियों की अनुपस्थिति पर भी आश्चर्य हो रहा था। होगी कोई बात, सोचते हुए उसने सिर झटक दिया।
एकाएक गोरकी ने डंडे को ऊपर किया और कुछ हे हू जैसा बोला। ब्लाउज ऊपर को खिसकी तो छातियाँ उभर आईं। सनसनाया रजुआ फिलिम की तरह की गोरकी को देखे कि डंडे को ? आँखें फट गई थीं।
भरे दिन में भी लैट जला कर कैमरा चलवा एक फिटर्रा मनई जोर जोर से चिल्लाने लगा,” अभूतपूर्व है! अभूतपूर्व है यह नज़ारा!! इंसान के भाईचारे की भावना को लिए यह बेटन पहली बार किसी गाँव में आया है। देखिए गाँव वालों को, कितने खुश हैं ! सच है भाईचारे की भावना अमीरी गरीबी, गाँव शहर, जाति पाति , धर्म मज़हब कुछ नहीं देखती। हमें उम्मीद है कि इस बार के खेलों से वह घटित होगा जो कभी नहीं हुआ।“
कैमरा बन्द करवा कर उसने पसीना पोंछना शुरू किया,”शिट ! ये उमस, धूल धक्कड़।“

जिस समय फील्ड में यह सब होना शुरू हुआ था, उसके कुछ पहले यशवंत प्रधान के यहाँ दो तीन लोग आग बबूले हो रहे थे। पांड़े बोला,” ई कौन कायदा ? डंटा परधान के इहाँ न आई ?”
यशवंत पढ़े लिखे युवा थे। उन्हें फील्ड पर जाने में कोई उज्र नहीं था लेकिन कचोट यह थी कि कुँवर बाबा ने डंडे के आने की खबर उन्हें एडवांस में नहीं बताई। मैडम आती हैं तो कितनी अच्छी व्यवस्था कराई जाती है ! इस बार कोई इंतजाम नहीं कर पाए। हाथ मलते घूम घूम सोच रहे थे, टीवी पर आने का मौका विचल गया !
 पाँड़े ने समाधान दिया।
“भैया हो ! टट्टर ले के जातनी। सबके इहें ले आवतनी।“ मौन सहमति पा कर पाँड़े ने ट्रैक्टर ट्रॉली स्टार्ट किया और भैया जी के दसियो कार्यकर्ता उस पर सवार हो फील्ड की ओर चल दिए।
टी वी वालों ने समेटना शुरू कर दिया था और गाँव वाले ? ग़जबे निराश थे। इतने का ही इत्ता सारा हल्ला था! सब तैयारी धरी ही रह गई – न खेल, न तमाशा, न भाषण। औरतें रजुआ को कोस रही थीं कि भैया जी का ट्रैक्टर आ पहुँचा। पाँड़े सीधा गोरकी के पास पहुँचा और डंडे को करीब करीब छीनने लगा। फिटर्रे मनई ने फौरन कैमरे वाले को इशारा किया और जोर जोर से अभी शुरू ही किया था,” कुछ असामाजिक तत्त्व ...” धप्प! एक कार्यकर्ता ने कैमरे के लेंस पर गमछा पहना दिया। दूसरे ने फिटर्रे का हाथ जोर से दबा कर चुप रहने की शिक्षा सेकंडों में दे दी। तीन कार्यकर्ता दारोगा जी से बातें करने लगे।
गाँव वाले तो लहालोट! अब मज़ा आई!! पाँड़े ने गोरकी को कहा,” कारे में नाहीं, टाली पर चले के परी हो रानी! पूरा जुलूस निकली, गाँव भर घूमी। ऐसहे कैसे चलि जैबू? ”। जाने पाँड़े की वज्र पकड़ का प्रभाव था कि ‘रानी’ नाम का कि ‘रानी’ सम्बोधन का – गोरकी ट्रॉली में सवार होने के प्रयास करने लगी। रानी का डंडा पाँड़े के हाथ में था। रजुआ और बहोरना गोरकी को ट्रॉली पर सवार कराने के बहाने जिस्म की नरमी का अन्दाजा ले रहे थे। बाकी कार्यकर्ताओं ने टीवी वालों को और साथ में आए साहब लोगों को भी ट्रॉली पर चढ़ा दिया। पाँड़े ने जोर से नारा लगाया,” बोल रानी के डंटा के ...!”
“जय!” गगनभेदी समवेत स्वरों में मंगलकामना लिए अभिवादन गूँजा। प्रजा धन्य हो उठी । जुलूस चल पड़ा। दारोगा जी की गाड़ी सबसे पीछे एस्कॉर्ट की तरह लग गई। लाला से बहोरना बोला,” ये है गँवई स्वागत! रानी का डंडा भी याद रखेगा। हम तो कहे कि दुर्गाधसान के टैम से भी बढ़िया है नज़ारा !आरकेस्ट्रा के कमी रही सो गोरकी पूरी किए दे रही है।” (अगले भाग का लिंक )

रविवार, 11 जुलाई 2010

इतिहास का मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत - 3

इतिहास का मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत – 1
इतिहास का मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत - 2
मार्क्सवाद में उत्पादकता को ही हीन दृष्टि से देखने की प्रवृत्ति भी है। जैक लंडन, जो अब कम्युनिस्ट के बजाय एक लेखक के रूप में अधिक जाने जाते हैं, ने कहा था कि अपने दूसरे साथियों की तुलना में अधिक उत्पादक मज़दूर पहले से ही ‘हड़ताल भेदी’ होता है। यह विचार तो ऐसा ही है कि उत्पादकता में वृद्धि को मज़दूर के शोषण का हिस्सा मान लिया जाय।
दुर्भाग्य से बिना बढ़ी हुई उत्पादकता के श्रम का 90% भाग खेती बाड़ी में लगा रहेगा जब कि आज अमेरिका में आज 2% से भी कम श्रम खेती में लगा हुआ है और बाकी का 98% दूसरी वस्तुओं के उत्पादन में लगा है। यह ‘दूसरी वस्तुएँ’ही मार्क्सवादी आर्थिक तंत्र की समस्याएँ हैं। मार्क्स के ज़माने में ब्रिटिश उद्योग का बड़ा हिस्सा रेलवे के निर्माण में लगा था। ऐसा लगता है कि मार्क्स को यह भरोसा हो चला था कि एक बार रेलवे का काम पूरा हो जाने के बाद मज़दूरों और पूँजी दोनों के पास करने को कुछ नहीं रहेगा। लेकिन यही तो पूँजी के मायनों की कुंजी है। पूँजी ज्ञान है। पूँजी कल्पना की शक्ति है। पूँजी निवेश को मशीनरी निर्माण के रूप में सोचा जा सकता है लेकिन पहले मशीनरी के उपयोग और उद्देश्य के बारे में सोचा जाना चाहिए। नए उद्देश्यों के लिए नए उत्पादों के बारे में सोचना अनिवार्य है। लेकिन नए उत्पाद, नए उपयोग और नए उद्देश्यों की परिकल्पनाओं में मशीनरी बस एक हिस्सा भर हो सकती है। यह भी हो सकता है कि यह एक हिस्सा जितनी भी न हो। इसे सरलता से ऐसे समझा जा सकता है कि काम करने के अलग तरीके नए ज्ञान और नई पूँजी को निरूपित करते हैं। इस प्रकार, आधुनिक अर्थशास्त्र में ‘मानव पूँजी’ की अवधारणा स्थान बनाती है जिसका निहितार्थ यही है कि कुछ लोग काम को औरों से बेहतर तरीके से करना जानते हैं। ग़लत तरीके से परिकल्पित निवेशों में पूँजी का मूल्य ही उड़न छू हो जाता है। सिद्धांत यह है कि “जो डूब गया वह डूब गया”। ऐसे हर निष्फल निवेश, जिसमें कि पूँजी डूब चुकी है, के लिए एक समय ऐसा आता है जब इसे त्याग देना होता है।
इस प्रकार पूँजी के काल्पनिक स्वभाव वाला मार्क्सीय सिद्धांत मार्क्स की सोच की दरिद्रता को दर्शाता है। मार्क्स यह सोच समझ ही नहीं पाए कि लोग अपनी पूँजी का उपयोग कैसे कर पाएँगे। पूर्णत: नए उत्पाद और उद्योगों का प्रकटीकरण और उनका पूँजी निवेश के द्वारा सम्वर्धन एक ऐसी प्रक्रिया थी जो मार्क्सवादी अर्थशास्त्र की समझ के बाहर की बात थी। शायद उन्हों ने यह सोचा कि द्वन्द्वात्मक सिद्धांत द्वारा प्रदत्त सहज स्वाभाविक अवधारणा से प्रेरित हो एक दिन अशोषित मज़दूर साथ बैठेंगे और सेल फोन बनाना शुरू कर देंगे। चूँकि मार्क्स ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें यह कभी नहीं पता था कि पूँजी का करना क्या है, उन्हें इसकी उपादेयता का भी पता नहीं था। उनका सिद्धांत आधुनिक राजनीति शास्त्र की सतही आर्थिक समझ से जुड़ता है।
‘मानव पूँजी’ के साथ इसका व्यवहार और बुरा है। बहुधा नस्ली अल्पसंख्यक लोगों द्वारा शुरू किए गए छोटे व्यापार प्रक्रम जो कि बिजनेस स्कूलों के बजाय सहज घरेलू, पारम्परिक और अनौपचारिक रूप से सीखे गए गहन ज्ञान से चालित होते हैं; मार्क्सवादियों द्वारा सन्देह, निन्दा और घृणा की दृष्टि से देख जाते हैं। उनके अनुसार छोटे धन्धे चलाने वाले लोग यथा यहूदी, दक्षिण पूर्व एशिया के चीनी, अफ्रीका के भारतीय, हार्लेम के कोरियाई आदि लघु स्तर के पूँजीवादी शोषण कर्म में रत हैं। वे लोग ‘’क्षुद्र बुर्जुआ” हैं जो बढ़ते हुए एकाधिकारवादी पूँजी तंत्र द्वारा निगल लिए जाएँगे। मार्क्सवादी ज्ञानियों के लिए ऐसे ‘दक्षिणपंथी सोच’ वाले केवल निन्दा के पात्र हैं। यह विचार केवल नासमझी और अविश्वास की दृष्टि से देखा जाता है कि इस तरह के उद्यम न केवल अल्पसंख्यकों और व्यक्तियों की आर्थिक सफलता के स्रोत हैं बल्कि पूर्णरूपेण अर्थतंत्र में हुई उन उत्पादन क्रांतियों के भी स्रोत हैं जहाँ किसी के गैराज में फोर्ड मोटर या एपल कम्प्यूटर जैसे प्रक्रम जन्म लेते हैं ।
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दोनों स्टीव उस गैराज में जहाँ से एपल कम्प्यूटर उद्यम की यात्रा प्रारम्भ हुई 
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स्टीव जॉब्स एपल-2 के साथ
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एपल कम्प्यूटर का प्रसिद्ध अत्याधुनिक स्टोर 
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आज का एपल कम्प्यूटर उत्पाद - आइ मैक
एक क्षुद्र बुर्जुआ नवरचयिता लघु उद्यमी की यात्रा
ऐसा सोचने वालों में वे लोग भी सम्मिलित हैं -कुछ यहूदी भी उदाहरण हैं- जिनके अपने परिवारों में भी बहुत छोटे स्तर के बावज़ूद ऐसे नवप्रवर्तन, नवरचना और सफलता की परम्परा रही है।
इस प्रकार हम पाते हैं कि मार्क्स का पूँजी पर कोई भरोसा नहीं था। उन्हों ने आविष्कार और नवप्रवर्तन के स्रोतों को नहीं समझा और उनके अनुसार एकाधिकारवादी पूँजी द्वारा लघु उद्योगों और उद्यमियों का उन्मूलन केवल अपेक्षित ही नहीं बल्कि प्रक्रिया का एक आवश्यक अंग भी है। (जारी)
डा. केली रॉस के मूल अंग्रेजी लेख  की अनुवाद माला का तीसरा पुष्प 

बुधवार, 7 जुलाई 2010

बन्द बन्द, कमर पर लात, फुटबाल के बहाने... फाइनल कब होगा ?

हम फुटबाल के सेमीफाइनल देखत देखत सोय गएन।

सपना देखे कि एक तरफ कंग्रेसी और दूजी ओर लाल गेरुआ सब एकै साथ आपस में फुटबाल खेल रहैन । थोड़ा अउर ध्यान से देखै तो फुटबाल की ज़गह अपने लखनलाल का कॉमन मैन (स्टुपिड) दे दना दन लात खाए जा रहा था। रेफरिया 'बन्द बन्द' चिल्लाय रहा था। सीटी बजी तो नींद खुली देखा भोर हो रही थी। मलिकायन भी मेरे चौंक उठने से जग गई थीं - मैंने उन्हें बताया भोर के सपना सच होत है।
कहा कमर पर ऑयोडेक्स लगाय दो, बड़ी पिराय रही है। लात तो हर जगह पड़ी है लेकिन कमर पर कमीनों का जोर अधिक था।
जाने कितनी दफा और लात खानी है! जाने फाइनल कब होगा ? 

रविवार, 4 जुलाई 2010

भारत बन्द ... बन्द कीजिए फालतू की नौटंकी !

5 जुलाई को सत्ता के दलालों ने आम जनता को न्यौता दिया है - भारत को बन्द करो ! आप से अनुरोध है कि इस वाहियात न्यौते पर अमल न लाइए। काम कीजिए। इस दिन दो के बजाय चार फाइलें निपटाइए। रुके हुए पेमेंट कराइए। दुकान पर ग्राहकों से थोड़ा और प्रेम से बतियाइए। कोई रुका हुआ फैसला ले लीजिए। ... उन्हें बताइए कि भारत बन्द नहीं हो सकता! गए वो ज़माने !! अब यह देश चल पड़ा है। दौड़ने को कहो दौड़ेगा, रुकने को कहोगे तो तुम्हें रौंदेगा। नौटंकी अब गली गली नहीं रंगशालाओं में ही होगी और कायदे की होगी - भँड़वागीरी नहीं चलेगी।
मैं सत्ता में बैठे लोगों का एजेंट नहीं - कोई भी शासन में होता, इस तरह से भारत बन्द का समर्थन मैं नहीं करता। क्या है मुद्दा ? यही न कि पेट्रोलियम पदार्थों के दामों में वृद्धि हुई है ! असलियत मालूम है आप को ? सब्सिडी का खून कब तक चाटते रहेंगे ? रसीला गोस्त तो वे चाभ रहे हैं जिनकी तिजोरियाँ यहाँ नहीं स्विट्जलैण्ड में हैं। होश में आइए !
कितनी बार आप लोगों ने भारत बन्द किया है:
- जब सिनेमा के टिकट के दाम बढ़े हैं ।
- जब किसी मॉल में दो पैसे की चीज दस रुपए में चाभे हैं और चटकारे ले दोस्त परिचितों पर भाव जताए हैं ।
- हर महीने दो महीने पर जब दूध के भाव बढ़े हैं ।
... यह लिस्ट अंतहीन है।
भरतों की संतानों ! जिस रसमलाई की आप को आदत पड़ चुकी है, वह बहुत दिनों तक नहीं मिलने वाली। ज़हर बन कर समूचे तंत्र को डायबिटिक बना रही है। अनुशासित होइए। अभी पहला स्टेज है। गनीमत है। दूसरे स्टेज पर रोग असाध्य हो जाएगा। ज़रा इंटरनेट पर दुनिया के दस सबसे ग़रीब देशों की अवस्था से परिचित हो लीजिए। भारत बहुत अलग नहीं है।
ग़रीबी दान और भीख से नहीं, उद्यम से जाती है। सब्सिडी देने के लिए पिछवाड़े से पैसा काटने का रिवाज अधिक खतरनाक है। बेहतर है कि यह टीस मारते हुए भी कि  उफ! बहुत महँगाई है, सही कीमत अदा की जाय और अनुशासित हुआ जाय।
पेट्रोलियम पदार्थ विकास के लिए अनिवार्य हैं और उनका अनुशासित हो कर उपयोग आवश्यक है । क्यों कि तमाम ग्रीन स्रीन, वार्मिंग ठंडी, सोलर पोलर, हवा हवाई हल्लों के बावजूद मानव सभ्यता अभी तक इनके ऐसे विकल्प ढूँढ़ नहीं पाई है जो इन्हें प्रतिस्थापित कर दें। और ये दिन ब दिन तेज़ी से घट रहे हैं । कारूँ के खजाने नहीं मिल रहे !
भारत सरकार के विज्ञापन से आप लोगों को अवगत कराता हूँ। यह कोरा सरकारी प्रचार नहीं है। इस देश के एक नासूर को खोल कर बताया गया है।
- भारत अपने कच्चे तेल की आवश्यकता का 80% आयात करता है। अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमतों में उतार चढ़ाव से घरेलू कीमतें प्रभावित होनी ही हैं।
- सार्वजनिक वितरण की केरोसीन की क़ीमत रु. 19 प्रति लीटर बढ़नी चाहिए थी जब कि बढ़ी सिर्फ रु. 3 प्रति लीटर।
- रसोई गैस की कीमत प्रति सिलिंडर रु.261 बढ़नी चाहिए थी जब कि बढ़ाई गई सिर्फ रु.35 प्रति सिलिंडर। साढ़े ग्यारह करोड़ परिवारों को सप्लाई की जाने वाली इस गैस के कारण अर्थ व्यवस्था पर कितना दबाव है, ज़रा हिसाब लगाइए। कैलकुलेटर लेकर 2599 के आगे कितने शून्य आते हैं ? गिनते रहिए ...
डीजल पेट्रोल का भी यही हाल है। एक बड़ा सीधा सा तर्क है कि डीजल का दाम बढ़ने से सारी वस्तुओं के दाम बढ़ते हैं।  सही है। इसीलिए यहाँ सरकारी नियंत्रण रखा गया है लेकिन बोझ उठाने की और सहने की भी एक सीमा होती है। जब अति हो जाती है तो ऐसे कदम लेने पड़ते हैं। कोई भी सत्ता में रहेगा, लेगा।  तरीके अलग अलग हो सकते हैं । कुछ आप को कम कष्टकारी लग सकते हैं, कुछ अधिक।
जरा अपने ग़रीब पड़ोसियों के यहाँ की क़ीमतों पर नज़र डालिए:
देश
रसोई गैस (रु. प्रति सिलिंडर)
केरोसीन (मिट्टी का तेल) प्रति लीटर
पाकिस्तान
577
    35.97
बंगलादेश
537
    29.00
  श्रीलंका
822
21.00
नेपाल
782
   39.00
भारत (दिल्ली की क़ीमतें, बाकी ज़गह थोड़ी कमी बेसी हो सकती है।)
345
12.32
कुछ समझ में आ रहा है ? मुर्गी को हलाल न होने दीजिए, सोने के न सही सामान्य अंडे नियमित मिलते रहेंगे। कभी कभी देखभाल का खर्च ज़रूर बढ़ेगा।   
अब आप बताइए:
- आप के यहाँ (4 का परिवार) एक सिलिंडर  कितने दिनों चलता है ? एक महीने ? एक महीने में रु. 35 अधिक देना हो तो हाय तौबा और मॉल मे एक दफे सिनेमा देखने जाने पर हजार रूपये फूँक देने पर वल्ला वल्ला ! कितनी बार आप सिनेमा देखने जाते हैं - महीने में ? कभी सोचा कि वहाँ 35 रु. की कटौती कर ली जाय? नहीं । क्यों ? - कीजिए। यह सरकार का नहीं आप के देश का सवाल है। बाहर से जब खरीदा जाता है तो डॉलर में भुगतान किया जाता है। विदेशी मुद्रा कोश प्रयोग में लाया जाता है। कुछ समझ में आया?
- कितनी बार रेड लाइट सिगनल पर आप गाड़ी बन्द किए हैं ? एक बार भी नहीं। क्यों ? हरी होते ही फुर्र से निकलने की जल्दी होती है। कितना समय बचता है? किसी पर इम्प्रेशन जमा रहे होते हैं? उस इम्प्रेशन की क़ीमत क्या है ?
- मिट्टी के तेल की चोरबाज़ारी है। सिलिंडर से गैस निकाल ली जाती है। कितनी बार आप लोग गोल बना कर इसके विरुद्ध खड़े हुए हैं? एक बार भी नहीं। क्यों? अपना क्या जाता है?
नेता जी कितनी बार आप को बुलाने आए हैं भारत बन्द कराने के लिए ?  एक बार भी नहीं। क्यों? अरे वही तो यह धन्धा सँभाल रहे हैं। मुद्दा उठा कर कौन उन्हें नाराज़ करे ?
ज़रा सोचिए। समस्याएँ आप से ही हैं और आप से/पर ही समाप्त होंगी । अपने भीतर  कुछ अनुशासन लाइए।
'भारत बन्द' का व्यय कितना होगा ? फिलहाल तो बढ़ोत्तरी के बावज़ूद तेल सब्सिडी पर व्यय रु.53000 करोड़ सालाना है। आप के पर्स से ही जा रहा है लेकिन जिस तरीके से जा रहा है वह तंत्र को रोगग्रस्त किए हुए है।